Saturday, July 27, 2024
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संपादकीय – चुनाव वहां भी और यहां भी

जो जिस से मिला सीखा हमने
ग़ैरों को भी अपनाया हमने… (शैलेन्द्र)
कवि शैलेन्द्र ने अपने इस फ़िल्मी गीत में भारत और भारतीयों के बारे में बहुत बड़ी बात बहुत सरल शब्दों में कही थी। इसी गीत में वो यह भी कहते हैं, “कुछ लोग जो ज़्यादा जानते हैं / इन्सान को कम पहचानते हैं।” और यह बात भारत के राजनीतिक नेताओं और पत्रकारों पर सटीक बैठती है। 

 मामला कुछ इस तरह का है कि 4 जुलाई 2024 को ब्रिटेन की संसद के भी चुनाव होने वाले हैं। यानी कि चार सप्ताह से भी कम का समय बाक़ी है। और अगले तीन दिनों में भारत की नई सरकार का गठन भी होने वाला है। तो ज़ाहिर है कि हम जैसे पहली पीढ़ी के प्रवासी दोनों देशों के चुनावों और चुनावी प्रक्रिया को लेकर उत्साहित भी हैं और तुलना करने के लिये मजबूर भी। 
भारत में लोकसभा के 543 सांसद होते हैं और राज्य सभा के 250 सदस्य होते हैं जिनमें से 238 का चुनाव होता है और 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नामित होते हैं। वहीं ब्रिटेन में हाउस ऑफ़ कॉमन्स (लोक सभा) में कुल 650 सांसद होते हैं और हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में वर्तमान में 783 सदस्य हैं। हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स के सदस्य आमतौर पर जीवन भर के लिये होते हैं। ब्रिटेन में लगभग 92,000 की आबादी के लिये एक सांसद होता है। यानी कि यहां कोई भी प्रत्याशी एक लाख मतों के अंतर से नहीं जीत सकता। 
मैं स्वयं लेबर पार्टी का कार्डधारी सदस्य हूं; इसलिये प्रत्याशियों की चयन प्रक्रिया से चुनावी प्रचार और सरकार बनाने की प्रक्रिया से कुछ हद तक परिचित हूं। मैं स्वयं भी एक बार काउंसिल का चुनाव लड़ चुका हूं। यहां के टीवी चैनल देखता हूं। यहां के सांसद और मंत्रियों से निजी रूप से मिल भी चुका हूं। यदि भारत से कोई मित्र इन दिनों लंदन में आए और उसे बताया जाए कि 4 जुलाई को आम चुनाव हैं, तो वह कभी विश्वास नहीं करेगा। 
 यहां रोड शो और आम रैली जैसी किसी प्रक्रिया की कोई परम्परा नहीं है। चुनाव प्रचार या तो किसी हॉल में होता है या फिर दोनों दलों के मुख्य नेता टीवी पर बहस करते हैं। बहस केवल और केवल मुद्दों पर होती है। दोनों दलों के चुनावी घोषणा पत्र में किये गये वादों पर होती है। मुझे चार दिन पहले ही सत्तारूड़ दल के नेता ऋषि सुनक और लेबर पार्टी के मुखिया केअर स्टॉमर के बीच बहस देखने का मौका मिला। ध्यान देने लायक बात यह थी कि दोनों बात कर रहे थे, बहस कर रहे थे… चुनावी भाषण नहीं दे रहे थे। 

