Sunday, October 27, 2024
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डॉ. नितिन सेठी की कलम से पुस्तक समीक्षा – 99 कहानियाँ: मोहम्मद ताहिर

पुस्तक: 99 कहानियाँ- मोहम्मद ताहिर
चयन व संपादन: डॉ. एम. फ़ीरोज़ खान
प्रकाशक: विकास प्रकाशन, कानपुर
मूल्य: ₹ 1500/-
पृष्ठ: 708
मोहम्मद ताहिर (1939-2022) संजीदा कहानीकार के रूप में जाने जाते हैं। यथार्थवादी साठोत्तरी हिन्दी कहानी के वे एक महत्त्वपूर्ण लेखक रहे हैं। मोहम्मद ताहिर का जन्म जुलाई 1939 में मिर्जापुर के चुनार कस्बे में हुआ था। उत्तर प्रदेश सचिवालय में क्लर्क की नौकरी उन्होंने आरंभ की और बाद में अपने परिश्रम और लगन से सहायक बिक्री कर अधिकारी के पद तक पहुँचे।
मोहम्मद ताहिर की कहानियों की रचनाधर्मिता का मूल उत्स यथार्थवाद है। मध्यवर्गीय समाज की परिस्थितियों-विसंगतियों-विषमताओं का जीवंत वर्णन मोहम्मद ताहिर की कहानियों में यथार्थ की सृष्टि करता है। इसीलिए उनकी भाषा आम बोलचाल की भाषा बन सकी है। कहानी के साठोत्तर कालखंड के प्रख्यात् कथाकार मोहम्मद ताहिर के ‘एक उदास खुशी’,‘कवच’ जैसे कहानी संग्रह सामाजिक सम्बन्धों का एक ऐसा परिदृश्य उत्पन्न करते हैं जिसमें समसामयिकता है, जीवन जीने की कोशिशें और कवायद हैं, व्यक्ति-संघर्ष हैं। सामाजिक जीवन की वास्तविकता बहुत स्वाभाविकता और पैनेपन के साथ मुहम्मद ताहिर की कहानियों में अभिव्यक्ति पाती है। सामाजिक वातावरण एक प्रकार से वास्तविक जीवन का ही प्रतिचित्रण बनकर उनकी कहानियों में उपस्थित होता है। तत्कालीन समय की ‘धर्मयुग’, ‘साक्षात्कार’, ‘निहारिका’,‘कहानी’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ स्थान पाती रही थीं। आम आदमी की पीड़ा, स्त्री मन का प्रेम, सामाजिक जीवन, गहन जीवनानुभव, सामाजिक सम्बंधों का दृश्यांकन आदि उनकी कहानियों की उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं और उन्हें अपने समकालीन कथाकारों में एक विशिष्ट स्थान प्रदान करती हैं। यद्यपि उनका कहानी सृजनकाल दस-बारह वर्षों का ही रहा है, परन्तु फिर भी अपनी कथावस्तु और प्रेजेंटेशन के कारण उनकी कहानियाँ विशिष्ट बन पड़ी हैं। साहित्य जगत् के लिए यह सौभाग्य की बात ही कही जाएगी कि मोहम्मद ताहिर द्वारा लिखी गई कहानियों का एक समग्र बृहदाकार संग्रह ‘99 कहानियाँ: मोहम्मद ताहिर’ शीर्षक से डॉ. एम. फ़ीरोज़ खान के सम्पादन में विकास प्रकाशन, कानपुर से वर्ष 2023 में प्रकाशित हो चुका है। प्रस्तुत समग्र संग्रह में अनेक कहानियाँ हैं- छोटी भी और बड़ी भी। सबसे लम्बी कहानी है ‘जुड़ने के बाद’ जो कुल बत्तीस पृष्ठों में समाहित है। पितृसत्तात्मकता, वैवाहिक जीवन की समस्याएँ परंपरामूलक समाज की बंदिशें, मनोविज्ञान पर आधारित घटनाएँ, तत्कालीन सामाजिक और आर्थिक स्थिति और उससे उत्पन्न समस्याएँ, विभिन्न प्रकार की सामाजिक बुराइयाँ और उनके दुष्प्रभाव, धन की लोभ-लिप्सा आदि मोहम्मद ताहिर की कहानियों के विषय हैं।
मुहम्मद ताहिर मनुष्य होकर मनुष्य की चिन्ता करते हैं। हर मानव के अपने छोटे-छोटे सपने होते हैं, उन सपनों को पूरा करने की आकांक्षाएँ होती हैं और उन सपनों की प्राप्ति के लिए कुछ प्रयास भी होते हैं। ये प्रयास एकल भी हो सकते हैं और सामूहिक भी। भारत में एक समय संयुक्त परिवार प्रचलन में रहे परन्तु आज़ादी के बाद इस स्थिति में व्यापक परिवर्तन आने लगा। औद्योगिकीकरण के फलस्वरुप परिवार संयुक्त से एकाकी होने लगे। लोग ग्रामों को छोड़कर  शहरों की ओर आने लगी। इसके पीछे अनेक कारण थे। परिवार एकल होने लगे। अर्थतंत्र हावी होने के कारण आत्मकेन्द्रित व्यक्ति और आत्मकेन्द्रित परिवार सामने आए। महानगरीय जीवन शैली एकाकीपन, रिक्तता और व्यस्तता के जाल में फंसकर रह गई। संयुक्त