Tuesday, October 8, 2024
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रमेश चन्द्र का लेख – गाँव के देव

यूँ जय किशन चले गए, परंतु वे जाकर भी नहीं गए। गाँव के लिए देवता जो थे। उनकी कोई आवाज थी, जो सदा गाँव के लिए गूँजती रहती थी। उनकी वह दैवी आवाज भी आज तक लुप्‍त नहीं हुई है। वह आवाज महान व्‍यक्तियों का प्रचार करके गाँव के नैतिक उत्‍थान और विकास के लिए तत्‍पर रहती थी। इसलिए वह आवाज अब भी तब तत्‍क्षण आ जाती है जब कोई पथभ्रष्‍ट होता है और जब कोई नीति से गिरता है। जब कोई धैर्य खोता है तो वह आवाज उसके सामने खड़ी होकर कहती है, तू मुझे देखकर जी, मैं कितनी ऊपर उठ चुकी हूँ। कोई जब किसी अबला को सताता है तो उस आवाज का स्‍मरण आते ही काँपने लग जाता है। कोई जब राष्‍ट्र-प्रेम की बात करता है, तो वह आवाज बोलते हुए शहीद-स्‍मारक की भाँति अपने जीवन की पोथी खोल जाती है। गाँव में हर आज्ञाकारी पुत्र को वही प्रेरणा देती है, हर नमनशील पुत्रवधु की नमनशीलता में वही जीवद्रव्‍य बनी हुई है। वह गाँव के जर्रे-जर्रे में समाई हुई है। उस गाँव के लोग मिट्टी को सलाम कर उस आवाज को सलाम करते रहते हैं, उस आवाज की पूजा करते हैं। गाँव की औरतें उस आवाज से आराधना कर अपनी संतानों के लिए ज्ञान और महानता का आशीर्वाद मांगती हैं। आने वाली पीढि़याँ बेशक न जान पाएँ कि आज उस गाँव की वायु, उस गाँव के पक्षी और उस गाँव का पर्यावरण अपनी मिठास में बस उस आवाज को ही समाए हुए हैं, परंतु उस आवाज ने उस गाँव को आदर्श गाँव बनने के पथ पर प्रशस्‍त कर दिया।
उस आवाज के स्‍वामी के चारित्रिक दृष्‍टांत, उसका जीवन और उसके मन मोहने वाले उपदेश आज भी उस गाँव के उन लोगों को मंत्रमुग्‍ध करते रहते हैं, जो आसमान को अपनी बाहों में भरने की तमन्‍ना रखते हैं। जमीन से आसमान तक उस गाँव में यदि कोई छाया हुआ है, तो वह वही आवाज है। उस गाँव के ऊपर से गुजरकर सूर्य भी अपनी ऊष्‍णता खो देता है और चाँद शीतलता महसूस करता है। उस आवाज ने अपने गाँव के लिए बड़े सपने देखे थे। वह उन्‍हें स्‍वयं साकार न कर सकी, परंतु अपने गाँव के लिए वह एक पथ का निर्माण कर गई, उन्‍हें एक सबसे बड़ी विरासत दे गई। उसी विरासत से गाँव में कोई कमल खिलेगा, सब यही देखने को लालायित हैं।
उसका प्रेम त्‍याग एवं समर्पण की ऐसी कोमल और मर्मस्‍पर्शी भावनाओं से ओत-प्रोत निधि थी, जिसे वह अपने गाँव पर पूरी लुटा देना चाहती थी। उसके लिए वह एक जोश, एक चेतना, मदहोशी और पागलपन भी था। उसमें डूबकर वह आनंद महसूस करती थी। उसके लिए प्रेम का कोई आदि, मध्‍य या अंत नहीं था। वह उसके ह्रदय की सहज वृत्ति थी, एक निश्‍छल भावना थी और वह दिव्‍य मनोभाव था जो जीवन को परिपूर्ण करके उसे सरस बनाता है। उसका अपना कुछ नहीं था, जो कुछ था वह सब गाँव का था। उसमें निजता या वैयक्तिकता नाम की कोई चीज न थी। अपने-पराये का भाव उसने पनपने ही न दिया था। उसने तो प्रकृति की तरह केवल देते ही जाना सीखा था। अपने वर्तमान या भविष्‍य के लिए