आखिर मनुष्य ही तो हैं हम
तो कहां गई हमारे मानवीय संवेदनाएं?
जो दर्द हम अपने लिए
महसूस करते हैं इसका
थोड़ा भी औरों के लिए क्यों नहीं?
क्यों भूल जाते हैं हम
यह मालूम होते हुए भी
कि इस कार्य से दुख होगा
किसी के दिल को फिर भी
हम करते हैं पूरी सजगता से,
जानबूझकर, बिना किसी परवाह के।
क्यों भूल जाते हैं हम कि वह भी
हम जैसा ही है, हाड़, मांस और
भावनाओं से बना इंसान।
दर्द महसूस होता है उसे भी
दिल रोता है उसका भी।
क्यों भूल जाते हैं हम कि
जिसको दे रहे हैं शारीरिक
और मानसिक यातना,
अगर हम हों उसकी जगह तो
नहीं सहन कर पाएंगे हम
टूट कर बिखर जाएंगे हम।
फिर क्यों नहीं जागती
हमारी मानवीय संवेदनाएं,
किसी के दुख को देखकर
और उसे बढ़ाकर ?
क्यों द्रवित नहीं होता हमारा हृदय
दूसरों को तकलीफ में देखकर,
उनकी लाचारी और विवशता को देखकर?
इस विषय में सोचने की आवश्यकता है!
नाम: दीपमाला गर्ग
एमफिल (अर्थशास्त्र),एम. एड., एम. ए. (अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, हिंदी)
नेट (एजुकेशन)
फरीदाबाद, हरियाणा।
संप्रति: सहायक प्राचार्या
सेंट ल्यूक शिक्षा महाविद्यालय
गांव चांदपुर, बल्लभगढ़।