शैलेन्द्र ने एक गीत लिखा था – “जो जिस से मिला सीखा हमनें, ग़ैरों को भी अपनाया हमनें…” आज मौक़ा बना है हमारे और विश्व भर के राजनीतिज्ञों के लिये कुछ सीखने का कुछ समझने का। जेसिंडा आर्डर्न को देखें और सीखें कि सत्ता से कैसे मोह हटाया जा सकता है। भारतीय संस्कृति में तो वानप्रस्थ का प्रावधान है जिसे अंग्रेज़ी में ‘डिटैच्ड अटैचमेंट’ कहते हैं। हमें तो बाहर जा कर किसी से भी कुछ सीखने की आवश्यक्ता नहीं है। मगर फिर भी हम लालच के दबाव में पद और सत्ता से चिपके रहना चाहते हैं।
सुनील गावस्कर ने एक बार कहा था कि किसी भी खिलाड़ी को उस समय खेल छोड़ देना चाहिये जब लोग पूछने को मजबूर हो जाएं कि भाई क्यों छोड़ रहे हो। इस बात का इन्तज़ार नहीं करना चाहिये कि लोग सवाल करें कि भाई क्यों चिपके हुए हो, छोड़ क्यों नहीं देते?
न्यूज़ीलैण्ड की 42 वर्षीय प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डर्न ने इस्तीफ़े की पेशकश करके पूरे विश्व के राजनीतिज्ञों को सकते में डाल दिया है। जिस उम्र में कोई भी राजनेता प्रधानमंत्री बनने के सपने देखना शुरू करता है, उस उम्र में जेसिंडा आर्डर्न को महसूस होने लगा है कि उनमें कोई जज़्बा नहीं बचा है। ज़ाहिर है कि ऐसा कहते हुए उनकी आँखें नम हो गई थीं।
आज के लालच भरे माहौल में किसी भी देश के राजनेता का ऐसा क़दम असाधारण ही लगेगा। पूरे विश्व में इसकी चर्चा हो रही है। एक मज़ेदार स्थिति यह भी है कि हर देश का नागरिक अपने-अपने देश के नेताओं की तुलना जेसिंडा के साथ कर रहा है।
यहां ब्रिटेन में भी तुलना सीधी बॉरिस जॉन्सन के साथ हो रही है जिसे बेइज्ज़त होकर पद छोड़ना पड़ा। भारत में कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष 80 साल से बड़ा है। अडवाणी जी 90 के हो कर भी निराश हो कर राजनीति से बाहर हुए। लालू यादव, मुलायम यादव, जैसे बेशुमार नेता गद्दी और राजनीति से फ़ेविकोल लगा कर चिपके रहना चाहते हैं। डॉनल्ड ट्रंप ने तो सत्ता छोड़ने से पहले बेहूदगी की सारी हदें पार कर दी थीं।
शैलेन्द्र ने एक गीत लिखा था – “जो जिस से मिला सीखा हमनें, ग़ैरों को भी अपनाया हमनें…” आज मौक़ा बना है हमारे और विश्व भर के राजनीतिज्ञों के लिये कुछ सीखने का कुछ समझने का। जेसिंडा आर्डर्न को देखें और सीखें कि सत्ता से कैसे मोह हटाया जा सकता है। भारतीय संस्कृति में तो वानप्रस्थ का प्रावधान है जिसे अंग्रेज़ी में ‘डिटैच्ड अटैचमेंट’ कहते हैं। हमें तो बाहर जा कर किसी से भी कुछ सीखने की आवश्यक्ता नहीं है। मगर फिर भी हम लालच के दबाव में पद और सत्ता से चिपके रहना चाहते हैं।
भारत का आलम यह है कि नैतिकता के नाते भी नेता-मंत्री त्यागपत्र देने से बचते रहते हैं जब तक कि पार्टी या विपक्ष का दबाव न हो। अगर इतिहास पलटकर देखें तो भारत में पहले बड़े नेता लाल बहादुर शास्त्री हुए जिन्होंने नैतिकता के आधार पर रेल हादसे के बाद मंत्रीपद से इस्तीफा देकर मिसाल क़ायम की थी। आज न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री के इस्तीफे का समाचार आया तो भारतवासियों को शास्त्री जी याद आ गए। शास्त्री जी और गुल़ज़ारी लाल नंदा जैसे लोग विरले हुआ करते हैं। आज के ज़माने में तो यह प्रजाति विलुप्तप्रायः है।
जेसिंडा आर्डर्न ने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देते हुए कहा, “मेरे कार्यकाल का 6वां वर्ष शुरू होने जा रहा है।पीएम पद विशेषाधिकारों के साथ कई ज़िम्मेदारियां भी देता है; ज़िम्मेदारी यह महसूस करने की भी है कि आप नेतृत्व करने के लिए कितने उचित व्यक्ति हैं और कब नहीं। मुझे पता है कि इस पद के लिए क्या चाहिए। मुझे पता है किअब मेरे पास वो जज़्बा नहीं है। यही असल बात है।… मैं यह पद इसलिए छोड़ रही हूं।”
