समीक्ष्य पुस्तक शरण कुमार लिम्बाले द्वारा मराठी में लिखी गई उनकी आत्मकथा का हिंदी रूपांतर है, जिसके अनुवादक हैं– सुर्यनारायण रणसुभे।हिंदी के अलावा तमिल,कन्नड़,पंजाबी,गुजराती,मलयालम में तो इसका अनुवाद हुआ ही ,इसके साथ ही अंग्रेजी में ‘the outcast, नाम से ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने इसका प्रकाशन 2003 में किया। जिससे पूरे विश्व का ध्यान इस ‘आत्मकथा’ ने अपनी ओर आकर्षित किया।
‘अक्करमाशी’ पच्चीस वर्ष की आयु में लिखी गयी ‘आत्मकथा’ है।इस सम्बंध में लिम्बाले का कहना है कि ” आत्मकथा लिखने के लिए उम्र नही अनुभव की ज़रूरत होती है… हो सकता है कि उसने  [लेखक] इतनी कम आयु में इतना सब कुछ देख लिया हो जिसे लिखने के लिए वो छटपटा रहा हो,मैंने भी उसी समय लिखने का निश्चय कर लिया था जब मैं अपने चारों ओर की परिस्थितियों से एक दम तांग आ चुका था और अंदर ही अंदर घुटता जा रहा था।” ‘अक्करमाशी’ के परिशिष्ट का अंतिम पैरा जहां ” मैं लेखक किस प्रकार हुआ यह इस विषय की कहानी नहीं है।एक धार्मिक श्रद्धालु लड़का विद्रोही दलित- लेखक बनते समय किन-किन मोड़ों से गुजरा उसका यह आलेख है।एक दलित लेखक के व्यक्तित्व की बुनावट की तफसील बतलाने वाली यह हकीक़त है।”[पृष्ठ–151]यहां लेखक स्वयं को विद्रोही दलित लेखक कहकर संबोधित करता है।उसके व्यक्तित्व का यह विद्रोह पूरी ‘आत्मकथा’ पर आच्छादित है।’लेखक की ओर से’ में — ”इस आत्मकथा की ओर सामाजिक अत्याचार की एक घटना के रूप में पाठक देखें, ऐसा मेरा आग्रह रहा है।”[पृष्ठ– 16]कहा गया है।
इस ‘आत्मकथा’ की सृजन- प्रक्रिया के संबंध में लिम्बाले लिखते हैं कि–”अक्करमाशी” लिखने से पूर्व मैंने करीब- करीब सभी दलित आत्मकथाएँ पढ़ी।मराठी में प्रकाशित अन्य आत्मकथाएँ भी पढ़ गया। इन सबमें व्यक्त जीवन से मेरा जीवन भिन्न है– इसका विश्वास हुआ।यह भिन्नता ही आत्मकथा लिखने के लिए मुझे प्रवृत करती गई।मैं लिखता गया। जैसे साँप केंचुल फेंककर बाहर आता है, वैसे ही मैं अक्कारमाशी से बाहर आ गया। अब मुझे किसी से भय नहीं रहा। कोई हीन ग्रंथि नहीं।”[पृष्ठ-10] ‘अक्कारमाशी’ एक मराठी शब्द है–”जिसका अर्थ ही था अनैतिक संबधों से जन्मा हुआ।”[पृष्ठ-8]लेखक की यह स्वीकारोक्ति कि वह’अक्कारमाशी से बाहर आ गया…कोई हीन ग्रंथि नहीं — को इस आत्मकथा की उपलब्धि कहा जा सकता है।क्योंकि जैसा जीवन समाज से उन्हें मिला –अछूत, दरिद्र,अवैध संतान के रूप में जो जीवन जिया,जो भोगा,जो अनुभव किया,बचपन से देखा- सुना उसी जीवन की वेदना इस आत्मकथा में है।
भूख, गरीबी,संबंधों का मायाजाल,समाज का क्रूर और अमानवीय व्यवहार,अनैतिक संबंध,हर तरह की समस्या से युक्त; जिस परिवेश में लेखक ने जीवन जिया उस समाज का विस्तृत चित्रण बड़े मार्मिक,उतेजक और विद्रोही स्वर में किया है –”फसल के दिनों में जानवर ज्यादा खा लेते।ज्वार के भुट्टे खाने के बाद उनके गोबर में फुले हुए पीले दाने दिखते।दानों से भरे हुए ऐसे गोबर को संतामाय अलग से रखती… गोबर को संतामाय धोती…दानों को सुखाती…वह खुद गोबर से निकाले हुए दाने की रोटी खा रही थी …अरे यह क्या? रोटी में तो गोबर की दुर्गंध थी।मानों मैं गोबर की रोटी ही चबा रहा था–संतामाय सहजता से खा रही थीं।मुझे आश्चर्य होता कि संतामाय को उबकाई क्यों नहीं आती।”[पृष्ठ-41-42]अन्यत्र– ”जिस महीने में जानवर अधिक मरते थे महारों के लिए वह खुशी का महीना होता था।”[पृष्ठ-44]आत्मकथा में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जहाँ गरीबी- भुखमरी का चित्रण दारुण, वीभत्स और एक सामान्य जीवन जीने वाला व्यक्ति के लिए अविश्वसनीय भी कह सकते हैं।
