हरियश राय प्रख्यात् कथाकार हैं। अपने सामाजिक उपन्यासों और कहानियों के माध्यम से वे आसपास के परिवेश की बात उठाते हैं और उसे अपने तरीक़े से कथारूप में अभिव्यक्ति देते हैं। समाज के अनेक अवयव हैं जो समाज को गत्यात्मक अवस्था में लाते हैं। धर्म भी उनमें से एक है। वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित अपने नवीनतम उपन्यास ‘दहन’ में हरियश राय ने धर्म जैसे विषय को आधार बनाया है। उपन्यास ‘दहन’ का शीर्षक अभिव्यंजनात्मक है। यहाँ ‘दहन’ है हमारी जड़ हो चुकी मान्यताओं का, जो हमें आज के वैज्ञानिक युग में भी अपना बंधक बनाए हुए हैं।‘दहन’ है हमारी उन परम्पराओं का जो बेड़ियाँ बनकर पाँवों को किसी सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ने नहीं देती हैं। ‘दहन’ है उस सामंतवादी सोच का जो एक स्त्री को पुरुष के पाँव की जूती समझती है, उसे केवल अपनी सेविका और गृहशोभा बने रहने देना चाहती है। ‘दहन’ यहाँ जातिगत मिथ्याभिमान का भी है जो मानव-मानव में ऊँच-नीच का एक ऐसा बनावटी स्तर स्थापित करता आया है, जिसके सामने मानव की गरिमा तिरोहित होती गई है। ‘दहन’ है उन आधारहीन विश्वासों का जिनका काम सिर्फ़ मनुष्य की मेधा और सोचने-समझने की क्षमताओं को बरगलाना है।
सौम्या त्रिवेदी एक सरकारी विद्यालय में शिक्षिका है। अपने कठोर परिश्रम,मेधा, समर्पण और विद्वत्ता के बल पर उसने एक विशिष्ट स्थान अपने कार्यक्षेत्र में स्थापित किया है। सौम्या त्रिवेदी अपने नाम के अनुरूप ही सौम्य और सहज स्वभाव की है। ग्राम पंचायत के स्कूल में उसका अपने स्टाफ के साथ शैक्षिक अवदान सराहनीय है,“इस स्कूल के पास लोगों की ज़िन्दगी संभालने की ताकत थी। कोई इरादा करे कुछ बनने का, अपने सपनों को पूरा करने का, तो स्कूल की प्रिंसिपल सीमा चहल और टीचर सौम्या त्रिवेदी उनके सपनों को पूरा करने में माहिर थीं। सौम्या त्रिवेदी के लिए स्कूल का हर बच्चा उसका अपना बच्चा था। स्कूल की प्रिंसिपल सीमा चहल कोई भी फैसला लेने से पहले सौम्या से सलाह ज़रूर किया करती थी।” लेखक ने उसके व्यक्तित्व का खाका इन शब्दों में दिया है,“पैंतालीस साल के आस-पास की उम्र, आत्मविश्वास से दमकता चेहरा, गोरे और गेहुँए के बीच चेहरे का रंग, चेहरे पर सामान्य सा मेकअप, करीने से पीठ पर बाँधे बाल, सलवार और कुर्ते के रंग से मिलता-जुलता दुपट्टा, बालों में छुप-छुपकर झाँकती सफेदी। चौड़ा माथा,थोड़ी सी लम्बी नाक। जो काम उसके मन के अनुकूल नहीं था, वह हो ही नहीं सकता था। न स्कूल में न ही घर में। स्कूल में सलीकेदार सीनियर टीचर सौम्या त्रिवेदी की यही पहचान थी।”
