पुस्तक : दुखांतिका; लेखक : नवनीत नीरव; प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद; मूल्य : 300 (सजिल्द)
समीक्षक
डॉ कुमारी उर्वशी
मेरे इस लेख में शामिल लेखक ने कविता से कहानी की ओर रुख किया है और यह लेखक का पहला कहानी संग्रह है। इस बात से हम सभी परिचित हैं कि’कहानी’ का प्राचीन नाम संस्कृत में ’गल्प’ या ’आख्यायिका’ मिलता है और माना जाता है कि आधुनिक हिन्दी कहानी का जन्म वर्तमान युग की आवश्यकताओं के कारण हुआ। जब पद्य में अनुभूतियों को स्पष्ट करना मुश्किल महसूस हुआ तो गद्य का सहारा लिया जाने लगा। यथार्थ जीवन की समस्याओं को प्रकट करने में कहानियां ज्यादा सक्षम महसूस की जाने लगी। कहानियों को जीवन की नयी समस्याओं से जोङने का प्रयास सर्वप्रथम कथा सम्राट प्रेमचंद ने ही किया। इसी परंपरा के संवाहक हैं यह कथाकार।
नवनीत नीरव की  ‘दुखान्तिका’ अपने विषय वैविध्य में जीवन के प्रत्येक पहलू को समेटती हुई कहानियों का संग्रह है। हमारे समाज की वास्तविक परिस्थितियों का वर्णन वास्तविकता से लेखक ने किया है। इन्होंने व्यक्तिवादी परंपरा से ऊपर उठकर सामाजिक परंपरा,  सामाजिक मुद्दों, सामाजिक वास्तविकता से संबंधित कहानियां रची हैं।
नवनीत नीरव की अंतिका प्रकाशन से 2021 में प्रकाशित कहानी संग्रह ‘दुखान्तिका’ की कहानियां संजीदगी से विभिन्न सामाजिक परिदृश्यों का हिस्सा हम पाठकों को बनाती हैं। अलग आस्वाद की कहानियों वाले लेखक‌ के इस पहले संग्रह का स्वागत किया जाना चाहिए। ग्यारह कहानियों का ये संकलन समाज के बदलते माहौल में उलझे ताने बाने और उसमें इंसानी अस्मिता और पहचान का दस्तावेज सा प्रतीत होता है। नरबलि, आस्था के नाम पर खिलवाड़, शराब सेवन,ग्रामीण – क्षेत्र की हर छोटी -बड़ी समस्याओं का विवेचन,बावन कोट का मेला, लोक देवताओं के थान, तीज त्योहारों का वर्णन पढ़ते हुए लगता है कि हमारे गांव का परिवेश, परिवार,लोग, सामाजिक संवाद,शब्द सजीव होकर हमारी स्मृतियों को कुरेद रहे हैं।
घटनाओं की सच्चाई कहानियों को ऊंचाई और गहराई दोनों देते जान पड़ते हैं। समाज के बनते बिगड़ते स्वरूप को आप इन कहानी में भांप पाते हैं।
भूमंडलोत्तर भारतीय स्थितियां नवनीत नीरव के लेखन में सघनता से उपस्थित रहती है। और एक सलीका,व्यवस्था उनके लेखन का स्थायी अंग है यह उनकी कहानियों को पढ़ने के बाद शिद्दत से महसूस होता है। अपने पहले संग्रह में ही जिन कहानियों के साथ वह हमारे सामने आ रहे हैं उन्हें देखकर यह महसूस होता है कि कहानी में क्या कहना है, कैसे कहना है यहां उन्हें भली प्रकार पता है। 