ऋषि सुनक से बहुत से कठिन सवाल पूछे जा रहे थे और वे उनका जवाब दे रहे थे। ठीक उसी तरह ऋषि सुनक केअर स्टॉमर से पूछ रहे थे कि आप जो दावा या वादा कर रहे हैं उसके लिये पैसा कहां से लाएंगे। यहां कोई जुमलेबाज़ी नहीं कर सकता। और न ही कोई पार्टी कोई चीज़ें मुफ़्त देने की घोषणा करता है। यहां तक कि ऋषि सुनक ने जब कहा कि जूनियर डॉक्टरों की अपनी पगार में 35% बढ़ोतरी की माँग ग़लत है तो उस पर केअर स्टॉमर ने कहा कि यदि हम सत्ता में आ गये तो हम इस समस्या को हल कर लेंगे। उस पर ऋषि सुनक ने तपाक से पूछा कि हमें बताइए आप इसे कैसे हल करेंगे। इस पर विपक्ष के नेता बगलें झांकने लगे। मगर यह सब शालीनता से हो रहा था। कहीं कोई कड़वी बातें नहीं। 
भारत में चुनाव शोरीले, खर्चीले, अभद्र, झूठे वादों से भरपूर और निराधार आरोप लगाने वाली प्रक्रिया है। टीवी चैनल हों, साक्षात्कार हों या फिर रैलियां… हर राजनीतिक दल दूसरे दलों पर औने-पौने आरोप लगा देता है और मतदाताओं को प्रलोभनों की सूची पेश कर देता है। हर दल अपनी जीत के दावे ऐसे करता है जैसे कि सारे वोट उनके कार्यकर्ताओं ने अपने हाथों से ई.वी.एम. में डाले हों। इस पर याद आया कि सबसे बड़ी विलेन तो ई.वी.एम. ही होती है। चुनावी प्रक्रिया की शुरूआत से लेकर मतगणना के अंति क्षणों तक ई.वी.एम. पर सवाल उठाए गये। यदि सच में ई.वी.एम. पर जादू टोना किया गया होता तो क्या चुनावी नतीजे इस प्रकार के होते?
भारत में चुनावी प्रक्रिया करीब दो महीनों तक चली। माहौल दो महीनों तक गरमाया रहा और आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चलता रहा और बहस का स्तर लगातार गिरता रहा। किसी भी चुनाव का इतने लंबे समय तक चलना उस देश के लिये और चुनावी प्रक्रिया के लिये सेहतमन्द नहीं है। दो महीनों तक देश जैसे बिना किसी सरकार के चल रहा होता है क्योंकि सरकार कोई निर्णय नहीं ले सकती और बस किसी तरह काम चल रहा होता है। 
भारत में चुनावी ख़र्चे का हिसाब रखने वाली एक नॉन-प्रॉफ़िट संस्था है ‘सेंटर फ़ॉर मीडिया स्टडीज़’। उनके एक सर्वे के अनुसार भारत भारत के 2024 के चुनाव शायद दुनिया के सबसे मंहगे चुनाव कहे जा सकते हैं। उनका दावा है कि केवल भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का चुनावी ख़र्च का आंकड़ा लगभग एक लाख करोड़ रुपये हुआ। इतना पैसा ख़र्चने के बाद भी नतीजा लटका लटकाया। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2020 में अमरीकी चुनाव में लगभग 1.20 लाख करोड़ रुपये ख़र्च हुए थे। जबकि वर्तमान भारतीय चुनाव का ख़र्चा 1.35 लाख करोड़ के लगभग पहुंच गया है। 
जब कभी कोई भी कंपनी अपनी बैलेंस शीट बनाती है तो उसमें देखा जाता है कि किसी भी मद पर जितना ख़र्च हुआ उसके हिसाब से कमाई कितनी हुई। चुनावों में भी सोचा जाएगा कि 1.35 लाख करोड़ रुपये ख़रचने के बाद वोट की प्रतिशत कितनी रही। भारत में मतदाताओं की संख्या लगभग 96.6 करोड़ है। इस हिसाब से एक वोट की कीमत लगभग ₹1,400/- पड़ेगी। मगर वोट तो सभी मतदाताओं ने डाले नहीं। वर्तमान चुनावों में केवल 65.7% मतदान ही हुआ। उस हिसाब से तो एक-एक वोट की कीमत कहीं अधिक हो जाएगी। 
भारत में लोकसभा के प्रत्येक प्रत्याशी को चुनाव आयोग की ओर से ₹95 लाख तक खरचने की इजाज़त है। वहीं विधान सभा के लिये यह सीमा ₹40 लाख है। सवाल यह उठता है कि यदि एक प्रत्याशी अपने चुनाव पर ₹95 लाख ख़रचता है तो उसे वो रुपया वापिस कमाने में कितनी बेईमानी करना पड़ेगी। वह केवल सांसद की पगार से तो अपने पैसे वसूल कर नहीं सकता। इसी कारण अवांछित तत्व भी चुनावी प्रक्रिया का हिस्सा बन जाते हैं। वर्तमान चुनावों में तो पंजाब और कश्मीर से ऐसे-ऐसे सांसद जीत कर आए हैं जिन पर आतंकवाद के मुकद्दमे चल रहे हैं; और वे जेल में बंद हैं। 
चुनावी खर्च में पारदर्शिता बनाए रखने के लिए राजनीतिक पार्टियों को हर साल चुनाव आयोग को कंट्रीब्यूशन रिपोर्ट देनी होती है। इस रिपोर्ट में 20 हज़ार रुपये से अधिक के चंदे की जानकारी देनी होती है। इसके अलावा चुनाव ख़त्म होने के बाद चुनावी ख़र्च से जुड़ी रिपोर्ट 75 दिन में जमा करानी होती है। इस रिपोर्ट को आयोग अपनी वेबसाइट पर भी जारी करता है।
हमने देखा है कि भारत में चुनावों से पहले ई. डी. के छापों में कितने करोड़ों रुपये का कैश बरामद हुआ है। नोटों के पहाड़ खड़े दिखाई दे रहे थे। भ्रष्टाचार इतना अधिक है कि सांसद बनने के बाद पांच साल इसी जुगाड़ में निकल जाते हैं कि पैसे रिकवर कैसे किये जाएं। 
चुनावों में कहीं प्रधानमंत्री अपनी गारंटी मतदाताओं के पेश करते हैं तो कहीं जेल से बाहर निकले मुख्य मंत्री। अब की बार तो कांग्रेस पार्टी ने कमाल ही कर दिया कि अपना गारंटी कार्ड का मीनू छपवा कर मतदाताओं में बंटवा दिया। समस्या तो तब उठ खड़ी हुई जब कुछ महिलाएं चुनावी नतीजों के बाद अपने अपने पैसे लेने के लिये कांग्रेस के दफ़्तर पहुंच गईं। 
ऐसे लुभावने वादे किसी रिश्वत से कम नहीं हैं। चाहे ये वायदे सत्तारूड़ दल करे या फिर विपक्ष। दरअसल होना तो यह चाहिये कि करदाताओं को यह हक मिले कि उनके दिये गये टैक्स का दुरुपयोग राजनीतिक पार्टियां बिल्कुल न कर सकें। मुफ़्त बिजली, पानी जैसी रिश्वतों पर रोक लगनी चाहिये। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट को स्वतः संज्ञान लेना चाहिये या फिर करदाताओं को मिल कर इस मामले में अदालती कार्यवाही करनी चाहिये। 
जैसा कि हम देख रहे हैं एन.डी.ए. की सरकार शपथ लेने जा रही है। हमें तो यही डर सता रहा है कि कहीं 2029 के चुनावों में ₹2 लाख करोड़ ना ख़र्च करने पड़ें। रोड शो और बड़ी रैलियों पर प्रतिबन्ध लगना चाहिये। अपने-अपने इलाके में लोकल चैनलों पर प्रत्याशी मुद्दों पर बहस करें। चुनाव एक गंभीर प्रक्रिया है। उसे पूरी गंभीरता से लड़ना भी चाहिये। हम अपने देश के लिये प्रतिनिधि चुन रहे हैं, आपस में दुश्मनियां नहीं पैदा कर रहे। शैलेन्द्र के संदेश को समझें और ब्रिटेन से सीखें कि कम ख़र्च में अच्छा चुनाव कैसे लड़ा जा सकता है। 
तेजेन्द्र शर्मा
तेजेन्द्र शर्मा
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.
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56 टिप्पणी