सौम्या के पति भास्कर त्रिवेदी एक ऐसे परिवार से आते हैं जहाँ रूढ़िवाद और पोंगापंथी मान्यताएँ अपने चरम पर हैं। भास्कर के पिता बलराज त्रिवेदी पूजा-पाठ, कथा-ज्योतिष आदि में गहराई से रमे हुए हैं। उनका अधिकांश समय इन्हीं बातों में बीतता है। वास्तव में उनका काम भोली-भाली जनता को पूजा-पाठ के डर के माध्यम से मूर्ख बनाना है, जिसमें सबसे बड़ा लक्ष्य है उनकी कमाई। कहा जाए तो धर्म के एक चतुर सेल्समैन के रूप में बलराज त्रिवेदी अपना रुतबा और दबदबा कायम करना जानते थे। ऐसे लोगों के लिए धर्म जीवन की हर एक समस्या का हल होता है जिसकी शरण में जाकर व्यक्ति अपने साथ-साथ दूसरों का भी उद्धार कर सकता है। धर्म एक उदार चेतना और सम्यक् चरित्र के संतुलित मार्ग से होकर गुजरे, तब तो वह धर्म है जो अपने सभी लक्षणों के साथ मनुष्य का उद्धार कर सकता है परन्तु जब यही धर्म कोरे कर्मकांडों और झूठे दिखावों का चोला ओढ़ लेता है, तब एक प्रकार से यह जीवन के प्रवाह और उसके नैसर्गिक सौन्दर्य के ‘दहन’ का कारण बन जाता है। आडम्बरों में खोए अपने ससुराल पक्ष को सौम्या इसीलिए कभी पसंद नहीं कर पाती है। यही कारण था कि सौम्या के घर में आज दो समानान्तर धाराएँ बहने लगी थीं। जिनमें धर्म-अधर्म,सहमति-असहमति, विश्वास-अविश्वास,श्रद्धा- अश्रद्धा के बीच के अंतर्द्वंद्वों और अन्तर्विरोधों ने अपना स्थान सुरक्षित कर रखा था।
सौम्या त्रिवेदी के साथ ही गणित का अध्यापन करने वाले शिक्षक विजय माही भी इन बाहरी आडम्बरों की दुनिया से त्रस्त थे। इसीलिए फिल्म ‘चित्रलेखा’ का गीत वह अक्सर गुनगुनाया करते थे,‘संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे।’ सौम्या त्रिवेदी एक शिक्षिका है इसलिए लेखक इस परिप्रेक्ष्य में शैक्षिक जगत् की विसंगतियों को भी विस्तार से हमारे समक्ष लाता है। शिक्षा वैसे तो समवर्ती सूची में रही है, जिस पर राज्य और व्यक्तिगत संस्थाएँ दोनों ही अपना धन व्यय कर सकते हैं। परन्तु यह भी एक कड़वा सच ही है कि राजकीय संरक्षण में आने वाले विद्यालयों पर सरकार का पर्याप्त नियंत्रण रहता है। उन्हें सरकारी दिशानिर्देशों के अनुसार ही चलना पड़ता है। सरकार लालफीताशाही अधिकारियों से चला करती है। अनेक कर्मठ और समर्पित अधिकारी-कर्मचारी ऐसे हैं जो अपने देश-समाज के लिए बहुत कुछ बेहतर सोचते और करते हैं। उनकी नवाचारी सोच और नवोन्मेषी विचार उनके विभाग को एक नयी दिशा और दशा देते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी अधिकारी हैं जो अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हैं और कहीं न कहीं भ्रष्टाचार में डूबे रहते हैं। अपनी कुबुद्धि से वे अपने विभाग की प्रगति और विकास का ‘दहन’ कर देते हैं। उपन्यास में विक्रम सेठ एक ऐसे ही अधिकारी के रूप में हमारे समक्ष आते हैं। वे डायरेक्टर ऑफ एजुकेशन हैं। अपने विक्रम से वे शिक्षा विभाग के सेठ बने हुए हैं। “पतले सुनहरे फ्रेम वाले चश्मे से झाँकती दो शातिर आँखें, उम्र को छिपाने के लिए बालों में डाली गई कालिमा। मोटे-मोटे गाल, मोटे होंठ। मँजे हुए खिलाड़ी थे। शतरंज की चालों की तरह उन्हें पता था कि कब कौन सी चाल चलनी है। वे ज़्यादातर अपने बारे में ही बोलकर दूसरों पर अपना रोब ग़ालिब करने की कोशिश करते। लोगों के सामने वे अपनी एक विशालकाय मूर्ति गढ़ते और अपनी पहली मुलाक़ात में ही लोगों पर अपना प्रभाव छोड़ देते। जब तक मिलने वाला उनके सामने बैठा