फ़िल्में सिर्फ़ फ़िल्में नहीं होती हैं। वे समाज का आईना होती हैं। मगर वे समाज में होने वाली या हो सकने वाली घटनाओं को सिर्फ़ एक दर्पण की भाँति नहीं दिखाती हैं, बल्कि एक लेखक के मन में जो कहानी जन्म लेती है, उसे निर्देशक, कलाकार और अन्य लोगों के साथ मिलकर दृश्य माध्यम से दिखाने की कोशिश कुछ इस तरह से करती है जिसे देखकर, सुनकर जीवन में कुछ सीखा और सिखाया जा सके। बड़ी पुरानी कहावत है कि जैसी दृष्टि होती है, वैसी सृष्टि भी बन जाती है। मतलब कि दृष्टि अगर बदल जाए, तो सृष्टि भी बदल जाती है। नितेश तिवारी द्वारा निर्देशित और जाह्नवी कपूर एवं वरुण धवन द्वारा अभिनीत फ़िल्म ‘बवाल’ जिसे अमेजॉन प्राइम के OTT प्लेटफ़ॉर्म पर दिनांक 21 जुलाई 2023 को रिलीज़ किया गया, जीवन के इसी सूत्र को बड़े ही सारगर्भित एवं सुसंस्कृत ढंग से प्रस्तुत करती है।
जहाँ तक फ़िल्म के नाम का सवाल है, तो इसका ‘बवाल’ नाम फ़िल्म की पटकथा और उसके द्वारा दिए गए संदेश के अनुरूप नहीं दिखाई पड़ता है। फ़िल्म को पूरा देखने के बाद तो यह नाम बिल्कुल भी फ़िल्म के साथ जाता हुआ नहीं लगता है। इस फ़िल्म का जो नायक है उसका नाम अजय (वरुण धवन) है जो उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर में हाईस्कूल का एक शिक्षक है और जो नायिका है उसका नाम निशा (जाह्नवी कपूर) है जो अजय की पत्नी है। अजय बहुत ही ज़्यादा अपनी इमेज को लेकर सचेत (conscious) रहता है। अपनी ज़िंदगी के सारे काम वह अपनी इमेज को ध्यान में रखकर ही करता है। उसकी इमेज उसके लिए इतनी ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि उसको अगर अपनी इमेज के लिए झूठ का सहारा लेना पड़े, तो वह ले लेता है; अगर उसको उसके लिए मक्कारी करनी पड़े, तो भी वो कर लेता है; और अगर किसी के लिए बुरा भी बनना पड़े, तो वो वह भी बनने से कभी पीछे नहीं हटता है। बस उसका बुरा बनना भर किसी के दिल के तहख़ाने में या फिर चहारदीवारी के अंदर होना चाहिए, वरना उसकी इमेज खण्डित हो जायेगी जिसको बचाए रखने के लिए वो सारा प्रपंच करता है।
स्वयं को लोवर मिडिल क्लास का बताकर और ज़िंदगी भर किसी न किसी चीज़ से वंचित रहने वाली अपनी स्थिति को जताकर वह स्वयं को एलीट क्लास के समक्ष उनकी बराबरी में रखने की निरंतर कोशिश में लगा रहता है। और इसके लिए उसे जो कुछ भी करना पड़े, वह करता है। जैसे अपनी पत्नी जो कि फिट्स (Epilepsy) का शिकार होती है, को वह कभी मॉल घुमाने नहीं ले जाता है; कभी उसे बाहर का खाना खिलाने नहीं ले जाता है; कभी किसी रिश्तेदार के यहाँ या किसी समारोह में नहीं ले जाता है; और यहाँ तक कि उसके साथ उसके मायके भी कभी स्वयं नहीं जाता है। उसकी इस हरक़त के पीछे उसका इमेज कान्शस होना ही केन्द्रीय तत्त्व है क्योंकि वह सोचता है कि यदि आम जनता के समक्ष उसकी पत्नी को फिट्स आ गया, तो उसकी बनी बनाई इमेज को बहुत धक्का लगेगा और उसकी वर्षों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा जिसके कारण उसे एलिट लोगों के बीच से बहिष्कृत होना पड़ेगा।