  1. तथ्यपरक एवं विचारणीय लेख। यह सत्य है.. इतने धन खर्च होने के बाद भी सकारात्मक परिणाम भी नहीं मिलता। जनता आज भी अँधेरे में जीती है…इसलिए इस चुनाव में कोई भी संतुष्ट नहीं.. न नेता न जनता। साधुवाद सर

  2. आदरणीय संपादक महोदय,
    भारत के आम चुनाव की कमियों और फूहड़ता का सटीक आकलन और विश्लेषण किया है आपने।बधाई।
    काश, हमारी जनता और सरकार भी यह समझे।
    देश का आम नागरिक जब तक जागरूक नहीं होता स्थिति में सुधार होना कठिन है। हां, हमें आशा का आंचल नहीं छोड़ना है।

    • अच्छा आकलन प्रस्तुत किया सर।
      मैं अपनी राजनीतिक चर्चाओं/बहसों में अमूमन यही बातें करता हूँ चुनाव प्रचार को लवकर और चुनावी खर्च को लेकर। यहाँ चुनाव को जंग की तरह लड़ा जाता है जिसमें कार्यकर्ता एक दूसरे को दुश्मन की तरह देखते हैं।

  3. आपकी संमसामयिक मुद्दे चुनाव पर सार्थक चर्चा और ब्रिटेन के चुनाव से तुलना सार्थक है लेकिन हम जीवन में कभी बराबरी कर ही नहीं सकते है। हमारे यहाँ अपराधियों की राजनीति है , सत्तर से अस्सी प्रतिशत प्रत्याशी अपराधिक मामलों में वांछित है और कचछ तो जेल में बैठकर चुनाव लड़ रहे है।
    ऐसे लोग देश के लिए क्या संदेश दे सकते है? झूठे वादों और मुफ्त की रेवड़ियाँ बाँटने का प्रलोभन ही चुनाव परिणाम को प्रभावित करता है। ईमानदार हों तो देश चलना मुश्किल क्योंकि जहाँ जनसामान्य कर देता हो और जनप्रतिनिधि उसको किसी न किसी रूप में तिजोरियां भर रहे हों। भविष्य क्या होगा ईश्वर ही जाने। आपने तुलना कर यथार्थ से अवगत करा दिया।

