• तेजस पूनिया

फिल्म पर बात करने से पहले हम जान लें कि यह फिल्म रविन्द्रनाथ टैगोर की अमर कहानी  ‘काबुलीवाला’ से पूर्णत: प्रभावित है । फिल्म के निर्देशक हैं देब मेधेकर जो पहली बार निर्देशक के रूप में इतनी बड़ी फ़िल्म लेकर आए हैं । इससे पहले वे विज्ञापन फ़िल्में ही करते रहे हैं । जबकि टैगोर भारत की ओर से साहित्य के एकमात्र नोबल पुरूस्कार विजेता । इसलिए भी इस कृति को फिल्म के लिए चुनना भी सही निर्णय कहा जा सकता है । टैगोर का काबुलीवाला अफगानी पठान है जो अफगानिस्तान से कलकत्ता आकर मेवे बेचता है । इसी व्यापार के सिलसिले में वह कलकत्ता की गलियों में भटकते हुए मिनी नाम की एक छोटी सी लड़की में अपनी बेटी की झलक भी देखता है । दूसरी ओर वह अपने मुल्क वापस लौटना चाहता है मगर परिस्थियाँ ऐसी बनती है कि वह जेल चला जाता है और जेल से लौटने पर उस मिनी के बारे में उसे पता चलता है कि उसकी शादी हो रही है ।
निर्देशक देब मेधेकर की फिल्म बायोस्कोपवाला उसी कहानी को नई नजर से देखने, पर्दे पर उतारने और एक नए अंत के साथ उसे दर्शकों को परोसने का एक बेहतरीन प्रयास है । फिल्म को हिज्जों में असर छोड़ते हुए आप अगर महसूस करेंगे तो पाएंगे कि पठान को अफगानिस्तान से कोलकाता क्यों आना पड़ा ? मिनी में उसे अपनी बेटी क्यों दिखाई पड़ती है ? अफगानिस्तान में भी क्या वह मेवे बेचने का काम करता था या कुछ और ? और काबुलीवाला मेवे बेचता था और ये बायोस्कोप दिखा रहा है ऐसा क्यों ? तो ये सभी सवालों के जवाब जब परत-दर-परत खुलते हैं तो आँखें नम हो आती हैं ।  

इतना सब कुछ होने के बाद भी बेहतरीन फिल्म कुछ जगहों पर कमजोर दिखाई देती है । उस कमजोरी का कारण उसके मुख्य पात्र नहीं बल्कि सहायक पात्र बनते हैं । वजह फिल्म की शुरुआत से जो कसावट वे पकड़ते हैं फिल्म के बीच में कहीं-कहीं वह कमजोर होती है और फिल्म के अंत तक आते-आते पुन: उसी रफ्तार में वापस दौड़ने लगती है । फिल्म की कहानी और स्क्रीनप्ले को भी देव मेधेकर ने ही लिखा है ।
चूँकि फिल्म की कहानी रविन्द्रनाथ टैगोर की ‘काबुलीवाला’ से प्रेरित है । प्रेरित कहना तो ठीक नहीं ऐसा भी कहा जा सकता है बस थोड़ा बहुत अंतर है बाकी कहानी वही है । काबुलीवाला मेवे लेकर आता था तो यह बायोस्कोप और ऐसे बायोस्कोप आपने मेलों में भी बहुत से देखे होंगे । कहानी 1990 के बाद की है । जहाँ एक और अफगानिस्तान है तो दूसरी तरफ़ हिन्दूस्तान । दरअसल काबुलीवाला कहानी का आधुनिक अंदाज है बायोस्कोपवाला ।
फिल्म की कहानी कुछ यूँ घुमाई गई है कि फैशन स्टाइलिस्ट मिनी बासु (गीतांजलि थापा) अपने पिता रोबी बासु (आदिल हुसैन) के साथ कोलकाता में रहती है, जो कि जाने-माने फैशन फोटोग्राफर हैं । एक दिन रोबी की कोलकाता से काबुल जाने वाले एक हवाई जहाज के क्रैश हो जाने से उस दुर्घटना में मौत हो जाती है । मिनी पिता की मृत्यु से संबंधित औपचारिकताएं पूरी करती है कि घरेलू नौकर भोला (ब्रिजेंद्र काला) उसे घर आए नए मेहमान रहमत खान (डैनी डेन्जोंगपा) से मिलवाता है । शुरुआत में मिनी रहमत खान को तुरंत घर से बाहर कर देने के लिए कहती है, लेकिन कुछ छानबीन करते वक्त मिनी को पता लगता है कि यह रहमत और कोई नहीं, बल्कि उसके बचपन का बायोस्कोपवाला ही है, जिसकी सुनहरी यादें अभी भी उसके जेहन में ताजा हैं । मिनी को वह सारा समय फ्लैश बैक की तरह घूमता है जिसमें बायोस्कोपवाला है । कुलमिलाकर एक नोस्टेल्जिक फील के साथ इमोशन , थ्रिल आप इसमें देख सकते हैं और तालियों की गूंज भी फिल्म कलाकारों के अलावा निर्देशक के लिए भेंट कर सकते हैं । 
बायोस्कोपवाला के किरदार में डैनी डेन्जोंगपा है । जो फिल्म की जान है और शुरुआत से ही एक गहरा असर वे छोड़ने लगते हैं । हालांकि डैनी ने जो अभिनय ‘खुदा गवाह’ फिल्म में किया था उसके मुकाबले इस फिल्म में वे थोड़ा कमतर ही नजर आते हैं । मगर यह कमतरी भी अखरती नहीं ।  इसका कमतरी का कारण संवाद का उनकी झोली में कम आना भी है और शायद इसलिए उनकी आँखों ने वह काम कर दिखाया है जिसके लिए वे जाने जाते हैं । दूसरा कारण खुदा गवाह में उनका किरदार भी दमदार था लेकिन यहाँ भावुकता अधिक है इसलिए भी शायद । इसके अलावा दूसरी ओर है मिनी के रूप में गीतांजली थापा हैं जिसमें काबुलीवाला और बायोस्कोपवाला दोनों को ही अपनी बेटी नजर आती है जिसे वह अफगान छोड़ आया है । नैशनल अवॉर्ड विनर गीतांजलि थापा मिनी के किरदार में हैं । कुछ समय के लिए टिस्का चोपड़ा, आदिल हुसैन भी कहानी को गति देने के लिए बीच में आते हैं और अपनी अदायगी से पूरी फिल्म में छाप छोड़ जाते हैं ।
फिल्म के डायरेक्टर देब मधेकर का कहना है कि उन्होंने आज के दौर का काबुलीवाला बनाने की कोशिश की है । फिल्म के तकनीक की बात करें तो फिल्म की सिनेमेटोग्राफी भी कमाल है । बड़े पर्दे पर बीते दौर का कोलकाता और अफगानिस्तान दोनों ही खूबसूरत लगते हैं । एडिटिंग भी काबिलेतारीफ है जिसके दम पर ही फिल्म महज डेढ़ घंटे में सिमट गई है । वहीं फिल्म का संगीत भी आपको लुभाता है, फिल्म में एक ही गाना है जो इसका टाईटल सॉंग है और यह टाईटल सॉंग फिल्म में प्राण फूंकता है और उसकी रूह बनकर निखरता है।
ऐसी फिल्मों को ऑस्कर के लिए नहीं भेजना भी एक मूर्खतापूर्ण कदम है । गुलजार का लिखा और संदेश शांडिल्य का संगीत फिल्म को ऊँचाइयाँ प्रदान करता है । कुलमिलाकर बायोस्कोपवाला आजकल फिल्मों की भागदौड़ में राहत देने वाला लीक से हटकर सिनेमा  है ।

दूसरी ओर देखा जाए तो इंसान कहीं भी चला जाए , दुनिया के किसी भी कोने में हो या किसी भी उच्चतम स्तर या पद पर आसीन हो उसके शैशव काल की कुछ यादें इस कदर अमिट हो जाती हैं जिसे वह भुलाए नहीं भूलता । इनमें कुछ अच्छी तो कुछ बुरी यादें हो सकती हैं । फिल्म बायोस्कोपवाला की यही यादें हैं जो आपको उनके किरदारों के साथ रश्क करवा सकती हैं । दूसरी ओर देखा जाए तो डैनी ने अपने फ़िल्मी करियर में नेगेटिव और ग्रे-शेड में ही अधिक अभिनय किया है । यह शायद उनका अपना एक सकारात्मक और मजबूत पक्ष भी हो सकता है लेकिन जो भी हो खूब जंचता है ।