फ़िल्म के नाम के संदर्भ में वह निश्चित ही हर जगह बवाल मचाने की फ़िराक़ में रहता है ताकि लोग उसे अच्छा समझें और उसका लोगों के बीच में भौकाल टाइट रहे। लेकिन यह बवाल या भौकाल या उसकी इमेज फ़िल्म को देखने के बाद बिल्कुल भी केंद्रीय तत्त्व के रूप में नहीं दिखाई देती है। यह उतना महत्त्वपूर्ण भी नहीं लगता है जितना कि इस पाखंड से बाहर निकलकर अजय के अंदर एक समझदार व्यक्ति का जन्म ले लेना दिखाई देता है। क्योंकि यह फ़िल्म कुछ बताना चाहती है; कुछ सिखाना चाहती है; और जो सिखाना चाहती है, वह वो नहीं है, जो साधारणतः दुनिया में हर ओर दिखने को मिलता है, बल्कि वो वह है, जो कभी-कभी ही कोई व्यक्ति अपने जीवन में संभव कर पाता है, और जिसे कहते हैं – बदलाव। इसलिए इस फ़िल्म का नाम बवाल की जगह अगर बदलाव होता, तो वो इसकी पटकथा और उससे मिलने वाले संदेश के साथ ठीक-ठीक जाता और मेल भी खाता।

ज़िंदगी तो जैसी है वैसी ही होती है। ज़िंदगी के अनगिनत पहलू हैं जो व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर व्यक्ति और समूह दोनों क्रमश: जीते और जानते हैं। लेकिन जब भी कभी उसे किसी को भी जतलाने या बताने का भाव किसी भी व्यक्ति या समूह के अंदर उठता है, तो वह बिना किसी उद्देश्य के नहीं हो सकता। इसलिए साहित्य को सिर्फ़ यह कह देना कि साहित्य समाज का दर्पण है, पूरी तरह से उचित नहीं है। इस परिभाषा को तो विद्वानों ने बहुत पहले ख़ारिज भी कर दिया है क्योंकि ज़िंदगी जैसी है वैसी भी अगर दिखा दी जाए, तब भी उसके पीछे कोई न कोई उद्देश्य होगा ही क्योंकि दिखाने की इच्छा बिना उद्देश्य के हो ही नहीं सकती। और जब किसी चीज़ के पीछे कोई उद्देश्य होता है, तो फिर ज़िंदगी को जैसा भी दिखाया जाए, उसमें दिखाने वाले का नज़रिया सम्मिलित हो ही जाएगा। इसलिए साहित्य हो कि फ़िल्म, नाटक हो कि चित्र, सब किसी न किसी नज़रिए को पेश करते हैं जिसे जान लेना और जानकार उससे सीख लेना पाठक या श्रोता का धर्म होता है।
फ़िल्म हो, नाटक हो, उपन्यास हो, कहानी हो, कविता हो, यात्रा-वृत्तान्त हो या फिर साहित्य की कोई और विधा, उसके पीछे कोई न कोई उद्देश्य होता ही है जिसकी पूर्ति हर लेखक, कवि, निर्देशक आदि अपने दर्शन को दुनिया को देने की भरसक कोशिश करके करता है। ‘बवाल’ फ़िल्म हिंदी सिनेमा की एक ऐसी ही सशक्त और सारगर्भित संदेश देने वाली फ़िल्म है जिसके माध्यम से यह कोशिश की गयी है कि हर व्यक्ति में बदलने की क्षमता होती है; बस परिस्थितियां यदि ऐसी हो जाएं जिसमें बदलना व्यक्ति के लिए सहज, सुलभ और स्वाभाविक हो जाए, तो पूरा जीवन बदल जाता है; पूरा नज़रिया बदल जाता है। और एक बार अगर दृष्टि बदल जाए, तो पूरी की पूरी सृष्टि बदल जाती है। परिवार में सुख आ जाता है; मन में शांति प्रवेश कर जाती है; और आस-पास का सारा वातावरण ख़ुशहाल हो जाता है। और फिर जीवन का सही अर्थ और मतलब समझने की पवित्र यात्रा का प्रारंभ भी हो जाता है।