कोई संग्रह करना उसकी वृत्ति में शामिल नहीं था। उसके लिए गाँव एक सामासिक इकाई थी, वह बस उसका एक अंग मात्र था, न उससे बाहर, न उससे ऊपर। इसलिए उस आवाज का स्‍वामी अपने समस्‍त समय पर गाँव का अधिकार समझता था। अपने समय को अपने लिए बचाकर रखना उसकी आत्‍मा की आज्ञा के विरुद्ध था, उसे वह एक पाप और गाँव से विश्‍वासघात समझता था और गाँव से ऐसा विश्‍वासघात करके वह कभी जी नहीं सकता था। उसने सीखा ही नहीं था इस प्रकार जीना। उसकी इच्‍छा थी कि उसका सारा समय उसके गाँव पर लगे, गाँव विकास करे, चाहे वह स्‍वयं उसके लिए एक-एक पल मरता रहे। इसलिए वह अपना समस्‍त समय गाँव को सौंपकर ही अपने जीवन का औचित्‍य और कर्म की इतिश्री समझता था। वह अपनी शिक्षा को भी गाँव की धरोहर समझता था, उसे वह व्‍यर्थ नहीं जाने दे सकता था। उसे जीवन में पूरी तरह लागू करना चाहता था। 
गाँव के लिए ऐसी भावना थी उसके अंदर, ऐसा जज्‍बा था उसके अंदर जैसे पानी के रास्‍ते में पहाड़ होने पर पानी उससे दूर नहीं हटता, उससे चिपके रहता है। सूरज की किरणें इस विशाल ब्रह्मांड में भी किसी कण को दैदीप्‍यमान किए बिना नहीं रहतीं, वाष्‍प-जल पूरे वातावरण को सिक्‍त करते हैं और वायु करोड़ों को जीवन प्रदान करती है। बस यही तो थी वह आवाज! 
हवा की मौज की तरह उसकी जिंदगी थी। अपने भविष्‍य को लेकर न कोई उसके सपने थे, न कोई चिंता। जीवन को सुचारू बनाने वाले गुण उसके चरित्र में ठूँस-ठूँसकर भरे थे। वह नितांत निष्‍कपट और संतुष्‍ट जीवन था और अपने मस्तिष्‍क की गहराइयों में दबे गुणों को भी ढूँढ़कर उन्‍हें अन्‍य व्‍यक्तियों के उपकार पर लगाता रहता था। वह गाँव के लोगों को अपनी शक्तियों को पहचानने के लिए प्रेरित करता रहता था। उसके मन में केवल यही भावना रहती कि यदि उसका गाँव से कोई संबंध है, तो वह दिखा देगा कि उसके निवासी का प्‍यार कैसा होता है। इस तरह वह उससे अभिन्‍न, अटूट और अकल्‍पनीय रूप से जुड़ा था। जिस प्रकार एक जगह की हवा को विरलता या शून्‍यता से बचाने के लिए दूसरी जगह की हवा तुरंत दौड़ पड़ती है, उसी प्रकार वह भी गाँव के लोगों की सेवा में तत्‍पर दौड़ पड़ता था। जिस प्रकार वृक्ष स्‍वयं सूखकर अमरबेल का पोषण करते हैं, उसी प्रकार था उसका जीवन और यही था उसका जीवन-संदेश
वह बहुत कर्मठ और समर्पित था। वह गाँव को ढेर सारी खुशियाँ देकर उसे चहकाए रखना चाहता था। उसके लिए वह फूलों की सुगंध बनना चाहता था, जल की तरंग बनना चाहता था, पवन की मौज बनना चाहता था, जुगनूँ की चमक बनना चाहता था, इंद्रधनुष के रंग बनना चाहता था और उसे एक उमंग देना चाहता था। गाँव से अपने रिश्‍ते को वह प्रकृति का आशीर्वाद समझता था।  
