पुस्तक का नाम : मैं मनु (आत्मकथा) लेखक : प्रकाश मनु प्रकाशक : श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली।प्रकाशन-वर्ष : 2021 पृष्ठ संख्या : 320 मूल्य : 399 रुपए
हिंदी में आत्मकथा लिखने की परंपरा काफी समृद्ध है। हिंदी बाल साहित्य लेखन में अपना संपूर्ण जीवन लगा देने वाले प्रकाश मनु ने भी अपनी आत्मकथा ‘मैं मनु’ लिखकर उसके विकास-क्रम में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है। प्रकाश मनु की आत्मकथा चार खंडों में प्रकाशित होनी है। उन्हीं चार खंडों में से प्रथम खंड है, ‘मैं मनु’।
प्रकाश मनु की इस आत्मकथा को पढ़ने से पहले इस पुस्तक के आवरण की मैं अवश्य चर्चा करना चाहूँगा। पुस्तक के बाहरी आवरण पर ‘मैं मनु!’ लिखे होने के साथ ही उनका चित्र लगा हुआ है, हँसते हुए।चमकदार माथा।सिर, भौंह व मूँछों के पके हुए छोटे-छोटे बाल। आँखों पर चश्मा लगाए।खद्दर का कुरता पहने व जेब में पेन।अद्भुत चित्र! देखने से ही उनकी सरलता, सहजता और और भोलेपन का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।चित्र के नीचे प्रकाशक की ओर से लिखे शब्द हैं, ‘बच्चों की अद्भुत दुनिया के रचनाकार, प्रणम्य संपादक, लेखक एवं कवि प्रकाश मनु जी की आत्मकथा’।वास्तव में प्रकाश मनु के बाल साहित्य में उनकी मौलिक तथा संपादित कृतियों व उनके समर्पण को देखकर आश्चर्य होता है।
पुस्तक के समर्पण की ये पंक्तियाँ भी मन में अंकित हो जाती हैं, “माँ, पिता जी, बलराज भाईसाहब, बड़ी भैन जी, कश्मीरी भाईसाहब और कृष्ण भाईसाहब को याद करते हुए, जिनकी स्मृतियाँ इस आत्मकथा के शब्द-शब्द में समाई हुई हैं…!”पढ़कर अनुमान लगाया जा सकता है कि इतने सारे लोगों की करुण मृत्यु के तांडव को मनु ने अपनी आँखों देखा है। उन्होंने इस असहनीय वज्राघात को कैसे सहा होगा?
इस आत्मकथा की भूमिका ‘मेरी कहानी : कुछ भूली कुछ भटकी सी!’ से यह तो ज्ञात होता है कि प्रकाश मनु ने अनिश्चितता से निश्चितता को, कतिपय से समग्रता को प्राप्त किया है। वे स्वयं स्वीकार करते हैं कि उनका संपूर्ण जीवन केवल और केवल साहित्य ही है—
“मैं ऐसा क्यों हूँ? किसने मुझे ऐसा बनाया? कौन मुझे साहित्य की राह पर ले आया?…और फिर इस राह पर चलते हुए किसने मुझे ऐसा पगला दिया कि रात-दिन…रात-दिन…साहित्य, साहित्य और बस साहित्य। साहित्य मेरा मन, साहित्य मेरा प्राण, साहित्य मेरा शरीर, साहित्य मेरा ओढ़ना, साहित्य मेरा बिछौना और शायद साँस भी मैं साहित्य में ही ले पाता हूँ?”
आप लेखक कैसे हो गए? इस प्रश्न का उत्तर बड़ी विनम्रता के साथ देते हुए वे कहते हैं, “शायद लेखक होने के सिवाय मैं कुछ और हो ही नहीं सकता था, इसलिए मैं लेखक बना।”
प्रकाश मनु अपने लेखक होने के पीछे स्वयं का अंतर्मुखी होना और किसी भी विषय पर चिंतन करना मानते हैं, और यह शत प्रतिशत सत्य भी है, क्योंकि यही चिंतनशीलता व्यक्ति को संवेदनशील और भावुक बनाती है और एक सच्चे साहित्यकार में इन दोनों गुणों का होना लाज़िमी है। मनु जी बचपन की सुनी कहानियों में अधकू की कहानी को कभी नहीं भूल पाए, जिसके सिर्फ एक हाथ, एक पैर था, फिर भी तमाम मुसीबतों का सामना करके वह अपने जीवन को सफलता की राह पर ले जाता है। अधकू के चरित्र ने प्रकाश मनु को बेहद प्रभावित किया है और उनके लेखक बनने के पीछे उसका बड़ा हाथ है।
मनु जी की आत्मकथा बहुत सरल, सरस, बोधगम्य है, साथ ही घटनाओं की तारतम्यता भी उसमें विद्यमान है, जिससे पाठक रुचि लेकर उसे पढ़ता है। देखा जाए तो घटनाएँ बड़ी साधारण सी हैं, लेकिन उन्हें रोचकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। मनु जी ने उनछोटी-छोटी घटनाओं का भी पूरा विवरण प्रस्तुत किया है, जिन्होंने उनके बाल मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ी है।
*