फ़िल्म को बहुत ही ख़ूबसूरत पटकथा के माध्यम से परोसा गया है और एक-एक क़दम पर जीवन की कई शिक्षाओं को उकेरने की कोशिश की गई है। एक साधारण-सा शिक्षक कैसे अपनी इमेज को बनाने के लिए एक अच्छा शिक्षक न होते हुए भी अच्छा बनने का सदा स्वांग रचाता है; बच्चों के प्रश्नों का बच्चों के माध्यम से जवाब दिलवाकर स्वयं को बचाए रखता है; और फिट्स से ग्रसित लड़की से शादी करने के बाद उलजुलूल हरक़तों के माध्यम से अपना जीवन मैनेज करके चलता है ताकि उसकी पारिवारिक एवं व्यक्तिगत ज़िंदगी किसी के सामने न आ जाए और उसकी बनी बनाई इमेज को ज़रा भी धक्का न लगे। मगर पाखंड की ज़िंदगी तो अंततः पाखंड की ही ज़िंदगी होती है। बचाकर रखने से भी कब तक वो बच सकती है। पारिवारिक कलह के उपरांत मास्टर अजय द्वारा एक बच्चे के सवाल पूछने पर भड़क जाना और बच्चे की सही बात के प्रत्युत्तर में उसको एक थप्पड़ रसीद कर देना और वह भी बिना ये जाने कि वो बच्चा कौन था, उसके माँ-बाप कौन थे, कुछ न कुछ तूफ़ान तो लाने ही वाला था। ज़िंदगी में हर आदमी इतना समझदार तो होता ही है कि किससे भिड़ना है और किससे बचकर आगे निकल जाना है। मगर जब क़िस्मत ख़राब हो, तो कुछ का कुछ हो जाता है। जैसे बवाल फ़िल्म के नायक अजय (मास्टर जी) के साथ हो जाता है और जिस बच्चे को वो थप्पड़ रसीद करता है, वह एक बड़े विधायक का बेटा निकल जाता है।
बच्चे के पिता चूँकि एक विधायक थे जो अपने बच्चे के थप्पड़ खा लेने पर प्रधानाचार्य के ऊपर चढ़ाई कर देते हैं जिसके एवज में मास्टर अजय को 1 महीने के लिए निलंबित कर दिया जाता है। नेता जी के दबाव में एक इंक्वायरी कमेटी गठित करवाकर मामले की निष्पक्ष जाँच का आदेश भी दे दिया जाता है। मास्टर अजय इतिहास विषय का शिक्षक है और जिस वक्त यह घटना घटती है, उस वक्त वह वर्ल्ड वार 2 का अध्याय बच्चों को पढ़ा रहा होता है। तो स्वयं को अब बचाने के लिए वह एक प्लान रचता है जिसके तहत वह यूरोप जाएगा और वहाँ से बच्चों को वर्ल्ड वॉर 2 से संबंधित सारी जगहों का वीडियो बनाकर लाइव दर्शन करवाएगा। साथ ही साथ परीक्षा के लिए सारे बच्चों की तैयारी भी करवाता चलेगा। वह प्रधानाचार्य से मिलकर अपने प्लान के बारे में बताता है और यह जतलाने की भी कोशिश करता है कि उसे चाहे निलंबित किया जाए या बर्ख़ास्त, उन निर्दोष बच्चों का कोई नुक़सान नहीं होना चाहिए इसलिए उसने यूरोप जाने का प्लान बनाया है। उसका यह प्रयास अपनी इमेज को वापस लाने और अपनी नौकरी को बचाने के लिए होता है।