परिवार में जहाँ साथ-साथ चलने का भाव होता था, एकल परिवार अपने अकेलेपन के संत्रास को भोगने के लिए विवश हो गए। मुहम्मद ताहिर की कहानियों के पात्रों में अकेलापन और उलझन इसीलिए खूब नज़र आते हैं। अपनी मनोवेदना किसी से कह न पाने की समस्या, निरंतर एकाकी जीवन में घुट-घुटकर जीवनयापन की समस्या इनकी कहानियों के पात्रों की विशेषताएँ हैं। जैसे-जैसे जीवन शैली बदलती है उसी के सापेक्ष हमारा जीवन भी बदलता जाता है। पुराने जीवन मूल्यों के खंडित होने के साथ नये जीवन मूल्य अपना स्थान ग्रहण करते हैं और ये नये जीवन मूल्य मनुष्य की गतिविधियों को प्रेरित करते हैं।
‘पिघलती बर्फ़’ कहानी में बलजीत और अंजना पति-पत्नी हैं। बलजीत को अपने ऑफिस के काम से जापान के दौरे पर जाना पड़ता है और उसका काफ़ी समय वहाँ लग जाता है। उसकी पत्नी अंजना घर पर अकेली रह जाती है। इस बीच अंजना का राजेश माथुर नाम के व्यक्ति से सम्पर्क हो जाता है। बलजीत के घर लौटकर आने पर उसे पता लगता है कि अंजना माथुर साहब के साथ आगरा गई हुई है। अपने घरेलू नौकर से यह सब जानकर बलजीत को गहरा धक्का लगता है। अंजना के लौटकर आने पर वह उससे माथुर साहब से सम्बंधों के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करता है। बलजीत के यह कहने पर कि वह सारी वास्तविकता जानता है, अंजना फफककर कहती है,“मैं दोषी हूँ। मैं स्वीकार करती हूँ। मैंने आपके साथ विश्वासघात किया है लेकिन आइंदा आगे वैसा कुछ भी नहीं होगा। बस, तुम मुझसे दूर न होना। तुम मुझे हमेशा अपने पास रखना।” एक अकेली औरत की जीवनचर्या, उसका मानसिक संत्रास और किसी के साथ को पाने की छटपटाहट प्रस्तुत कहानी का मूलभाव है। अंत में पिछला सब कुछ भुलाकर दोनों एक नया जीवन जीने का वायदा आपस में करते हैं और दोनों के रिश्तों पर जमीं बर्फ़ भी पिघलती जाती है।
सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार अपनी रोज़मर्रा की जरूरतों को पूरा करने की कोशिशों में ही अपनी सारी शक्ति लगा देता है। जीवन में आने वाले उत्सवों, आनंद के क्षणों और सुख-दु:ख का सामना करने के लिए मध्यमवर्गीय परिवार के व्यक्ति के पास कोई साधन, साहस और सम्बल नहीं होता जिनके सहारे से वह इन सबका सामना कर सके। छोटी-छोटी खुशियों को मनाने के लिए और अपनी उत्सवधर्मिता को बरकरार रखने के लिए उसे न जाने एक साथ कितनी ही चीज़ों से समझौता करना पड़ता है। अपने करोड़पति मालिक के भतीजे की शादी में शामिल होने के लिए ‘बरात’ कहानी का पात्र अनेक प्रकार से अपनी निम्न-मध्यमवर्गीय आर्थिक स्थिति को छिपाने की कोशिश करता है लेकिन फिर भी यह सब सामने आ ही जाता है। बहुत मुश्किल से वह बरात में शामिल होने के लिए चलताऊ-सी एक पैंट-कमीज़ का इंतजाम करता है। पात्र के बरात में चलने का मंजर देखिए,“नदी में बहती किसी वस्तु की भाँति वह बारात के साथ-साथ चलता रहा। सभी बरातियों को उसने सरसरी निगाह से देखा। सब कीमती कपड़े पहने थे। कुछ के कॉलरों पर फूल या कीमती पिन लगे थे। उनके चेहरे चाल से वास्तव में बरात में सम्मिलित होने का उत्साह झलकता था। उनके मध्य वह स्वयं को बिल्कुल अलग महसूस करने लगा। उसने एक बार स्वयं को मन ही मन कोसा भी कि वह क्यों चला आया! न आता तो बाबूजी शायद थोड़ा नाराज़ होते। लेकिन उन्हें दो-चार दिन पहले बता देना चाहिए था जिससे कपड़ों की व्यवस्था कर लेता।” शादी वाले पंडाल में वह पात्र देखता है कि अचानक उसका बेटा राकेश भी बिन बुलाए अंदर घुस आया है और दरवाज़े पर खड़े आदमी ने उसके बेटे का हाथ पकड़कर उसे बाहर धकेल दिया है। परन्तु वह अपने बेटे राकेश को देखकर भी इस बात से अनजान बना रहता है।