वह आरसी की तरह गोचर था। जैसे दर्पण में सब सामने दिखाई दे जाता है, उसी प्रकार अंत:करण से वह भी निर्मल था। यज्ञ का कर्पूर स्‍वयं मिटकर अपनी सुगंध फैला देता है, पानी औरों को जीवन देने के लिए उन्‍हीं में विलीन हो जाता है। वह भी उसी प्रकृति का था। उसकी आवाज भी प्रकृति के माधुर्य की वाहक थी, एक कोमल भावना थी, प्राण-तत्‍व के लिए बहुत निर्मल वायु थी, प्रकृति की गोद से निकली एक सलिल धारा थी और जीवन की एक प्रकृत शैली थी। जिस प्रकार विष्‍णु के अवतार केवल मनुष्‍य नहीं थे, कामदेव केवल काम धनुर्धारी नहीं, कामधेनु केवल पशु नहीं है, अन्‍न केवल दान नहीं है, अमृत केवल रस नहीं है, गरुड़ केवल पक्षी नहीं, शेषजी केवल सर्प नहीं हैं, वैकुंठ केवल लोक नहीं है और गंगाजी केवल नदी नहीं है, उसी प्रकार वह केवल एक मनुष्‍य नहीं था, भावनाओं का एक आंदोलन था, गाँव के लिए मर-मिटने का एक प्रण था। वह शिराओं में उत्‍साह, मस्तिष्‍क में प्रेम भरने का एक व्रत था, अस्थियाँ बन चुकी हड्डियों में अमृत फूँककर बलिदान का संगीत निकालने की एक कला थी। वह मोक्ष पाने की अमृत-वासना नहीं, गाँव के लिए बार-बार जन्‍मने और मिटने की एक भावना थी। स्‍मृतियों के कैनवस पर वह कोई कल्‍पना नहीं थी, साकार रूप में उतर आई देवात्‍मा थी। वह विचारों का मंथन न था, ज्ञान के क्षेत्र में मील का पत्‍थर था, अपने जीवन और उसकी सुख-सुविधाओं के द्वैत को भूल गाँव रूपी अद्वैत से मिलने की आकांक्षा था। वह स्‍वार्थ की आड़ में बहता कोई जीवन रूपी दरिया नहीं था, धर्म-परायणता के लिए खून बहाता एक औज था, दिव्‍यतर प्रेम का एक जुनून था, अफसाने पूरे करने का एक सुकून था, खुदपरस्‍ती को खुदापरस्‍ती बनाने की एक धुन था, गाँव के चेहरों पर अनलिखे भावों को पढ़ने की एक सामर्थ्‍य था, भूख से बिलबिलाते उदरों का आलोड़न सुनने का श्रवण-यंत्र था और पीड़ाओं से बने ह्रदय का आगोश था। 
उसे इस विश्‍व का कोई आकर्षण नहीं व्‍यापता था। लगता था महात्‍मा बुद्ध का यह उपदेश वह गर्भ से ही लेकर अवतरित हुआ था – यह संसार दुखों का घर है, इच्‍छाएँ दुखों का कारण हैं और इच्‍छाएँ त्‍याग देने से दुखों का अंत हो जाता है। इस प्रकार वह अपनी इच्‍छाओं को दमित कर गाँव की इच्‍छाओं को तृप्‍त करता था। अपने गाँव को विकास के सौपान देना और उसको नया अस्तित्‍व देना ही उसका अध्‍यात्‍म था। उसके लिए कोई काम बड़ा क्‍या, छोटा क्‍या और चुनौती क्‍या। सब कुछ सहज था उसके लिए। वह गाँव को अथाह खुशियाँ देने का अपने से किया हुआ कोई वचन मानता था। 
इंद्रधनुष की तरह रंगमय बनकर उसकी आवाज गाँव के लोगों में ही रहती है। आसमान से उतरी हरी पत्‍ती की छाया की तरह उनको शीतलता देती है, हवा में मिली ऑक्‍सीजन की तरह उनको प्राणवायु देती है, शून्‍य में मिली धूप की तरह उनको स्‍फूर्ति देती है, शेर की भाँति शौर्य देती है और प्रकृति के वादों की तरह सदा उनके साथ रहती है। वह आवाज उस समस्‍त आर्य-भूमि की पहचान बन गई है। उस आर्य-भूमि में वह अमर है। वहाँ उसका नाम एक साधना है, मन की आँखों से उसके दर्शन करना एक उपासना है और उसका स्‍मरण एक प्रार्थना है।
मनुष्‍य ही ऐसा जीव है, जिसे भगवान ने असाधारण दिमाग और सामूहिक जीवन का उपहार दिया है। ईश्‍वर की तरफ से मानव को यह उपहार एक विशिष्‍ट वरदान है। परंतु जब वह आवाज पाखंडियों को अशिक्षित ग्रामवासियों को पाखंडों में फँसाती देखती और उन द्वारा उन पर बेतहाशा पैसा खर्च करते देखती, तो उसे बड़ा कष्‍ट होता। साथ ही कष्‍ट होता उन पाखंडियों को भी। 
