पुस्तक – बिन्नी बुआ का बिल्ला
लेखक – दिव्या माथुर
हिंदी में बाल साहित्य की विरलता और वह भी बाल कथा-साहित्य की, एक चिंताजनक बात है। चुनिंदा लेखक ही बाल साहित्य या बाल उपन्यास लिखने की ज़हमत मोल लेते हैं क्योंकि उनका मानना है कि बच्चों के लिए ऐसे साहित्य में वे अपने गंभीर उद्देश्य को प्रक्षेपित नहीं कर पाएंगे। पर, ऐसा सोचना समाज के लिए कतई हितकर नहीं हो सकता। इसके अलावा, यह भी मानना कि बाल साहित्य के माध्यम से समाज और जीवन के लिए गंभीर उद्देश्य व्यक्त नहीं किए जा सकते, समर्थनीय नहीं है। यह सामान्य तौर से कहा जा सकता है कि प्रत्येक साहित्यकार को अपने रचनाकर्म का प्रारंभ बाल साहित्य लेखन से ही करना चाहिए। साहित्य के जरिए लेखक का पहला धर्म यही है कि वह जो गंभीर सन्देश पूरे वयस्क समाज को देना चाहता है, उसकी शुरुआत वह बाल साहित्य लिखकर ही करे और इस प्रकार सुसंस्कृत एवं सभ्य समाज के लिए अनिवार्य संस्कारों का निवेश प्रथमतः मनुष्य के वयस्क होने से पहले उसकी बाल्यावस्था में ही करे। इसके अतिरिक्त, जो गंभीर साहित्यकार अपने आरंभिक दौर से ही सोद्देश्यपूर्ण साहित्य-सृजन करते रहे हैं, उनसे भी यह अपेक्षा की जाती है कि वे हर प्रकार के रचना-कर्म के साथ-साथ बाल साहित्य की भी रचना करें। 
इस संबंध में, दिव्या माथुर के विराट साहित्य-सृजन को रेखांकित करते हुए कहा जा सकता है कि साहित्यकार के रूप में, उन्होंने बाल साहित्य लेखन में जो पहलकदमी की है, वह अन्य सभी लेखकों के लिए प्रेरणादायक है। उनका बाल उपन्यास बिन्नी बुआ का बिल्लाइस बात का ज्वलंत उदहारण है जिसमें भाषा और शिल्प की सहजता तो है ही, कथानक की गंभीरता को भी रेखांकित किया जाएगा। स्वभाव से बाल-सुलभ और सहज-सरल तथा आत्मीय भावुकता से पगी हुई दिव्या माथुर ने जितने कौशल्य से इस उपन्यास में मानवीय संबंधों के परिप्रेक्ष्य में मनुष्य के पशुके साथ संबंधों को उकेरा है, वह उल्लेखनीय है।
यह डंके की चोट पर कहा जा सकता है कि हमारे भावी समाज का विकास कुछ इस तरह होगा कि हम विचारों और भावनाओं के संप्रेषण में पशु समाज के साथ सुन्दर तालमेल स्थापित कर पाएंगे और ऐसा आवश्यक भी है। हम देखते हैं कि आज के दौर में मनुष्य से मनुष्य के बीच की दूरी दुर्गम और अलंघ्य होती जा रही है। ऐसे में, अन्य प्राणियों यथा कुत्ते और बिल्लियों के साथ हिलमिल कर हम अपने एकाकीपन में पैदा हो रही मनहूसियत को दूर कर सकते हैं। प्रकृति में जहाँ-जहाँ जीवन है, उसके साथ हमारा साहचर्य होना चाहिए; तभी जीवन जीने लायक हो सकता है। हाँ, इसी तरह ही सतत पतनोन्मुख और बूढ़ी हो रही पृथ्वी में प्राण-वायु का संचार किया जा सकता है। 
दिव्या माथुर का यह उपन्यास इसी उद्देश्य को रेखांकित करता है। इसमें दो पात्रों यथा बालिका ईशा और उसके प्रिय बिल्ले के चरित्र को बड़े प्रयत्नलाघव से दिव्या ने वर्णित किया है। परिवार के अभिन्न सदस्य के रूप में बिल्ले (फौसफर) को प्रमुख पात्र के रूप में प्रस्तुत करके, दिव्या ने हर प्रकार के प्राणियों में संवेदनशीलता की बराबर मात्रा को नापने की कोशिश की है। पाठक को भले ही यह काम  छोटा लगता हो, लेकिन एक साहित्यकार के लिए है बहुत टेढ़ा। दिव्या ने बिल्ले समाज को उसी तरह प्रदर्शित करने की चेष्टा की है, जिस तरह कि मानव समाज  में देखा-पाया जाता है।