भारत के राजनीतिक गलियारे में भी हर जगह यही कहा जा रहा है कि भारत को ऐसे नेताओं की ज़रूरत है। मज़ेदार बात यह है कि ऐसे वाक्य कांग्रेस पार्टी के नेता कह रहे हैं मगर शरद पवार और नवीन पटनायक जैसे नेताओं के कानों तक यह बात पहुंच नहीं पाती है।
जेसिंडा आर्डर्न के 6 वर्षों का कार्यकाल उपलब्धियों की ख़ूबसूरत दास्तान है। कोरोना महामारी को जिस तरह से काबू किया, उसकी चर्चा पूरी दुनिया में हुई थी। कोविड महामारी के बीच आर्डर्न की लोकप्रियता और बढ़ी… चुनाव में लेबर पार्टी ने बहुमत हासिल किया। आर्डर्न सरकार की कोविड पॉलिसी को इस जीत की बड़ी वजह माना गया। हालांकि बाद के दिनों में अर्थव्यवस्था के स्तर पर बढ़ती चुनौतियों के कारण लेबर पार्टी के लिए स्थितियां उतनी आसान नहीं रह गई हैं।
प्रधानमंत्री के पद पर रहते उन्होंने एक बच्ची को जन्म दिया तो दुनिया भर में उनकी चर्चा हुई। प्रधानमंत्री जेसिंडा के पार्टनर क्लार्क गेफोर्ड हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक बैठक में वे अपने बच्चे के साथ दिखाई दीं तो उनकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हो गयीं। उन्हें ’21वीं सदी की नारी’ के तौर पर सराहा गया था। आज उन्होंने 21वीं सदी के नेताओं के सामने एक बेमिसाल उदाहरण पेश किया है।
जेसिंडा आर्डर्न को आमतौर पर एक प्रगतिशील राजनीति के चेहरे के तौर पर देखा जाता है। सहिष्णुता, विविधता, सब को साथ लेकर चलने की राजनीति के अलावा कामकाजी महिलाओं से जुड़े एक बड़े संघर्ष में भी उनका योगदान रहा है। तीन साल पहले दो मस्जिदों पर हमला हुआ तो जेसिंडा आर्डर्न मुस्लिम समुदाय के समर्थन में खड़ी दिखाई दीं।
अपना त्यागपत्र देते हुए जेसिंडा ने कहा, “अपनी बच्ची नेवे से मैं कहूंगी कि इस साल जब तुम स्कूल जाने की शुरुआत करोगी, तब मां तुम्हारे साथ होंगी… और क्लार्क, चलो अब शादी कर ही लेते हैं।” याद रहे कि न्यूज़ीलैण्ड या पश्चिमी देशों की सभ्यता के अनुसार जेसिंडा और क्लार्क अभी तक ‘पार्टनर’ हैं, उनका विधिवत विवाह नहीं हुआ है।
आर्डर्न जब प्रधानमंत्री के पद पर आसीन हुई थीं, उस समय उनकी आयु केवल 37 वर्ष थी। अपने देश के लगभग 150 वर्षों के इतिहास में प्रधानमंत्री के पद पर बैठने वाली वे सबसे युवा नेता हैं। उनसे पहले भी न्यूज़ीलैण्ड में दो महिला प्रधानमंत्री रह चुकी हैं – जेनी शिपले और हेलेन क्लार्क। यहां ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि विश्व में सबसे पहले महिलाओं को संसदीय चुनाव में मतदान का अधिकार भी न्यूज़ीलैण्ड में ही मिला था – वर्ष था 1893। इस मामले में न्यूज़ीलैण्ड ने अमरीका और ब्रिटेन को भी पीछे छोड़ दिया।
प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डर्न ने परिवार के साथ वक्त बिताने के अलावा अपने त्यागपत्र के कुछ और भी कारण बताए हैं। उन्होंने बताया कि निजी तौर पर वे खुद को एक और कार्यकाल के लिए तैयार नहीं मानती हैं। उन्होंने कहा, “मेरा मानना है कि एक देश का नेतृत्व करना सबसे सम्मानजनक काम है, लेकिन साथ ही यह सबसे ज्यादा चुनौती पूर्ण भी है। पिछले साढ़े पांच साल मेरी जिंदगी के सबसे समृद्ध दिन थे। मैं पद छोड़ रही हूं क्योंकि इतने सम्मानित काम के साथ बड़ी जिम्मेदारियां भी आती हैं।”
यह भी सोचा जा रहा है कि शायद जेसिंडा पर राजनीतिक दबाव उनके त्यागपत्र का कारण हो सकते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री हेलेन क्लार्क ने जेसिंडा की विरासत की जहां तारीफ़ की वहीं उनके त्यागपत्र पर निराशा भी ज़ाहिर की। इस बारे में एक बयान जारी करते हुए हेलेन क्लार्क ने कहा है, “प्रधानमंत्रियों पर हमेशा से काफी दबाव रहा है, लेकिन सोशल मीडिया, क्लिकबेट और 24 घंटे के मीडिया साइकिल में जेसिंडा ने जिस स्तर पर नफ़रत और अपशब्दों का सामना किया, मेरे अनुभव में वह हमारे देश के हिसाब से अभूतपूर्व है।”