यूरोप जाने के लिए वह अपने मां-बाप से अपनी पत्नी को साथ में लेकर जाने का नाटक करता है ताकि वो उनसे यूरोप जाने का लगभग 8-10 लाख का खर्चा निकलवा सके। और माँ-बाप अपने बेटे और बहु के बीच बिगड़े रिश्ते को जिस भी बहाने मिले रहे मौके के एवज में वो रक़म खर्च करने के लिए राजी हो जाते हैं। मगर अजय का रवैया अत्यंत ही रूखा और बर्दाश्त करने की किसी सीमा के पार होता है जब वो अपनी पत्नी को दो टूक सुना देता है कि वह उसके साथ यूरोप नहीं जा रहा है क्योंकि उसका यूरोप जाने का प्लान सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी नौकरी को बचाने और खोई इमेज को वापस लाने के लिए है। आगे वह अपनी पत्नी निशा को बोलता है कि वो एयरपोर्ट से अपने मायके चली जाए और जब वह यूरोप से वह वापस आएगा, तब उसके साथ घर वापस आ जाए। मां-बाप को लगेगा कि वो दोनों साथ में यूरोप गए थे और उसकी इमेज भी उनकी नज़र में अच्छी बनी रहेगी। मगर फिर निशा का सख़्ती के साथ पेश आना और अपने ससुराल पर हक़ जताने के उपक्रम के तहत अजय का उसको अपने साथ यूरोप ले जाने के लिए मज़बूर हो जाना पटकथा को आगे बढ़ाता है।
कहानी में फिर बहुत कुछ होता है मगर मुख्य रूप से जो होता है उनका संबंध वर्ल्ड वॉर 2 से है। वे दोनों एक-एक करके उन सारी जगहों – पेरिस, ऐमर्सटडम, बर्लिन, औषविच इत्यादि पर जाते हैं। अजय अपना वीडियो लेक्चर जारी रखता है और साथ ही अपनी खीझ, अपनी उलझन और अपनी प्रवृत्ति भी। इस दौरान अजय की पत्नी निशा के साथ उसके कई ऐसे दृश्य भी आते हैं जहाँ वह ज़िंदगी के कई मायने सीखता है और जिस पत्नी के प्रति हमेशा उपेक्षा से भरा रहता है, उसके प्रति प्रेम का स्वर उसके ज़ेहन में गुनगुनाने लगता है।
ऐसा होता है कि जो ज़िंदगी नहीं सिखा पाती, वह मौत सिखा देती है। वर्ल्ड वॉर 2 से संबंधित स्थानों को देखने और वहाँ घटी त्रासदियों को नज़दीक से महसूस करने के बाद अजय की रूह काँप जाती है। वह देखता है कि कैसे अति निर्दयता और निर्ममता के साथ लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया जाता है; कैसे लोग कुछ पल की ज़िंदगी को पाने के लिए चीख, चिल्ला और तरस रहे होते हैं। मगर हिटलर के सैनिकों पर किसी भी बात का कोई असर नहीं होता है। अजय इतिहास के उन पन्नों को अपने वर्तमान से जोड़कर देखता है। इस दौरान निशा का अजय के साथ एक वीडियो वायरल हो जाता है जिसमें वे दोनों स्ट्रीट डांस कर रहे होते हैं। क्लास लेक्चर के साथ-साथ अजय के बच्चे उस वीडियो को भी देख लेते हैं जिसके कारण उसकी मास्टर वाली इमेज जिसे वो यूरोप पुनः निर्मित करने गया था, पर पानी फिर जाता है। जब उसे इस बात का पता चलता है कि वह वीडियो निशा ने अपलोड किया है, तो वह उस पर भड़क जाता है बिना यह सोचे कि उसने ऐसा क्यूँ किया। वह इस बात से बिल्कुल अनजान था कि उन दोनों के बीच लंबे समय के बाद आई बहार को उसकी पत्नी ने महसूस किया और दुनिया के साथ तुरंत इसलिए साझा कर दिया क्योंकि वो ख़ुश थी और सबको यह बताना चाहती थी कि उसके और अजय के बीच रिश्ते