समकालीन कथा प्रक्रिया में सहज भाषा, समाज के कमजोर और वंचित समूह के प्रति आस्था ज्यादातर कहानीकारों में नजर आती है। नवनीत नीरव कहानीकार के रूप में इसमें और भी जोड़ पाते हैं जैसे वातावरण और पात्रों के बीच एक संवाद की दुनिया वह रच देते हैं जिससे यथार्थ और भी सुक्ष्मतर होकर बारीक से बारीक स्वरूप और परिवेश जाहिर कर पाता है। समाज के प्रत्येक पहलू ,साधारण और विशेष सभी का दृढ़ता से, बारीकी से , कहानियों के माध्यम से परिचय कराना आसान नहीं होता लेकिन कथाकार ने यह करके दिखाया है। इन्हें पढ़ते हुए कहा जा सकता है कि यह युवा कथाकार मनुष्यता के लिए लिख रहा है। इनकी यह कहानियां समाज का वास्तविक ख़ाका खिंचती हैं। इनमें जितनी अनुभूतियां हैं, वे सब कहती हैं कि मानव सम्बन्ध और समाज को और अधिक सुंदर होना चाहिए। 
संग्रह की शीर्षक कथा ‘ दुखान्तिका’ एक मानवीय त्रासदी को केंद्र में रखकर लिखी गयी हैं । रघुराम की शहादत पर।  सामाजिक व्यवस्था में हाशिये पर फेंक दिए गए लोगों पर और उनकी अंधी आस्था पर जो कि अंततः एक भयावह दुःख में परिणत हो जाती है। ‘दुखान्तिका’ कहानी भारतीय समाज, उसके इतिहास और वर्ण व्यवस्था पर लिखा गया ऐसा कथानक है, जो मनुष्य के असहनीय दुख को कहता है। जैसा की कहानी में बड़े भाई अपने पिता से कहते हैं ‘कभी-कभी लगता है कि रघुराम ने कोई शहादत नहीं दी थी। यह अतीत का एक स्याह पन्ना था जिसमें सांस्कृतिक तरीके से नरबलि दी गई थी।’ और सबसे बड़ी बात तो यह है कि यह दुख वर्तमान का नहीं है वरन सैंकड़ों बरस के इतिहास से आज तक का है।
इस संग्रह में शामिल ‘दुखांतिका’ और ‘दुश्मन’ दोनों कहानियाँ पाठकों को भीतर से बेचैन करती है। आँखों के आगे पूरा मेहरानगढ़ उतर आता है कि कैसे रघुराम जीवित समाधि लेने पर मजबूर हुआ होगा। मजबूरी में शहीद बने रघुराम की शहादत को कथाकार समझ सकता है जो उसकी मानवीय संवेदना को दिखलाता है।कहानी में कथाकार ने बहुत सधे ढंग से सामाजिक रूढ़ियों और पाखंड को उजागर किया है।दरअसल नवनीत उस समाज की विषमता और व्याप्त शोषण का खाका रखते हैं जिसमें रघुराम जैसे मजबूर प्यादे की शहादत को महिमा मंडित करके इस परम्परा  को बनाए रखने की वकालत की जाती है। इसके लिए  निर्माण की खातिर इंसान की बलि से ज्यादा सटीक और कोई प्रतीक कथाकार को मिल ही नहीं सकता था। 
वहीं ग्रामीण समाज की तगड़ी जाति व्यवस्था पर प्रहार करती कहानी है ‘अंगेया’। यह कहानी बेहद सघन संवेदनाओं के तंतुओं से बुनी गयी हैं। अपनी मां से तर्क करते बेटे को यह सुनना पड़ता है कि  ‘ब्राह्मण होकर राजपूत के संस्कार में जाओगे यही सीख रहे हो। उन लोगों के आसपास भी नहीं फटकना है ।समझ गए। अकाल मृत्यु हुई है उनके यहां।’ अपनी जाति को लेकर इतना गौरव का भाव है कि वह सोचता है कि दसईया के घर तो नहीं जा पाए कम से कम उसके नाम पर यहां खा लेंगे तो जरूर कुछ ना कुछ फल उसे मिल ही जाएगा उसे मुक्ति मिल जाएगा । अंगेया, बीजे, घंट, विवाह के विभिन्न लोकाचार, तेरही का भोज सबका लेखक ने कुशलता से चित्रण किया है जिससे माहौल बिल्कुल जीवंत हो उठता है।
