समीक्षा:
“ज्योति जगाए बैठे हैं” – हिन्दी ग़ज़ल का एक ज्योति-पुंज
- ओमप्रकाश यती
ग़ज़ल संग्रह : ज्योति जगाए बैठे हैं
ग़ज़लकार : कमलेश भट्ट कमल
प्रकाशक : प्रकाशन संस्थान,नयी दिल्ली
पृष्ठ संख्या : 168, मूल्य ₹.300 (हार्डबाउंड)
बहुत समय तक तो यही बहस चलती रही कि ग़ज़ल तो ग़ज़ल है, हिन्दी ग़ज़ल कैसी ? लेकिन अब यह सब बातें पीछे छूट चुकी हैं . कम से कम ग़ज़ल-लेखन से जुड़ा हुआ या ग़ज़ल को समझने वाला हर व्यक्ति अब यह समझ चुका है की हिंदी ग़ज़ल, हिंदी ग़ज़ल क्यों है. कमलेश भट्ट कमल उन हिन्दी ग़ज़लकारों में हैं जो पूरी मज़बूती के साथ इसके पक्ष में खड़े हैं. उनके पास हिंदी ग़ज़ल को लेकर उठाए जाने वाले या उठाए जा सकने वाले हर प्रश्न का तार्किक उत्तर है.
जैसे-जैसे हिंदी ग़ज़ल, हिन्दी कविता की महत्वपूर्ण विधा के रूप में स्थापित होती जा रही है, इसके प्रति रचनाकारों का आकर्षण भी बढ़ रहा है और हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं के रचनाकार भी इसकी ओर मुड़ते जा रहे हैं, इससे जुड़ते जा रहे हैं . हिन्दी ग़ज़लों के संग्रह भी निरंतर आ रहे हैं, प्रकाशकों की रूचि भी इनमें बढ़ी है. फिर भी यह कहने में मुझे हिचक नहीं है कि आज भी कई हिन्दी ग़ज़लकारों की ग़ज़लें वस्तुतः उर्दू ग़ज़लें ही हैं . इसके पीछे या तो मुशायरों और मंचों का आकर्षण है या उर्दू ग़ज़ल के उस्तादों का मार्गदर्शन.
यह भी एक सच्चाई है कि हिन्दी ग़ज़ल के अधिकांश रचनाकार उस्ताद और शागिर्द की परंपरा से नहीं आते हैं. आज बड़ी संख्या में हिन्दी में लिखने वाले लोग ग़ज़ल की ओर आना चाह रहे हैं और आ भी रहे हैं लेकिन वरिष्ठ रचनाकारों की हिन्दी ग़ज़लें पढ़कर उसे सीखने-समझने को वे लम्बा रास्ता मानते हैं और उर्दू के किसी न किसी उस्ताद या तथाकथित उस्ताद के शिष्यत्व में चले जाते हैं जो उन्हें एक भारी भरकम तख़ल्लुस (उपनाम) देकर उन्हें दीक्षित कर देता है और उनमें अपने संस्कार आरोपित कर देता है. ये रचनाकार उर्दू भाषा की शिक्षा और पर्याप्त जानकारी न होने के बावजूद उसकी शब्दावली के सम्मोहन में पड़ जाते हैं . वे ऐसे-ऐसे शब्दों का प्रयोग अपनी ग़ज़लों में करने लगते हैं जिनकी आत्मा तक ख़ुद उनकी ही पहुँच नहीं होती . ऐसे शब्दों से सामान्यतया आमजन परिचित नहीं होते .कभी-कभी तो इनको समझाने के लिए फुटनोट्स का सहारा लेना पड़ता है या पाठक यदि उन्हें पढ़ना ही चाहे तो उसे उर्दू-हिन्दी शब्दकोष देखना पड़ता है. यहाँ यह कहना भी ग़लत नहीं होगा कि इन ग़ज़ल गुरुओं में अधिकतर उर्दू ग़ज़ल के संस्कार वाले ही हैं क्योंकि उनके गुरु उर्दू ग़ज़ल के उस्ताद थे.