हम वाह-वाह किए बिना नहीं रह सकते जबकि बिल्ला और बिल्ली (फ्रैंकी) को पिता और माता के रूप में प्रदर्शित किया जाता है तथा उनके जन्म-दिन को उतनी ही धूमधाम से मनाया जाता है, जिस तरह कि हम मनुष्य मनाते हैं। इसे एक आवश्यक संस्कार के तौर पर दिव्या ने विवेचित किया है जिसमें पश्चिमी शैली समाविष्ट है। मातृत्व को प्राप्त होने वाली बिल्ली (फ्रैंकी) और पिता का दर्ज़ा प्राप्त करने वाले बिल्ले-फौसफर के संबंध में यह मानवोचित विवरण सचमुच हृदयस्पर्शी है : बिल्ले-बिल्लियों को बहता पानी और पक्षी देखना और शास्त्रीय संगीत सुनना बहुत पसंद है। फ्रैंकी को रॉक से अधिक पॉप संगीत पसंद है। उसे ऐसी धुने पसंद है, जिनमें बिल्लियों और पक्षियों की आवाज़ें हों।”
यह बाल उपन्यास कुल १५ अध्यायों में विभक्त है और प्रत्येक अध्याय मूल कथानक से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। प्रथम अध्याय फौसफ़रमें हम बिन्नी बुआ, पालतू बिल्ले तथा ईशा और उसकी छोटी बहन मीशा से परिचित होते हैं तथा इसी अध्याय में बिन्नी बुआ, जो ईशा की दादी हैं, चमकने वाले जुगनू, केकड़े और मछली के बारे में जानकारी देती हैं और इस तरह उपन्यास के आरंभ में ही बच्चों में जिज्ञासा का सूत्रपात हो जाता है। दूसरे अध्याय जादू का पिटारामें कहानी आगे बढ़ती है और तीन सदस्यों अर्थात बिन्नी बुआ, जेम्स फूफा और फौसफ़र वाले परिवार के पड़ोस में रह रही ईशा-मीशा के परिवार के साथ घनिष्ठ संबंधों के बारे में जानकारी दी जाती है।
इसमें लॉकडाउन के दौरान ईशा-मीशा की आदतों और दिनचर्या तथा फौसफ़र की म्याऊं-म्याऊं का दिलचस्प ब्यौरा कौतुहल पैदा करने वाला होता है। दिव्या सूक्ष्मतम स्तर पर जाकर पारिवारिक गतिविधियों का जायज़ा मनोरंजक ढंग से लेती हैं। तीसरे अध्याय फौसफ़र का कमरामें, बिल्ले के रहने के लिए एक अलग कमरा आवंटित किया जाता है और उसे शिष्टाचार के सबक दिए जाते हैं जिसे वह बखूबी सीख भी लेता है।
यहाँ एक विवरण हमारे मन को चमत्कृत कर देता है जबकि फौसफ़र अपनी भूख को सांकेतिक तौर पर ज़ाहिर करना चाहता है : “बिन्नी बुआ उसके म्याऊँ-म्याऊँ कहने पर भी न उठे तो वह बैठकर उन्हें एकटक घूरता है, जैसे कह रहा हो कि उठो भी, खाना-पानी परोसो, मुझे जोर की भूख लग रही है‘…” चौथे अध्याय फौसफ़र क्यों नहीं नहातामें बिल्ले की मूलभूत आदतों के बारे में विवरण मिलता है जिन पर ईशा की नाना प्रकार से प्रतिक्रिया होती होती। धीरे-धीरे फौसफ़र परिवार में अनुकूलित और पालतू हो जाता।