देशों में चुनाव होते रहेंगे। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति आते-जाते रहेंगे। राजनेता आपस में सत्ता और कुर्सी की लड़ाई लड़ते रहेंगे। मगर बीच-बीच में जेसिंडा आर्डर्न जैसे लोग भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा कर हमें आश्वस्त करते रहेंगे कि अभी सब-कुछ नहीं लुटा है। जीवन में अभी भी कुछ रौशनी बाकी है। हमारे वक्त के राजनेताओं को उस लौ से थोड़ी-थोड़ी रौशनी उधार लेते रहना चाहिये। शैलेन्द्र ने भी तो यही कहा है – “किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार… जीना इसी का नाम है!”
सत्ता का मोह छूटे नही छुट पाता।
हर कोई ताक में रहता है कब उसे गद्दी मिले।
पर कुछ है ऐसे भी जिन्हें सत्ता के मोह माया से दूर ही है। जुड़े है पर उस दलदल में फसे नही।
राजनिति मतलब एक दलदल है।
उन्होंने जो भी फ़ैसला लिया है सही ही होगा।
राजनिति का ज्ञान नही है मुझ में,बस इसपर जो लगा वह बात रखी हम ने।
न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री ने सत्ता के लिए निरन्तर संघर्ष करने वाली दुनियाँ के लिये मिसाल प्रस्तुत की है, जो निसंदेह वंदनीय है।
बहुत अच्छा आलेख , बहुत-बहुत बधाई! आभार!
You have lauded Jecinda Ardern well in this well -timed Editorial of yours.
It is a subject of hot discussion these days how she felt the pressure of running a smooth government too much for her temperament n circumstances.
And how at the same time difficult it is to resign and get away from it.
This quote from our favorite poet Shailendra[who was rooted in our culture and who presented it with success in many of his immortal lyrics] as your heading is so apt.
Regards
Deepak Sharma
तेजेंद्र जी आप पुरवाई के सम्पादकीय द्वारा विश्व की सभी महत्वपूर्ण खबरों को पाठकों तक पहुँचाते ही नहीं उस पर तटस्थ टिप्पणी भी सम्प्रेषित करते हैं। पुरवाई के सम्पादकीय को पढ़ने की प्रतीक्षा रहती है। हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ।
आपके सम्पादकीय देश-विदेश की सभी महत्वपूर्ण सूचनाओं को तटस्थ टिप्पणी सहित प्रस्तुत करने के कारण हमेशा विशेष होते हैं। कुर्सी से चिपके राजनेताओें के लिए आपकी सलाह अत्यंत प्रासंगिक है।
जेसिका आर्डर्न जैसी नेता का उदाहरण समाज को दिशा देता है, ‘अनासक्त स्नेह ‘ detached attachment को रेखांकित करता उनका व्यक्तित्व सचमुच बहुत प्रेरक है,
सर आपने इस प्रेरक विषय को शैलेन्द्र के गीत के माध्यम से उठाया और बहुत ही सुन्दर ढंग से संपादकीय में वर्णित किया है।
आपको साधुवाद ।
तेजेन्द्र जी
नमस्कार व हृदय से साधुवाद
आपके संपादकीय में हर बार नई ख़बर नई शैली में मिलती है जो सूचनात्मक होने के साथ चिंतन की ओर भी मुखातिब करती है।
यह उदाहरण है वास्तव में attachment to detechetment का।
यह उदाहरण राजनीतिक क्षेत्र का है किंतु
प्रत्येक क्षेत्र में, प्रत्येक व्यक्ति पर लागू हो सकता है।
भारतीयता के इस परिवेश की ओर इंगित करने के लिए आभार नहीं नमन आपको ।
हम सीखते बहुत कुछ हैं, दिक्कत ये है कि उसे अमल में लाते नहीं। ग़ैरों को अपना कर देश ऐसा हो गया है कि कौन असली भारतीय है और कौन सिर्फ़ यहाँ रह रहा है। यहाँ रह कर देश की जड़ खोदने वाले भी सभी अपनाये हुए हैं। एक युवा प्रधानमंत्री ने सत्ता छोड़ कर एक आदर्श रखा, वंदनीय है। प्रश्न यह भी उठता है कि, अपने निजी जीवन के कारण त्यागपत्र देकर,क्या चयनकर्ताओं की भावना को ठेस नहीं पहुंचायी?