कुछ गुरु तो ऐसी ऐसी सीख देते हैं कि वह गले से नीचे नहीं उतरती , प्रसंगवश एक ग़ज़ल गुरु को मैं कहीं पढ़ रहा था, वो तो स्त्री या स्त्री जाति पर शेर लिखने को ही ग़लत ठहराते हैं और कहते हैं की ऐसी ग़ज़लें ग़ज़लें हैं ही नहीं. इसके साथ-साथ यह भी कहना पड़ेगा कि हिन्दी ग़ज़ल वाले हिन्दी ग़ज़ल की जानकारी देने के लिए समय और सामग्री उपलब्ध नहीं कर पा रहे हैं और अपने-अपने कैम्प में ही व्यस्त हैं . ऐसे में जो उपलब्ध है और सुलभ है उसी धारा में लोग बह रहे हैं. ग़ज़ल के छंदशास्त्र जो देवनागरी में उपलब्ध हैं , जितना मुझे पता है, वो उर्दू ग़ज़ल की ही जानकारी दे रहे हैं .
एक तो उर्दू बहरों का नामकरण ऐसा है कि वह हिंदी वालों के लिए बहुत कठिन है जिससे उन्हें जूझना पड़ता है और शुरू में ही उन्हें लगने लगता है कि ग़ज़ल को साधना हमारे वश की बात नहीं ,अब तो उस्ताद ही बेड़ा पार लगा सकते हैं जबकि बहरों के इन नामों को जानने और रटने की कोई आवश्यकता ही नहीं है. शब्दों के वज़न अर्थात मात्रा भार का जो शास्त्र है वह भी आसान नहीं है , मात्राओं को गिनने और गिराने की जो प्रक्रिया बताई जाती है वह भी कम दुरूह और उलझावपूर्ण नहीं है जबकि जहाँ भी भ्रम की स्थिति हो वहाँ शब्द की ध्वन्यात्मकता से यह तय किया जा सकता है. मिसरे को बहर के हिसाब से पढ़ने या गुनगुनाने से मात्रा जहाँ गिर रही है, स्वतः स्पष्ट हो जाता है. कभी-कभी तो बहर को पकड़े बिना मिसरे को पढ़ने पर वह अटपटा और बहर से खारिज़ प्रतीत होता है.
ग़ज़ल के अरूज़ (छंद विधान ) की पुस्तकों के बड़े हिस्से में प्रायः ग़ज़ल के दोषों पर ज़ोर अधिक रहता है. कुछ दोष तो ऐसे बताए जाते हैं जिनके पीछे स्पष्टतः कोई तर्क भी नहीं दिखाई देता लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सभी दोष तर्कहीन ही हैं . भाषा को लेकर कई त्रुटियाँ हो जाती हैं . लिंग, वचन, काल आदि की ग़लतियाँ कभी -कभी हम कर बैठते हैं. शेर के दोनों मिसरों में कभी-कभी राब्ता या साफ़ सम्बन्ध नहीं दिखाई देता. कई बार ग़ज़लकार जो कहना चाह रहा है वह स्पष्ट नहीं होता. जो दोष गिनाए जाते हैं उनमें एक दोष ‘तकाबुले रदीफ़’ है जिसके लिए बताया गया है कि शेर के पहले मिसरे के अंतिम शब्द की अंतिम मात्रा दूसरे मिसरे के रदीफ़ के अंतिम शब्द की अंतिम मात्रा से मेल नहीं खानी चाहिए , इसके पीछे जो तर्क है वह यह है कि ऐसे प्रयोगों से शेर के मतला होने का भ्रम होता है. वैसे तकनीकी रूप से यह बात सही है लेकिन अगर आप वह शेर पूरी ग़ज़ल के साथ पढ़ रहे हैं तब तो आपको पता चल ही जाता है कि वह मतला नहीं है और अगर आप उसे अलग से कहीं पढ़ रहे हैं तो वह मतला हो या न हो , इससे उसकी गुणवत्ता और फिलासफी पर क्या फ़र्क़ पड़ता है.
मेरे कहने का मतलब यह भी नहीं है इन नियमों का अतिक्रमण ही किया जाना चाहिए. इनसे बचा जा सकता है तो बचना चाहिए लेकिन इनके फेर में शेर को खारिज़ कर देना भी उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा होता है कि जानकारी रहने के बावजूद मिसरे को बदलने के विकल्प नहीं मिलते हैं और जैसे तैसे कोशिश भी की जाए तो शेर की रवानी बिगड़ जाती है, उसमें कृत्रिमता आ जाती है.