रहता, अपने बारे में ऐसी-ऐसी बातें उसे बता देते कि उसे लगता कि वह निदेशालय के निदेशक से नहीं बल्कि किसी शक्तिशाली विराट मानव से मिल रहा है। वे यह भी बताते कि शहर के विधायक रोज़ किसी न किसी का ट्रांसफर करवाने के लिए फ़ोन करते हैं लेकिन वे किसी की नहीं सुनते और हर काम नियम से ही करते हैं और वे नियमों के सख़्त पाबंद हैं।” आज उन्होंने सौम्या त्रिवेदी और अन्य शिक्षकों को अपनी मीटिंग में बुलाया है जिसमें वे कक्षा पांच से कक्षा आठ तक के पाठ्यक्रम में परिवर्तन किए जाने की सूचना शिक्षकों को देना चाहते हैं। मीटिंग में विजय माही और सौम्या इसका प्रतिवाद करते हैं। लेकिन विक्रम सेठ अपनी ज़िद पर अड़े रहते हैं। इन सबके पीछे उनका स्वार्थ भी छिपा हुआ है अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए शिक्षार्थियों के पाठ्यक्रम का ‘दहन’ यहाँ द्रष्टव्य है। सौम्या त्रिवेदी जिस स्कूल में पढ़ाती हैं, वह ग्राम पंचायत की जमीन पर बना हुआ है। यद्यपि गाँव वालों का सीधा-सीधा कोई अधिकार स्कूल पर नहीं है परन्तु फिर भी वे अपने पशुओं को स्कूल के मैदान पर बाँधने चले आते हैं। विद्यालय परिसर में लगे झूलों पर भी ग्रामवासियों का अघोषित अधिकार दिखाई देता है। यह सब दर्शाता है कि शिक्षा व्यवस्था आज भी अनेक रूपों में अपनी पंगुता और निरीहता को निहारने के लिए मजबूर है।
सौम्या का ससुराल पक्ष भी उसके लिए बहुत अधिक अनुकूल नहीं है।सौम्या अपनी ससुराल में मिलने वाले तानों से परेशान रहती है। दो जुड़वाँ बेटियों की माँ होना उसका गुनाह है। सौम्या ने भास्कर से प्रेम विवाह किया है जो भास्कर के माता-पिता को किसी भी रूप में आज तक स्वीकार नहीं हो पाया है। भास्कर का छोटा भाई रमाशंकर अनेक तरीकों से सौम्या को प्रताड़ित करता है। सास वंदना त्रिवेदी सौम्या को परम्पराओं और मूल्यों की दुहाई देती रहती हैं जो सौम्या और उसकी सास के बीच विवाद को और बढ़ावा ही देते हैं। सौम्या की स्थिति द्रष्टव्य है,“रात के अँधेरे में भी चेहरे पर एक भयानक गुस्सा था और कहीं से भी पानी के छींटे पड़ने की गुंजाइश नहीं दिखाई दे रही थी। मन के भीतर एक गहरा पश्चाताप उमड़ रहा था। भास्कर से शादी करके क्यों आ गई इस परिवार में? क्यों भास्कर के प्रेम में इतनी अँधी हो गई थी? कहाँ चला गया था उसका विवेक? भास्कर का लम्बा, ऊँचा, रोबीला व्यक्तित्व, पढ़ा-लिखा युवक, समझदारी से बात करने वाला; यही तो देखा जाता है भावी पति में। और उसने यही देखा था।वह उसके मन की थाह क्यों न ले पाई? यदि वह देख लेती तो इतने घाव, इतनी चोटें उसे नहीं मिलतीं। इस घर में उसे अपमान, तिरस्कार, उपेक्षा, उपहास के सिवा हासिल ही क्या हुआ। इस घर में भास्कर और उसके बीच एक ऐसी दूरी बन गई थी इसे पाटना दिन-प्रतिदिन मुश्किल सा होता जा रहा था। भास्कर तो उसे उसी फ्रेम में ढालना चाहते हैं जिस फ्रेम में उनकी माँ ढली हुई हैं, लेकिन वह नहीं ढलेगी उस फ्रेम में।”