  4. आपने अच्छा लिखा ,सर जानते हैं हमने लोकतंत्र सीखा है उस पर अमल कम किया है। भारत में नेता परिपक्व नहीं हैँ । लोकतंत्र के नाम पर विपक्षी नेता दुश्मनो जैसा व्यवहार करते है इसी तरह मतदाता भी परिपक्व नहीं हैं निजी स्वार्थ में डूबा हुआ है , सच ही कहा जाता है कि इस देश को भगवान ही चलाता है

  5. अच्छा और तटस्थ संपादकीय, कुछ नियंत्रण आवश्यक हैं, लेकिन कैसे और कब, यह या तो संसद स्वयं करे या न्यायालय या फिर जनता इतनी जागरूक हो। भविष्य क्या होगा इसका उत्तर भी भविष्य के गर्भ में है।

  6. इस उत्तम संपादकीय टिप्पणी के लिए आपको बधाई। कुछ बहुत ही विचारणीय मुद्दे आपने उठाए। मसलन चुनाव की लगभग दो महीने तक चलने वाली प्रक्रिया। इस दौरान आचार संहिता का बहाना बनाकर कोई सरकारी काम नहीं होता। सब निठल्ले बैठे रहते हैं। चुनाव पर बेतहाशा सरकारी खर्च- प्रति वोट 1400₹। और वास्तविक‌ मतदाता की दृष्टि से तो 2000₹ से भी अधिक। और सबसे महत्त्वपूर्ण- प्रत्याशी द्वारा 90,00,000 ₹ खर्च करने की सीमा। वास्तव में तो इससे कहीं अधिक राशि व्यय होती है। और सबसे बड़ा यह सवाल कि इसकी वसूली‌ 5 वर्ष में कैसे होगी?
    केवल वेतन के लिए कोई चुनाव नहीं लड़ता। यह भी सच है।

    भारत की चुनाव प्रक्रिया पूरे देश का माहौल बिगाड़ देती है। ऐसा घटिया वातावरण बन जाता है, जिसमें कोई स्वस्थ चित्त रह ही नहीं सकता। और उस समुद्र मंथन से‌ निकलता है भांति भांति का विष। हम तो इसे बचपन से झेल रहे हैं।

    विडम्बना यह कि यह पद्धति हमने इंग्लैंड से ग्रहण की है!!
    वहाँ से आयी इतनी अच्छी पद्धति भारत में इतनी विरूपित कैसे हो गयी, यह चिंतनीय है। आपने इस विषय को बखूबी उठाया, इसके लिए आपको पुनः साधुवाद।

  7. भारतीय एवं ब्रिटिश चुनाव का तथ्यपरक, आँखें खोलने वाला सच एवं विश्लेषण। हार्दिक आभार।

  8. आज का संपादकीय गीतकार शैलेंद्र की अमर जीत से शुरू हुआ । उसमें भारत और इंग्लैंड के चुनाव पर केंद्रित चर्चा हुई है, दोनों ही लोकतंत्र अपने- अपने क्षेत्र में अद्वितीय स्थान रखते हैं ।
    यह बात अलग है कि भारत का लोकतंत्र ब्रिटेन के लोकतंत्र की ही परछाई है परंतु भारत और ब्रिटेन में उनके निवासियों की सोच उनकी परवरिश फितरत व्यवहार और व्याप्त वातावरण में अर्श और फर्श का फर्क है ।ब्रिटेन जैसा देश जो दुनिया के एक बड़े हिस्से पर राज्य कर चुका है वहां विकास रूपी संतान पैदा ही नहीं हुई वरन अब जवान और प्रौढ़ है,।भारत में भावनाएं,मजहब ,कुछ हाथों के बीच सत्ता हस्तांतरण और मौका मिलते ही छल करने की प्रवृत्ति ,अनुशासन ना मानने का ढीढ़पन भारत को एक मैच्योर /परिपक्व लोकतंत्र बनने से रोकता है।
    पुरवाई संपादक और उसके स्कंध ने इस समिति टॉपिक पर संपादकीय को केंद्रित कर दोनों देशों को एक आईना दिखाया है। यहां पर संपादक ने अपने अनुभव को साझा किया है जो व्यावहारिक रूप से सटीक और खरा है ।
    काश भारत के नेता, भारत के लोग, भारत का लोकतंत्र इस संपादकीय को समझे।
    बधाई हो