जो भी हो , संतोष की बात यह है कि आज हिन्दी ग़ज़ल लिखने वालों की संख्या कम नहीं है. अकादमिक स्तर पर भी इस पर बहुत काम हो रहा है और इसकी आलोचना के क्षेत्र में भी कई हिन्दी ग़ज़लकार स्वयं निरंतर इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. कुल मिलाकर हिन्दी ग़ज़ल उत्तरोत्तर प्रगति कर रही है और इसका भविष्य भी चमकदार दिखाई दे रहा है
संग्रह को पलटते हुए प्रथमतः इन शेरों ने मेरा ध्यान खींचा :
वही “साहब’ पे कैसा हँस रहे थे
कभी जो उनसे थर-थर काँपते थे
पाप करेंगे जी भरकर वह फिर जाकर धो आएँगे
तीरथ, पण्डे, काशी ,मथुरा और अयोध्या है ही ना
जंगल से बाहर आए तो अरसा बीत गया
इंसानों में फिर भी बाक़ी कितना जंगल है
“ज्योति जगाए बैठे हैं” वरिष्ठ ग़ज़लकार कमलेश भट्ट कमल का पाँचवाँ ग़ज़ल -संग्रह है. हिन्दी ग़ज़ल में वे पूरी तैयारी के साथ आए थे और लगातार गंभीरतापूर्वक इसके उन्नयन में लगे हुए हैं . इस संग्रह की “अपनी बात” की शुरुआत में ही वे कहते हैं “ हिदी ग़ज़ल मेरे लिए एक मिशन की तरह है और मैं इसे हिन्दी कविता के भविष्य के रूप में देखता हूँ.” कोरोना काल में ये ग़ज़लें कैसे उनकी ताक़त बनीं , इसका ज़िक्र करते हुए वे कहते हैं “ मेरा विश्वास है कि यदि ये ग़ज़लें मुझे मेरे संकट से उबार सकती हैं तो ये दूसरों के लिए भी जीवन जीने और जिजीविषा का कारण बन सकती हैं, उनकी हौसलाअफ़जाई कर सकती हैं ,उन्हें टूटने और बिखरने से बचा सकती हैं.” उनके इस वक्तव्य की तस्दीक़ इस संग्रह के अनेक शेर करते हैं जिनमें हौसला, उम्मीद, भरोसा, हिम्मत, साहस और सकारात्मकता के तत्व बहुतायत में मिलते हैं, उनमें से कुछ शेर हैं :-
पाँव सबके ही डगमगाए हैं
ख़ुद में साहस बनाए रखना है.
उन ग़ज़लों में जैसे साँसें भी आ जाती हैं
जिनमें दो बातें उम्मीदों की आ जाती हैं
फिर से कलियाँ खिल उठेंगी, पंछियों के गान होंगे
आएगी आएगी कल वह भोर , सन्नाटा घिरा है.
मगर उम्मीद का दामन न छोड़ा
घिरे थे, मुश्किलों से भी घिरे थे
कौन उन्हें रोकेगा अंबर छूने से
ठोस इरादे पंख लगाए बैठे हैं
उदासी को हराने के लिए वह भी नहीं है कम
अभी लोगों के चेहरों पर जो यह मुस्कान बाक़ी है
हम उमीदों के घने साए तले हैं
इसलिए अब तक थपेड़ों से बचे हैं
फ़ैसला कर लिया कि टकराएँ
मुश्किलो, तुमसे कितना कतराते
जैसा कि ग़ज़लकार ने स्वयं कहा है कि ये ग़ज़लें कोरोना के दौर में उनका संबल बनीं . उस त्रासदी के समय पर उनके दो शेर देखें :-
शहर क्या मुल्क तक वीरान हो जाएंगे इक दिन सब
ये दुनिया इस तरह से इससे पहले सोचती कब थी
नज़र से देख तो लेते हैं पर छूने से डरते हैं
बताओ आदमी की इस तरह की बेबसी कब थी
संग्रह की ग़ज़लों में समकालीन हिंदी कविता की सभी आवश्यक प्रवृत्तियाँ मौजूद हैं. हिन्दी ग़ज़ल , परम्परागत उर्दू ग़ज़ल से प्रमुखतः इस मायने में ही अलग है कि हिन्दी ग़ज़ल सामाजिक सरोकार की ग़ज़ल है जिसमें हमारे समाज और देश-दुनिया की तमाम चिंताएँ हैं चाहे वो जीवन-मूल्यों के क्षरण की हों, राजनीतिक विद्रूपताओं की हों, सत्ता की मनमानी की हों, किसानों-मज़दूरों की दुर्दशा की हों, प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण की हों….