 ‘राम झरोखे बैठ के’ पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि इस जैसे इंसान को तो बहुत क़रीब से जानती हूँ। दरअसल ‘रामझरोखे’ जैसे भोले-भाले लोग हमें अपने आसपास दिखते ही रहते हैं, मगर जिस तरह नवनीत ने कहानी में उस पात्र को उतारा है , इससे बहुत विश्वसनीयता बन पड़ी है। पात्रों के अनुकूल भाषा का प्रयोग भी कहानी को विशिष्ट बना देता है।
इस कहानी संग्रह की पहली ही कहानी ‘आंखें’ पढ़कर लगा जैसे यह हमारे स्वयं के जीवन का हीं जीवन्त चित्र है। कहानी में 90 के दशक के बिहार का वास्तविक चित्र साझा किया गया है। चौड़ी चौड़ी सड़क नहीं,टूटी सड़कें, टूटे-फूटे पुल, जहां रेलगाड़ी भी बैलगाड़ी बन जाए, सूखी नहरें, लालटेन या ढिबरी की पीली टिमटिमाती रोशनी में पढ़ते बच्चे, बंजर खेत,पलायन करते नौजवान, तिलक ऐंठने के लिए पढ़ाई करने वाले होनहार, शाम चार बजे के बाद सन्नाटा, जातिगत हिंसा, रणवीर सेना – माले, यही है 90 के दशक का बिहार जो आंखें कहानी में अपनी संपूर्णता में चित्रित हुआ है। इस कहानी का एक- एक दृश्य और मेरी आँखों का देखा – भोगा यथार्थ दोनों सजीव हो गए। इस कहानी के 1-1 दृश्य पर कहानीकार ने अपना मन खोल कर रख दिया है। उन्होंने इस कहानी को इस परिपक्वता और तटस्थता से साधा है जैसे सचमुच साधना ही हो। कहानी रोचक है और गाँव के जातीय संघर्ष और उससे उत्पन्न तनाव का बखूबी चित्रण हुआ है।
वहीं ‘दुश्मन’ कहानी मैंग्रोव के दलदली वनों में एक इंसान के प्रेम और उसके द्वारा लिए गए अनूठे प्रतिकार की रोमांचक कहानी है। ‘दुश्मन’ कहानी का परिवेश ऐसा रचा गया है कि लगता है जंगल में कुछ घटने जा रहा है और इसी उत्सुकतावश पाठक कहानीकार के साथ-साथ चलने पर मजबूर होता है और जब कहानी अंत में जाकर खुलती है, तो चकित कर देती है। कथाशैली और शिल्प के हिसाब से ‘अनकही’ और ‘मरुस्थल’ कहानी भी काफ़ी प्रभावित करती है।’मरुस्थल’ कहानी के बहाने हमारे भारतीय समाज का यह  सच सामने आता है कि एक औरत जो घर की धुरी होती है, उसे किस तरह उपेक्षित किया जाता है। उसकी तकलीफ किसी को नजर नहीं आती ।उसकी बीमारी में डॉक्टर की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि वहां पैसे खर्च हो जाएंगे। हालांकि एक दूसरा पहलू शर्मा जी की कंजूसी का भी है। धन संग्रह करने की लत भी एक बीमारी ही है जिसकी वजह से एक एक पैसे खुद के जरूरी कामों पर खर्च करने से पहले भी इंसान सोचने लगता है । धीरे-धीरे यह आदत एक प्रवृत्ति के रूप में स्थाई रूप से उसके व्यक्तित्व का हिस्सा हो जाती है। शर्मा जी को यह पता था कि यदि इलाज के लिए बनारस गए तो काफी पैसा खर्च हो जाएगा लेकिन वह यह महसूस नहीं कर पा रहे थे कि उनकी