एक स्थान पर संतामाय द्वारा लेखक के मित्र भीमू को मातंग समाज का होने के कारण पानी पिलाने से मना करते हुए कहती है कि –” अरे मातंग को साथ लिए क्यों घूम रहा है?…उसे लोटा मत दे। अपवित्र हो जाएगा।…चल यहॉं से निकल।”[पृष्ठ-49] ”…उधर अनसा माँ ने भी भीमू को पीटा था। मुझे साथ लेकर उसने मातंगों का घाट अपवित्र किया था इसलिए।”[पृष्ठ- 50] यहाँ स्पष्ट है कि जातिवाद,छुआछूत केवल सवर्णों में ही नहीं दलितों में भी उतनी ही तीव्रता में व्याप्त है।यहाँ हजारी प्रसाद द्विवेदी की यह उक्ति सही ही प्रतीत होती है कि–”निम्नतर जातियाँ भी अपने से नीची जाति ढूंढ ही लेती है।
संबंधों को उकेरती हुई सामाजिक कुरीतियों को लेखक स्वयं अपनी के संबधों द्वारा करता है। माँसामा — का पहला पति विट्ठल   काँम्बले उससे दो बच्चे।हणमंता लिम्बाले से लेखक का जन्म।यशवंत राव पाटिल से–”मेरे बाद नागी हुई, निरमी हुई,वनी, सुनी,पमी, तन्ना,इंदिरा,सिद्राम।कितने बच्चे,ये सब मेरे बाद हुए।एक ही गर्भ में,एक ही रक्त से सिंचित।माँ एक पर बाप अलग -अलग।”[पृष्ठ-65] इस तरह के संबधों से पूरा कुनबा चल रहा था। इसकी चरम -सीमा देवाप्पा, धानव्वा पिता – पुत्री का संबंध है।जहाँ–”देवाप्पा बेशर्मी से कह रहा था कि पेड़ लगाया फल क्यों न खाऊँ? पिता- पुत्री ! पेड़-फल!बीज धारणा।”[पृष्ठ-90] समाज में आज भी इस तरह की घटनाएँ हो रही है। इसका दोष किसे दिया जाय?गरीबी, भूख संस्कार का संकट,जीने का आधार मूक प्रश्न बन कर खड़ी है।लेखक स्वयं इस प्रश्न से जूझ रहा है–”मैं कौन-स्वर्ण या  अछूत? [पृष्ठ-24]। ”यों मेरा बाप लिंगायत… इसलिए मैं लिंगायत!मेरी माँ अछूत महार;इसलिए मैं भी दलित,अछूत!पर जन्म से लेकर आज तक मेरे नाना ने मतलब महमूद दस्तगीर जमादार नामक मुसलमान ने पाला-पोसा है,इसलिए मैं मुसलमान!…मैं जरासंध की तरह।गॉंव और गाँव के बाहर दोनों ओर विभाजित! मैं कौन?[पृष्ठ-65]
‘अक्करमाशी’ लेखक के जीवन के माध्यम से उसके आस -पास के परिवेश की दर्द- कथाओं का दस्तावेज है। ”अक्करमाशी” का अभिप्राय है–ग्यारहमाशे। बारह माशे का एक तोला होता है।यानी ग्यारहमाशे का एक तोला हो ही नहीं सकता क्योंकि एक माशे की हमेशा कमी जो है।अक्कारमाशी व्यक्ति की भी ऐसी ही स्थिति होती है।उसका जन्म पारंपरिक [पति- पत्नी] संबंधों से नहीं होता।”[पृष्ठ-16] एक माशे की कमी के साथ ही इस ‘संबोधन’ के साथ बचपन से लेकर इस आत्मकथा के लिखने तक कि जीवन यातना,भोगे हुए कष्टों,उपेक्षाओं को लिखने का मतलब उस हर एक क्षण को दोहराना!क्या लेखक के लिए इन्हें शब्दों में रख पाना आसान रहा होगा? प्रसिद्ध दलित लेखक तुलसीराम ने कहा है कि– ”आत्मकथा लिखी नहीं बल्कि रोई जाती है।क्योंकि जब व्यक्ति अपने जीवन के कड़वे अनुभवों को शब्दों में बाँधता है तो पता नहीं कितनी बार उन बीते हुए दुःखों को दोहराता है। स्वयं लिम्बाले आत्मकथा और लेखक का ब्लड रिलेशन मानते हैं।उनके अनुसार”बहुत कम लोगों की वेदना शब्दमय होती है।”[पृष्ठ-25]