आदमी के सुख में,दुख में कितने किरदारों के साथ
हाँ ग़ज़ल में हम भी आए हैं सरोकारों के साथ
उसकी भरपाई में सदियाँ भी लग सकती हैं
आज फ़िज़ा में फिर-फिर आई नफ़रत कितनी है
खिलेंगे पूछकर ही फूल माली से
यही फ़रमान कल जारी न हो जाए
तट भी उदास समझो, लहरें उदास समझो
दम तोड़ती सी नदियों का जल उदास है तो
नींद में कुछ ख़लल तो बनते हैं
चौकियाँ, जलसे और जगराते
हमने क़ुदरत के संग किए हैं जो
काश अपराध सारे गिन पाते
बादल दरियादिल होते हैं ,हम भी सुनते आए थे
मुरझाती फ़सलों से पूछो बादल कितना दानी है
बहुत मज़दूर मिल जाएँगे चौराहों पे झुण्डों में
मगर उनके बदन पर ठीक से कपड़े नहीं दिखते
साहित्यकार हमेशा न्याय और सच का पक्षधर होता है . संग्रह में सच्चाई की इस शक्ति को अभिव्यक्ति देते बहुत से शेर हैं जिनमें कुछ शेरों की कहन और कलात्मकता का स्तर सिर्फ़ अलग ही नहीं है अद्भुत भी है, जिनसे प्रभावित हुए बिना कोई रह ही नहीं सकता. ऐसे ही दो शेर देखें जिनमें ग़ज़लकार अपनी बात अपने तरीक़े से कैसे रखता है :-
झूठ न तुम बोलो तो तुमको नींद नहीं आए
मैं जो बोलूँ तो मुझको आफ़त हो जाती है
माना सच में अक्खड़पन हो सकता है
झूठ के लेकिन किस कारण सौ नखरे हैं
पीढ़ियों की सोच में अंतर के कारण या नवयुवकों की कामकाजी व्यस्तता और अपने कैरियर को सँवारने की प्राथमिकता के कारण कई बार घर के बुज़ुर्ग उपेक्षा का शिकार हो जाते हैं जिसकी कल्पना भी उन्होंने नहीं की होती है ,यह बात उन्हें बहुत खलती है. इस विमर्श को लेकर भी ग़ज़लकार ने अपनी चिंता व्यक्त की है :-
जिन आँखों ने देखा है इन आँखों से
वे आँखें ही अब हम पर गुर्राती हैं
दो मीठे लफ़्ज़ों की ख़ातिर कान तरस जाना
बूढ़ी साँसों को घर ही बैरक हो जाना है
शायरी और उसके अवयवों पर ग़ज़लकार अक्सर शेर कहते हैं और उन्हें प्रतीक बनाकर भी कई इशारे करते हैं. कमलेश भट्ट कमल ने इस तरह के प्रयोग अपनी ग़ज़लों में बड़ी ख़ूबसूरती के साथ किए हैं . कुछ उदहारण देखिए :-
जीने निकला हूँ ग़ज़ल को तो यही सोचूँ
मैं समां जाऊँ ग़ज़ल में क़ाफ़िया बनकर
ग़ज़लों को ही कल की कविता होना है
हम ऐसा अनुमान लगाए बैठे हैं
कुछ रचते हैं हम शब्दों से
शब्द हमें भी कुछ रचते हैं
जिसको चाहत हो ख़ुशबू की ,आ जाए
ग़ज़लों में लोबान जलाए बैठे हैं
देख लेना हमको भी आएँगे सुनने लोग चल के
हममें ही हैं मीर भी ग़ालिब भी हैं हिन्दी ग़ज़ल के
जब-तब उलझन रहती है बहरों की, मीटर की
इंसानों का जीवन शायद ग़ज़लों जैसा है
हमने लफ़्ज़ों में उड़ना सीखा है
हम भी अब कायनात पा लेंगे
स्त्री-विमर्श साहित्य की हर विधा का विषय रहा है. नारी को लेकर बहुत सी चिंताएँ समाज में व्याप्त हैं जिन पर विभिन्न फ़ोरमों पर प्रायः बात होती रहती है , चाहे उसकी समस्याओं के प्रति समाज में जागरूकता फैलाने की बात हो, पितृसत्तात्मक सोच से बाहर निकलने के आग्रह हों अथवा नारी-अपराध के विरुद्ध कड़े क़ानून बनाने के लिए सत्ता के ध्यानाकर्षण का विषय हो . इन स्थितियों में सुधार तो निश्चित रूप से दिखाई दे रहा है लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना शेष भी है. ग़ज़लकार ने अपने शेरों के माध्यम से अपने ढंग से अपनी चिंताएँ व्यक्त की हैं :-