अब हम चलते हैं उस पड़ाव की ओर, जहाँ एक भोला संवेदनशील कुक्कू अपने जीवन का सफर शुरू करता है, और तमाम मुश्किलों, बाधाओं और बड़े उतार-चढ़ाव के बाद आखिर जो हिंदी के मूर्धन्य बाल साहित्यकार प्रकाश मनु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कहानी आरंभ करने से पूर्व उनके परिवार के बारे में थोड़ी जानकारी अवश्य देना चाहूँगा। कुक्कू यानी प्रकाश मनु केपिता उसके दादा की इकलौती संतान थे। लेकिन कुक्कूअपने माता-पिता की नौ संतानों (सात भाई व दो बहनें) में भगवान श्री कृष्ण के समान आठवीं संतान है। प्रकाश मनु से एक बड़ी बहन तथा पाँच बड़े भाई पाकिस्तान के कुरड़ गाँव में जनमे, जो खुशाब तहसील, जिला सरगोधा में है, और शेष तीन प्रकाश मनु सहित एक बहन, दो भाइयों का जन्म भारत के शिकोहाबाद नगर में हुआ।
आजादी के बाद भारत-पाक विभाजन के दौरान प्रकाश मनु के परिवार को बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा तथा इन हालात में पाकिस्तान को छोड़कर भारत मेंविस्थापित होना पड़ा। विस्थापन की तकलीफों से जूझते हुए उनके पिता, दादा तथा दोनों बड़े भाई फेरीवाले बनकर अपने परिवार का गुजर-बसर करते थे। वे अमृतसर से पगड़ियाँ खरीदकर लाते और अंबाला में बेचा करते थे। कुछ समय बाद परिवार इन स्थितियों से उबरा। किंतु लगता है, यह ईश्वर को मंजूर न था और तभी मनु जी के परिवार में मृत्यु का ऐसा सिलसिला चला, जैसे वृक्ष से बारी-बारी पत्ते गिर रहे हों। स्वयं प्रकाश मनु के शब्दों में—
“पर इस बीच जिंदगी के थपेड़े भी कम नहीं रहे। हम भाई-बहनों में बलराज भाईसाहब जो हमारे सबसे बड़े भाई थे, कोई बत्तीस वर्ष की अवस्था में ही चले गए। वे आकस्मिक हृदयाघात से गए। अभी कुछ अरसा पहले ही कश्मीरी भाईसाहब अपने जीवन-कहानी पूरी कर गए।हम भाइयों में जो सबसे सरल, शांत और बुद्धिमान थे, और जिन्हें हमेशा मुसकराते हुए देखा, वे कृष्ण भाईसाहब भी नहीं रहे। मुझसे कोई तीन बरस बड़े श्याम भाईसाहब तो बरसों पहले ही चले गए। वे असमय ही गए। श्याम भैया की मृत्यु का घाव मन में अब भी इतना ताजा है कि उनकी मृत्यु कल की बात लगती है, लेकिन अभी-अभी हिसाब लगाने बैठा तो मैं चौंका। श्याम भैया को गुजरे कोई इकतीस साल बीत चुके हैं।”
यही मार्मिक दास्तान उस घर की थी, जहाँ कुक्कू का जन्म हुआ था। कुक्कू के बचपन का पूरा नाम शिवचंद्रप्रकाश था, लेकिन घर में उसे सभी कुक्कू के नाम से पुकारते। यह नाम उसकी नानी का दिया हुआ था, जो उसके गोरे रंग के कारण उसे मिला था। शुरू में कुक्कू नाम प्रकाश मनु को पसंद नहीं था, लेकिन जब उन्हें पता चला कि कुक्कू के मानी कोयल होता है, तब से यह नाम उन्हें अच्छा लगने लगा। पर उनके नाम को कोई बिगाड़कर कहता, ‘अरे ओए कुकड़ू’ तो उन्हें बड़ा गुस्सा आता था।
कमलेश दीदी और बड़ी भैन जी की बेटी राज कुक्कू से थोड़ी ही बड़ी थीं। कुक्कू कमलेश दीदी, राज और उनकी सहेलियों के साथ खेला करता था। कभी गुड्डे-गुड़ियों के खेल और कभी गुट्टे के खेल हुआ करते थे। राज, कमलेश दोनों और उनकी सहेलियाँ हथेलियों में छह-छह, आठ-आठ गट्टे होने के बावजूद भी नीचे का गुट्टा बड़ी कलात्मकता के साथ उठा सकती थीं, लेकिन कुक्कू सावधानी बरतने के बावजूद ऐसा नहीं कर पाता था। इस बात से वह कभी-कभी दुखी भी हो जाता था।
हालाँकि खेलकूद में कुक्कू भले ही पिछलग्गू रहा हो, लेकिन ईश्वर ने उसके लिए कुछ और ही निर्धारित किया था। वहजब छोटा था, तभी से उसे अक्षर खींचते थे, शब्द खींचते थे, छपे हुए पृष्ठ खींचते थे और वह अक्षरों से अक्षरों को जोड़-जोड़कर पढ़ने लगता। कभी दीवार के विज्ञापनों को, कभी मेज पर पड़े अखबारों को, तो कभी फटे-पुराने अखबार के अक्षरों को, कभी बाजार से लाई गई चीजों के साथ आए अखबारी लिफाफों को खोलकर पढ़ना शुरू कर देता था। यह एक अंतहीन खेल था, जिसमें उसे बड़ा ही आनंद आता था।
पढ़ने-लिखने में अब उसे इतनी महारत हासिल हो गई थी कि वह अपने से दो दर्जे ऊँची कक्षा में पढ़ने वाली कमलेश दीदी के होमवर्क में भी मदद कर दिया करता था। एक बार कमलेश दीदी को हिंदी का होमवर्क मिला था, जिसमें ‘हमारे पूर्वज’ पुस्तक के एक पाठ का सार लिखना था। कमलेश दीदी को इसमें मुश्किल आ रही थी। पर जब उसने कुक्कू से कहा तो उसने उत्साहित होकर झट उस पाठ का सार लिखवा दिया। अगले दिन मैडम ने उस सार-लेखन की बड़ी प्रशंसा की और पूरी क्लास को पढ़कर सुनाया। स्कूल से आकर कमलेश दीदी ने कुक्कू से कहा, “वाह रे कुक्कू! मैडम ने मेरी बड़ी तारीफ की। पूरी क्लास को पढ़कर सुनाया, जो तूने कॉपी में लिखवाया था।”