नॉर्मल हैं। मगर अजय के गुस्से की वजह से उन दोनों के बीच अब तक आए बदलावों पर फिर से काले बादल छा जाते हैं। निशा उसके लगातार ऐसे बर्तावों से हमेशा नाख़ुश रहती थी और यूरोप आने के पहले तलाक़ लेने का मन बना चुकी थी। मगर अभी तक वह तलाक़ लेने की दिशा में आगे नहीं बढ़ी क्योंकि थोड़ी बहुत उम्मीद अभी तक बचा रखी थी। लेकिन अजय के इस बर्ताव ने उसे पूरा जड़ से हिला दिया और उसने उससे अलग होने का निर्णय ले लिया। मगर अंततः फिर उसका अपनी पत्नी के साथ हुए वाद, विवाद, संवाद में बहुत-सी चीज़ें उसके सामने आती हैं जब उसे ज़िंदगी को समझने में मदद मिलती है और जिसके कारण वह निशा को पूरी इज़्ज़त और सम्मान के साथ देखना सीख लेता है।
समाज में एक सामान्य-सी धारणा सदियों से रही है कि पुरुष नौकरी करे और स्त्री घर बैठकर खाना-पीना बनाए जो कि आज काफ़ी हद तक टूट चुकी है लेकिन उसके टूटने के क्रम में आज भी इस मनोभाव के बहुत लोग ज़िंदा हैं। इसकी जड़ें आदमी में बहुत भीतर तक आज भी मौजूद हैं। यूरोप से वापस लौटकर आने के बाद अजय को इंक्वायरी कमेटी के सामने जाना होता है जो उसके ख़िलाफ़ एक निष्पक्ष जाँच में अभी तक लगी हुई थी। अपने मित्र से वार्तालाप कर-करके मास्टर अजय को यह एहसास पहले से था कि कमेटी उसे बर्ख़ास्त करने वाली है। मगर अब यह अजय वह अजय नहीं था जो यूरोप जाने के पहले था। अब उसे किसी नौकरी की चिंता नहीं थी। अगर कोई चिंता थी, तो वह बस स्वयं को अच्छा करने की। वह थोड़ी देर को चिंतित दिखता है मगर स्वयं की नौकरी को लेकर नहीं, बल्कि अपनी पत्नी की नौकरी को लेकर। वो कहता है कि उसकी नौकरी रहे ना रहे लेकिन उसकी पत्नी अब घर में नहीं रहेगी। अगर वो नौकरी करना चाहेगी, तो नौकरी करेगी। जिस तरह जीना चाहेगी, उस तरह जिएगी। जहाँ पर अपनी नौकरी को बचाने के लिए अजय अपने बाप से 10 लाख के आस-पास पैसे खर्च करवा देता है और हर ऐसे काम करता है जिससे उसकी नौकरी बच जाए, उसी अजय का अब नौकरी के लिए परवाह न करना और अपनी पत्नी जिसके प्रति वो हमेशा उपेक्षा से भरा रहता था, के लिए सम्मान के भाव से भर जाना, सचमुच एक बहुत बड़ा ‘बदलाव’ था जो मास्टर के हृदय में अब प्रवेश पा चुका था।
फ़िल्म के अंत में जब मास्टर अजय को इंक्वायरी कमेटी के सामने आना पड़ता है, तो इंक्वायरी कमेटी के कुछ भी कहने के पहले ही वो अपने बारे में सच्चाई बयां करने लगता है कि वो कभी भी एक अच्छा टीचर बनकर नहीं रहता था। कभी भी बच्चों को ठीक से नहीं पढ़ाता था। कभी भी उनके साथ ठीक से पेश नहीं आता था। बस जैसे-तैसे अपना काम निकाल लेना उनका मक़सद हुआ करता था। अपनी इमेज को बनाए रखने के लिए वह कुछ भी कर गुज़रता था। ये सब कहने के बाद मास्टर अजय अपना रेजिग्नेशन लेटर पैनल के सामने रखकर बाहर निकल जाता है। लेकिन वहाँ पर उस पैनल में वो विधायक भी बैठा रहता है जो थप्पड़ खाए बच्चे का पिता था और जो मास्टर