मिलेगी ही नहीं वह कोख जिसमें पीढ़ियाँ पनपें
अगर हर कोख में बेटी नहीं बेटा तलाशेंगे
अभी भी उसने कुछ ताक़त बटोरी है
बहुत कमज़ोर फिर नारी न हो जाए
नहीं आसान था उस छोर तक मर्दों का ला पाना
गृहस्थी को जहाँ तक औरतें सब खींच लाई हैं
ठीक से माँएँ न सो पाएँ
घेरकर रखती हैं चिंताएँ
हर इक घर में नहीं सब कुछ हैं बेटे ही
हैं कितने ही घरों में बेटियाँ सब कुछ
चली जाए भले ससुराल, घर से दूर हो जाए
मगर माता-पिता को एक बेटी छोड़ती कब है
हिन्दी ग़ज़लकार विभिन्न पौराणिक सन्दर्भों के माध्यम से अपनी बात प्रभावी ढंग से रखते आ रहे हैं . इन ग़ज़लों के कई शेरों में भी पौराणिक सन्दर्भों के माध्यम से किए गए संकेत मिलते हैं :-
सभी हैं मौन कलियुग में भी द्वापर की तरह ही फिर
पता हर एक को है कर रहा क्या-क्या है दुर्योधन
कदाचित यह भी है विस्तार अद्भुत कृष्ण-लीला का
कन्हैया का कभी मीरा कभी रसखान में रहना
‘पुस्तक के बारे में’ वरिष्ठ ग़ज़लकार अशोक रावत लिखते हैं “ कमलेश भट्ट कमल ग़ज़ल लिख रहे उन चंद महत्वपूर्ण रचनाकारों में हैं जो आरम्भ से ही ग़ज़ल के व्याकरण और शिल्प के प्रति जागरूक रहे हैं …..वे इस बात को समझते हैं कि उर्दू ग़ज़ल के कहन के आकर्षण की स्थापना हिन्दी ग़ज़ल में तभी की जा सकती है जब उर्दू ग़ज़ल की ख़ूबियों को ठीक से समझा जाएगा.”
अशोक रावत का यह कहना बिलकुल सही है कि कमलेश भट्ट कमल ने ग़ज़ल की भाषा के निर्माण में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उन्होंने तमाम हिन्दी के क़ाफ़िये ग़ज़ल को दिए हैं जो पारंपरिक उर्दू ग़ज़ल में कभी प्रयोग नहीं हुए. निश्चित रूप से इन ग़ज़लों में ऐसे अनेक क़ाफ़ियों का प्रयोग मिलता है जो अन्यत्र नहीं मिलते . इनसे ग़ज़लों में नयापन भी आता है, इनकी ताज़गी भी बढ़ती है. उदहारणस्वरुप कुछ क़ाफ़िये जो संग्रह की ग़ज़लों में आए हैं :- विधियों,परिस्थितियों, ऋषियों-मुनियों, औषधियों, स्मृतियों, वनस्पतियों ,संततियों , कलशों, काया , गुरुद्वारा ,जन्मजात, प्रपात ,पुनर्निर्माण, तलहटी, क्रूरताएं ,चिंदी-चिंदी, संताप, अनुनाद , प्रासाद , लार्वा, नर्मदा आदि. नयेपन और शेरों की ताज़गी की बात आई है तो क्यों न ऐसे कुछ शेर भी देखते चलें जिनमें ग़ज़लकार का लहजा अनूठा है :-
हुई कजरी नहीं अबकी ,पड़े झूले नहीं उसमें
गया कुछ इस तरह सावन कि हम भीगे नहीं उसमें
एक दुआ फलने जैसा है बेटा हो जाना
बेटी से पूरी मन की मन्नत हो जाती है
ख़ुदकुशी से तो ज़रा भी न वो कमतर होगी
ओस की बात अगर धूप की चादर से कहो
भले सूरज हो तुम लेकिन अँधेरों में नहीं जाते
दिया ही मैं सही लेकिन अँधेरों में तो जलता हूँ
उसने ज़रूर पाया है कुछ न कुछ यहाँ से