इस आत्मकथा में कुछ अंश ऐसे भी हैं जिनसे लेखक के विचारों का अंतर्विरोध झलकता है–”देश के किसी भी हिस्से में स्त्री पर हुए अत्याचार मुझे मेरी माँ पर हुए अत्याचार लगते हैं।समाचार-पत्रों में छपे ऐसे समाचारों से मैं बेचैन हो उठता हूँ।”[पृष्ठ-23] वहीं शोभी नामक सवर्ण लड़की को अछूत कहने की सजा ”शोभी पर हम बलात्कार करना चाह रहे थे।”[पृष्ठ-93], देना चाह रहा था और मच्छीन्द्र अन्ना से पिटकर गर्दन नीची कर कई दिनों तक चौपाल की ओर जाने की हिम्मत नहीं की।स्त्री चाहे सवर्ण हो या दलित उसकी स्थिति किसी भी पुरुष के समक्ष एक जैसी ही होती है।क्या काका की स्वर्ण स्त्री का दुःख लेखक की माँ से कम रहा होगा , जिसके पति का संबध अन्य स्त्री से था और उससे उसके आठ बच्चे भी थे? हाँ!अपनी माँ, बहन,स्त्री के लिए शायद अलग हो क्योंकि अपनी बहनों को देखकर वह[लेखक] सोचता है कि ”ये भी ऐसी ही बलि दी जाएगी माँ की तरह? भाई-बहन का नाता न होता तो मैं ही इनमें से किसी एक के साथ विवाह कर सुखी करता।”[पृष्ठ- 88]
लगभग सभी दलित आत्मकथाओं में यह देखा जा सकता है कि ‘शिक्षा’ को किसी भी मान-अपमान से उन्होंने आगे रखा।भूख, गरीबी,जातिवाद,छुआछूत,पाखंड,रुढिगत परम्पराएँ, अनैतिक संबध,अस्मिता की पहचान सभी   समस्याओं से युक्त लेखक के जीवन में आशा की किरण है– उसका स्कूल जाना, शिक्षा ग्रहण करना। तभी उस परिवेश में रहकर भी वह ‘शेक्सपीयर’ होने का सपना बून रहा था–”शिक्षा के कारण स्वाभिमान उभर रहा था।”[पृष्ठ-97] शिक्षा से उत्पन्न स्वाभिमान के कारण वह गांव के होटल के मालिक शिवराम के खिलाफ पुलिस स्टेशन पहुँच गया। इस संबंध में यह घटना महत्वपूर्ण है,जब लेखक दसवीं कक्षा में था तब उसे स्कूल के मैदान में तीस रुपये पड़े मिले और मित्र के आधा-आधा कर रख लेने की बात न मानकर उसने रुपये हेडमास्टर को दे दिया।उसी समय उसकी कक्षा खेल स्पर्धा में हार चुकी थी परंतु कक्षा मास्टर के द्वारा –” हम खेल स्पर्धा में हार चुके हैं। कोई बात नहीं पर लिम्बाले की ईमानदारी से हमारी कक्षा  की विजय हुई है।… वह खुशी मुझे मूल्यवान लगी।”[पृष्ठ-97]  निःसंकोच कहा जा सकता है कि जहाँ दस पैसे भी मायने रखता हो वहाँ तीस रुपये वापस कर अपना ‘आत्म-सम्मान’ पाना लेखक के लिए कितना मूल्यवान रहा होगा।
‘अक्कारमाशी’ पर लगे सभी आरोपों ,प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास लेखक ने ‘लेखक की ओर से’ में किया है।अपनों की आलोचना भी उसे सहनी पड़ी। परन्तु धीरे-धीरे कैसे सबकी मानसिकता बदली इसका उल्लेख भी है।’अक्कारमाशी’ में व्यक्त अनुभव पूरे विद्रोह और आक्रामकता के साथ व्यक्त हुआ है।अपने भोगे हुए यथार्थ को भी उन्होंने उसी ईमानदारी के साथ रख दिया,जिस तरह स्कूल के हेडमास्टर को तीस रुपये लौटाकर दिया था।
पुस्तक – अक्करमाशी[आत्मकथा]
लेखक – शरण कुमार लिम्बाले
[संस्करण 2009] 

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