Tuesday, October 8, 2024
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वन्दना यादव का स्तंभ ‘मन के दस्तावेज़’ – यादों के जुगनू

बावरा मन समझने को तैयार ही नहीं कि सयानी उम्र, सयाना-पन भी माँगती है। बच्चे-सा मचलना छोड़ कर कुछ दुनियादारी की जाए। बचपना छूट चुका पीछे और जिसकी याद में छटपटा रहा है ये मन, वह कोई खिलौना थोड़े ही है। पर यह सुनता कहाँ है। बस इसे साथ चाहिए तो वही, और रहना है तब भी उसके ही साथ।

यादों पर किसी का बस नहीं चलता। कौन, कब और क्यों याद आ जाए, और याद आता ही चला जाए, कहना मुश्किल है। या कहूँ, कि बस ये तो मन की बात है कि यादें कब अपने आगोशमें ले लें, और हम भी कहाँ मुक्त होना चाहते हैं उन से… हाँ, यह सही है। यादों के महकते जंगल से बाहर आने को किसी का जी नहीं चाहता।
यादों की बरसातों को बरसने के लिए बदली की ज़रूरत नहीं होती। वैसे बदलियों की रूत हो, तब तो कहने ही क्या! बाहर भी बरखा, और भीतर भी बरसात।  
कभी जब काम की भागदौड और जीवन की उहापोह में मन को समझाने बैठो, तब भी यह मानता कहाँ है! बस अड़ जाता है बालमन-सा अपनी जिद्द पर। समझाने से भी नहीं समझता, जिद्दी कहीं का! झुलसते-से जीवन से छुट्टी ले, जब डुबकी लगाता है मीठे दिनों की ठंडी झील में, उससे बाहर आने को कहाँ राजी होता है फिर ये नटखट।
बावरा मन समझने को तैयार ही नहीं कि सयानी उम्र, सयाना-पन भी माँगती है। बच्चे-सा मचलना छोड़ कर कुछ दुनियादारी की जाए। बचपना छूट चुका पीछे और जिसकी याद में छटपटा रहा है ये मन, वह कोई खिलौना थोड़े ही है। पर यह सुनता कहाँ है। बस इसे साथ चाहिए तो वही, और रहना है तब भी उसके ही साथ।
ये बेताबी काश कि दोनों ओर होती। बीते मासूम दिन भी काश… कि रूकना चाहते हमेशा के लिए हमारे साथ। मगर आने वाली नस्लों का भी तो मासूमियत पर उतना ही हक़ है। इसीलिए वे बालपन के सुनहरी दिन छूट गए हमसे। वैसे, हमने भी कहाँ उनको बाँध कर रखना चाहा था। उन दिनों हम भी तो उतावले थे, बड़े हो जाने के लिए। जितना उतावलापन उन दिनों था बड़े हो जाने का, उतनी ही तड़प है आज बालपन में लौट जाने की। बेफिक्री में जीने की मगर जीवन की दोपहर में जुगनू कब दिखाई देते हैं! 
वन्दना यादव
वन्दना यादव
चर्चित लेखिका. संपर्क - [email protected]
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2 टिप्पणी

  1. वंदना जी, नमस्कार
    आपका स्तम्भ मन के दस्तावेज ‘यादों के जुगनू
    लाज़वाब है ।थोड़े में बहुत कुछ कह दिया
    बिल्कुल कविता जैसा लगा ।
    साधुवाद
    Dr Prabha mishra

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