सौम्या अपनी नौकरी और ससुराल पक्ष के साथ-साथ अपने मायके पक्ष की समस्याओं से भी जूझ रही है। अपने बीमार पिता विपिन गोयल के स्वास्थ्य की पूरी देखभाल सौम्या को ही करनी पड़ती है। सौम्या के दोनों भाई अमेरिका जाकर बस गए हैं। वे दोनों अपने माता-पिता की कोई चिन्ता नहीं करते। एक ही शहर में होने के कारण सौम्या की माँ आये दिन सौम्या को मायके बुलवा लेती हैं। इस बात पर भास्कर अक्सर नाराज़ भी होते हैं और सौम्या को टोका करते हैं। ससुराल और मायके के सम्बंध भी इसी कारण तनावपूर्ण हैं। जिस कारण सौम्या को बहुत सारे मानसिक आघात सहने पड़ते हैं। सौम्या जितना अधिक रूढ़िवाद और दिखावे की परम्पराओं से बचना चाहती है, उतना ही उनमें उलझती चली जाती है। स्कूल के स्टाफ की शिक्षिका नीलिमा जी के यहाँ देवी जागरण का कार्यक्रम होता है जिसमें सभी शिक्षक आमंत्रित किए जाते हैं। विक्रम सेठ भी वहाँ पहुँचते हैं। सौम्या को बहुत अधिक बनावटीपन और शोर-शराबा देखकर वहाँ बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता और वह अनमने ढंग से जागरण से लौटकर आती है। इसी क्रम में स्कूल से उत्तर प्रदेश के पहाड़ों में स्थित मठ में एक एजुकेशन टूर जाता है। वहाँ का वातावरण सुखद और शांत था। सौम्या का मन वहाँ की प्राकृतिक सुषमा में तो लगता है परन्तु मठ की दिखावटी और बनावटी बातों में नहीं। सौम्या को प्रसाद के रूप में वहाँ काढ़ा पीना पड़ता है जिसका स्वाद उसे बेहद कड़वा लगता है।मजबूरन उसे वह काढ़ा दिन में दो बार सुबह-शाम पीना पड़ता था। “चार दिन मठ और आसपास के इलाकों में घुमाया गया। एक नये तरह का अनुभव था। रात को सोते समय सौम्या के मन में रह-रहकर विचार आ रहे थे कि मठ पुराना है लेकिन प्राचीन नहीं जैसा कि उसे बताया गया था। अब मठों में वह बात नहीं जो पहले थी। अब कर्मठता की जगह आलस्य पसरा हुआ है। साधुओं ने कबीर और दादू के पदों को बाँचा ज़रूर है पर उनके अर्थ को नहीं समझा है। कहने को तो ये साधु संसार से कटे हुए हैं लेकिन पूरी तरह सांसारिकता में लिप्त हैं। हालाँकि बच्चों को मठ का एक नया अनुभव हुआ। वे सब खुश होकर वहाँ से लौटे लेकिन सौम्या काढ़े का एक ऐसा स्वाद लेकर लौटी जो उसकी अंतश्चेतना में काफी दिनों तक छाया रहा।”
विद्यालय में एक डिबेट होने वाली है जिसमें विक्रम सेठ को मुख्य अतिथि बनाया जाता है। डिबेट का विषय है ‘धर्म विश्वास या पाखंड’। इसमें इस बार विद्यालय के शिक्षकों को भी बोलने का अवसर मिलता है। परन्तु शिक्षिका नीलिमा सीमा चहल को कहकर इस डिबेट को ही कैंसिल करवा देती है। इसके पीछे मूल कारण यह है कि सौम्या और विजय माही डिबेट में धार्मिकता के नाम पर फैले पाखंड के बारे में बोलना चाहते हैं। विक्रम सेठ को यह बातें अच्छी नहीं लगेगी। इसी को ध्यान में रखकर डिबेट को ही हटा दिया जाता है। कुछ ही दिनों में विक्रम सेठ का एक और आदेश आता है कि प्रत्येक सोमवार को स्कूल में सुबह क्लास शुरू होने से पहले हवन होगा। परीक्षा में अच्छे नंबर प्राप्त करने के लिए स्कूल में हवन करवाने की कवायद हो रही है। बच्चों का आत्मविश्वास और मनोबल बढ़ाना इसका मुख्य उद्देश्य