निम्न आर्थिक स्थिति के कारण जीवन में उत्साहहीनता और उत्सवहीनता की कैसी-कैसी अनचाही स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, इस कहानी में दर्शाया गया है। अपना मान-सम्मान बचाए रखने के ढकोसले और झूठे दिखावे कभी-कभी अपनों को भी खुद से दूर कर देते हैं। ‘चादर से बाहर निकलते पाँव’ मध्यमवर्ग की छोटी-छोटी लालसाओं और इच्छापूर्तियों में संलग्न सामान्य परिवारों की कहानी है। ऐसा रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में अक्सर होता है कि अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हम खर्च के ऐसे भँवर में फँसते जाते हैं जिससे बाहर निकलने का कोई रास्ता हमें दिखाई नहीं देता। चादर से बाहर निकलते पाँव हमेशा ही कष्टदायक स्थितियाँ उत्पन्न करते हैं। कहानी पड़ोसी धर्म निभाने को उद्यत पड़ोसी की उदारता को भी सामने लाती है। जीवन में सामान्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अक्सर ही पड़ोसियों की सहायता ली ही जाती है। परन्तु कहानी इसलिए विशिष्ट बन पड़ी है क्योंकि ये समस्याएँ और आवश्यकताएँ उसी पड़ोसी को देखकर मन में उत्पन्न हुई हैं।
‘वसीयत’ रिश्तों के उलझाव और जीवन के बिखरते ताने-बाने की कहानी है, जिसमें अपनी खाला के अपने पिता से शादी होने पर बेटी मोहसिना को यह सब अच्छा नहीं लगता और वह अपनी नफीस खाला से धीरे-धीरे नफरत करने लगती है। मोहसिना की फूफी का लड़का युनूस मोहसिना के दिल में नफीस खाला के प्रति शक भर देता है।मोहसिना को एक उपन्यास की कहानी सुनाते-सुनाते वह यह दर्शाता है कि नायिका को बड़ी ही मासूमियत से स्वयं नायक ही मौत के घाट उतार देता है। उसके शब्द हैं,“यह भी तो हो सकता है कि तुम्हारी नयी अम्मी शुगर कोटेड कुनीन हों, यह मेरा अनुमान ही है बस। चर्चा चली थी, मामू के इतनी जल्दी शादी कर लेने पर। दबी जबान से यही बातें होती थीं कि कहीं तुम्हारी नफीस खाला ने ही तो तुम्हारी अम्मी को रास्ते से नहीं हटा दिया। दुनिया में यह सब होता है मोहसिना! सबसे इतना ज़्यादा स्नेह, किसी को शिकायत की गुंजाइश नहीं, अपने कृत्यों को खूबसूरती से ढके रहने के लिए पर्दा भी तो हो सकता है।” शक का बीज दिल में रखकर मोहसिना यहाँ से नफीस खाला से बदला लेने की बात मन में संजो लेती है। कहानी के अंत में मरने से पहले नफीस खाला मोहसिना को अपनी खुशी और इच्छापूर्ति के लिए कभी दूसरे का अहित न सोचने की सीख देती है।
राजनीति में अक्सर रक्षक ही भक्षक बनकर भोली-भाली जनता का शोषण करते आए हैं। प्रत्येक कालखंड में राजनीति ने ऐसे चेहरे,ऐसे चरित्र और ऐसी कुचालें चलने वाले लोगों को बहुतायत से और बहुत करीब से देखा है। भारत के हर गाँव-नगर की राजनीति में यह सामान्य-सी बात रही है। ग्रामीण अंचलों में तो यह समस्या और भी बड़ी है। ‘हम वैसे ही हैं’ कहानी इसी परिप्रेक्ष्य को सामने लाती है। यह कहानी भले ही किसी एक गाँव को आधार बनाकर लिखी गई है परन्तु ध्यान से देखने पर प्रत्येक गाँव-प्रत्येक शहर में होने वाले चुनावों, चुनावी रंगों और चुनावी चालों का यह कहानी चित्रण करती है। गाँव का जमींदार क्रूर और अमानवीय है जिसके खिलाफ़ गाँव के कुछ समझदार लोग एकत्रित होते हैं, बयानबाज़ी होती है। जमींदार अपने धनबल और बाहुबल से इन सबके विरोध को दबाना चाहता है। खून बहता है, लोगों को डराया-धमकाया जाता है और अन्त में जनता के विरोध के सामने जमींदार को गाँव छोड़कर भागना पड़ता है। लोगों का खोया हुआ विश्वास पुनः जागृत होता है और यह महसूस होता है कि लोक की शक्ति अर्थात् लोकतंत्र लोगों की समस्याएँ दूर करेगा। रहनुमा अब स्वयं सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले लेते हैं और पुनः वही दौर शुरू होता है, जिसे जमींदार ने छोड़ गया था। अंतर केवल इतना है कि पहले एक व्यक्ति जोर-जबरदस्ती से शासक बना बैठा था और अब लोगों द्वारा