दूसरी और सकारात्मक और मजबूत पक्ष फिल्म को लेकर यह भी है कि असल कहानी 1892 में लिखी गई है और फिल्माई 2018 में जा रही है । हालांकि सर्वप्रथम 1956 में यह कहानी बंगला भाषा में ‘तपन सिन्हा’ के निर्देशन में और इसके बाद 1961 में भी इस पर फिल्म बनाई जा चुकी है । लेकिन साल 2018 में काबुलीवाला से प्रेरित होकर बनाई गई बायोस्कोपवाला मूल कहानी से बहुत भिन्नता रखती है । एक और साल 1961 में विमल रॉय के प्रोड्क्शन में बनी ‘काबुलीवाला’ जिसमें कई गाने भी थे और उनमें से एक गाना जो वतन परस्ती के जज्बातों को आज भी छलकाता आ रहा है ।  ‘ए मेरे प्यारे वतन’ आज भी लोगों के दिलों में सदाबहार बनकर उनकी धड़कने बढ़ा देता है । सलिल चौधरी का संगीत और प्रेम धवन की कलम से निकले शब्दों को सदी के महान गायकों में शुमार ‘मन्ना डे’ ने गाया था । इस फिल्म में बलराज साहनी ने रहमान खान की भूमिका अदा की थी । इस फिल्म के एक ओर गाने ‘गंगा आए कहाँ से’ काबुलीवाला को ही नहीं बल्कि उस फिल्म को देखने वाले हर दर्शक की आँखें आज भी डबडबा देती है ।
टैगोर की यह कहानी बंगला में पहली बार 1918 में कहानी संग्रह ‘गल्प गुच्छ’ में शामिल की गई थी । इस कहानी को अमर कहानी का दर्जा उस वक्त ही दे दिया जाना वाकई गलत नहीं था । क्योंकि यह कहानी काम-धंधे और तिजारत के लिए काबुल से कलकत्ता आने वाले एक नेक दिल पठान और एक मासूम बच्ची के जज्बातों का पुरअसर बयाँ है । विमल रॉय के बैनर तले बनने वाली हिंदी भाषी काबुलीवाला फिल्म की कहानी भी दिलचस्प है ।
सूत्रों के मुताबिक़ साल 1960 में विमल रॉय जब यह फिल्म बनाने लगे थे तो उन्होंने तब के बंगाली भाषा के मशहूर निर्देशक ‘हेमेन गुप्ता’ को इसका कार्यभार सौंपा गया और स्क्रीनप्ले के लिए ‘विश्राम बेडेकर’ को चुना गया । हेमेन गुप्ता ने इस फिल्म को डायरेक्ट करने से पूर्व ‘1942’ नाम से भी एक इंकलाबी फिल्म बना चुके थे जिस पर ब्रिटिश सरकार ने पाबंदी लगा दी थी । इसके साथ ही उन्होंने कालजयी फिल्म ‘आनंदमठ’ का भी निर्माण किया जिसका अमर गीत आज भी हर भारतीय के रगों में लहू बनकर दौड़ता है । गीत है बकिंमचंद चटर्जी का लिखा ‘वंदेमातरम्’ जिसे राष्ट्रीय गीत का दर्जा भी प्राप्त है । इस फिल्म की कास्टिंग के भी कई दिलचस्प किस्से रहे ।
इस जज्बाती कहानी में गुरबत और बुरे हालातों की दास्तान है जिसे गुरबत का दस्तावेज भी कहा जा सकता है । यह कहानी गुरबत में अफगानिस्तान से कलकत्ता आकर रोजी-रोटी की गुहार लगाते पठान की कहानी है । तो दूसरी ओर मजबूरी में परिवार को छोड़ने की कहानी भी है ।