यह बात सुनते ही कुक्कू का चेहरा चमक उठा। उसने हाथ जोड़कर खुशी-खुशी भगवान से कहा, “अरे भगवान जी, मुझे पता नहीं था। आपने तो मुझे बड़ा अनमोल खजाना दे दिया। सॉरी, अगर मेरी किसी बात से बुरा लगा हो तो। मेरे लिए तो यही खजाना बड़ा अच्छा है। अब तो मैं इधर ही सरपट दौडूँगा। बस इधर ही…! मुझे मिल गया अपना रास्ता।”
उसी दिन से कुक्कू पागल-सा हो गया और यह पागलपनपढ़ने का पागलपन था। वह जहाँ भी किताबें देखता, पत्रिकाएँ देखता, उन्हें खोलकर पढ़ना शुरू कर देता और तब उसे न ही समय का होश रहता औरन ही स्थान विशेष का।बस पढ़ने की भूख और प्यास उसमें व्याप्त रहती। उसने छठी कक्षा से ही प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियाँ, उनके उपन्यास, शरदचंद्र और रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास पढ़ने शुरू कर दिए थे। उनमें वर्णित मार्मिक प्रसंगों को पढ़ते-पढ़ते उनकी आँखों में आँसू आ जाते और आगे क्या हुआ, यह जानने के लिए वह उस पुस्तक को जल्दी से जल्दी पढ़कर पूरी कर लेना चाहता था। सच पूछिए तो यह पागलपन इस दुनिया से उस दुनिया तक पहुँच जाने का पागलपन था। यह पागलपन एक नन्हे कुक्कू से प्रकाश मनु बनने तक का पागलपन था।
किताबों को पढ़ते-पढ़ते प्रकाश मनु भगवान बुद्ध के ‘सर्वात्म दुःखम’ की तरह सोचने लगते कि दुनिया में इतना दुख क्यों है और वह अपने अंदर-बाहर इस सवाल का हल खोजने लगते। क्योंकि वे स्वयं भी पारिवारिक सदस्यों की असामयिक मृत्यु के कारण दुखी थे। वे भगवान से विनम्र प्रार्थना करते हुए प्रश्न करते हैं, “हे राम जी दुनिया में इतने दुख क्यों हैं? दुनिया क्या ऐसी नहीं हो सकती कि लोग थोड़ा दुख-दर्द से उबरकर हँसें। थोड़ी खुशी महसूस करें। मैं ऐसा क्या कर सकता हूँ कि दुनिया में दुख और तनाव थोड़े कम हो जाएँ।”
इस दुख और तनाव से बचने का उन्होंने एक हल निकाला, बाल साहित्य सृजन, जो हमें सारी बुराइयों और विद्रूपताओं से परे ले जाता है। बच्चों के लिए लिखने में प्रकाश मनु ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। वे बाल साहित्य लेखन की पहली शर्त बच्चों को आनंदित करना व खेल-खेल में उनके मन में अच्छी बातों को उतार देना मानते हैं।इतना ही नहीं, वे बचपन को दुनिया का अनमोल खजाना मानते हैं और कहते हैं, “बचपन ऐसा अनमोल खजाना है जिसे खोजने निकलो तो पैर परिचित पगडंडियों और रास्तों पर चलते ही जाते हैं, चलते ही जाते हैं…और फिर वापस आने का मन नहीं करता।”
*
प्रकाश मनु ने अपनी आत्मकथा ‘मैं मनु’ में माँ का बहुत ही मार्मिक वर्णन प्रस्तुत किया है। उन्हें जब भी माँ की याद आती है तो सबसे पहले उनकी आँखें दिखाई देती हैं। उन आँखों में एक बच्चे का सा भोलापन था और जानने-समझने की अनवरत जिज्ञासा थी। इसलिए वे अपनी माँ के बारे में कह उठते हैं, “माँ थीं तो जीवन में कोई बनावट नहीं थी, जीवन में कोई जटिलता या असहजता नहीं थी। जीवन में कोई डर नहीं था। माँ, माँ थीं तो आस्था का समंदर भी। जीवन वहाँ ठाठें मारता।”
इसी तरह घुमंतू साहित्यकार सत्यार्थी जी के द्वारा कही गई एक पुरानी कहावत उनके मर्म को स्पर्श कर गई कि “ईश्वर ने माएँ बनाईं, क्योंकि वह सब जगह उपस्थित नहीं रह सकता था।” मनु जी को लगता है कि माँ को लेकर इससे बड़ी कोई बात शायद ही किसी ने कही हो। बाद में उन्होंने सत्यार्थी जी का उपन्यास ‘दूध-गाछ’ पढ़ा, जिसमें ‘दूध-गाछ’ शब्द माँ के लिए प्रयुक्त किया गया है। यानी माँ दूध के पेड़ सदृश है जो अपने दूध से पूरी दुनिया को तृप्त कर सकती है। बिना माँ के जीवन की कल्पना करना भी व्यर्थ है।