चुने गए व्यक्ति लोगों पर शासन किया करते हैं और अपना भला करते हैं। गाँव का युवा तेजनारायण इन सब बातों पर क्रुद्ध है,“उसके बाद के चुनाव में तेजनारायण ने अपने कुछ युवा साथियों को राजी कर लिया था और कहा था–इस बार हमारे साथी सभी जगहों के लिए चुनाव लड़ेंगे। हमारे पुराने अगुआ कुछ नहीं कर पाए हैं। हम वह सब कर दिखाएंगे, जो वह बस कहा करते हैं। फिर बड़े विश्वास से वे लोगों को अपनी बातें बताने लगे थे। लेकिन चुनाव के निकट आते-आते अगुआ लोगों के भोंपुओं के शोर में उनका कंठस्वर दब गया था। उनके पास वे साधन न थे जो अगुआ लोगों के पास से। अबकी बार अगुआ लोगों ने नोटों से हमें खरीद दिया था। इस बार फिर तेजनारायण नहीं चुना जा सका और वही पुराने अगुआ गाँव के फिर से तीन वर्ष के मालिक बन बैठे थे।” क्या यह मंजर आज नहीं चल रहा है! ध्यान से सोचा जाए तो पिछले सत्तर सालों की परिस्थितियों में बहुत अधिक अंतर नहीं आया है। मुखोटे भले ही अलग-अलग हों लेकिन चेहरे अंदर से सभी के एक से ही हैं। कहानी सभ्य समाज के राजनीति से मोहभंग की ओर भी इशारा करती है। ‘सत्य की खोज’ में महेश चंद्र नाम के क्लर्क को रिश्वत लेने के आरोप में निलंबित कर दिया जाता है। महेश चंद्र अपनी सफ़ाई में तीन पृष्ठों का एक पत्र अपने उच्चाधिकारियों को लिखता है जिसकी जाँच का ज़िम्मा डिप्टी सेक्रेटरी टैक्सेशन धीरज किशोर को मिलता है। एक शादी से लौटते हुए वह इस केस की गहरी छानबीन करना चाहता है। साथ में उसकी पत्नी अरुणा भी है। अपनी सूझबूझ, न्यायप्रियता और ईमानदारी के बल पर धीरज वास्तविक स्थिति की खोज करता है। महेश चंद्र के घर पहुँचकर वह महेश चंद्र की भी ईमानदारी की परीक्षा लेता है और नौकरी की बहाली के लिए कुछ रकम की उससे माँग करता है। इस पर महेश चंद्र के शब्द हैं,“मेरा विश्वास था कि सत्य की अन्त में अवश्य विजय होती है। लेकिन इन डेढ़-दो वर्षों में जिन यातनाओं से गुजरा हूँ, उन्होंने मेरे विश्वास को हिला दिया है। और आप सत्य की कीमत माँगने आए हैं। कीमत तो जनाब असत्य की होती है जिसे लेकर लोग खुले आम असत्य को सत्य बताते हैं और जिसे मैं हमेशा…। नौकरी पर बहाल होने पर यदि मुझे पिछले तनख्वाह का बकाया मिला तो मैं सारा पैसा आपको दे दूँगा बशर्ते कि आप…आप मुझे उन यातनाओं का और लांछनों का मुआवजा दे सकें जो मैंने भोगे हैं।इन दिनों जिन कष्टों से जिन अपमानजनक परिस्थितियों से गुजरा हूँ, उनका मूल्य क्या दिलवा सकेंगे आप?” कहानी के अंत में धीरज किशोर प्रकाश चंद्र को अपनी पूरी जाँच के बारे में बताता है और उसकी बहाली के प्रति अपना विश्वास भी प्रकट करता है। इस प्रकार ‘सत्य की खोज’ कहानी छल-कपट, धोखेबाजी और स्वार्थसिद्धि के अनैतिक प्रयासों पर सत्य की जीत दर्शाती है।
‘एक दिन’ दफ्तर में काम करने वाले एक सामान्य वर्गीय क्लर्क शर्मा जी की कहानी है जिनकी पूरी दिनचर्या इस कहानी में दर्शायी गई है। प्रतिदिन सुबह उठना, अभावग्रस्त ज़िन्दगी से जूझना, ऑफिस पहुँचना, ऑफिस के काम में दिनभर खटना, बीच-बीच में पान-तम्बाकू-चाय लेकर स्वयं को रिफ्रेश करना, घर आकर पुनः काम में लगी हुई पत्नी को देखना और अन्त में रात का खाना खाकर सो जाना– हज़ारों लोगों की एक सामान्य-सी दिनचर्या इसी प्रकार की होती है। मोहम्मद ताहिर के लेखन की यह खासियत अनेक कहानियों में नज़र आती है कि सामान्य जीवन में स्थान लेने वाली छोटी-छोटी घटनाओं को वह कहानी के माध्यम से पाठक के सामने लाकर रख देते हैं। कहानी पढ़ते हुए पाठक अपनी तारतम्यता में इन घटनाओं के निहितार्थ स्वयं निकालता है। कहानी के मुख्य पात्र शर्मा जी अपनी मामूली तनख्वाह में पांच लोगों के परिवार का पालन-पोषण कर रहे हैं। उनके तीन छोटे बच्चे हैं। लेखक यह कहकर आगे बढ़ जाता है परन्तु