पुस्तक : “मैं चुप नहीं रहूँगी” लेखक : संजीव जायसवाल “संजय” प्रकाशन वर्ष : 2023 मूल्य : ₹ 220 पेपरबैक, पृष्ठ : 148 प्रकाशक : अद्विक पब्लिकेशन
समीक्षक : सौम्या पाण्डेय “पूर्ति”
वर्तमान समय नारी शशक्तिकरण का पर्याय बन चुका है । हर तरफ नारियों की व्यथा व दुर्दशा का चित्रण बहुतायत में किया जाता है, तत्पश्चात झूठी संवेदना व नारी मुक्ति के नाम पर “नारी उन्मुक्ति” का पक्षधर बन समाज एक प्रकार से नारियों को पराभव की ओर ही धकेल रहा है । ऐसे में वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय संजीव जायसवाल “संजय” जी का नवीन कथा संग्रह “मैं चुप नहीं रहूँगी” नारी व्यथा व दुर्दशा के उन्मूलन की एक नई दिशा तय करता हुआ प्रतीत होता है । इस संग्रह की नायिकाएँ कमज़ोर, अबला या पतित नहीं हैं, वो वर्जनाओं को तोड़कर स्वत्रंत निर्णय लेने में समर्थ हैं । वो घुट-घुट कर नहीं जीती हैं अथवा एक पुरूष के अत्याचार व सामाजिक प्रताड़ना सहने के लिए वो पुरूष पर ही निर्भर नहीं हैं अपितु अपना रास्ता स्वयं बनाती हैं । संजीव जी की नायिकाएँ वास्तव में नारी शशक्तिकरण का समग्र उदाहरण हैं जो अपनी वास्तविक क्षमता को साबित करती हैं ।
इस संग्रह में कुल तेरह कहानियां हैं, सभी प्रभावशाली हैं परंतु जिस कहानी ने सर्वाधिक प्रभावित किया वह है “एक और दधीचि”, जिसकी नायिका “भावना” पिता व पुत्र दोनों की वासनात्मक लालसाओं की भेंट चढ़ती है । कहानी का मूल यह है कि यदि कोई लड़की सुंदर है, गुण सम्पन्न है तो भी पुरूष सत्तात्मक तंत्र की संरचना ऐसी है कि आगे बढ़ने के लिए या तो वो स्वयं को उपभोग की वस्तु बनने के लिए तैयार कर ले अथवा कुचल दी जाए । इस कहानी की नायिका विद्रोह करना चाहकर भी भीमा ठाकुर के जाल में फंसकर समपर्ण के लिए मजबूर है परंतु जब भीमा ठाकुर के पुत्र रतन की कुदृष्टि भी उस पर पड़ती है व उन्माद में वो भी भावना के तन पर एकाधिपत्य करने का प्रयास करता है तब यकायक परिस्थितिवश पिता – पुत्र को एक दूसरे के समक्ष निर्वस्त्र करने का साहस जो नायिका ने दिखाया.. वो अद्भुत है । इस कहानी से यह भी सीख मिलती है कि कोई कितना भी कुकर्मी क्यों न हो पर पिता अपने पुत्र की व पुत्र अपने पिता की दृष्टि में आदर्श ही रहना चाहते हैं पर वास्तविक आदर्श प्रस्तुत क्यों नहीं करते ? वासना क्यों चरित्र पर हावी हो जाती है यह विमर्श का विषय है ।
संग्रह की दूसरी सशक्त कहानी इसकी शीर्षकीय कहानी है “मैं चुप नहीं रहूँगी” । इसमें नायिका मोनिका का “रेप” हो जाने पर परिवार व समाज का रवैया, उसकी हताशा, फिर अपने अपराधी अमन को सज़ा दिलवाने के लिए उसका स्वयं अपने ही रेप का वीडियो अपलोड करना व समाज से न्याय पाना, न्याय संगत भी है, जो मोनिका के साहस व शोशल मीडिया की ताकत दोनों का शशक्त उदाहरण प्रस्तुत करता है । रेप एक ऐसा घ्रणित कृत्य है जिसमें पीड़ित सदा ही बच निकलता है, और वेदना सहनी पड़ती है पीड़िता को, जिसे उस अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता है जो उसने किया ही नहीं । किसी अन्य की विकृत मानसिकता का परिणाम हमेशा लडक़ी ही क्यों भोगे, जो स्वयं शारिरिक पीड़ा से कहीं ज्यादा अपनी आत्मा पर घाव सह रही हो, उसके लिए सहानुभूति भी मरहम का काम नहीं कर सकती, ऐसे में समाज उन घावों पर नमक छिड़कने का वीभत्स कार्य करके उसके घावों को नासूर बना देता है, ऐसे में या तो पीड़िता मृत्यु का वरण करती है या स्वयं को छुपाने की कोशिश करती है। इस परिस्थिति में मोनिका का साहस समाज को एक नई दिशा देता है, व सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ने का कार्य करता है, संभवतः इसीलिए इस कहानी के शीर्षक को ही संग्रह का शीर्षक बनाया गया है, जो संग्रह की कथावस्तु को सार्थक कर रहा है।