  9. तथ्यपरक संपादकीय। भारत की संसदीय प्रणाली तो ब्रिटेन से ली गई तो चुनाव कराने की प्रक्रिया भी वही होनी चाहिए थी पर नहीं, भारत में भ्रष्टाचार ऐसे लोग हैं जिसका उपचार। कर कोई निरोग होना ही नहीं चाहता।
    चुनाव सुधार के सिलसिले में मैं ने की बार लिखा कि रेलियां या रोड़ शो छोड़ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का सात पर कोई सोचने को तैयार ही नहीं है। भारत में चहारा लिया जाये पर यहां इस बात पर कोई सोचना ही नहीं चाहता। मेरा भी शुरू से यह कहना है कि संसद और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हों। अब देखना यह है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी जी यह कर पायेंगे। कुल मिलाकर चुनाव सुधार समय की मांग है। सभी राजनेताओं को ब्रिटेन में जुलाई में चुनाव प्रक्रिया ओबसर्व करने के लिये यूं के भेजा जाना चाहिए ताकि जो दैशहित में उसे सीखा जाये। ऐसे संपादकीय के लिए आपका साधुवाद।

    • संतोष जी आपने सही कहा है। आप जैसे बुद्धिजीवी मिलकर ही कोई परिवर्तन कर पाएंगे।

  10. वास्तव में भारत में मुद्दों पर बात ही नहीं होती और न्यूज चैनल पर भी बेकार की बहस दिखाई जाती है। आज का आपका संपादकीय तो पूरे हिंदुस्तान को पढ़ना चाहिए शायद दो चार लोगों में जागरूकता आ जायें और आज की युवा पीढ़ी को तो आज का संपादकीय अवश्य पढ़ना चाहिए क्योंकि पहले समाचार के माध्यम से ही बच्चों ज्ञान में बढ़ोतरी होती थी आज समाचार इन सबसे कोसो दूर है और आपके संपादकीय में ज्ञान कूट-कूट कर भरा हुआ है। किंतु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए भारत में 72.2% जनसंख्या गांव में निवास करती है जितना पैसा कलेक्शन में खर्च होता है अगर उसका एक प्रतिशत भी इन गांव में सुख सुविधाओं पर खर्च किया जाए तो शायद कुछ प्रलोभन कम हो सके।

  11. बहुत अच्छी तुलना की है आपने.. वास्तव में भारत में चुनाव के समय हो रहे अनाप शनाप खर्चे से बचने की बहुत आवश्यकता है..मुफ़्त की रेवड़ी तो मध्यम वर्गीय लोगों की कमर ही तोड़ देती है… जनता का क्या है.. मुफ़्त का जो दे दे, ये उसी के हो जाते हैं… मेरा एक शेर याद आ गया…

    उनको का मतलब है इससे, उनके हित में क्या सही
    उनकी तो आंखें टिकी है मुफ़्त के सामान पर

  12. गौरतलब संपादकीय। हमारे देश में चुनाव एक बहुत ही खर्चीला पर्व है। लगाम लगाने की बात हर सरकार करती है लेकिन बातें हैं बातों का क्या! बंगाल की तृणमूल सरकार ने तो शालीनता की सभी हदें पार कर दी है। छप्पा वोट से वापसी की जो सभी जानते हैं। कॉंग्रेस ऑफिस के बाहर महिलाएं इस आशा में खड़ी हैं कि राहुल गांधी स्वयं बाहर आकर उन सभी को एक एक लाख रुपये बांटेंगे, उस वादे के साथ, जिसके बदले में वोट का बार्टर सिस्टम तय हो। ख़ैर, कसमें वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या।

  13. चुनाव मंहगी शादी की भांति हो गए है जिनमे खूब दिखावा, पैसो की बर्बादी लेकिन वैवाहिक जीवन उतना सरल और सहज नही रहता, ठीक वैसे ही प्रत्याशी को दूल्हा बनाकर ताम झाम के साथ उतरता है मगर जीतने के बाद बेवफा होकर जनता को अनदेखा करता है.
    हमेशा की तरह इस बार का संपादकीय भी रोचक रहा.