मनु जी की बचपन की प्रायः सभी स्मृतियाँ माँ से जुड़ी हैं। बचपन में उनकी माँ अपनी पड़ोसिनों और सहेलियों से घंटों बातें करती थीं। तब कुक्कू का उस मंडली के बीच में घुस जाना और उनकी बातें सुनना उसके स्वभाव के बारे में बहुत कुछ कह देता है। इस पर माँ की सहेलियाँ कुक्कू को बरजते हुए कटाक्षपूर्ण हँसी हँसती थीं। कुक्कू को भले ही वे बातें समझ में न आती हों, पर उन्हें सुने बिना वह रह नहीं पाता था। इसी तरह जब माँ तालाब के किनारे कपड़े धोने के लिए जाती थीं, तब नन्हे से कुक्कू को भी अपने साथ लेकर जाती थीं। माँ जब कपड़े धो रही होतीं, तो कुक्कू उस समय खेत की मेड़ों पर लगे वनफूलों के पीले-पीले सुंदर फूलों को तोड़ने व आसपास दौड़ लगाने में मस्त रहता था। वहीं सर्दियों की नरम धूप में दौड़ने-भागने और खेलने के सुख तथा प्रकृति की सुंदरता ने मानो एक शिशु के मन की भूमि पर पहली कविता का बीज बोया था।
माँ से जुड़ी ऐसी कई भावनापूर्ण यादें हैं, जो मनु जी के स्मृति पटल पर हमेशा अंकित रहेंगी।माँ ने ही कुक्कू को सबसे पहले गायत्री मंत्र याद करवाया था, जबकि वे खुद अनपढ़ थीं।तब भी पूरी तल्लीनता के साथ गायत्री मंत्र का पाठ कर लेना किसी चमत्कार से कम न था। और यह चमत्कार उनके पिता यानी मनु जी के नाना ने कर दिखाया था, जो स्वयं एक असाधारण विद्वान व्यक्तित्व थे। यहाँ तक कि माँ अनपढ़ होने के बावजूद मोटे अक्षरों में गुरुमुखी लिपि में लिखी गई गीता का धाराप्रवाह पाठ कर लेती थीं। यह भी मनु के नाना जी के ही प्रयत्न का प्रतिफल था।यह पाठ प्रत्येक सुबह माँ के मुख से सुना जा सकता था।
इसी तरह कई त्योहारों की मधुर स्मृति इस आत्मकथा में है। खासकर नवान्न पर्व मनु जी की माँ बड़े ही उत्साह के साथ मनाती थीं।वे नए अन्न की रोटी की चूरी बनाकर पहले स्वयं उसे खाती थीं, उसके बाद बच्चों को खिलाती थीं। वे सभीबेटों को अपने आसपास बिठा लेती थीं और अपने हाथ में चूरी का एक ग्रास लिए एक-एक कर सबसे पूछती जाती थीं, “चंदर, मैं नवाँ अन्न चखाँ? श्याम, मैं नवाँ अन्न चखाँ? जगन, मैं नवाँ अन्न चखाँ? सतपाल,मैं नवाँ अन्न चखाँ?” ऐसे ही अहोई, करवा चौथ और शिवरात्र का पर्व मनाने की मीठी यादें आज भी मनु जी के भीतर दस्तक देती हैं।
इन सब त्योहारों में ‘शिवरात्रि’ का पर्व मनु जी केपरिवार में बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता था, क्योंकि उनकी माँ स्वयं शिवभक्त थीं। इसीलिएउन्होंने प्रकाश मनु का नाम शिवचंद्रप्रकाश रखा था। अर्थात शिवजी के माथे पर विराजने वाले चंद्रमा का प्रकाश। लेकिन स्कूल में दाखिले के समय हेड मास्टर साहब ने इस लंबे नाम को खुद ही छोटा करके चंद्रप्रकाश कर दिया। बाद में परिवार के लोग इस नाम को और छोटा करके ‘चंदर’ कहने लगे। लेकिन जब मनु जी साहित्य की दुनिया में आए तो उन्होंने खुद ही अपने नाम को प्रकाश मनु कर लिया और यही नाम साहित्य की दुनिया में प्रतिष्ठित हो गया।
मनु जी की माँ को अपने बच्चों पर अटूट विश्वास था कि वे कोई गलत काम नहीं कर सकते। स्वयं अनपढ़ होकर भी वे अपने बच्चों के मन को बहुत अच्छे से पढ़ लेती थीं।ऐसा ही वाकया तब हुआ, जब प्रकाश मनु ने भौतिक विज्ञान से एम.एस-सी.करने के बाद हिंदी से एम.ए.करने का निर्णय लिया। उस समय पूरे परिवार ने इसका विरोध किया। लेकिन उनकी अनपढ़ माँ, जिन्हें पढ़ाई-लिखाई के बारे में कुछ समझ न थी, अपने लाड़ले बेटे के इस निर्णय के साथ दृढ़ता से खड़ी रहीं। उन्होंने कहा, “ठीक है पुत्तर, तुझे जो ठीक लगता है, कर। तुझे किसी की चिंता करने की जरूरत नहीं है। फीस के पैसे मैं दूँगी, चाहे जहाँ से इंतजाम करूँ।”
सच कहें तो आज इसी हिंदी साहित्य के कारण और माँ को विपरीत परिस्थितियों में भी अपने साथ खड़ा देखकर, एक कस्बाई बच्चा साहित्य में ‘प्रकाश मनु’ नाम से विख्यात हुआ।
*
मनु जी की माँ का स्वभाव जितना सीधा और सरल था, उतना ही जटिल स्वभाव पिता का था। उन्होंने बच्चों को कभी अपनी छाती से चिपकाया नहीं या प्रेम के दो मीठे बोल नहीं बोले, लेकिन बच्चों के लिए वे अकसर थैला भरकर फल और मिठाइयाँ लेकर आते थे। अपने बच्चों की सफलता पर उनकी आँखों में एक तरह की दिव्य चमक आ जाती थी, मूँछें फड़कने लगती थीं और आवाज में भी प्रसन्नता महसूस की जा सकती थी।उनका सिर गर्व से तन जाता था, और यही उनका बच्चों से प्रेम प्रदर्शन का तरीका था।