है। सभी अध्यापक यह सुनकर चौंक जाते हैं। परन्तु सरकारी आदेश के आगे सभी बौने हैं। यह आदेश सुनकर सौम्या व्यथित हो जाती है,“बार-बार सौम्या के मन में यह सवाल उठता था कि आखिर क्यों हम अंधविश्वास से मुक्त नहीं हो पाते। उसे लगता था किसी बात को बिना तर्क और प्रमाण के मान लेने की हमारी मानसिकता है। जिन लोगों को वैज्ञानिक चेतना का विकास करना था, वही उल्टी दिशा में जा रहे हैं। वेद-पुराणों के प्रमाणहीन दावों को विज्ञान बताया जा रहा है। हम अपने जीवन से निराश हो गए हैं। यह निराशा ही हमें अन्धविश्वास से गड्ढों में ले जा रही है। यह अन्धविश्वास ही पूरे परिवार और समाज को बर्बाद कर देता है।” अपनी साथी शिक्षिका को इस बारे में आगाह करते हुए सौम्या आवेश में कहती है,“आस्था सिर्फ मनुष्यता के प्रति होनी चाहिए, इंसानियत के प्रति होनी चाहिए। एक अमूर्त चीज के प्रति आस्था का कोई मतलब नहीं है। अदृश्य के प्रति आस्था आस्था नहीं अन्धविश्वास है और इस तरह अन्धविश्वास यदि स्कूल में होने लगे तो ऐसे स्कूलों को दलदल में जाने से कोई नहीं रोक सकता।”
कुछ दिनों से सौम्या की तबीयत ठीक नहीं। क्लास में पढ़ाते-पढ़ाते एक दिन अचानक उस पर बेहोशी सी छा जाती है। हालत अधिक खराब होने पर टेस्ट आदि करवाने पर पता लगता है कि सौम्या को आंत का कैंसर है। डॉक्टर उसे हर संभव तसल्ली देने की कोशिश करते हैं लेकिन अब सौम्या को धैर्य नहीं है। “सौम्या को डॉक्टर की बात का ज़्यादा यकीन नहीं हुआ। उसे लगा कि डॉक्टर उसे तसल्ली दे रहा है और वह भी झूठी। वह जानती थी कि आज तक इस बीमारी से कोई ठीक नहीं हुआ।हाँ कुछ और समय तक उसका जीवन अवश्य चल जाता है लेकिन एक मुकाम तक आकर जीवन रुक ही जाता है। उसे रुकना ही होता है। डॉक्टर कुछ भी कह लें और मेडिकल साइंस कितनी भी तरक्की कर ले, जीवन को रुकने से कोई नहीं रोक पाया है। जीवन का अन्त होना ही है।”
हालत और अधिक बिगड़ने पर सौम्या को कैंसर अस्पताल में इलाज़ के लिए भर्ती करवाया जाता है। सौम्या धीरे-धीरे मृत्यु के करीब आ रही है। पुरानी स्मृतियाँ दीपक की थरथराती लौ की भाँति उसकी दृष्टि के सामने आती-जाती रहती हैं। बचपन से लेकर आज तक के समय को सौम्या अस्पताल में लेटे-लेटे अपने जीवन के इन अंतिम पलों में अक्सर याद किया करती है। बचपन से लेकर आज तक सौम्या ने बस छल और धोखा ही देखा है। “जीवन के इस आखिरी मोड़ पर आकर उसे पता चला कि सारी ज़िन्दगी वह कई सारे भ्रमों में जीती रही। सबसे पहला भ्रम तो यह कि उसके माँ-बाप उसकी फ़िक्र करते हैं। पता चला कि माँ-बाप सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने लिए उसका उपयोग करते रहे। दूसरा भ्रम यह है कि भास्कर उससे प्रेम करते हैं। शादी ज़रूर भास्कर ने उसके साथ की लेकिन मन में कभी नहीं बसाया।उन्हें जितनी ज़रूरत रही, उतना ही उसके साथ रहे। शरीर से उसके साथ रहे, मन से नहीं। आदमी के पास स्वयं को भ्रम में रखने की अपार ताक़त होती है।”
