1 – ‘जीवन है क्षणभंगुर’
मौत मुक़र्रर है; इतना घबराना क्यों?
दो पल की जिंदगी है; जियो और जीने दो
इतना क्या कमाना और संजोना
सब तो यहीं रह जाना है
दुनिया में जो आया है; उसे तो एक दिन जाना है
जीवन है क्षणभंगुर; इतना अफ़रा- तफ़री क्यों?
सारा जीवन लगा देते हो
यश, धन, शोहरत एवं सत्ता प्राप्ति में
इसके लिए छल, छदम, राजनीति
घृणा, तृष्णा और लोलुपता के षडयंत्रों में
खुद को क्यों जकड़ते हो?
भ्रमवश ऐसा लगता है, जैसा कि तुम अमर हो
तुम्हें इस दुनिया को छोड़ नहीं जाना है
वास्तविकता को तुम क्यों झुठलाते हो?
जीवन है क्षणभंगुर; इतना अफ़रा- तफ़री क्यों?
क्या तुम्हें ‘कोरोना’ ने कुछ नहीं सीखाया
जब लिया उसने अपने चपेट में
पराये तो क्या; अपने सगे भी हो गयें थे तुमसे दूर
अकेले कराहते व तड़पते रहे तुम
तब न कोई दौलत व शोहरत काम आई
तुम्हारे कुछ अच्छे कर्मों या खुदा का रहा शुक्र
जो तुम्हे नया जीवन मिला; अब तो तुम संभल जाओ
जीवन है क्षणभंगुर; इतना अफ़रा- तफ़री क्यों?
कितने बदनसीब थे वे, जिन्हें
न दो गज़ ज़मीन मिली और न हीं कंधों का सहारा
यहाँ तक कि अंतिम क्षणों में
प्रियजनों को भी न देख पाया
अब तो खुद को न भरमाओ
जीवन है क्षणभंगुर; इतना अफ़रा- तफ़री क्यों?
2 – भेद
प्रकृति की देन हैं
हम भी अनमोल हैं
हाड़- मांस के बने हैं हम भी
हमारे अंदर भी है
बुद्धि, विचार, संघर्ष, और संवेदना
फिर भी हम अबला और
तुम सबल कैसे?
स्त्री- पुरुष में
इतना भेद कैसे?
माँ, बेटी, बहन
बहु,पत्नी व संगिनी
न जाने कितनी हीं
जिम्मेदारियों का निर्वहन करतीं
फिर भी रह जातीं हैं हम
सिर्फ एक स्त्री
जब हम अकेले में होतीं
या घर से बाहर निकलतीं
रह जातीं बस
एकमात्र गोश्त का लोथरा और
वहशी नज़रों की तृष्णा
हर वक़्त संशय के साथ
जीवन जीतीं और रह जातीं
सिर्फ एक स्त्री
तुम्हारी निर्मिति भी तो
हाड़- मांस से हीं हुई है
पर तुम्हें तो हम
वहशी और अतृप्त
नज़रों से नहीं घूरते
तुम शान से घूमते
और हम डर में जीते
जब तक हम घर न आते
परिवारवालों की अटकी रहती सांसे
तुम ये क्यों भूल जाते हो
हो सकती हैं, हमारी जगह
तुम्हारी माँ, बहनें, पत्नी
बहु व बिटियां, तब
तुम क्या करोगे?
तब भी तुम क्या
वहशी- तृष्णा का साथ दोगे?
इतिहास गवाह है
जब भी प्रकृति से
खिलवाड़ हूआ है
प्रकृति ने खुद ही
इसका जवाब दिया है
क्योंकि, हम भी
प्रकृति की देन हैं
हम भी अनमोल हैं
इसमें न तुम भेद करो!