मनु जी के पिता एक सच्चे कर्मयोगी थे और वे कर्म को ही पूजा मानते थे। देश-विभाजन के बाद विस्थापित होकर जब यह परिवार शिकोहाबाद आया, उस समय पिता के संघर्ष को जाना जा सकता है। वे काम करने में ही अपना आनंद खोज लेते थे। उन्होंने जीवन में अपने बच्चों को कोई कमी महसूस नहीं होने दी। मनु जी को भी उन्होंने अपने काम में शर्म न करने, स्वाभिमान के साथ जीने और किसी के आगे सिर न झुकाने की बात सिखाई। पिता के अनुसार, “मेहनत करने से स्वाभिमान पर चोट नहीं आती, दूसरों के आगे हाथ पसारने से स्वाभिमान पर चोट पड़ती है और आदमी को जिंदगी भर इस चीज से बचना चाहिए।”
मनु जी के माता-पिता में एक आदर्श दंपति के सभी विशेषताएँ मौजूद थीं। उन दोनों में कभी-कभी झगड़ा तो हो जाता था, लेकिन उनका प्रेम भी अद्भुत था, जिनमें एक-दूसरे के प्रति आदर का भाव भी शामिल था। स्वयं मनु जी के शब्दों में, “उनका प्रेम शब्दातीत था, वह पिता की मूँछों से फिसलती गहरी मुसकान में व्यक्त होता था और माँ के उस राजमहिषी जैसे गर्व में, जिसके पीछे पिता का प्रेम जीत लेने का विश्वास था।”
बड़ी भैन (बहन) जी और बाऊ (जीजा) जी की यादें भी मनु जी के अंतर्मन में गहरे बसी हुई हैं। उनके अनुसार दोनों की जोड़ी शिव-पार्वती की तरह थी। इसी तरह आत्मकथा में कृष्ण भाईसाहब की भी उन्होंने बड़े आदर से चर्चा की है। उनका हँसना, बोलना, मुसकराना मनु जी को ऐसा लगता था, मानो वे दूसरों के दिलों में प्रकाश कर रहे हों। देश विभाजन के समय अपने परिवार को सहारा देने के लिए कृष्ण भाईसाहब ने अपनी पढ़ाई अधबीच छोड़ दी, जबकि वे सभी भाई-बहनों तथा कॉलेज में भी में सबसे अधिक होशियार थे। इन कठोर संघर्ष के दिनों में उन्होंने अंगद की तरह दृढ़ता से पाँव टिकाकर सबको सहारा दिया। मनु जी आज भी उनके बड़प्पन को याद करके अभिभूत होते हैं और उनके अच्छे कामों और प्रशांत व्यक्तित्व को प्रणाम करते हैं।
‘मैं मनु’ आत्मकथा में मनु जी ने मुन्ने खाँ बिसातखाने वाले को भी बड़े प्यार से याद किया है, जो बच्चों की पसंदीदा चीजें जैसे गेंद, भौंरे, चकरी, फिरकियाँ, गुड्डे-गुड़िया के चमकदार गहने, छोटे-छोटे सुंदर आकृति वाले बर्तन, गुट्टे, ताश और पतंगें बेचा करते थे। वे केवल एक दुकानदार ही नहीं, बल्कि उदार और रहमदिल इनसान भी थे, जिनके दिल में बच्चों के लिए बहुत प्यार था।
इसी तरह मनु जी ने छोटी कक्षाओं में पढ़ाने वाले अध्यापकों को भी बड़े आदर से याद किया है। सबसे पहले वे बड़ी-बड़ी मूँछों औरलंबे चेहरे वाले, लंबे, दुबले और प्यारे नर्सरी के मास्टर जी का स्मरण करते हैं, जिन्हें वे चश्मे वाले मास्टर जी कहकर याद करते हैं। जब मनु जी पहली बार विद्यालय जाते हैं, तब इन्हीं अध्यापक का कुक्कू को ‘घुघ्घू’ कहकर हँसना एक तरह से उसके प्रति मास्टर जी के स्नेह की वर्षा थी।तब से ही मनु ने भी उनका नाम ‘घुघ्घू वाले अध्यापक’ रख लिया था और बाद में इन्हीं अध्यापक के स्नेह को याद करके ‘चश्मे वाले मास्टर जी’ कहानी लिखी। इसमें चश्मे वाले मास्टर जी का पूरा व्यक्तित्व उन्होंने ज्यों का त्यों दरशा दिया है।
पाँचवी कक्षा में हिंदी पढ़ाने वाले, पालीवाल विद्यालय के हेडमास्टर तिवारी जी का भी मनु जी बड़े भावपूर्ण ढंग से स्मरण करते हैं। पुरानी परंपराओं के भक्त और बड़े पौढ़े हुए अध्यापक तिवारी जी, जो अकसर धोती-कुर्ता पहनते थे, का बड़ी रोचक शैली में भावविभोर होकर पढ़ाया हुआ पाठ ‘लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ आज भी उनके मन को झकझोर देता है। बाद में मनु जी नेअपने उपन्यास ‘यह जो दिल्ली है’ में उन्हें मास्टर इतवारीलाल के रूप में चित्रित किया है।
*