  14. ये तब ही संभव हो सकता है जब सभी प्रत्याशी अपना निजी स्वार्थ भूल देश हित के बारे में विचार करे। जब वे अपनी नहीं देश की उन्नति की दिशा में सोचने की सामर्थ्य रखते हों। वे स्वयं भी अपनी नीतियों को लेकर विश्वस्त हों । यहां नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है। वोटर भी लापरवाह है।

  15. A thought-provoking Editorial.
    We all need to check huge expenditures during the election campaigns.
    Hope we have better checks n balances next time.
    Warm regards
    Deepak Sharma

  16. आपका यह संपादकीय हमें अपने ही देश को अलग दॄष्टिकोण से देखने के साधन जुटा गया। परिस्थिति से ऊपर उठकर देखने का साहस कर पाना आवश्यक है। कई बार होता है कि कुछ अवांछित स्थितियों को भी हम, असहाय होने के चलते नियति मान बैठते हैं। लेकिन वैचारिक सूर्योदय का तो सदा स्वागत है। साधुवाद आपको!

  17. तेजेन्द्र जी
    नमस्कार
    खूब बेबाक संपादकीय ! ऐसा तो संभव ही नहीं था कि आप इस विषय को अनदेखा कर पाते |
    हम नकल तो कर लेते हैं किन्तु गिरेबान में झाँककर ईमानदार नहीं रह पाते |अब इसका क्या किया जाए?
    हम बेईमानी के इतने आदी हो गए हैं कि आँखें खोलना ही नहीं चाहते|’मुँह ढककर सोइए’
    बरसों पहले एक बार मुझे यू.के चुनाव के समय वहाँ रहने का अवसर मिला,आश्चर्य हुआ था यह देखकर कि लोग इतनी शांति से वोट देकर अपने काम में लग गए थे |हमारे यहाँ पैसे के साथ कितना समय और ऊर्जा भी बरबाद होती है |यह हमारा पैटर्न बन चुका है और इसको बदलना मुझे तो संभव नहीं लगता |हम तो चीखने-चिल्लाने से ही ऊपर नहीं आ पाते !
    हाँ,आप जैसे बेबाक संपादक यदि आँखें खोल सकें तो बात अलग है |
    समसामयिक विषय पर दोनों स्थानों के तुलनात्मक ब्योरे के लिए आपको हृदय से साधुवाद !

    • प्रणव जी अंततः आपकी टिप्पणी दिखाई दे गई। आपकी बेबाक और सटीक टिप्पणी संपादकीय को समझने में और भी अधिक सहायक होगी। हार्दिक आभार।

  18. आपने अपने संपादकीय में भारत तथा यू. के. कि चुनाव प्रक्रिया की तुलना करते हुए विविध पहलुओं पर प्रकाश डाला है। भारत और यू. के. की जनसंख्या के साथ परिस्थितियों में भी अंतर है। भारत विकासशील देश है तुष्टिकरण की नीति अपनाता, विभिन्न जातियों और प्रजातियों में बंटे देश के लोग देश का नहीं वरन स्वयं की स्वार्थसिद्धि को सर्वोपरि रखते हैं जो कुछ ही रुपयों के लिए बिक जाते हैं। यहाँ के राजनीतिज्ञ अभी भी फूट डालो और राज करो की नीति पर चल रहे हैं। इसके साथ ही जिसकी प्रगति विकसित देशों को भी नहीं भाती। पक्ष विपक्ष भी अपनी सकारात्मक भूमिका न निभाते हुए एक दूसरे के प्रति तलवारें ही खींचे रहते हैं। ज़ब तक देश के नागरिकों में अपने देश प्रति देशभक्ति जाग्रत नहीं होगी तब तक भविष्य अंधकारमय ही रहेगा।