पाठक स्वयं अपना अर्थ स्पष्ट कर लेता है कि छोटी-छोटी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी कहानी के पात्रों को कितना कठोर परिश्रम करना पड़ रहा है। इसी प्रकार साइकिल से दफ्तर जाते हुए लेट हो जाने के डर से सड़क पर चलते छोटे-बड़े वाहनों का शर्मा जी को कोई ध्यान नहीं रहता। यहाँ शर्मा जी की अन्यमनस्कता और ऑफिस के वातावरण का दबाव का अनुभव पाठक स्वयं अपने मन में करता है। ऑफिस में भी फैली हुई मोटी-मोटी फाइलें, फुलस्केप के काग़ज़ और उनमें लाइनें खींचकर भरी जाने वाली सूचनाओं के माध्यम से यह भाव स्पष्ट हो जाता है कि शर्मा जी पर ऑफिस के काम का भीषण दबाव है। कहानी का पात्र रात में फुर्सत के पलों में अपनी पत्नी के बारे में सोचता है,“फिर भी कोई अभाव है जो कभी-कभी उसे खटकने लगता है। बीवी का जो चेहरा सवेरे होता है, उससे भी नीरस और रूखा शाम को। बिल्कुल आकर्षणहीन। साज-श्रृंगार की तो इसे फ़िक्र ही नहीं है। ज़िन्दगी के दिन जैसे अजीब बेजारी से काट रही हो। पति के प्रति, पति को प्रसन्न रखने के लिए उसके क्या कर्त्तव्य हैं, उसके बारे में शायद कभी सोचती ही नहीं। कर्त्तव्यों का ख़्याल आते ही उसे अंदर से जैसे एक चोर झाँकता हुआ महसूस हुआ। वह ही कहाँ पत्नी को कोई प्रसन्नता दे पाता है। उसके प्रति अपने कर्त्तव्य कहाँ पूरा कर पाता है। कहाँ उसे घुमा-फिरा पाता है, कहाँ कोई उपहार दे पाता है। पत्नी की भी तो कुछ ख्वाहिशें होंगी अंदर दबी हुईं, भले ही स्पष्ट रूप से न बताती हो।” ध्यान से देखा जाए तो ऐसा एक दिन हम सबकी ज़िन्दगी में अलग-अलग रूपों में हर दिन ही आया करता है। मुहम्मद ताहिर की कहानियों में इस प्रकार की बिंबात्मक भाषा उनकी विशिष्ट पहचान है।
‘वृद्धावस्था को आधार बनाकर भी कहानीकार मोहम्मद ताहिर ने अनेक कहानियों की रचना की है। बुजुर्गों का मोह अपने परिवार के प्रति बहुत अधिक रहता है। उनका सारा जीवन जिन परिवारीजनों के मध्य गुजरता है, अन्त समय तक वे उनका साथ छोड़ना नहीं चाहते। वास्तविकता तो यह है कि यह साथ चाहकर भी नहीं छूटता। न तो शारीरिक रूप से और न ही मानसिक रूप से। ‘मोह’ कहानी में यही दर्शाया गया है। सत्तार चाचा वयोवृद्ध हैं। अब वह अत्यधिक बीमार हैं और घर के एक कमरे में दिनभर अकेले ही पड़े रहते हैं। घर की आर्थिक स्थिति भी ज्यादा अच्छी नहीं है। अपनी उपेक्षा से व्यथित होकर अब वह मरना चाहते हैं। अपने पुराने मित्र के बेटे अमजद के आने पर उन्हें अपना सुनहरा दौर याद आ जाता है। अमजद से भी वह अपनी इहलीला को समाप्त करने की बात कहते हैं। अमजद एक अस्पताल में स्टोर कीपर है इसलिए वह उससे नींद की गोलियाँ मांगते हैं। सत्तार चाचा के शब्द हैं,“नहीं बेटा सच कह रहा हूँ। अब ज़िन्दगी में रह ही क्या गया है। वह बड़े हसरत भरे स्वर में बोले,“लेटे-लेटे बस मेरे लिए एक ही काम रह गया है सोचना। बड़ी अजीब-अजीब बातें सोच जाता हूँ और सोच-सोचकर अंदर ही अंदर कुढ़ता रहता हूँ। अब मेरी कोई कद्र नहीं रह गई है। एक दिन यह ख़्याल भी दिमाग में आया था कि जैसे जो कपड़े जब मरम्मत के काबिल न रहकर इस्तेमाल करने के लायक नहीं रह जाते, तब लोग उन्हें एक कोने में डाल देते हैं या फेंक देते हैं, बिल्कुल वही हाल आदमी का भी होता है। किसी आदमी से लोग मोहब्बत या ताल्लुकात तब ही तक बनाए रखते हैं जब तक उनमें जान हो, इन्हीं ताल्लुकात को वापस करने की सलाहियत हो। लेकिन आदमी जब हर प्रकार से माजूर हो जाता है तो लोग उससे किनाराकशी करना शुरू कर देते हैं क्योंकि उससे मिलकर किसी को खुशी या संतोष नहीं मिल पाता। साँसों का सिलसिला जब खत्म हो जाएगा तब ये लोग एक चैन की लम्बी साँस लेकर मेरी लाश को जल्दी से जल्दी दफनाने की कोशिश करेंगे।” अमजद इन सब बातों को समझकर सत्तार