अस्पताल में एक डॉक्टर अनवर भी है जो सौम्या का पुराना छात्र रहा है। वह सौम्या को पहचान जाता है और उसे यथासम्भव हौसला देता है। जीवन में नकारात्मकता के पहलू को दूरकर वह सौम्या को सदैव सकारात्मक रहने के लिए प्रेरित करता रहता है। सौम्या के बार-बार कैंसर के कारणों के बारे में पूछने पर उसका उत्तर बहुत सार्थक और सटीक है,“हमारे शरीर में लाखों सेल होते हैं। ये सेल परस्पर विरोध भी करते रहते हैं। कई बार कुछ सेल शरीर के सभी सेलों से अलग-थलग हो जाते हैं और वही सेल किसी न किसी रूप में एक गाँठ के रूप में बदल जाते हैं। यह वैसा ही है जैसे हमारे समाज के कुछ लड़के मुख्यधारा से कटकर विद्रोह के स्वर अपना लेते हैं और आतंकवाद की शरण में चले जाते हैं। उनके वहाँ जाने के अनेक कारण हो सकते हैं। इसी तरह कुछ सेलों के बाकी सेलों से अलग होने के भी कई कारण हो सकते हैं।” डॉक्टर अनवर भास्कर को भी उनकी सौम्या के प्रति की गई गलतियों का बोध करवाता है। एक प्रकार से वह भास्कर को सौम्या की पूरी ज़िन्दगी का अक्स दिखलाता है। अनवर के शब्द उल्लेखनीय हैं,“मैम की ज़िन्दगी को यदि आप करीब से देखें और उस पर विचार करें कि किस तरह की ज़िन्दगी आपने उन्हें दी है तो कई गहरे और खौफनाक अर्थ आपके सामने खुलेंगे। उनकी ज़िन्दगी में एक अदृश्य राक्षस आकर बैठ गया था। जानते हैं उस राक्षस का नाम। उस राक्षस का नाम है संवेदनशून्यता, अपनों के प्रति लापरवाही, आदमी का पत्थर हो जाना, आदमी में सारे भावों का ख़त्म हो जाना। आखिर ऐसा कैसे हो सकता है कि पूरा स्कूल जिसकी तारीफ़ करे, घर में कोई भी उसे पसंद न करे। कभी सोचा है आपने मिस्टर भास्कर त्रिवेदी।” सौम्या अपने आखिरी क्षणों को घोर निराशा, अवसाद और अकेलेपन में गुजारती है। अन्त में अपनी दोनों बेटियों के सिर पर हाथ रखकर वह संसार से विदा लेती है।
उपन्यास में सौम्या का वैचारिक द्वन्द्व बहुत ही स्पष्टता के साथ अनेक घटनाओं में पाठक को दिखाई देता है। सौम्या सदैव विज्ञानसम्मतता और वस्तुनिष्ठता की बात करती है। वैज्ञानिक चेतना की आधारभूमि पर चलती सौम्या जब-जब अपने आसपास घटते हुए घटनाक्रमों को देखती है तो इनके खोखलेपन और ढकोसलेपन पर हँसती है, व्यथित होती है और लोगों को अपने तरीके से यह समझाने की कोशिश भी करती है कि जीवन में कर्त्तव्यबोध सबसे पहली सीढ़ी है। किसी भी प्रकार के विश्वास और मान्यता का आधार कर्मठता ही है। यह सौम्या की जिजीविषा ही है जो इतनी नकारात्मक परिस्थितियों में रहते हुए भी वह सदैव आगे बढ़ने की राह बनाते चलती है। उपन्यास के जितने भी चरित्र हैं,वे सब कमोबेश हमारे आसपास के परिवेश से ही उठाए गए हैं। अंधी धार्मिकता और छद्म आध्यात्मिकता का पालन करते हुए तथाकथित शान्ति की प्राप्ति के लिए आज धर्म का स्वरूप शोर-शराबे, दिखावे और एक प्रकार की होड़ ने ले लिया है। सौम्या के पति और उसके ससुर जैसे चरित्र जहाँ अपने-अपने हिसाब से धर्म की व्याख्याओं और संस्थापनाओं में मानवमात्र के प्रति निष्ठुर होते जा रहे हैं, वहीं सौम्या बड़ी ही सहजता से धर्म के वास्तविक स्वरूप और मन की शांति की खोज