प्रकाश मनु ने अपनी आत्मकथा में बचपन में खेले गये परंपरागत तथा नए-नए खेलों के साथ ही उन्हें खेलने के तरीकों का वर्णन भी बड़ी खूबसूरती के साथ किया है। बचपन में कुक्कू अकसर कबड्डी खेला करता था और खासे जोश के साथ खेलता था, जिसमें उसकी लंबी-लंबी टाँगे बहुत काम आती थीं। लेकिन उसी जोश के कारण कई बार विरोधी पक्ष के खिलाड़ियों द्वारा वह पकड़ में भी आ जाता था। ऐसे ही विष और अमृत, किल-किल काँटे, लँगडी कबड्डी, घर-घर, खो-खो, चोर-सिपाही, दुकान-दुकान, पँचगुटी, गेंदतड़ी विभिन्न प्रकार के खेल खेला करते थे। बचपन में गेंदतड़ी में मनु जी की किस तरह धुनाई हुई थी, यह उन्हें आज भी याद है।ऐसे ही एक बार गेंद खेलते हुए कुक्कू की नई नीली गेंद गुम हो गई और बहुत ढूँढ़ने पर भी वह नहीं मिली। पर उसके खोने की कसक को मनु नहीं भूल पाए। बाद में उन्होंने बच्चों के लिए एक कहानी लिखी, ‘शेरू ने ढूँढ़ी गेंद’।इसमें कुक्कू के साथ-साथ उसकी नानी और शेरू का दिलचस्प वर्णन है।
इन सब खेलों में एक खेल ऐसा भी था, जिसमें कुक्कू लाख कोशिशों के बाद भी असफल रहा और वह खेल था, ‘पतंग उड़ाना’। जबकि कुक्कू के श्याम भैया उस खेल के उस्ताद थे। बाद में मनु जी ने इसइच्छा की प्रतिपूर्ति कविताएँ और कहानियाँ लिखकर की और इस कल्पना की उड़ान में उन्होंने मानो मन का उच्छल उत्साह महसूस किया। वे स्वयं कहते हैं, “यों जीवन में कोई सपना पूरा नहीं होता तो वह किसी और शक्ल में ढलकर अपनी प्रतिपूर्ति कर लेता है। पतंग नहीं उड़ा सका, पर कविता-कहानी लिखने के सुख और आनंद में मैंने किसी कदर वह सुख और तृप्ति पा ही ली।”
*
इस आत्मकथा में जो चरित्र सबसे अधिक आकर्षित करते हैं, उनमें मनु जी के श्याम भैया भी हैं। वे मनु से लगभग तीन-साढ़े तीन साल बड़े थे। गोलमटोल, नटखट और शरारती। साथ ही खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने और हर नई चीज के शौकीन थे। वे मनु को बेहद प्यार भी किया करते थे औरमनु भी मन ही मन उन्हें बहुत चाहते थे। मनु जी की कहानियों में जिन नंदू भैया का वर्णन है, वह उनके श्याम भैया ही हैं। प्रकाश मनु ने श्याम भैया के साथ अनगिनत फिल्में देखीं। उनकी साइकिल पर बैठकरमीलों लंबी सैर की। सच तो यह है कि श्याम भैया ने ही मनु को इस दुनिया से परिचित कराया। मनु ने साइकिल भी श्याम भैया और अपने मित्र सत्ते से ही सीखी थी।
श्याम भैया पतंग उड़ाने में उस्ताद थे। उन्होंने एक बार सात पतंगें एक साथ उड़ाई थीं। ‘नंदू भैया की पतंगें’ कहानी में मनु जी ने थोड़ी सी कल्पना का सहारा लेकर इस प्रसंग का वर्णन किया है। हालाँकि श्याम भैया केवल पतंग ही नहीं, बल्कि क्राफ्ट और ड्राइंग में भी माहिर थे। कोई सुंदर घर बनाना हो या झोंपड़ी, फूलों का गुलदस्ता या बाग-बगीचे का कोई दृश्य, उसे वे जीवंत कर देते थे। फिर दीवाली में श्याम भैया का बनाया हुआ कंदील तो अद्भुत होता था। इसका वर्णन करते हुए मनु जी कहते हैं, “रंग-रंग के पन्नी कागज से बनाए कंदील में भी वे अपना पूरा ह्रदय उड़ेल देते। इसके लिए पहले बाँस को काटकर छोटी-छोटी खपचियाँ बनाई जातीं। फिर धागे से उन्हें सुंदरता और मजबूती से बाँधा जाता। और फिर रंग-बिरंगे पन्नी कागज को जब वे सफाई से चिपकाते तो कंदील किसी सुंदर कलाकृति की तरह दूर से मोहता। उसमें दीया रखने का स्थान भी होता था। फिर जब छत पर एक लंबे बाँस पर बाँधकर उसे टाँगा जाता तो दूर से वह किसी सपने जैसा झिलमिलाने लगता था।”
इसी तरह श्याम भैया फिल्मों के बेहद शौकीन थे। उनके साथ देखी गई फिल्मों में ‘छोटी बहन’ की उन्हें याद है। उस फिल्म में छोटी बहन से जुड़े करुण प्रसंग देखकर मनु जी ने पूरी फिल्म रोते-रोते देखी थी और आज भी वे दृश्य मनु को द्रवित कर जाते हैं। इसी प्रकार ‘कैदी नंबर नौ सौ ग्यारह’, ‘मिस मेरी’, ‘काला बाजार’ ‘हम पंछी डाल-डाल के’ के फिल्मों के दृश्य आज भी प्रकाश मनु की आँखों में तैरते हैं। फिर जब श्याम भैया को पता चला कि कुक्कू को फिल्मों से ज्यादा किताबें पढ़ना पसंद है तो उन्होंने सबसे पहले चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह की बाल जीवनियाँ उन्हें लाकर दी। फिर उन्होंने ही प्रेमचंद की कहानियों की किताब ‘प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियाँ’ उन्हें लाकर दी। इसी किताब की ‘बड़े भाईसाहब’ कहानी ने मनु जी को बहुत प्रभावित किया था।उन्हें लगा, अरे, यह तो उनके श्याम भैया की ही कहानी है।
