ठीक कहते हो तुम
कि
मैं ख्वाब लिखती हूँ
नहीं जानती हकीकत
सही है ..……
पर
क्या करूँ
इस हकीकत को समझ कर
कि
भूख से जरुरी है धर्म,
आदमी से अहम है बूत
व प्रेम सच नही है,
यथार्थ अब ये है कि…..
सत्य को तैयार किया जाता है
बन्दी प्रयोगशालाओं में ,
जिसे समझा,
देखा व जाना जा सकता है
बस उसी माइक्रोस्कोप से
जो केवल
निजाम व उसके प्यादों के पास है
अपने वक्तव्य की
स्थापना की मजबूरी में
लांघी जाती है सीमायें
व पराकाष्ठा की परिसीमा पर है
निर्लज्जता
इतिहास में दब गए
निरर्थक पलों को खोद,
निष्कर्ष की नई भट्टी में पका ,
आकार प्रकार बदल
किये जा रहे बवाल
सोच ये है कि
सिर्फ शीर्षक बदल कर
बदली जा सकती है
किसी भी रचना की आत्मा
सोचो
यथार्थ तो ये भी है कि सांस चलती है
लेकिन
केवल
सांस का चलना ही जीवन नहीं है
इसलिए
समझ कर भी
नहीं समझना
मुझे
तुम्हारे इस निरर्थक यथार्थ को
नहीं मानने मुझे तुम्हारे बनाये हुए सच
…….
सुनो
उलझने का मन नही है मेरा
क्यों कि
मेरे पास भी असीमित वक्त नही है\
इसलिए
पूरी होश में ही मैनें निर्णय लिया है ये
कि
तुम्हारी बनाई हकीकत से न रखूं वास्ता
अपने मानको पर जीऊँ
और ख्वाब लिखूँ