पत्नी कितने कष्ट में हैं। पत्नी की बीमारी धीरे-धीरे बढ़ती गई और जब मोहल्ले वालों से उनका कष्ट नहीं देखा गया तो कॉलोनी के कुछ बड़े बुजुर्गों ने शर्मा जी को समझाने की कोशिश की। उन पर दबाव बनाया गया यहां तक कि यह भी कहा गया कि यदि पत्नी को बनारस दिखाने नहीं ले गए तो उन पर कानूनी कार्रवाई करानी पड़ेगी । इस सामाजिक दबाव की वजह से शर्मा जी बेमन से तैयार हुए और जब जांच हुई तब कैंसर अंतिम चरण पर है यह बताया गया। डॉक्टर ने कहा दवाइयों के बल पर इन्हें 6 महीनों से अधिक जिंदा रखना मुश्किल होगा बाकी ईश्वर जानें। शर्मा जी जो अपनी पत्नी के प्रति बिल्कुल आश्वस्त थे कि उसे कुछ नहीं हुआ है उन पर जैसे व्रजपात हुआ। स्त्रियों के प्रति यह लापरवाही भरा व्यवहार आज भी हमारे समाज का सच है। इस कहानी को पढ़कर यह अनुभव होता है कि किसी घटना की तफ़सील सिर्फ उसको रोचक बनाने के लिए नहीँ बल्कि पाठक को उसमें कुछ देर ठहरे रहने, उसे भीतर तक महसूस कर पाने और फिर नजर उठाकर अपने इर्द गिर्द देख पाने का मौका देने के लिए है।
एक कहानी है ‘सितारों के आशियाने’।कहानी को पढ़ते वक़्त उदासी हमारे भीतर कहीं छा सी जाती है। सब कुछ इतना वास्तविक लगता है कि इस संग्रह की कहानियों में कोई अतिरंजना, कोई नाटकीयता एक क्षण को भी महसूस नहीं होती। वह उतनी ही सामान्य रूप से घटित होती हैं जितनी हमारे आपके आस पास कि रोज घटित होने वाली घटनाएं। हाँ उनकी तफ़सील अलबत्ता ऐसी है जो लेखक के इस कौशल से अवगत कराती है कि उसकी वर्णनात्मक शैली कितनी अद्भुत है। यह शैली कहानी को उसके पूरेपन में समझने का मौका देती है। व्यक्ति के अंतर्मन की उथल पुथल , उसकी विचार प्रक्रिया और नज़रिये को नवनीत नीरव बहुत बारीकी से पाठकों के समक्ष रखते हैं । उनकी शैली की सच्चाई और सरलता से आप निश्चित ही ऐसे व्यक्तियों को अपने आस पास पहचान पाएंगे जो इन कहानियों में पात्रों के रूप में मौजूद है। यज्ञ नवनीत नीरव की  लेखनी का ही कमाल है कि इस संग्रह की कहानियाँ पढ़ते हुए आप अपने अनुभव , परिवेश, समाज और समय से हर पल स्वयं को आबद्ध महसूस कर सकेंगे। 
हिंदी कहानी को सर्वश्रेष्ठ रूप देने वाले ‘प्रेमचन्द’ ने कहानी की परिभाषा देते हुए कहा है कि कहानी वह ध्रुपद की तान है, जिसमें गायक महफिल शुरू होते ही अपनी संपूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूर्ण कर देता है, जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता। ठीक यही अनुभूति नवनीत नीरव का  ‘दुखान्तिका’ को पढ़ने के बाद होती है।
समीक्षक परिचय
डॉ कुमारी उर्वशी
सहायक प्राध्यापिका, हिंदी विभाग,
रांची विमेंस कॉलेज,रांची
मोबाइल नंबर :- 9955354365
ईमेल आईडी :- urvashiashutosh@gmail.com

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