इस आत्मकथा के कुछ अलग से प्रसंगों में सन् 1962 में चीन युद्ध से उपजे हालात का वर्णन भी है। मनु उस समय छठी कक्षा में थे। चीन का भारत पर हमला हमारे देश की स्वतंत्रता, इज्जत और स्वाभिमान पर चोट थी। उस समय नेहरू जी का आकाशवाणी से देश के नाम संदेश आज भी प्रकाश मनु की स्मृति में साफ-साफ दर्ज है। उनकी वह दुख से कातर, चोट खाई हुई आवाज भी वे कभी भूल नहीं पाए, जिससे बूँद-बूँद दर्द और हताशा टपक रही थी और सभी लोग एकदम चुप होकर उसे सुन रहे थे।लेकिन वे स्वीकार करते हैं कि इसी चीनी हमले ने सोते हुए भारत को झिंझोड़कर जगा दिया और यह जागना बहुत जरूरी था। उसी के बाद हमारी सेना ने युद्ध की अभूतपूर्व तैयारियाँ भी की हैं, जिसके कारण पाकिस्तान को दो-दो लड़ाइयों में शिकस्त झेलनी पड़ी है।
*
प्रकाश मनु की आत्मकथा के वे पन्ने बहुत भावनात्मक हैं, जिनमें मनु जी ने अपने शिक्षकों को याद किया है। बहुत से ऐसे शिक्षक होते हैं, जिन्हे हम जीवन भर नहीं भूल सकते और फिर जाने-अनजाने हम उनके आदर्शों पर चलने लगते हैं। मनु जी के जीवन में भी ऐसे बहुत से शिक्षक आए, जिनका प्रभाव उनके मन-मस्तिष्क पर पड़ा।
इनमें अंग्रेजी के अध्यापक राजनाथ सारस्वत एक विलक्षण और अद्वितीय अध्यापक थे। वे पढ़ाते समय बिल्कुल डूब जाते थे और नाटकीय अंदाज में पढ़ाते थे, जिससे पूरी कक्षा में जादू सा बिखर जाता था। मनु जी को उनका पढ़ाया हुआ पाठ ‘अंकल पोजर हैंग्स अ पिक्चर’ अब भी याद है। इन्हीं राजनाथ सारस्वत जी पर बाद में मनु जी ने ‘जोशी सर’ कहानी लिखी। अंग्रेजी के ही एक खुशदिल अध्यापक मिस्टर खुराना भी थे, जिनकी मधुर स्मृति आज भी मनु जी के मन में है। वे इंटरमीडिएट में अंग्रेजी पढ़ाते थे और इस कदर मुसकराते हुए से, एकदम अनौपचारिक अंदाज में अंग्रेजी पढ़ाते थे कि मजा आ जाता था। आज भी मनु जी के मन में उनकी छवि आदर्श अध्यापक के रूप में है।
गिरीशचंद्र गहराना, जो मनु जी को इंटरमीडिएट में गणित पढ़ाते थे, सचमुच गणित के जादूगर थे। वे खेल-खेल में गणित के सवाल हल कर देते थे और विद्यार्थियों की बड़ी से बड़ी समस्याओं को बस एक मामूली इशारे से सुलझा देते थे। उनकी खासियत यह भी थी कि वे कभी क्लास में एक मिनट तो क्या, एक सेकंड भी बर्बाद नहीं करते थे। उन्हीं के साथ-साथ विज्ञान विषय के लक्ष्मणस्वरूप शर्मा जी थे जिनका अनुशासन बड़ा सख्त था।वे स्वभाव से बड़े धीर, गंभीर और स्वाभिमानी थे। इनकी भी शिक्षण कला अद्भुत थी। उन्हें ट्यूशन पढ़ाना बिल्कुल पसंद नहीं था। ऐसे ही हाई स्कूल में गणित पढ़ाने वाले शिक्षक लालाराम शाक्य जी को भी मनु जी ने बड़े प्यार से याद किया है। शाक्य जी कलाकार तबीयत के और बड़े खुशदिल अध्यापक थे। वे गणित को एकदम सरल सुबोध बनाकर पढ़ाते थे। लेकिन कुछ दिन पढ़ाने के बाद वे कहीं और चले गए। उनका जाना विद्यार्थियों को बहुत अखरा।
मनु जी ने हिंदी के दो अध्यापकों का भी जिक्र किया है। इनमें एक हैं साहित्यप्रकाश दीक्षितऔर दूसरे जगदीशचंद्र पालीवाल। दोनों कवि-मना व्यक्ति थे, जिन्हें देखकर छात्रों में भी साहित्यकार होने की कामना उत्पन्न होती थी। मनु जी को भूगोल पढ़ाने वाले ‘हपप साहब’ कुछ अजीब किस्म के अध्यापक थे, जो विषय को बड़े नीरस और बेमजा ढंग से पढ़ाते थे। हालाँकि बड़ी अनोखी शख्सियत वाले ‘श्रीमान मिसीसिपी मिसौरी’ ने भी उन्हें भूगोल पढ़ाया था, जो अत्यंत सक्रिय थे और बच्चों को हर वक्त पढ़ने के लिए हड़काए रखते थे।
पालीवाल इंटर कॉलेज के ऐसे भी दो अध्यापक थे, जिन्होंने मनु जी को पढ़ाया नहीं, लेकिन उनकी गहरी छाप उनके मन पर पड़ी। इनमें एक हिंदी के आचार्य किस्म के अध्यापक शांतिस्वरूप दीक्षित थे,और दूसरे अंग्रेजी के ‘शांतमना’ ओंकारनाथ अग्रवाल। शांतिस्वरूप दीक्षित जी हिंदी भाषा और साहित्य के बड़े विद्वान थे। मनु जी के लेखक बनने में उनकी बड़ी भूमिका है। ऐसे ही पालीवाल इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्य रामगोपाल पालीवाल भी अपने आप में एक लीजेंडरी फिगर थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन इसी कॉलेज के लिए समर्पित कर दिया।