  19. आदरणीय सर आपके लेख में बहुत सच्चाई है। भारत में जिस तरह से चुनावों को एक स्पर्धा या यूँ कहें कि जंग के रूप में मनाया जाता है बह हम यूरोप में रहने वालों के लिए अब बहुत बेमानी लगता है । ऐसा नहीं है कि यूरोप के राजनेता भ्रष्टाचार नहीं करते -करते हैं पर दाल में नमक की तरह । यहाँ पर जनता से लिया टैक्स रूपी धन जनता की ही सुख सुविधाओं पर खर्च किया जाता है। किसी और देश की नहीं मै अपने देश नीदरलैंड की बात करती हूँ । यहाँ राजा रानी है पर राजा रानी सरकारी संपत्ति को अपने व्यक्तिगत उपयोग में नहीं ला सकते। जैसा कि शायद लोगों को पता ही होगा की हमारी राजा विलम अलेक्जेंडर राज गद्दी पर बैठने से पहले KLM में एक पायलट के पद पर कार्यरत थे । अपनी तनख़्वाह से ही उन्हें अपना गुज़ारा करना होता था। वह भारत के राजनीतिक नेताओं के बच्चों की तरह किसी विशेष या विदेशी स्कूल में नहीं पढ़े वह एक आम स्टूडेंट्स की तरह यही नीदरलैंड के कॉलेज में पढ़े लिखे हैं । यही अब तीनों राजकुमारी के लिए भी है । भारत में भ्रष्टाचार इस कदर है कि कोई राजनेता यहाँ तक की नगरपालिका का चुनाव भी जीत जाता है तो वह इसे अपने बैंक भरने की लाटरी समझता है। जनता के लिए कोई भारत में चुनाव नहीं लड़ता। जिस तरह से चुनाव में जनता का खून पसीने का पैसा बहाया जाता है उसी पैसे को यदि जनता की सुविधाओं के लिए खर्च किया जाए तो भारत सच में उन्नति की ओर बढ़ सकता है। आज भारत क़र्ज़दार देशों की लिस्ट में सबसे आगे है। ऐसा क्यों? भारत तो तरक़्क़ी कर रहा है, आर्थिक स्थिति पहले से बेहतर है। कारण ??? कारण आदरणीय ने अपने लेख में समझा दिया है और आप भी जानते हैं । भारत एक अच्छा देश है हमें भारतीय मूल के होने पर गर्व है ।

    • ऋतु आपकी टिप्पणी पुरवाई के संपादकीय को नये आयाम देती है। इस सार्थक टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार।

  20. आ0 संपादक जी! बहुत ही महत्वपूर्ण विषय उठाया आपने।
    भारत में चुनाव एक आडम्बर बन गया है। जहाँ पर आमजन तो क्या देश के प्रधान मंत्री तक अपने पद की गरिमा छोड़कर ओछी बातों और लटके झटकों पर उतर जाते हैं। हमारे देश की अधिकतर जनता ग़रीब और अनपढ़ है गाँवों में महिलाएँ सिर्फ़ इतना जानती हैं उन्हें फ़्री क्या मिल रहा है। बहुत अमीर लोग नेताओं को ख़रीद लेते हैं बहुत ग़रीब लोगों को नेता ख़रीद लेते है और मध्यमवर्ग टैक्स पर टैक्स भरता है। अगर करप्शन की बात करें तो कोई अछूता नहीं है।
    भारत की जनसंख्या बढ़ती जा रही है
    हस्पताल , स्कूल और नागरिक सुविधाओं का
    पूर्णतया अभाव है
    हाईवे बेशक बन गये हैं पर अंदर की सड़कें खस्ताहाल हैं
    साफ़ हवा साफ़ पानी नहीं है
    जातिवाद बढ़ रहा और धार्मिक सहिष्णुता घट रही है
    हम संस्कारों की बात करते हैं जो हम में नहीं हैं।
    एक झूठे दर्प में जी रहे हैं हम।

    • ज्योत्सना आपने अपनी टिप्पणी में महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए हैं। हार्दिक आभार।

  21. आदरणीय तेजेन्द्र जी!

    आपके संपादकीय से पहले हम उस गाने की तारीफ करेंगे जिसका उदाहरण आपने दिया है। शायद आप जानते होंगे के गीतकार कौन है ?सामान्यतया जनता तो सिर्फ गाने वाले को ही जानती है गीतकार तो गुम ही रहते हैं।
    गाने की एक-एक पंक्ति बेहद अर्थपूर्ण है। हमारा तो बहुत ही प्रिय गाना है। अगर आज के संदर्भ में देखें तो सच भी लगता है पर सच तो पिक्चर में भी लगा था। आज भी यह सच है जैसा कि आपने जिक्र किया है-