में विचारमग्न है। तथाकथित धर्म का संगठित रूप उसकी दृष्टि में केवल अपनी जेब भरने का और अपनी कर्मठता से पीछे हटने का एक माध्यम मात्र है। इसीलिए धार्मिक जड़ताओं का प्रतिवाद और प्रतिरोध वह अपने तरीके से पूरे ज़ोर के साथ करती है। उपन्यास में हम देखते हैं कि अनेक जगह वह इस प्रतिरोध में सफलता भी प्राप्त करती है परन्तु अन्त में इस प्रतिवाद के लिए उसे अपना जीवन ही दाँव पर लगाना पड़ता है। हरियश राय प्रस्तुत उपन्यास में जीवन के धार्मिक,आध्यात्मिक,नैतिक पक्षों के साथ-साथ सामाजिक और शैक्षिक पक्षों पर भी गंभीरता से विचार करते हैं।शैक्षिक विषयों पर दार्शनिकता के दृष्टिकोण से लेखक ने विचार किया है और अनेक तर्कसम्मत प्रश्नों को पाठकों के सामने रखा है।
ध्यानपूर्वक विचार किया जाए तो नैतिक शिक्षा और धार्मिक शिक्षा दो अलग-अलग बातें हैं। नैतिक शिक्षा विद्यार्थी को आत्मबल प्रदान करती है, समाज में सहजता के साथ जीवनयापन के योग्य बनाती है। धार्मिक शिक्षा भी कमोबेश यही काम करती है लेकिन उसके ट्रीटमेंट में अन्तर है। धार्मिक शिक्षा में आस्था का तत्त्व कहीं अधिक हावी रहता है। आस्था का अपना एक बँधा-बधाया दायरा होता है, सीमाएँ होती हैं जिनसे बाहर शिक्षक, शिक्षार्थी और शिक्षा तो क्या स्वयं समाज भी जाने का साहस नहीं कर सकता है। नैतिक शिक्षा आत्मवाद और धार्मिक शिक्षा वर्चस्ववाद को प्रश्रय देती है। वर्चस्ववाद केवल उन्हीं लोगों तक शिक्षा की पहुँच होने देता है जो उसके दायरे में आते हैं। इसलिए वर्चस्ववादी सोच शिक्षा को कुलीनता के दायरे में सीमित कर देती है। धार्मिक शिक्षा ऐसे अनेक गूढ़ रहस्यों को सुलझाने में लगी रहती है जिनका बहुत सीधा सरोकार आमजन से नहीं होता। धार्मिक शिक्षा के समक्ष छद्म श्रद्धा और दिशाहीन ज्ञान का प्रसार होता है। वह उसी को सामाजिक और सांस्कृतिक सम्वर्धन का सफलसिद्ध सूत्र मानती है और उसी की माप-तौल में व्यस्त रहती है। नैतिक शिक्षा व्यक्ति को व्यक्ति के हिसाब से ढलने,बदलने और संभलने देती है जबकि धार्मिक शिक्षा की जकड़बंदी में बौद्धिकता और सम्वेदना का कोई स्थान ही नहीं होता। धार्मिक और नैतिक शिक्षा दोनों के लिए पुनरुत्थान और संस्कृति के अर्थ अलग-अलग हैं। उपन्यास में सौम्या त्रिवेदी नैतिक मूल्यों को सर्वाधिक महत्त्व देती रही है। लेकिन आगे जाकर उसे धार्मिक मूल्यों के आगे झुकना पड़ता है। धार्मिकता का वर्चस्व नैतिकता पर हावी हो जाता है। मठ में पिया गया काढ़ा भी इसी धार्मिक वर्चस्ववाद का एक ऐसा प्रतीक बनकर उपन्यास में सामने आता है जो कहीं आगे जाकर सौम्या त्रिवेदी की जीवनलीला को ही लील जाता है। संकुचित अर्थ में जो धर्म का अर्थ है, व्यापक अर्थ में वही नैतिकता का रूप धर लेता है जिसमें चारित्रिक पवित्रता, आध्यात्मिकता और विश्वास जैसे तत्त्वों का समन्वित रूप अपना स्थान ग्रहण करता है। विश्व के अधिकांश देशों में शिक्षा राज्य के ही आश्रय पर रही है। शिक्षा के उद्देश्यों पर किसी देश की ज़रूरतों, समस्याओं, वहाँ की संस्कृति और