भारत में वानप्रस्थ, 50 वर्ष की आयु में लेने का प्रावधान था, ऐसा अगर हो जाये तो 80% राजनेताओं की जगह खाली हो जायेगी। भारत में बुज़ुर्गियत का ख़ासा सम्मान है, वृद्धाश्रम कम हैं, इसलिए नेता समझदारी से काम लेते हैं और मृत्युपर्यंत जिम्मेदारी निभाते हैं, ये भी एक मिसाल है।
देश विदेश की जानकारी मिलती रहती है आपके संपादकीय से, विचार करने के लिए नए आयाम भी। रविवार की और संपादकीय की प्रतीक्षा रहती है। हार्दिक धन्यवाद, आप ऐसे ही लिखते रहें और हम सभी को लाभान्वित करते रहें।
यह सम्पादकीय असम्पृक्त व निस्पृह राजनीति का ज्वलंत उदाहरण है। काश, हमारे नेता इससे कुछ सबक़ लें। आदरणीय तेजेन्द्र जी ! आपने शैलेन्द्र के गीत में निहित भारतीय दर्शन को यहाँ सटीक स्मरण किया है। जेसिंडा आर्डर्न की ईमानदारी की प्रशंसा खुले दिल से की जानी चाहिए।
अच्छा संपादकीय है। इस संपादकीय में भारतीय जीवन-दर्शन का अच्छा संयोजन है। पद की प्राप्ति उपलब्धि है, किंतु उसका त्याग शांति है।
धन्यवाद अशोक जी।
कुछ बचा है अभी, बहुत बढ़िया
धन्यवाद आलोक भाई।
एक स्त्री ही ऐसा कर सकती ही।
सही कहा।
सत्ता का मोह छूटे नही छुट पाता।
हर कोई ताक में रहता है कब उसे गद्दी मिले।
पर कुछ है ऐसे भी जिन्हें सत्ता के मोह माया से दूर ही है। जुड़े है पर उस दलदल में फसे नही।
राजनिति मतलब एक दलदल है।
उन्होंने जो भी फ़ैसला लिया है सही ही होगा।
राजनिति का ज्ञान नही है मुझ में,बस इसपर जो लगा वह बात रखी हम ने।
स्त्री हमेशा महान थी महान है और रहेगी
मेरा अंग्रेज़ी में एक लेख था – “यदि कोई भगवान है तो वह नारी ही हो सकता है”।
बहुत सुंदर।
धन्यवाद सोमन जी
नमस्कार
संकेत की भाषा में चेतना के स्वर
बेहतरीन विचार ।
साधुवाद
Dr Prabha mishra
लगातार सप्पोर्ट के लिये धन्यवाद प्रभा जी।
विचारणीय और अनुकरणीय। सत्ता को नशा नही, ज़िम्मेदारी समझी जानी चाहिए, तभी किसी देश का हित सम्भव है। इस सम्पादकीय के लिए आपको साधुवाद।
धन्यवाद रिंंकु जी।
न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री ने सत्ता के लिए निरन्तर संघर्ष करने वाली दुनियाँ के लिये मिसाल प्रस्तुत की है, जो निसंदेह वंदनीय है।
बहुत अच्छा आलेख , बहुत-बहुत बधाई! आभार!
सार्थक टिप्पणी मधु जी।
You have lauded Jecinda Ardern well in this well -timed Editorial of yours.
It is a subject of hot discussion these days how she felt the pressure of running a smooth government too much for her temperament n circumstances.
And how at the same time difficult it is to resign and get away from it.