काबुलीवाला और बायोस्कोपवाला में समानता-असमानता की बात करें तो 1961-1962 की काबुलीवाला में जो अमीना नाम की बच्ची है वहीं रविन्द्रनाथ टैगोर के यहाँ मिनी है और बायोस्कोपवाला में भी यही मिनी है । दूसरी और काबुलीवाला फिल्म में हिन्दुस्तान जाने की जिद भी बच्ची की दिखाई गई है । काबुलीवाला फिल्म में थक-हार कर रहमान खान बूढी माँ के पास बच्ची को छोड़ जाता है जबकि वहीं बायोस्कोपवाला में उसकी कोई बूढी माँ नहीं दिखाई गई है । काबुलीवाला फिल्म में कोलकाता की गलियों में भटकते हुए जो मिनी नाम लड़की में काबुलीवाला और बायोस्कोपवाला को अपनी बेटी दिखाई देती है वह मूल कहानी में मिनी है जबकि काबुलीवाला फिल्म में वह मीनू दिखाई गई है । दूसरी ओर बायोस्कोपवाला में वह इस बात से भी नहीं डरती कि उसके झोले में बच्चे हैं बल्कि इसका जिक्र भी बायोस्कोपवाला में नहीं है ।
बायोस्कोपवाला फिल्म में जो कमी है वह यह कि सितम्बर 1990 के बंगाल और कलकत्ता में अचानक दंगे और शहर जलने के माहौल को दिखाया गया है । जबकि इतिहास के मुताबिक़ ऐसी कोई घटना भी नजर नही आती । और दूसरी सबसे बड़ी कमी इसके पात्रों को लेकर है । जब काबुलीवाला यानी रहमान खान एक सत्तर-अस्सी वर्ष का बुजुर्ग नजर आता है उस वक्त भी वहीदा जवान लगती है । जैसी की वह तब थी जब उसने जलालाबाद (अफगानिस्तान) में तालिबान के बढ़ते जोर और रुतबे के चलते भारत आने के लिए ट्रक में चढ़ाई की । बायोस्कोपवाला चूँकि काबुलीवाला के रूप में नहीं है वह अफगानी औरतों और पठानों को दस-पन्द्रह साल पुरानी फिल्में जरुर दिखाता है जो उनके लिए तो नई और मनोरंजन का एकदम नया साधन है । मगर तालिबानियों को यह पसंद नहीं आता और वे सिनेमा को हराम करार देते हैं फलस्वरूप बायोस्कोपवाला यानी रहमत खान को एक शर्त (अपनी पाँच-छ साल की बच्ची को अफगानिस्तान में छोड़ना) स्वीकार करनी पड़ती है और इस प्रकार उसका अफगान मुल्क को छोड़ना अथवा त्यागना दिखाया गया है । इसे आप मूल कहानी के साथ छेड़छाड़ भी कह सकते हैं मगर इतना सब होने के बाद भी कहानी की मूल आत्मा मरने नहीं पाई है तो इसके लिए निर्देशक को बधाई भी दी जा सकती है कि उन्होंने कई सारे अहसानातों को एक साथ चुकाने में कामयाबी हासिल की है ।
तपन सिन्हा की काबुलीवाला में जब मीनू बीमार पड़ती है तो ‘अल्लामा इकबाल’ की पंक्तियों के साथ रहमान खान उसकी सेहत के लिए दुआ माँगता है । जबकि बायोस्कोपवाला में ऐसी कोई कहानी नहीं गढ़ी गई है इसके उल्ट वह बच्ची काबुलीवाला की मीनू और बायोस्कोपवाला की मिनी बूढ़े रहमत खान को कत्ल के जुर्म से बचाने के लिए अफगानिस्तान का रुख भी करती है ।
बायोस्कोपवाला और काबुलीवाला में खून के जुर्म में भी अंतर है । काबुलीवाला में रहमान खान अपने उधार दिए मेवे के रुपए लेने पहुंचता है तो वहाँ रुपए न देने के क्रम में लड़ाई हो जाती है और उसके हाथों कत्ल हो जाता है । जबकि बायोस्कोपवाला में वह वहीदा की इज्जत बचाते हुए कत्ल कर बैठता है । दस साल की सजा के बाद काबुलीवाला में हाथों के निशान एक कागज पर दिखाए गए और मूल कहानी में भी जबकि बायोस्कोपवाला में वह कागज कपड़े में बदल जाता है । बायोस्कोपवाला और काबुलीवाला के क्लाइमेक्स में भी जमीन आसमान का अंतर दिखाई देता है । एक बड़ा अंतर काबुलीवाला में और बायोस्कोपवाला में रहमत खान और रहमान खान के नाम को लेकर भी है । दूसरी ओर काबुलीवाला की अधिकतर शूटिंग भी मोहन स्टूडियो में की गई थी और तब के अफगानिस्तान को दिखाने के लिए जो आउट डोर शूटिंग हुई वह महाराष्ट्र के नासिक शहर में की । इसके पीछे एक बड़ा कारण था कि नासिक के पहाड़ अफगानिस्तान के पहाड़ों की तरह दिखाई पड़ते थे । जबकि बायोस्कोपवाला की शूटिंग रियल टच के साथ पर्दे पर प्रस्तुत होती है ।