सभ्यता का और सामाजिक स्थितियों का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। इसी क्रम में पाठ्यक्रम भी प्रभावित होता है, उस पाठ्यक्रम को पढ़ाने वाले भी और अन्ततः पढ़ने वाले भी। एक जनतांत्रिक शासन व्यवस्था में शिक्षा देश के नागरिकों के सर्वांगीण विकास का साधन होती है, इसीलिए शिक्षा व्यवस्था को नागरिकों की जिम्मेदारी पर ही छोड़ दिया जाता है। जनतांत्रिक शासन व्यवस्था का काम मात्र शिक्षा के विकास हेतु बनाई गई योजनाओं का सफल क्रियान्वयन करना और उन्हें अधिक से अधिक सुविधाएँ मुहैया करवाना भर होता है। राज्य को हस्तक्षेप का कोई अधिकार शिक्षा व्यवस्था में नहीं होना चाहिए। इस प्रकार शिक्षा व्यवस्था, समुदाय और शासन व्यवस्था के मध्य एक सन्तुलन और समन्वय स्थापित रहता है। परन्तु आज का दौर हम इससे उलट पाते हैं। आज शिक्षा व्यवस्था पर राज्य का अनपेक्षित हस्तक्षेप कहीं अधिक है। किसी भी धर्म,मज़हब,जाति को शिक्षा व्यवस्था ने कभी भेदभाव की दृष्टि से नहीं देखा परन्तु आज ये सभी अवयव एक-दूसरे पर अघोषित-सा वार और प्रहार करते नजर आ रहे हैं। सौम्या त्रिवेदी इन सब बातों को समझती है लेकिन वह खुद इस अंतर्जाल में फँसकर रह जाती है। बीमारी के दिनों में जब उसे महसूस होता है कि पहले पिलाया गया काढ़ा ही कहीं न कहीं इन सब समस्याओं की जड़ में जाकर बैठा हुआ है। इसी तथ्य को यदि हम सामाजिक सन्दर्भों में व्यापक स्तर पर देखें तो महसूस होगा कि धर्म के अवयव आज की सामाजिक,राजनैतिक और शैक्षिक व्यवस्था की जड़ों में जाकर बैठे हुए हैं। विडम्बना यह है कि जडों में बैठे हुए ये अवयव स्वयं जड़ बन गए हैं और काहिलपन व कायरता के कारण बन गए हैं।
आज के वैज्ञानिक युग में जबकि भूमंडलीकरण और भौगोलिक वर्गीकरण जैसे शब्दों के मायने भी छोटे पड़ने लगे हैं; उस समय में समावेशी, प्रगतिशील और वैश्विक प्रवृत्तियों को आत्मसात् करने वाली धार्मिकता की नितांत आवश्यकता है। पुरानी मान्यताओं और रूढ़िवादिता का ‘दहन’ केवल इसलिए न हो कि वे पुरानी हैं। यदि नयी मान्यताओं और विचारों के सृजन और संस्थापनाओं में वे बाधक बन रही हैं, यदि आज के वैज्ञानिक युग में रहन-सहन की सहजता पर वे रोक लगा रही हैं तो उनका ‘दहन’ आवश्यक है। उपन्यास के माध्यम से लेखक ने आज की ज्वलंत समस्याओं पर अपनी लेखनी चलाने का साहस किया है जो सर्वथा प्रशंसनीय है। कभी प्रख्यात् बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा ने कहा था कि मेरा धर्म बहुत ही सरल है, मेरा धर्म दयालुता है। आज आवश्यकता इसी बात की है कि धर्म और आध्यात्मिकता में सरलता, तरलता, सौजन्यता, दयालुता जैसे तत्त्वों का अन्वेषण किया जाए और मानव धर्म पर कुठाराघात करने वाले तत्त्वों की पहचानकर उनका ‘दहन’ किया जाए।
नितिन सेठी जी ने उपन्यास के मर्म को बहुत गहराई से लिखा है। उनका यह विश्लेषण उनके आलोचनात्मक विवेक का परिचायक है।
नितिन सेठी ने उपन्यास के मर्म को समझ कर गहराई से विश्लेषण किया है। यह उनके आलोचनात्मक विवेक का परिचायक है