संग्रह की तीसरी विशिष्ट कहानी “वनवास अकेले नहीं भोगूँगी” में एक अलग ही परिदृश्य है । नायिका दीपिका अपनेआप को दरिंदो से बचाने के लिए एड्स का बहाना बनाती है, जिसकी वजह से रजत उससे विवाह करने को तैयार नहीं होता । यहाँ उल्लेखनीय है कि रजत का उसके साथ प्रेम विवाह हो रहा था व विपरीत परिस्थितियों में गन पॉइंट पर डरकर दोनों के परिवारों ने, अपनी ही बेटी व होने वाली बहू की इज्जत बचाने की कोशिश भी नहीं करी लेकिन जब दीपिका अपनी सूझबूझ से स्वयं को बचा लेती है तो उसकी यह उपलब्धि प्रशंसा नहीं बल्कि वेदना का कारण बनती है । यहाँ यह भी विचारणीय है कि जो रजत व उसका परिवार केवल एड्स की झूठी बात पर दीपिका को छोड़ने को तैयार हो गए, वो उसके बलात्कार की स्थिति में क्या करते ?? यहाँ नायिका का प्रतिशोध कथानक व शीर्षक दोनों को सार्थक करता है।
संग्रह की एक और कहानी “असंतुलित रथ का हमसफर” स्त्री के मजबूत पक्ष को दर्शाती है। नायिका दीपा के संशय व दुविधा का निराकरण उसकी टीचर दामिनी मैंम से मिलने के बाद हो जाता है, जहां एक झापड़ वजह बनता है दो समान लोगों के अलग होने की, क्योंकि यहाँ झापड़ पुरुष अहंकार का प्रतीक है। वो पुरूष जो एक प्रेमी है, अपनी पत्नी को हर प्रकार से सुखी व संतुष्ट रखता है, लेकिन किसी भी स्थिति में पत्नी पर हाथ उठाना सवर्था वर्जित है, यह समझ उसमें विकसित नहीं है । झापड़ एक कमजोर मन व झूठे पौरुष का प्रतीक है जिसे दामिनी ने इसलिए अस्वीकार कर दिया.. जिससे उसकी पुनरावृत्ति न हो सके। स्त्री पुरुष की सहधर्मिणी है, जब दोनों में से एक साथी का अधिकार कम या ज्यादा हो तो जीवनरूपी रथ का असंतुलन ही सम्भव है । यह कहानी सीख है पुरुषों के लिए भी कि केवल प्रेम ही नहीं स्त्री समानता की भी अधिकारिणी है फिर चाहे वो सामाजिक हो, व्यवहारिक अथवा वैचारिक तभी संतुलन बन सकता है । इसी कहानी में दीपा की स्थिति व उसके पति रवीश का प्यार जो बाद में एक सनक व मनोविकार का रूप ले लेता है, यह भी एक विकट स्थिति है महिलाओं के साथ, जिसपर चर्चा होना चाहिये जिससे इसका समाधान ढूंढा जा सके । यह वो मुद्दे हैं जो समाज में सर्वाधिक व्याप्त हैं परंतु फिर भी इनपर किसी का ध्यान नहीं जाता है, संजीव सर ने इस प्रकार के मुद्दों को उठाया है जिसके लिए वो बधाई के पात्र हैं ।
इसी प्रकार “आज की सावित्री” की नायिका दीप्ति अपने ही प्रेमी फिर पति के अहंकार की भेंट चढ़ती है । यह कहानी भी स्त्री- पुरूष समानता के सबसे महत्वपूर्ण पक्ष योग्यता को आधार बना कर लिखी गई है । कहानी का विषय पुरूष अहम का एक अन्य उदाहरण प्रस्तुत करता है जहाँ अरुणेश दीप्ति से कमतर होने के बावजूद उसी का हक सिर्फ इसलिए छीनता है ताकि उसका पौरुष संतुष्ट हो सके । यहाँ यह भी विचारणीय है कि कोई भी दो लोग एक समान योग्य एवं सफल नहीं हो सकते फिर अगर वे पति-पत्नी हैं तो उन्हें एक – दूसरे की