राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित होनेवाली हिन्दी के गौरवपूर्ण इतिहास पर विचार करने से पता चलता है कि हिन्दी एक भाषा नहीं बल्कि भारतीय भाषा परंपरा की वास्तविक उत्तराधिकारिणी है। 
अखिल भारतीय आंदोलनों की भाषा हिन्दी रही है। अकारण नहीं है कि गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, उड़ीसा और बंगाल के भक्तिकालीन संतों ने कुछ पद तत्कालीन हिन्दी भाषा में रच कर राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का काम किया है। 
स्वाधीनता आन्दोलन में पूरे देश को जोड़नेवाली भाषा के रूप में खड़ीबोली हिन्दी का उठ खड़ा होना एक ऐतिहासिक सत्य है। तिलक, गोखले, गांधी, नेहरू, नेताजी, सावरकर, राजगोपालाचारी, आज़ाद, भगत सिंह, बिस्मिल, बटुकेश्वर दत्त, हेमू कालानी आदि के बीच भाषा की कोइ दीवार नहीं थी। 
दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक संप्रभुता संपन्न देश के रूप में उठ खड़े होते ही हम भाषा की दीवारों में खुद को कैद करने लग गए। कैसी विडंबना है कि हम अपने राष्ट्र पुरुषों के बीच मामूली मतभेदों को बड़ा बना कर लड़ते हैं खेमेबाज़ी करते हैं पर बड़े मुद्दों पर उनकी सहमतियों को पाथेय बना कर साथ नहीं चलते। 
हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के समर्थन में हमारे सभी राष्ट्र पुरुष एक मत थे पर हम उनकी सहमतियों के साथ नहीं हो पाए।
संवैधानिक प्रावधानों के तहत हिन्दी को जब संघ की राजभाषा का दर्जा दिया गया था तब संविधान निर्माता “राजलिपि” के रूप में देवनागरी का उल्लेख करना नहीं भूले थे।
संवैधानिक प्रावधान ने हिन्दी को राजभाषा का पद अवश्य दिया पर राष्ट्रभाषा तो वह देश के जन मन की भावनाओं का वहन कर के ही बनी है। आज जरूरत इस बात की है कि हम एक राष्ट्रीय लिपि के लिए सहमति बनाएं। भाषाओं के प्रयोजनमूलक रूपों के लिए “एक देश-एक लिपि” को अपनाए जाने की महती ज़रूरत है। सभी भारतीय भाषाओं के प्रयोजनमूलक रूपों के लिए एक राष्ट्रीय लिपि हेतु सहमति बनाई जा सकती है।
यूरोप, अमेरिका और अफ़्रीका के अनेक देशों ने भाषा भिन्नता के बावजूद रोमन लिपि को अपनाया है। जैसे समस्त भारतीय भाषाओं का संबंध संस्कृत से है वैसे ही भारतीय भाषाओं के लिए व्यवहृत होनेवाली लिपियाँ वर्तमान देवनागरी के प्राचीन रूपों से ही विकसित हुई हैं। भाषा सुनकर एवं पढ़कर सीखी जाती है। 
किसी भाषा को पढ़ने-समझने की राह में पहली रुकावट लिपि ही डालती है। यदि सभी भारतीय भाषाएँ एक लिपि में लिखी जाएँ तो लोगों के लिए पढ़ना-लिखना आसान हो जाएगा। रही बात शब्दों के अर्थ की तो उसका अधिकांश ज्ञान व्यवहार और संदर्भ से हो जाता है। 
भाषा के प्रयोजनमूलक रूप के लिए एक लिपि पर सहमति बनाने से न सिर्फ़ भाषाओं में आदान-प्रदान बढ़ेगा अपितु किसी शहर में विभाषियों को सहूलियत होगी। लिपि चिन्हों के लिए भारतीय भाषाओं की प्रचलित लिपियों के बीच प्रतीकात्मक आदान-प्रदान भी किया जा सकता है। 
