दो साल पहले ‘बुसान’ फ़िल्म फेस्टिवल में चली ‘मट्टू की साइकिल’ अब देश भर में चल रही हैं। तय समय से एक दिन पहले रिलीज कर दी गई इस फ़िल्म को जब किसी ओटीटी ने जगह नहीं दी तो बेहद कम स्क्रीन के साथ इसे देशभर में बेहद कम दाम (75रुपये) पर चलाया गया है।
मथुरा के भरतिया गांव में रहता है मट्टू अपने परिवार के साथ। कुल जमा चार लोगों के इस परिवार में पांचवा सदस्य है एक पुरानी खटारा सी साइकिल। जब मट्टू की जिंदगी को घसीटते हुए साइकिल बीमार पड़ी (एक ट्रैक्टर वाला साइकिल को ही कुचल कर चला गया) तो उसके घर में चूल्हा तक जलना मुश्किल हो गया। अब क्या करेगा मट्टो? चला सकेगा अपनी ज़िंदगी ठीक से बिना साइकिल के? क्या खरीद पाएगा नई साइकिल? लेकिन…
दूसरी तरफ दिखाया जाता है कि मट्टू इतना गरीब है कि मोदी सरकार की ओर से मिले टॉयलेट तक में ताला लगाकर रखता है। और खुद शौच करने खेतों में जाता है। पेट भर खाने के लिए उसके पास पैसे नहीं है लेकिन हर सीन में बीड़ी जरूर उसे फूंकनी है। शहर से काफी दूर इस गांव के हालात भी कुछ ठीक नहीं है। फिर एक सीन में देखता है वह बड़े से होर्डिंग पर लगे हीरो साइकिल के विज्ञापन को तो वहां से फिल्म कुछ देर के लिए राहत जरुर देती है। विज्ञापन से कैसी राहत? ये भी आपको फिल्म में पता चलता है लेकिन अगले ही पल….
फिल्म अपनी शुरूआत से लेकर अंत तक काफी धीमे-धीमे चलते हुए जब प्रधानी के चुनाव का सीन दिखाती है तो उस दौरान फ़िल्म में एक गाना बजता है, ‘पांच साल की लॉटरी।’ इस गाने में लोक की मटमैली महक महसूस होती है। दुनियां की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश में हालात तो आज भी हर जगह ‘मट्टू’ की साइकिल की भांति घिसटते दिखाई देते हैं फिर भले आजादी के पचहतर वर्ष पूरे हो गये हों। जिस देश का डंका विश्व पटल पर बजता हो, वहां पाई-पाई जोड़कर खरीदी गई साइकिल के चोरी होने की रिपोर्ट तक नहीं लिखी जाती तो बुरा लगना लाजमी है। सरपट दौड़ते इस देश में अब भी कई लोग हैं, जो रेंग रहे हैं। एक वक़्त का खाना भी जिन्हें नसीब नहीं होता। उनकी कहानी को पर्दों पर आज भी देखना बुरा तो है।
बुरा तो तब भी लगता है जब ये फ़िल्म इंडिया और भारत के बीच की लंबी गाढ़ी लाइन खींचती नजर आती है। अच्छे सिनेमा और कचरा सिनेमा का अहसास आपको ऐसी ही साइकिल की सवारी करने पर समझ आता है। इस फिल्म के भीतर बहुत कुछ गूढ़ है, गाढ़ा है, धुंधला है, मटमैला है। कुछ जगहों पर जब फिल्म में वकील किरदार खबरें पढ़ता नजर आता है तो इंडिया और भारत की तस्वीर और साफ़ खाई की तरह नजर आती है। ‘अब अंबानी एजुकेशन सेक्टर में उतरने की सोच रहे हैं।’, ‘35 रुपए के ऊपर कमाने वाले आदमी अब गरीब नहीं।‘
तकनीकी रूप से फिल्म की बात करें तो फिल्म का सेट, किरदार, उन सभी के गेटअप, भाषा, संवाद आदि बिल्कुल सामान्य भले लगें लेकिन अवसाद में जरुर ले जाते हैं। फिर बीच-बीच में पढ़कर सुनाई जा रही खबरें फिल्म की तासीर को और अवसाद में डुबोती है भले ही बेहद प्यारा ‘सारे जहाँ से अच्छा’ गीत ही इस बीच क्यों न बज उठे। इस फ़िल्म की ख़ास बात है रियलिज़्म। इसे देखते हुए आपकी आंखों में पानी आ जाए तो उन्हें रोकना नहीं, बहने देना क्योंकि जो बहेगा वह कचरा ही होगा और आपकी आंखें उन आंसूओं से साफ़ हो जायेगी।