योग्यता- अयोग्यता, सफलता- असफलता को स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि एक दूसरे से स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने में ही जीवन बर्बाद कर देना कहाँ तक उचित है, ऐसे में पत्नियां तो सदियों से पुरुष की सफलता से गर्व का अनुभव करती आ रहीं हैं तो फिर पुरुष वर्ग भी क्यों नहीं अपनी पत्नी की सफलता को सहर्ष स्वीकार कर पाते ?? इसी कहानी में सावित्री का चरित्र व उसका प्रतिशोध समाज के निम्न वर्ग की स्थिति व उसी वर्ग की नारी के मनोबल को परिलक्षित करती है क्योंकि सावित्री जैसा साहसिक कदम उठाना आसान नहीं हाँ इस वर्ग के मंगलू जैसे पतियों को त्यागने का साहस भी सावित्रियों को करना होगा जिससे कोई भी मंगलू अपनी पत्नी पर हाथ उठाने व उसका दोहन करने का साहस न कर सके ।
इसी प्रकार “ये कहाँ आ गए हम” भटके हुए कश्मीरी मुसलमानों के जीवन का सटीक चित्रण करती है तो “काश तुम न मिले होते” जिहाद की मानसिकता को दर्शाती है, इस कहानी में यह भी दिखाया गया है कि प्यार के परवान न चढ़ने के बाद भी जहाँ नेहा डॉक्टर बनती है व भारतीय सेना को अपनी सेवाएं दे रही होती है तो वहीं जावेद कमजोर व नापाक इरादा रखकर जिहादी बन जाता है, अगर बेबाकी से कहें तो हिंदुस्तानी व पाकिस्तानी मानसिकता का परिचय देती यह कहानी देश के एक वर्ग को संतुष्ट नहीं कर सकेगी जबकि लेखकीय दायित्व का पालन करते हुए संजीव सर ने अंत में जावेद का पश्चाताप भी दर्शाया है जो प्रैक्टिकली सम्भव नहीं है । फिर भी इस प्रकार के विषय पर कलम चलाना अपनेआप में विशिष्ट तो है ही साहसिक भी है ।
यह कहानी संग्रह अपनी विविधता के लिए जाना जाएगा क्योंकि इसकी सभी अन्य कहानियां अलग-अलग विषयों व मानसिकता को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं । सभी कहानियां विमर्श के लिए एक मुद्दा प्रदान कर रहीं हैं जिसपर विद्वानों के विचारों का आदान- प्रदान सामाजिक हित में है, इसके पाठकों में महिलाओं से ज्यादा पुरुषों की संख्या होनी चाहिये जिससे उन्हें आज की बदलती नारी के स्वरूप का पता चल सके ।
संजीव सर की विशिष्टता है कि वो कथानक की कसावट के लिए प्रकृति व स्थान का वर्णन बेहद रोचकता से करते हैं, जिसमें उनकी भौगोलिक जानकारी का विस्तार नज़र आता है साथ ही वो आज के हाई टेक प्रणांली से भी पूरा तारतम्य रखते हैं, जो उनकी वृहद विद्वता को व्यापकता प्रदान करती है, साथ ही संगीत व कला के प्रति उनकी रुचि न केवल उनकी कहानियों के विषय विस्तार में सहायक होती हैं बल्कि उन्हें विस्तृत परिदृश्य भी प्रदान करती हैं। अतः निस्संदेह कहानी पढ़ते हुए पाठक स्वयं को विषय-वस्तु से बंधा हुआ पाता है जो लेखक की सफलता भी है व सम्मान भी है ।
नारी उन्मूलन के ज्वलंत मुद्दों को उठाती हुई यह कहानियां पाठकों को अवश्य पढ़नी चाहिए। इस पुस्तक के प्रकाशन के लिए “अद्विक प्रकाशन” भी बधाई के पात्र हैं । बस एक छोटी सी बात जो हल्की सी खटकी वो थी अंग्रेजी के शब्दों में मात्रिक दोष जिससे उन्हें पढ़ने पर एकरसता टूटती है, जैसे पृष्ठ 16 पर “सहमत” कहानी में (सैटिस्फाइड के स्थान पर स्टेसफाइड), ऐसे ही कुछ अन्य शब्द, यह संपादकीय त्रुटियां हैं जो अभी तक संजीव सर की कहानियों में कभी नहीं दिखी थीं, इसलिए इसके अगले संस्करण में यदि सुधार दी जाएं तो बेहतर होगा।