चूँकि ईशा इस उपन्यास की प्रमुख पात्र है, इसलिए पाँचवाँ अध्याय ईशा और कोविडउसी पर केंद्रित है। फौसफ़र में जीव-सुलभ कमजोरियों और उनके निदान के बारे में छठवें अध्याय फौसफ़र को कोविड नहीं हो सकतामें चर्चा की जाती है। इस प्रकार, उपन्यासकार ऐसे-ऐसी घटनाओं को जोड़ते हुए कथा-विस्तार करती हैं जिससे कि कौतुहल बना रहे जो किसी बाल उपन्यास के लिए एक आवश्यक तत्त्व है। सातवां अध्याय फौसफ़र और फ्रैंकीऔर जिज्ञासा उत्पन्न करता है जबकि फूफा जी के मित्र मैथ्यू अंकल की बिल्ली फ्रैंकी उनके घर रहने आती है। यहाँ दिव्या जीवों में प्रेम के प्रस्फुटन को बड़े प्रयत्नाघव से वर्णित करती हैं। फ्रैंकी को फौसफ़र से दूर रखने के प्रयास में फौसफ़र की आक्रामक प्रतिक्रियाओं का वर्णन भी सहज ढंग से किया जाता है। अगले अध्याय छुप्पा छुप्पी ओ छुप्पीमें जीव के मनुष्य के साथ आत्मीय होने का सुन्दर वर्णन है; फौसफ़र बिन्नी बुआ के गीत पर थिरकने लगता है।
यहाँ दिव्या ने मनुष्येतर जीव को मनुष्य के समकक्ष रखकर और उसे संगीत के प्रति संवेदनशील प्रदर्शित करके हमें यह सोचने पर विवश कर दिया है कि क्या एक दौर ऐसा भी आएगा जबकि भावनाओं की उड़ान में मनुष्येतर जीव भी हमारे समान होंगे। आगामी अध्यायों कैट्स‘, ‘काली बिल्लीऔर  ‘हैलोवीनमें कथा का विस्तार अत्यंत मार्मिक ढंग से होता है तथा बारहवें अध्याय खुशखबरीमें कहानी क्लाइमैक्स पर पहुंचती है जबकि फ्रैंकी गर्भवती होती है और परिवार में ख़ुशी का माहौल व्याप्त हो जाता है। तेरहवां  अध्याय कुछ नया और दिलचस्प कामकथानक को एक दिलचस्प मोड़ पर ले जाने का संकेत देता है। ईशा स्कूल से लौटकर दादी के साथ फौसफ़र के जन्मदिन मनाने की योजना को परिकल्पित करती है जिसे चौदहवें अध्याय फौसफ़र का जन्मदिनमें अमली जामा पहनाया जाता है। अंतिम अध्याय एक बिल्ली के बच्चे चारमें फ्रैंकी द्वारा चार बच्चे पैदा किए जाने की सूचना मैथ्यू अंकल द्वारा दी जाती है। तदनन्तर, फ्रैंकी के चारो बच्चों के नामकरण समारोह में मैथ्यू अंकल द्वारा ईशा-मीशा और उनके मम्मी-पापा को आमंत्रित किया  जाता है। उपन्यास की सुखान्त परिणति मन को सुखानुभूति से सराबोर कर देती है।  
इस प्रकार, यह बाल उपन्यास मनुष्य और मनुष्येतर जीवों के सह-अस्तित्व को बड़ी मार्मिकता से निरूपित करता है। दिव्या ने अपनी अधिकतर कहानियों में मनुष्य से मनुष्य को जोड़ने का जो अदम्य प्रयास किया है, उससे वह एक कदम आगे बढ़कर, इस बाल उपन्यास में मनुष्य को पशु समाज के साथ भावनात्मक और भौतिक स्तरों पर जोड़ने की सफल कोशिश करती हैं। बाल जगत के लिए यह उपन्यास मनोरंजक तो होगा ही, इसमें अभिकल्पित इस महान लक्ष्य को वे अपने जीवन में अवश्य अंगीकार करेंगे।  मैं इस बाल उपन्यास को बड़े पैमाने पर स्वीकार्यता मिलने की कामना करता हूँ।
डॉ मनोज मोक्षेन्द्र मूलतः वाराणसी से हैं. वर्तमान में, भारतीय संसद में संयुक्त निदेशक के पद पर कार्यरत हैं. कविता, कहानी, व्यंग्य, नाटक, उपन्यास आदि विधाओं में इनकी अबतक कई पुस्तकें प्रकाशित. कई पत्रिकाओं एवं वेबसाइटों पर भी रचनाएँ प्रकाशित हैं. एकाधिक पुस्तकों का संपादन. संपर्क - 9910360249; ई-मेल: drmanojs5@gmail.com

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