सालों पहले आई फिल्म ‘बाइसिकल थीव्स’ की याद भी यह फिल्म दिलाती है। जिसे देखकर ‘सत्यजीत रे’ जैसे जाने कितने उम्दा फिल्मकार पैदा हुए थे। साथ ही याद आता है ईरानियन सिनेमा। भारत के असली ग्राम्य जीवन की तस्वीर दिखाती इस फिल्म में लोकेशन से लेकर ऐक्टर्स तक सब क़रीब सा, अपना सा, जाना सा, देखा सा लगता है।
जो जैसा है, उसे वैसा पेश करती हुई इस फिल्म के डायरेक्टर ‘एम. गनी’ और लेखक ‘पुलकित फिलिप’ ने फिल्म की भाषा को बिल्कुल ब्रज और गवई सी रखकर हकीकत को दिखाने में कामयाब होते हैं, साथ ही आपको अवसाद में ले जाते हैं एक ऐसे अवसाद में जो हम आए दिन अपने चारों ओर देखकर भी अनदेखा कर जाते हैं। ऐसा नहीं है यह फिल्म यथार्थ के सफ़र पर चलते हुए सिर्फ आपको रुलाती है बल्कि रोज़मर्रा के इसके कुछ मुहावरेदार संवाद आपको हंसाते भी हैं।
‘हंसबे बोलबे में ही जिंदगी को सार है
मेरे जैसा सेलिब्रिटी तुमाओ यार है
जे का कम है’
संवादों में कम, दृश्यों में ज़्यादा बात करती इस फिल्म में ऐसे दृश्य भरपूर हैं जिन्हें देख आंखें नम हों, आक्रोश पैदा हो, खून नसों में तेजी से दौड़ता दिखाई देने लगे, एंड क्रेडिट्स खत्म होने तक आपका मन अपनी सीट से हिलने को न करे तो वह सिनेमा सार्थक होता है। वह असल में सिने…मां होता है। वैसे क्या कारण है कि इतने साल गुज़र गए पर प्रेमचंद के गोदान का होरी अब भी मट्टो के रूप में ज़िंदा है। इस फिल्म को देखने के बाद यह विचार जरुर कीजिएगा।
‘प्रकाश झा’ एक्टिंग करते हुए मट्टो की आत्मा को ख़ुद में उतार लेते हैं। ‘अनिता चौधरी’, ‘आरोही’, ‘इधिका रॉय’, ‘डिंपी मिश्रा’, ‘चंद्रप्रकाश शर्मा’, ‘बचन पचहरा’, ‘राहुल गुप्ता’ आदि सभी उम्दा जमें हैं। फिल्म का हर कलाकार जब कलाकार न होकर किरदार नजर आये तो बनती है मट्टू की साइकिल। बहुत ही सलीके से रची गई इस फिल्म की कहानी से लेकर पटकथा, संवाद, दृश्य संयोजन, लोकेशन, कैमरा, ध्वनि, प्रकाश, संपादन, पार्श्व-संगीत जैसे तमाम पक्षों में इस कदर गहरा और गाढ़ापन नजर आता है कि यह कहीं से भी ‘फिल्म’ नहीं लगती। बल्कि देश की हकीकत लगती है। रियल सिनेमा पसंद करने वालों, यथार्थवादी सिनेमा पसंद करने वालों को ऐसी फ़िल्में देखने में आनन्द आएगा बाकी मसालों की बौछारों में लिपटी चॉकलेट चाटने वाले लोग इसे न देखें तो बेहतर क्योंकि उससे उनका हाजमा बिगड़ सकता है।
अंदर की बात – फिल्म की रिलीज़ को लेकर चले रहे टालमटोल के बीच प्रकाश झा यह भी कहते दिखे थे कि “ओटीटी ने हमें नहीं चुना। हम तो ओटीटी के पास गए ही थे. हमें तो सिनेमा में भी जाना था, लेकिन ओटीटी वालों को लगा कि यह बहुत ही रियलिस्टिक और ड्राय फिल्म है।” कायदे से इस फ़िल्म का ओटीटी पर न आने का फायदा भी है, वो ऐसे की जब वे लोग जो फेस्टिवल सिनेमा पसंद करते हैं उनके लिए तो सिनेमाघर में इसे देखना ज्यादा अच्छा अनुभव देगा।
अपील – ऐसी फिल्मों को देखने आने वालों से ख़ास गुजारिश है कि वे या तो फ़िल्में देखने न आया करें। आएं तो कृपया दूसरों को भी फ़िल्म देखने दिया करें। बीच-बीच में फोन पर बातें करनी हों या व्हाट्सएप्प इस्तेमाल करना हो तो ऐसी फिल्मों का अनादर न करें।