चाचा के लिए बेमन से नींद की छ: गोलियाँ ले आता है। अपने घर पर सत्तार चाचा के देहांत की सूचना का वह अब बेसब्री से इंतज़ार करता है। परन्तु जब कोई खबर नहीं आती तो वह स्वयं ही सत्तार चाचा के घर पहुँच जाता है। सत्तार चाचा स्थिति को स्पष्ट करते हुए बताते हैं,“एक गोली खाई थी बस। दूसरी खाने की हिम्मत न हुई। इन साँसों का मोह, इधर-उधर से आती आवाज़ों का मोह, बेटे तोड़ते नहीं बना।” सत्तार चाचा के जीवन में भले ही कोई जिजीविषा न बची हो परन्तु फिर भी हर वृद्ध व्यक्ति अपने बेटों-बहू और नाती-पोतों से गहरा जुड़ाव महसूस करता है और यह जुड़ाव वह अपनी आखिरी साँस तक बने रहने देना भी चाहता है। कहानी का सम्पूर्ण सार इन्हीं दो पँक्तियों में अंतर्निहित है। वास्तव में मोह के धागे ही व्यक्ति को दुनियादारी से इस कदर बांधे रखते हैं कि साँसों की डोर उलझकर इनके जाल से बाहर नहीं आ पाती। मोह की यह अदृश्य डोर ही अकेले इंसान को भी बार-बार दुनिया के साथ जुड़ने और चलने की ओर प्रेरित करती है। एक वृद्ध का एकाकीपन, जीवन जीने की इच्छा का त्याग और अवसाद तो यहां दिखाई ही गया है, साथ ही वृद्धों के प्रति परिवार के लोगों का उपेक्षापूर्ण व्यवहार भी इस कहानी में स्पष्ट है। 
सम्पत्ति के लालच में अंधा व्यक्ति अपने माता-पिता को भी नहीं पहचानता। ‘ज़हर’ कहानी में यही दर्शाया गया है। पिता के जाने के बाद दोनों बेटे पिता की संपत्ति के लिए आपस में ही झगड़ पड़ते हैं। पिता की कमाई हुई दौलत का कोई स्पष्ट पता नहीं चल पा रहा है। दोनों भाई बड़ी ही उद्विग्नता से अपनी माँ से इसकी जानकारी करते हैं। बड़ा भाई माँ को ही सम्पत्ति का राज़दार मानकर माँ पर चिल्लाता है,“अम्मा बनो मत। तुम्हें सब मालूम है। भैया के स्वर में अजीब-सा डरावनापन था। तुम लोगों की कसम बेटे…। कसम-वसम बकवास है। भैया तीखे स्वर में बोले,“सच-सच बताओ रकम कहाँ है। अम्मा का चेहरा पीला पड़ गया। वह भयातुर दृष्टि से भैया की ओर देख रही थीं।” भरे-पूरे घर-परिवार में माँ की यह हालत दर्शाती है कि लालच रिश्तों को और उनके आपसी बंधन को मिटा देती है। दौलत ने माँ-बेटे और भाई-भाई के बीच भी दरार पैदा कर दी है। मोहम्मद ताहिर इस ज़हर का असर इन शब्दों में बयां करते हैं,“मैं अवाक्-सा खड़ा रह गया। मुझे लगा कि भैया का हाथ अभी-अभी अम्मा की गर्दन पर नहीं था बल्कि माँ-बेटे के उन सम्बन्धों पर था जिनकी कोई संज्ञा नहीं दी जा सकती और जो माँ-बेटे के बीच सृष्टि के आरम्भ से चले आ रहे हैं। मैं बड़े दुःख के साथ सोचने लगा कि अब्बा द्वारा जमा की गई दौलत तो किसी दूसरे के साथ चली गई थी लेकिन उसका ज़हर हमारे बीच रह गया था।” समय का बदलाव आज इस कदर रिश्तों पर हावी हो गया है कि सन्तान बूढ़े माता-पिता को भी धन-दौलत के आगे कुछ नहीं समझती है। दिन-त्योहार हमारी सांस्कृतिक विरासत हैं। इसी के साथ ये सामाजिक विरासत भी हैं। त्योहारों के माध्यम से समाज में व्यक्ति आपस में जुड़ता-मिलता है और अपनी दिनचर्या से अलग होकर एक सकारात्मक वातावरण में जीता है। वृद्धावस्था में त्यौहार का मात्र यही अर्थ नहीं रह जाता। वृद्धावस्था में भी त्यौहार आनंददायक होते हैं परन्तु इनका स्वरूप कुछ दूसरा हो जाता है। अब यह आनंद अपनों से मिलने का, उन्हें देखने का आनंद हो जाता है। ‘ईद’ कहानी इसी तत्त्व को रेखांकित करती है। अफसरी बेग़म की तीन-तीन शादियां हो चुकी थीं। अब वह विधवा होकर अपना बुढ़ापा कट रही थीं। परन्तु दु:ख ने उनका पीछा नहीं छोड़ा था। लेखक के शब्दों में,“कभी-कभी एक बड़ा दु:खद खालीपन और उदासी उनमें भर जाती। पांच कमरों के उस बड़े से बंगले में एक नौकर लतीफ़ और खालिदा के साथ वह महसूस करतीं जैसे किसी सूने मकबरे में रह रही हों। कभी-कभी उनका जेहन इन्हीं कमरों में