इतना सबकुछ होने के बाद भी बायोस्कोपवाला विशेष और उम्दा फिल्म बनकर उभरती है । और उसका कारण है सोनागाछी की कहानी , वहीदा और गजाला जो काबुलीवाला के साथ आईं, रवि बासु की डायरी और खत, विजुअली और सिनेमाई अंदाज से अलग होने के कारण । 1990 का कोलकाता, अफगानिस्तान की डरावनी खूबसूरती और बेहतरीन सिनेमेटोग्राफी के कारण । फिल्म समीक्षकों के मुताबिक़ फिल्म के बेहतरीन होने के महत्वपूर्ण बिंदु हैं – पहला डैनी की बोलती आँखें और उनका रहमत खान के किरदार को जीना । दूसरा मिनी में अपनी बेटी का अक्स ढूंढता रहमत खान । तीसरा साथी महिलाओं के लिए अपनी जान दाँव पर लगाता बायोस्कोपवाला । एक कपड़े के टुकड़े पर अपनी बच्ची के हाथों की छाप लिए घूमता रहमत खान और बच्चों को बायोस्कोप दिखा कर सच्ची ख़ुशी बटोरता रहमत खान ।
बायोस्कोपवाला इस अंदाज से भी खूबसूरत और महत्वपूर्ण हो जाती है कि फिल्म के डायरेक्टर ने अपनी पहली ही फिल्म से दर्शकों का ध्यान अपनी ओर खींचा है तथा यह भी बताया है कि किस तरह एक साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाई जानी चाहिए, बिना कहानी की मूल आत्मा को मारे ।
28 अक्टूबर 2017 को सबसे पहले ‘टोक्यो इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ में प्रदर्शित की गई यह फिल्म बायोस्कोपवाला 25 मई 2018 को सिनेमाघरों के लिए रिलीज की गई । करीबन 90-95 मिनट की इस फिल्म को बनाने के पीछे की कहानी कुछ इस तरह है – एक फ्रांसीसी और अफगानी फिल्म निर्माता अतीक रहीमी साल 2009 से ही टैगोर की लिखी इस कहानी को फिल्म में रूपांतरित करने की योजना बना रहे थे । लेकिन यह योजना अपने सफल अंजाम तक नहीं पहुँच पाई । साल 2012 तक आते-आते इस फिल्म को लेकर फिर से खबरें सुनने को मिलीं जिसमें अमिताभ बच्चन मुख्य भूमिका में नजर आने वाले थे । साल 2013 में इस फिल्म को लेकर कहा गया की अमिताभ के अलावा एक ईरानी अभिनेत्री और सारा अर्जुन , एम के रैना के अलावा रजत कपूर इसकी कास्टिंग में शामिल किये जाएंगे । इस तरह अटक-अटक कर चल रही इस फ़िल्मी परियोजना में सुनील दोशी, राम माधवानी और देव मेधेकर उर्फ़ देवाशीष मेधेकर के निर्देशन में आखिरकार यह फिल्म बनकर तैयार हुई और इसमें मुख्य अदाकार रहे डैनी और गीतांजली थापा । बॉक्स ऑफिस के आंकड़ों और तथ्यों के मुताबिक़ यह फिल्म भले ही फ्लॉप साबित हुई हो किन्तु सच्चे साहित्यिक और सिने प्रेमियों के दिलों में यह एक यादगार तोहफा और धडकन बनकर हमेशा के लिए समाहित हो गई है ।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.