इसलिए ऐसे देव के प्रति भी विरोध की प्रवृत्ति थी गाँव में। एक तरफ कामनाओं से रहित भविष्‍य की चिंताओं से मुक्‍त त्‍यागपूर्ण भावना, दूसरी तरफ कुछ लोगों की स्‍वार्थ से परिपक्‍व, छल-कपट से पूरित मनस्विता! एक तरफ कर्मठ जीवन, दूसरी तरफ आलस्‍य और निकम्‍मेपन में लिपटा यौवन! एक तरफ समर्पित जीवन, दूसरी तरफ निश्चिंत मनोवृत्ति; एक तरफ मशाल-धावक, दूसरी तरफ अशिक्षा रूपी घोर अंधकार; एक तरफ सामंजस्‍य के सिपहसालार, दूसरी तरफ वैषम्‍य के तुरहीवादक! जब एक ही जगह इतने विरोधाभास हों तो क्‍यों न कब कोई अनहोनी हो जाए? जैसे ईश्‍वर ने कुछ निरीह प्राणियों को खूँखार जानवरों के शिकार के लिए ही बनाया हो, उसी प्रकार दुष्‍ट प्रवृत्ति वाले उन लोगों को गाँव को शिक्षा देने की उसकी सद्प्रवृत्ति नहीं भाई। एक दिन सुनने में आया कि उसका वध हो गया! ग्रामवासी बिलख रहे थे। 
रमेश चन्‍द्र 
वरिष्‍ठ साहित्‍यकार 
35 पुस्‍तकों के रचनाकार 
सदस्‍य : हिंदी सलाहकार समिति, नागर विमानन मंत्रालय
1) रेल मंत्रालय द्वारा रंल मंत्री राजभाषा ट्रॉफी 1989
2) पूर्वोत्‍तर सीमा रेलवे द्वारा मेरिट पुरस्‍कार 1993
3) पूर्वोत्‍तर सीमा रेलवे द्वारा राजभाषा भूषण पुरस्‍कार 1993
4) राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्‍कार 1994-95 (महामहिम राष्‍ट्रपति के कर-कमलों से)
5) राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्‍कार 1997-98 (माननीय उप राष्‍ट्रपति के कर-कमलों से)
6) भारतीय अनुवाद परिषद्, नई दिल्‍ली द्वारा नातालि पुरस्‍कार 1998 (कुलपति, अंतर्राष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा के कर-कमलों से)
7) पर्यटन मंत्रालय द्वारा राहुल सांकृत्‍यायन पुरस्‍कार 2000 (माननीय पर्यटन मंत्री के कर-कमलों से)
8) राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा राजीव गांधी ज्ञान-विज्ञान पुरस्‍कार पुरस्‍कार 2006-07 (महामहिम राष्‍ट्रपति के कर-कमलों से)
9) साहित्‍य समन्‍वय मंच, नई दिल्‍ली द्वारा समन्‍वश्री सम्‍मान 2006-07
10) नागरी लिपि परिषद्, नई दिल्‍ली द्वारा नागरी निबंध पुरस्‍कार 2012
11) राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा राजभाषा कीर्ति पुरस्‍कार 2015 (महामहिम राष्‍ट्रपति के कर-कमलों से)
12) दिल्‍ली पब्लिक लाइब्रेरी, संस्‍कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा संस्‍कृति मनीषी सम्‍मान 2017 (माननीय संसदीय कार्य राज्‍य मंत्री के कर-कमलों से)
13) संसदीय हिंदी समिति, नई दिल्‍ली द्वारा राष्‍ट्रभाषा गौरव सम्‍मान 2018 (माननीय उप सभापति, राज्‍य सभा के कर-कमलों से)
पता
मकान नं. 1116, सेक्‍टर 9ए, गुरुग्राम, हरियाणा-122001 
मोबाइल : 9711011034, ई-मेल [email protected]
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