बच्चों की उन्मुक्त हँसी और सिसकियों की आवाज़ें सुनता, जवान बहुओं का अपने पतियों से फुसफुसाहटों के स्वर में वार्तालाप सुनता और फिर वह एक दीर्घ नि:श्वास खींचकर रह जातीं।” परन्तु एक दिन ईद के त्यौहार पर अचानक उनके बच्चे और नाती-पोते मिलने आ जाते हैं और अफसरी बेग़म को त्योहार का मर्म समझ में आ जाता है। कहानी में वृद्धावस्था में ईद सबसे मिलने-जुलने की खुशियाँ लेकर आती है। वृद्धावस्था जीवन का वह मोड़ है जहाँ व्यक्ति अपने जीवनभर के क्रियाकलापों का आकलन करता है। वह भलीभाँति जानता है कि आने वाली पीढ़ी के लिए थाती के रूप में वह क्या छोड़ जाएगा। मोहम्मद ताहिर ने जीवन के लगभग सभी पक्षों को आधार बनाकर कहानियाँ लिखी हैं। ढलती उम्र और वृद्धावस्था पर आधारित उनकी कहानियाँ भी उतनी ही मार्मिक और प्रभावी बन पड़ी हैं। जीवन को देखने और समझने की जो दृष्टि मोहम्मद ताहिर के पास रही, वह उन्हें उनके समकालीन लेखकों से विशिष्ट बनाती है। मोहम्मद ताहिर ने मुस्लिम समाज को आधार बनाकर भी कुछ बेहतरीन कहानियां लिखी हैं जो इस संग्रह में सम्मिलित हैं। अनुभूति दर्द की, मजबूरी, मोम की गुड़िया, जहर, चिकने पन्ने और मासूम चेहरा, कमरा, तोता शाह, रेखाएँ, ऊब, बदले हुए पदचिह्न, रिश्ते, वसीयत आदि कहानियों में मुस्लिम पात्र, मुस्लिम समाज और उसके परिवेश को गहराई से देखा जा सकता है। एक प्रकार से ये कहानियाँ मुस्लिम विमर्श की कहानियाँ भी कही जा सकती हैं। इनमें लेखक ने जैसे अपने समाज को ही आत्मसात-सा कर लिया है।
मोहम्मद ताहिर के प्रस्तुत कहानी समग्र की एक चौबीस-पृष्ठीय लम्बी गवेषणात्मक भूमिका प्रो. आनन्दप्रकाश त्रिपाठी (अध्यक्ष, हिन्दी एवं संस्कृत विभाग, डॉक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, म.प्र.) ने ‘संघर्ष की आँच में तपी ज़िन्दगी का बयान’ के नाम से लिखी है। यह भी पुस्तक का एक महत्त्वपूर्ण भाग कहा जा सकता है। मोहम्मद ताहिर का प्रोफेसर त्रिपाठी सटीक आकलन करते हुए कहते हैं,“वस्तुत: मोहम्मद ताहिर की कहानियां इंसानी जज़्बात में लिखी गई हैं, जिसमें मानवीयता का चटक रंग यथार्थ की भूमि पर उभरकर सामने आया है। जहाँ-तहाँ रिश्तों की डोर में बंधी भावनाओं की तरंगे उठती हैं। बाहर से ज्यादा पात्र के भीतर की हलचल हमें सुनाई देती है। पीड़ा की नदी में डुबकी लगाते पात्रों की साँसें चलने की आवाज सुनाई देती है। उन जीवन मूल्यों को बचाने की भरसक कोशिश लेखक ने की है जिससे जीवन सुंदर बन सके। पितृवादी सोच के घिनौनेपन को उघाड़ने में लेखक ने तनिक भी संकोच नहीं किया है। हल्के-फुल्के अंदाज़ में लिखी गई कहानियाँ भी मन को बेधती हैं। कही-कहीं विचारों और परिस्थितियों में व्यंग्य का लहजा विशेष जरूरी हो गया है। अधिकांश कहानियाँ पारिवारिक सन्दर्भों से जुड़ी हुई हैं। सामान्य कथा-प्रसंग और चरित्र निरूपण में आम जीवन की सहजता आकर्षित करती है। भाषा की सहजता और कथा प्रस्तुति पाठक को कहानी पढ़ने के लिए उत्सुक बनाती हैं। ताहिर की कहानियों में कहानीपन के साथ किस्सागोई का उनका अपना लहजा है। चरित्रों एवं घटना प्रसंगों के संयोजन और चित्रण में हमें वही सहजता दिखाई पड़ती है जो वास्तविक जीवन में संभव है। अपनी कहानियों की पठनीयता बनाए रखने के लिए कथाकार ताहिर को कोई विशेष कथा तकनीक का सहारा नहीं लेना पड़ा है। कहानियों की भाषा उनके समय के स्पंदित जीवन से ली गई है। आमबोल-चाल की भाषा जीवन के यथार्थ को व्यक्त करने में समर्थ है। मुस्लिम समाज के चरित्रों को उनकी अपनी ज़बान मिली है। भाषा के सन्दर्भ में लेखक की सजगता यह है कि अपनी कथाभाषा को हिन्दुस्तानी रंग और ढंग में पेश किया है। सच तो यह है मोहम्मद ताहिर की सारी कहानियाँ उनके आस-पास के जीवन, परिवेश और चरित्रों की जीवंत