अजय के ख़िलाफ़ कार्यवाही करवाने में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रखा था। उस विधायक ने अजय को बाहर जाने से रोका और कहा कि उसकी अनुपस्थिति में उसने उसके बच्चों का एक रैंडम टेस्ट करवाया, बस यह देखने के लिए कि क्या वह (अजय) एक शिक्षक के रूप में पास हो पाता है कि नहीं। मगर जब परिणाम आता है, तो सारे बच्चे न सिर्फ़ पास होते हैं, बल्कि बहुत अच्छा मार्क्स भी लाते हैं। जिस बच्चे को अजय ने थप्पड़ मारा था, वह तो 50 में से 48 नंबर लेकर आता है। फिर वो नेता कहने लगा कि बच्चों के साथ अगर कभी कुछ अहित हो, तो वह उसे कभी भी नहीं होने देगा लेकिन किसी स्कूल से कोई अच्छा शिक्षक बाहर चला जाए, तो वह उसे भी नहीं होने देगा। विधायक मास्टर अजय के रेजिग्नेशन लेटर को फाड़कर फेंक देता है और उसे वापस ज्वाइन करने के लिए आमंत्रित कहता है। स्कूल के बाहर निकलते वक्त सारे बच्चे मास्टर अजय से मिलते हैं; सब उसके गले लगते हैं जो कहीं न कहीं यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि हर चीज़ के बावजूद अजय बहुत अच्छा शिक्षक था।
यह फ़िल्म अंततः यह बताती है कि शिक्षक हो या कोई और, वह तो अच्छा हो ही जाएगा यदि उसके भीतर का आदमी अच्छा हो जाए। मास्टर अजय की ज़िंदगी चूँकि अंदर से बस पाखंड ही पाखंड से भरी थी और वैसी ही ज़िंदगी को जीने में वो निरंतर संलग्न भी रहता था इसलिए वो कभी भी ज़िंदगी के असली मायने नहीं समझ सका। मगर यूरोप में उसके द्वारा बिताया गया 15 दिन उसके जीवन की पूरी कायापलट कर देता है और उन मानसिक विकृतियों से बाहर लाने में उसकी मदद करता है जिसके साथ उसने ज़िंदगी भर जद्दोजहद के सिवाय कुछ और नहीं किया था। यूरोप में उसका सामना उस दर्पण से होता है जिसमें वो स्वयं को देख पाता है और जैसे ही उसको उसके भीतर का पाखंड दिखता है, वह तत्क्षण उसके भीतर से तिरोहित हो जाता है। मास्टर अजय एक सच्चा मनुष्य बन जाता है; एक अच्छा व्यक्ति बन जाता है। और यह तो सबको पता है ही कि अच्छा व्यक्ति बनते ही किसी भी रूप में अच्छा बनना बहुत ही सहज, सरल और स्वाभाविक होता है।
फ़िल्म बेहतरीन है। वर्ल्ड वॉर 2 से संबंधित जिन भी स्थानों को मनुष्य के संबंधों पर प्रकाश डालने और शिक्षक, शिक्षा और विद्यार्थी के अंतर संबंधों को जीवित रखने के लिए चुना गया है, वे सब बहुत ही सटीक और प्रासंगिक हैं। फ़िल्म देखने योग्य है, सीखने योग्य है, और लोगों को देखने के लिए रिकमेंड करने योग्य भी है। इतनी सुंदर पटकथा लिखने और उससे निकलने वाले संदेश को जन-जन तक पहुंचाने के लिए निर्देशक, लेखक, कलाकार सभी बधाई के पात्र हैं।
डॉ० प्रवीण कुमार अंशुमान असोसिएट प्रोफ़ेसर अंग्रेज़ी विभाग किरोड़ीमल महाविद्यालय दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल: pkanshuman@kmc.du.ac.in

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