This quote from our favorite poet Shailendra[who was rooted in our culture and who presented it with success in many of his immortal lyrics] as your heading is so apt.
Regards
Deepak Sharma
Deepak ji, you are so right that Shailendra has given us such gems that show us a way to lead a decent meaningful life.
सत्ता का मोह छूटे नही छूट पाता।
पर एक स्त्री हर तरफ़ से सोचती है।
“जीयो यो और जीने दो”
सही कहा डॉ. सपना
काश कि भारत में ऐसा होता। पर आज तो ऐसे वैराग्यवान ओर तला ना भुसावल मे सभी खोजना है।
जज़्बा बहुत कुछ कह जाता है।
तेजेंद्र जी आप पुरवाई के सम्पादकीय द्वारा विश्व की सभी महत्वपूर्ण खबरों को पाठकों तक पहुँचाते ही नहीं उस पर तटस्थ टिप्पणी भी सम्प्रेषित करते हैं। पुरवाई के सम्पादकीय को पढ़ने की प्रतीक्षा रहती है। हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ।
आपके सम्पादकीय देश-विदेश की सभी महत्वपूर्ण सूचनाओं को तटस्थ टिप्पणी सहित प्रस्तुत करने के कारण हमेशा विशेष होते हैं। कुर्सी से चिपके राजनेताओें के लिए आपकी सलाह अत्यंत प्रासंगिक है।
सदैव की भांति सटीक, सारगर्भित,प्रेरणादायक सम्पादकीय । आपकी लेखनी को नमन।
जेसिका आर्डर्न जैसी नेता का उदाहरण समाज को दिशा देता है, ‘अनासक्त स्नेह ‘ detached attachment को रेखांकित करता उनका व्यक्तित्व सचमुच बहुत प्रेरक है,
सर आपने इस प्रेरक विषय को शैलेन्द्र के गीत के माध्यम से उठाया और बहुत ही सुन्दर ढंग से संपादकीय में वर्णित किया है।
आपको साधुवाद ।
तेजेन्द्र जी
नमस्कार व हृदय से साधुवाद
आपके संपादकीय में हर बार नई ख़बर नई शैली में मिलती है जो सूचनात्मक होने के साथ चिंतन की ओर भी मुखातिब करती है।
यह उदाहरण है वास्तव में attachment to detechetment का।
यह उदाहरण राजनीतिक क्षेत्र का है किंतु
प्रत्येक क्षेत्र में, प्रत्येक व्यक्ति पर लागू हो सकता है।
भारतीयता के इस परिवेश की ओर इंगित करने के लिए आभार नहीं नमन आपको ।
हम सीखते बहुत कुछ हैं, दिक्कत ये है कि उसे अमल में लाते नहीं। ग़ैरों को अपना कर देश ऐसा हो गया है कि कौन असली भारतीय है और कौन सिर्फ़ यहाँ रह रहा है। यहाँ रह कर देश की जड़ खोदने वाले भी सभी अपनाये हुए हैं। एक युवा प्रधानमंत्री ने सत्ता छोड़ कर एक आदर्श रखा, वंदनीय है। प्रश्न यह भी उठता है कि, अपने निजी जीवन के कारण त्यागपत्र देकर,क्या चयनकर्ताओं की भावना को ठेस नहीं पहुंचायी?
भारत में वानप्रस्थ, 50 वर्ष की आयु में लेने का प्रावधान था, ऐसा अगर हो जाये तो 80% राजनेताओं की जगह खाली हो जायेगी। भारत में बुज़ुर्गियत का ख़ासा सम्मान है, वृद्धाश्रम कम हैं, इसलिए नेता समझदारी से काम लेते हैं और मृत्युपर्यंत जिम्मेदारी निभाते हैं, ये भी एक मिसाल है।
देश विदेश की जानकारी मिलती रहती है आपके संपादकीय से, विचार करने के लिए नए आयाम भी। रविवार की और संपादकीय की प्रतीक्षा रहती है। हार्दिक धन्यवाद, आप ऐसे ही लिखते रहें और हम सभी को लाभान्वित करते रहें।
शैली जी, इस विस्तृत टिप्पणी के लिए धन्यवाद।
यह सम्पादकीय असम्पृक्त व निस्पृह राजनीति का ज्वलंत उदाहरण है। काश, हमारे नेता इससे कुछ सबक़ लें। आदरणीय तेजेन्द्र जी ! आपने शैलेन्द्र के गीत में निहित भारतीय दर्शन को यहाँ सटीक स्मरण किया है। जेसिंडा आर्डर्न की ईमानदारी की प्रशंसा खुले दिल से की जानी चाहिए।