    “कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं ।
    इंसान को कम पहचानते हैं।”
    वैसे यह गाना हमारे देश की संस्कृति का प्रतीक है
    सच में अब ऐसा नहीं है।
    ब्रिटेन की राजनीतिक हाउस ऑफ़ कॉमन्स की चयन प्रक्रिया को आपके माध्यम से पुनःजाना कि ब्रिटेन में हाउस ऑफ़ कॉमन्स (लोक सभा) में कुल 650 सांसद होते हैं ,किन्तु “ब्रिटेन में लगभग 92,000 की आबादी के लिये एक सांसद होता है। याने कि यहाँ कोई भी प्रत्याशी एक लाख मतों के अंतर से नहीं जीत सकता”
    यह हमें आश्चर्यजनक किन्तु सुखद लगा।
    हमारे लिए तो यह भी आश्चर्य की बात है कि यहाँ रोड शो और आम रैली जैसी कोई परंपरा नहीं है और चुनाव प्रचार किसी हॉल में होता है या फिर दोनों दलों के नेता टीवी पर बहस करते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह लगी कि दोनों ही नेता केवल मुद्दों पर और चुनावी घोषणा पत्र में किए गए वादों पर ही बात करते हैं वह भी बहुत ही शांतिप्रिय तरीके से और शांतिप्रिय लहजों में।
    जुमले बाजी और किसी चीज को देने की घोषणा न करना बहुत बड़ी बात है। यही वह कारण है जो यह अंतर दर्शाता है कि भारत में कुर्सी को प्राप्त करने की लालसा से चुनाव होते हैं। कुर्सी पहले ,मुद्दा बाद में है। और मुद्दा पूरा होगा या नहीं इसकी कोई गारंटी भी नहीं।
    आपने सही कहा तेजेन्द्र जी। भारत में चुनाव शोरगुल से भरे, खर्चीले, अभद्र और झूठे वादों से भरपूर ,निराधार आरोप लगाने वाले हैं। टीवी चैनल हों, साक्षात्कार हों या फिर रैलियां… हर राजनीतिक दल में होड़ रहती है दूसरे दलों पर आरोप लगाने की।मतदाताओं को मुफ्त के दान का प्रलोभन देने का बाजार गर्म रहता है। हर दल अपनी जीत के दावे ऐसे करता है जैसे वह ज्योतिष होऔर अपना भविष्य जानता हो।
    आपके संपादकीय का एक-एक शब्द सही है
    दिक्कत यह है कि हर नेता अपने को ही संपन्न करने में लगा हुआ है जनता की परवाह वास्तव में किसी को भी नहीं है।

    यह संपादकीय बहुत महत्वपूर्ण है और हम अभी इसे सभी अपनों को शेयर करेंगे। अभी तक इसके लिए नहीं किया था क्योंकि हमारी टिप्पणी हमने नहीं लिखी थी।
    पुरवाई के साथ जुड़ना सार्थक हुआ । इसके लिए हम नीलिमा शर्मा जी का दिल से शुक्रिया अदा करते हैं।विशेष तौर से संपादकीय की दृष्टि से क्योंकि अच्छी रचनाएँ तो अपन और भी जगह पढ़ लेते हैं। अरे ऐसा संपादकीय पढ़ने को नहीं मिलता। इसका मतलब यह बिल्कुल भी नहीं लगाया जाए कि पुरवाई में अच्छा पढ़ने को नहीं मिलता।
    हर बार की तरह लाजवाब संपादकीय के लिए आपका तहेदिल से शुक्रिया। जब तक आप साथ हैं तब तक नई-नई जानकारियों से साक्षात्कार होता रहेगा और हम समृद्ध होते रहेंगे शुक्रिया पुनः।
    और पुरवाई का तो आभार बनता ही है

  22. आदरणीय नीलिमा जी हम अपनी उपसंपादक नीलिमा शर्मा जी के आभारी हैं कि उन्होंने आपको पुरवाई परिवार से जोड़ा। रचनाओं पर आपकी टिप्पणियां महत्वपूर्ण होती हैं।

    पुरवाई उच्च कोटि की रचनाएं छापने के साथ साथ नये लेखकों को मंच प्रदान करने का प्रयास भी करती है।

    यह पुरवाई टीम का सौभाग्य है कि आपको संपादकीय पसंद आते हैं। आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि संपादकीयों के तीन संकलन ‘अपनी बात -भाग 1, 2, 3’ के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं और Amazon पर उपलब्ध हैं।

    वर्तमान संपादकीय पर आपकी टिप्पणी हमें उत्साहित करती है। मैं कवि शैलेन्द्र का प्रशंसक हूं और उनकी रचनाएं उद्धृत करने का प्रयास करता हूं।

  23. पहले लेखक तो बन पाएंँ तब न मंच तक पहुंँचने की बात हो। फिलहाल हम भी एक सत्य घटना पर उपन्यास लिखने में प्रयासरत हैं। आपकी शुभ कामनाएं अपेक्षित हैं।

    • नीलिम जी आपके पास साहित्य की समझ है, भाषा है और प्रवाह भी। पुरवाई परिवार की शुभकामनाएं आपके साथ हैं। पूरी उम्मीद है कि आपके क़लम से एक बेहतरीन रचना का सृजन होगा।

  24. दोनों देशों के चुनावी व्यवस्था और प्रक्रिया का तथ्यपूर्ण विवेचन। जानकारी में वृद्धि हुई। आभार।

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