जो भी है आके बैठा शब्दों की रौशनी में
क़ाफ़िया और रदीफ़ ग़ज़ल के सबसे महत्वपूर्ण अंग हैं .इनका चयन , इनका संयोजन, इनका निर्वाह ग़ज़लों को खूबसूरत और प्रभावी बनता है. इस संग्रह की ग़ज़लों की एक विशेषता यह भी है कि इनमें एक से एक नए और टटका क़ाफ़िये और रदीफ़ देखने को मिलते हैं .जिनका सटीक प्रयोग भी किया गया है और निर्वाह भी . आइए देखते हैं पहले कुछ ऐसे क़ाफ़ियों वाले कुछ शेर :-
उमीदें जब पसीने में समाहित होके रहती हैं
हमारी मुश्किलें सारी पराजित होके रहती हैं
समय लिखता है तब-तब पटकथाएँ ध्वंस की ख़ुद ही
कि जब-जब चेतनाएँ दृष्टि-बाधित होके रहती हैं
मैं तो क़तरा भर हूँ लेकिन आप समंदर हैं
आपसे मिलना ही मेरा व्यापक हो जाना है
मिटा पाएँ जो सारा कार्बन जीवन के पृष्ठों से
वो संसाधन तो पेड़ों से,वनस्पतियों से निकलेंगे
खिंचती आती हैं उसमें यादें कुछ
दिल में कोई रडार है शायद
जंगल, खेत, बगीचे, पर्वत, नदियाँ और तड़ाग लिए
हम जीते हैं दुनिया का कितना-कितना भू-भाग लिए
दिन-दिन मन मैला ही मैला होता जाता है भाई
हम सब बैठे रह जाते हैं नासिक और प्रयाग लिए
और इसी कड़ी में अब बानगी के तौर पर कुछ शेर नए रदीफ़ वाले भी :-
ठीक है इस वक़्त चारों ओर सन्नाटा घिरा है
पड़ नहीं जाना मगर कमज़ोर सन्नाटा घिरा है
देखा है यही रोज़ ही एहसास के स्तर पर
इंसान सभी एक यहाँ प्यास के स्तर पर
पर्वत उदास है तो , बादल उदास है तो
हम ख़ुश रहेंगे कब तक जंगल उदास है तो
यहाँ से कौन जाने रास्ता किस ओर को जाए
यहाँ तक सभ्यता को पुस्तकें सब खींच लाई हैं
इन ग़ज़लों में लोकभाषाओं के तथा हमारी बोलचाल में रचे-बसे देशज शब्दों के प्रयोग भी ख़ूब हुए हैं यहाँ तक कि अंग्रेज़ी भाषा के उन शब्दों का प्रयोग भी बहुत अच्छे ढंग से हुआ है जो रोज़मर्रा की हमारी बातचीत का हिस्सा बन चुके हैं , उदाहरण के लिए कुछ शेर :-
अगर प्रभु भर चुका हो जी अभी तक की तबाही से
ज़रूरी है की कर लो ख़त्म ख़ुद का आइसोलेशन
वह मिले तब तो कोई पूछे ना
क्यों लिखा ही लिलार में है दुख
जो माया छोड़ आए थे, उन्होंने
कमा ली ख़ूब दौलत संतई से
चिंतन और मनन करना बुड़बक हो जाना है
कुछ पन्ने लिख लेना अब लेखक हो जाना है
संग्रह की ग़ज़लों से गुज़रते हुए बार-बार महसूस होता है कि ग़ज़लकार की दृष्टि बहुत साफ़ है. मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि ये कमलेश भट्ट कमल के व्यक्तित्व और स्वभाव की बेबाकी ही है जो ग़ज़लों में उतरती चली गई है. उनके जीवन और शायरी के अनुभव ने उनकी ग़ज़लों को गहराई, रवानी और सहजता प्रदान की है . हिन्दी ग़ज़ल के नए रचनाकारों के लिए ये ग़ज़लें आदर्श हैं जिनसे उनको बहुत कुछ सीखने को मिल सकता है, यह संग्रह हिन्दी ग़ज़ल के एक समर्थ रचनाकार के रूप में ग़ज़लकार की छवि और पहचान को और सुदृढ़ बनाता है.
ओमप्रकाश यती
सिडनी, ऑस्ट्रेलिया
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