मनु जी मानते हैं कि कुछेक को छोड़ दिया जाए तो सचमुच उन्हें प्रतिभाशाली अध्यापक मिले जो अच्छे और आदर्श अध्यापक थे। उनसे पढ़कर वे स्वयं को भाग्यशाली महसूस करते हैं और उन्हें अपने अध्यापकों पर अभिमान है।
*
आत्मकथा में प्रकाश मनु ने बाल्यावस्था और किशोरावस्था के बीच बड़ी ही सूक्ष्म किंतु स्पष्ट विभेदक रेखा खींचने की कोशिश की है। वे लिखते हैं, “शायद बचपन में हमें सीधे-सरल खेल और मनोरंजक कल्पना वाली कहानियाँ अच्छी लगती हैं, पर किशोरावस्था में हम कल्पना से थोड़ा-थोड़ा यथार्थ की दुनिया की ओर बढ़ने लगते हैं। कल्पना की दुनिया अब भी अच्छी लगती है, पर मन कहता है कि वह ऐसी कल्पना हो, जिसमें हम खुद नायक या महानायक की तरह किसी बड़े साहसी अभियान पर निकलते हैं, बड़ी से बड़ी बाधाओं से लड़ते हैं और उन्हें परास्त कर देते हैं।”
ऐसे ही मनु जी जब किशोरावस्था से निकलकर तरुणाई की अवस्था में पहुँचे, तो उन्हें बहुत कुछ अपने भीतर-बाहर बदलता महसूस हुआ। सफलता से भी बड़ी चीज उन्हें जीवन की सार्थकता लगने लगी। हाई स्कूल की परीक्षा पास करके वे इंटरमीडिएट में पहुँचे, तो उनके भीतर मानो एक विद्रोही भी पैदा हो गया, जो बहुत कुछ कर डालना चाहता था। उस समय कॉलेज के उस कमरे में जहाँ उनकी कक्षा लगती थी, खिड़कियों के पल्ले नहीं थे। इससे सर्दी के दिनों में बहुत परेशानी होती थी। फिर जो बच्चे हिंदी में ‘उपस्थित श्रीमान’ कहकर हाजिरी बोलना चाहते थे, उन्हें इसकी अनुमति नहीं थी। इसलिए मनु जी ने क्लास में ब्लैकबोर्ड के नीचे बैठकर अनशन शुरू कर दिया था। इससे पूरे छात्र और अध्यापक हक्के-बक्के रह गए थे।
इस पर मनु जी को घर में डाँट पड़ी तो इस आक्रोश के कारण वे घर से भाग गए। उस समय उन्होंने विवेकानंद जी को पढ़ना शुरू कर दिया था और उनके विचारोंके कारण उनके भीतर एक नया जोश और दुनिया-समाज को बदलने का जज्बा आ गया था। उन्होंने सोचा कि वे कुछ बनकर घर लौटेंगे। बाद में घर से भागने की इस पूरी घटना को प्रकाश मनु ने ‘गोलू भागा घर से’ बाल उपन्यास में बड़ी संजीदगी के साथ लिखा है।
अपनी आत्मकथा ‘मैं मनु’ में प्रकाश मनु स्वयं स्वीकार करते हैं कि वेभावुक और स्वप्नदर्शी थे और बचपन की अनेकघटनाओं को देखने से इसकी सत्यता भी प्रमाणित होती है। उन्होंने पुस्तकें पढ़ना ही जीवन का एकमात्र ध्येय बना लिया।वे जब भी कोई पुस्तक पढ़ते थे, उनको स्वयं का भी होश नहीं रहता था। मनु जी को अपने घर में ही अपार साहित्य पढ़ने को मिला, इसमें उनके बड़े भाई, जगन भाईसाहब का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है।जगन भाईसाहब ने हिंद पॉकेट बुक्स की घरेलू लाइब्रेरी योजना के तहत सौ-दौ सौ अच्छी पुस्तकें मँगवाकर घर में ही बड़ा समृद्ध पुस्तकालय बना लिया था। यह मनु जी के लिए किसी दुर्लभ उपहार से कम न था।
मनु जी ने किशोरावस्था में ही प्रेमचंद, शरतचंद्र और रवींद्रनाथ ठाकुर को जमकर पढ़ा और पढ़ते-पढ़ते ही साहित्य सृजन में ऐसे रत हुए कि एक छोटे से कसबे का कुक्कू आगे चलकर हिंदी साहित्य में प्रकाश मनु बनकर उभरा। आज उन्हें पूरा देश जानता है। सन् 2010 में उन्हें बाल उपन्यास ‘एक था ठुनठुनिया’ पर साहित्य अकादेमी का बाल साहित्य पुरस्कार मिला।
प्रकाश मनु की आत्मकथा ‘मैं मनु’ में उनके लेखक होने की कहानी बड़े रोचक ढंग से सामने आती है और पाठकों के दिलों पर अपनी गहरी छाप छोड़ती है। मेरी कामना है कि वे बाल साहित्य के क्षेत्र में निरंतर नया सृजन करें और बच्चे इसी तरह प्यार से उनकी कृतियों को पढ़ते हुए अच्छे, संवेदनशील इनसान बनें।
लंबी समीक्षा है किंतु रोचक है ।आजकल के व्यस्त जीवन में पढ़ने का समय निकालना ही बहुत बड़ी उपलब्धि है। भाऊ राव महंत को बधाई ।मूल लेखक मनु जी को नमस्कार ।।
प्रणय श्रीवास्तव अश्क
लंबी समीक्षा है किंतु रोचक है ।आजकल के व्यस्त जीवन में पढ़ने का समय निकालना ही बहुत बड़ी उपलब्धि है। भाऊ राव महंत को बधाई ।मूल लेखक मनु जी को नमस्कार ।।
प्रणय श्रीवास्तव अश्क