अभिव्यक्तियाँ हैं। देखा जाए तो ताहिर की सामान्य-सी कथावस्तु वाली कहानियाँ भी मर्मस्पर्शी संदेश देती हुई पाठकों को बेहतर जीवन जीने की आश्वस्ति देती हैं। कहानियों में कथाकार की संवेदनशीलता, उसका आनुभूतिक सत्य और चिन्तन की ऊर्जा का पारस्परिक समन्वय अद्वितीय है। पात्रों की मनःस्थिति का सजीव चित्रण और उनकी आपसी बातचीत, व्यक्तित्व की नाना छवियाँ, मनोगत पीड़ा, हृदय को झकझोर देने वाले जीवन संदर्भ, वर्ग चरित्रों की खरी पहचान, कहानियों का वैविध्यपूर्ण आरंभ और अंत, घटनाओं की प्रभावशीलता और मार्मिकता, अपने समय और समाज की गहरी पड़ताल, जीवन-मूल्यों के प्रति गहरा अनुराग, मनुष्यता की खोज, प्रेम और नैतिकता के नाम पर छल-छद्म को बेनकाब करने की बेचैनी, ज़िंदगी की खट्टी-मीठी सच्चाइयाँ, गहरे जीवनानुभवों का उद्घाटन आदि विशेषताओं से समृद्ध मोहम्मद ताहिर की कहानियाँ अपने समय का बेजोड़ अक्स हैं।”
मुहम्मद ताहिर की कहानियों की विशिष्टता है कि वे बिना किसी अलंकारिकता, लाग-लपेट अथवा घुमाव- फिराव के; सीधे-सीधे अपनी बात कहने में यक़ीन रखते हैं। उनकी कहानियों में निम्न और मध्यम वर्गीय समाज की यथार्थ चेतना का शब्दांकन अधिक प्रखरता से मिलता है। सामाजिक सम्बंधों के यथार्थ को दर्शाने-समझाने के लिए किसी अन्य विशिष्ट विधान को न चुनकर सीधे और सरल शब्दों में ही मुहम्मद ताहिर पूरे परिदृश्य को सामने रख देते हैं। और यही बात है कि इतने लम्बे समय के बाद भी उनकी कहानियाँ आज के दौर में भी अपनी प्रासंगिकता और पठनीयता को बनाए रख सकी हैं। 
इस समग्र संग्रह के संपादक डॉ. एम. फ़ीरोज़ खान ने पर्याप्त धैर्य और परिश्रम के साथ संग्रह की अनेक इधर-उधर बिखरी गुमनाम कहानियों को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकालयों में जाकर ढूँढा है। मोहम्मद ताहिर के दोनों प्रकाशित संग्रहों में कुल उनतीस कहानियाँ ही प्रकाशित हुई थीं। बाकी सत्तर कहानियांँ समय-समय पर प्रकाशित तो होती रहीं परन्तु संग्रह बनकर पुस्तकाकार रूप में नहीं आ पाई थीं। इन कहानियों को अपने बहुमूल्य समय और अनुसंधानपरक सोच की सेवा देकर एक सार्थक संग्रह तैयार करने में संपादक के सच्चे श्रम और साहित्यिक सेवा को स्पष्टतः ही देखा जा सकता है। इसी श्रृंखला में प्रख्यात् कथाकार नफ़ीस आफ़रीदी के कहानी समग्र और उपन्यास समग्र भी आज से चालीस-पचास वर्ष पूर्व सक्रिय कथाकारों के कृतित्व को सामने लाने के ऐसे ही सार्थक और सक्षम प्रयास कहे जा सकते हैं। इस प्रकार के समग्र संग्रह संपादक का बहुत अधिक परिश्रम और लगन माँगते हैं। यह तथ्य इस संग्रह से गुजरने पर सुस्पष्ट भी हो जाता है। हिन्दी साहित्य में कहानी विधा को पढ़ने-पढ़ाने में तो यह समग्र अपना योगदान तो देगा ही, साथ ही मुस्लिम कथाकारों के कृतित्व को भी सामने लाने का में पर्याप्त सहयोगी होगा, ऐसी आशा है।
डॉ. नितिन सेठी 
सी-231, शाहदाना कॉलोनी 
बरेली (243005) 
मो- 9027422306
[email protected]
डॉ नितिन सेठी
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13 टिप्पणी

  1. बहुत सुंदर समीक्षा की गई है। अच्छी समीक्षा के लिए हार्दिक बधाई

  2. मोहम्मद ताहिर की कहानियों के संकलन जैसा चुनौतीपूर्ण कार्य करने के लिए डॉ फ़ीरोज़ बधाई के पात्र हैं। यह लेख शानदान लिखा गया है । साधुवाद

  3. अत्यंत श्रमसाध्य कार्य किया है डाॅ फिरोज अहमद जी ने और उतनी ही तन्मयता से समीक्षा लिखी है नितिन सेठी जी ने। बिखरी कहानियों को समेटना आसान नहीं होता। एक-एक कहानी की समीक्षा पढ़ते हुए पाठक, लेखक के रचनाधर्म को काफी कुछ समझने लगता है। हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं संपादक व समीक्षक को।

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