देश की भाषाओं के लिए एक लिपि का आरंभिक आग्रह शारदा चरण मित्र ने किया था। उन्होंने देश की भाषाओं को एक सूत्र में पिरोने के लिए ‘लिपि विस्तार परिषद का गठन किया था तथा देवनागर नाम से एक मासिक पत्र का प्रकाशन भी शुरू किया था। 
आगे चल कर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इस विचार को समर्थन देकर मज़बूती प्रदान की। गांधी जी ने 1940 में एक गुजराती पुस्तक देवनागरी लिपि में प्रकाशित करवाई थी। 
विनोबा भावे का भी मानना था कि देश की एकता के लिए एक भाषा से ज़्यादा एक लिपि की भूमिका कारगर हो सकती है। उनकी प्रेरणा से 1975 में नागरी लिपि की स्थापना हुई थी। 
हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महात्मा गांधी के बाद सबसे ज्यादा काम राममनोहर लोहिया ने किया। समाजवादी राजनीति के पुरोधा डॉ॰ राममनोहर लोहिया के भाषा संबंधी समस्त चिंतन और आंदोलन का लक्ष्य भारतीय सार्वजनिक जीवन से अंगरेजी के वर्चस्व को हटाना था। लोहिया को अंगरेजी भाषा मात्र से कोई आपत्ति नहीं थी। अंगरेजी के विपुल साहित्य के भी वह विरोधी नहीं थे, बल्कि विचार और शोध की भाषा के रूप में वह अंगरेजी का सम्मान करते थे। लोहिया जी भी देश की भाषाओं के लिए एक लिपि के पक्षधर थे।
ऐतिहासिक परिस्थितियों के चलते हमारे देश में सदियों तक शासकों और शासितों की भाषा अलग-अलग रही। आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष तक भी शासकों और जनता की भाषा में अंतर बना रहना हर भारतीय के लिए लज्जा का विषय होना चाहिए। कैसी विडम्बना है कि अखिल भारतीय प्रभाव का राजनेता बनने की जरूरी शर्त हिन्दी जानना और धाराप्रवाह बोलना है, जबकी उन्हीं राजनेताओं के अधीनस्थ काम करने वाली कार्यपालिका और न्यायपालिका में अंग्रेजी का वर्चस्व अबाध गति से बरकरार है।
दक्षिण तथा पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में हिन्दी विरोध एक सतही, स्थानीय राजनीतिक मुद्दा रहा है जो भावनाओं को भड़का कर वोटों का गणित साधने के लिए समय समय पर उठाया जाता है। इन राज्यों के पढ़े-लिखे अभिभावक हिन्दी का अखिल भारतीय महत्व समझते हैं, इसलिए वे अपने बच्चों को महंगे निजी स्कूलों में हिन्दी पढ़ाते हैं। सरकारी स्कूलों में पढ़नेवाले गरीब बच्चों को साजिशन हिन्दी से दूर रखा जाता है, जिससे भाषा की भावनात्मक राजनीति को खाद-पानी मिलती रहे।
ध्यान रहे भाषा का मसला जितना व्यावहारिक है उससे कहीं ज्यादा भावनात्मक भी। भावनात्मक मुद्दों का बहुत धैर्य और संवेदनशीलता से समाधान करना होता है। आज समय बदला है, परिस्थितियाँ बदली हैं। भाषा तकनीकी के क्षेत्र में अपूर्व क्रांति हुई है। एक देश एक लिपि की संकल्पना को साकार करने की शुरुआत भाषा के प्रयोजनमूलक रूपों के लिए की जा सकती है। बस, ट्रेन स्थानकों, हवाई अड्डों के सूचना पटों पर लिखी स्थानीय भाषा की लिपि देवनागरी हो सकती है। इस तरह देश के दूसरे भाषा भाषियों को सुविधा होगी और विदेशियों में देश की एकता का संदेश जाएगा। 

Prof. Sanjeev Kumar Dubey
Dean – School of Language
Literature and Culture
Email: dubesanjeev@gmail.com
Mobile: 00-91-8140241172

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.