होम कविता पल्लवी विनोद की दो कविताएँ कविता पल्लवी विनोद की दो कविताएँ द्वारा पल्लवी विनोद - October 2, 2022 136 1 फेसबुक पर शेयर करें ट्विटर पर ट्वीट करें tweet 1 – सुनो पुरुष सुनो पुरुष! हम औरतों की दुनिया के खलनायक तुम नहीं हो कि अपनी हर अच्छी और बुरी स्थिति का दोष हम तुम्हारे माथे मढ़ें जब तुमने शास्त्र लिखे तो हममें से किसी ने नहीं कहा कि इसमें कुछ ‘सुधार करो’ कोई शकुंतला, कोई रजिया किसी को तो कहना था ‘प्रतिकार करो’ हमने सभी बातें बस इसलिए स्वीकार कीं कि तुम सिर्फ़ हमें ‘प्यार करो’ जब तुमने नियम बनाए तो भी हम चुप बैठी रहे चार भी कहते “नहीं मानेंगे” तो शायद बदलाव आता असल में पट्टी सिर्फ़ गांधारी ने नहीं बांधी थी वो प्रतीक थी हमारी उस बिरादरी का जिसे तुमसे श्रेष्ठ होना ही पाप समान लगा और तुम्हें खुश रखने के लिए उन्हें अन्य पाप करने में तनिक भी संकोच नहीं हुआ ना सीता सी सुकुमारी के वन प्रवास पर ना अहिल्या के शिला में बदलने की बात पर असल में इंद्राणी सिर्फ़ एक पत्नी थीं उनको शाप देने का न अधिकार था ना सामर्थ्य द्रौपदी के वास्तव दोषी भी तुम नहीं तुम्हारी माँ थीं जो तुम्हें पासा पलटते देखती रहीं और आज भी जब एक औरत अपने नीले निशान मेक अप से छिपाती है तो भी दोषी तुम नहीं उसकी अपनी दुनिया है जो कहती है “पुरुष मुझे तुम्हारे पीछे चलना अच्छा लगता है” जो किसी मुखर औरत के चरित्र की व्याख्या करने में थोड़ा भी नहीं घबराती है एक विद्रोहिणी को चरित्रहीन बताने में जिसे तनिक भी लज्जा नहीं आती है। हाँ पुरुष! तुम मत घबराना औरतों की हाय से वो तो तुम्हारी चरित्र हीनता का दोष भी दूसरी औरत के सर ही मढ़ देगी और दूसरी औरत भी यही कहेगी पहली औरत ही बड़ी अजीब है जो तुम्हारे जैसे बेचारे को सम्भाल नहीं पाती है। तुमने अपनी माया का द्यूत इस तरह सजाया है कि हर पासा तुम्हें ही जिताता है यहाँ दुशासन भी हम और द्रौपदी भी हम ही हैं। 2 – दर्द की संतान उसने कहा, तुम मेरी जैसी कभी ना बनना उस उक्ति का अभिप्राय समझती उससे पहले ही बोल उठी तुम्हें शांत दिखती हूँ पर बहुत शोर है मेरे भीतर सागर की आवाज़ रात में सुनी है कभी वही शोर जो बारिश के मौसम में पहाड़ों से उतरता है कहने को नयनाभिराम पर उसके अंदर का उफान कहीं ठहरने ही नहीं देता। नहीं आया मुझे, अब तक संवरना कि बिखरेपन को कलेजे से चिपकाए हर सुबह–शाम सजने की कोशिश में प्रतीक्षा की राख का काजल लगा कर होठों पर लीपती हूँ अग्नि का ताप माथे पर चिपकाती हूँ जेठ की दहक वहीं खिल उठते हैं कुछ पलाश अग्नि से जन्मे, जंगल के फूल इस सूने बियाबान में मिलते हैं। मेरे अंदर नागफनियों की झाड़ है उनके कांटे किसी को नहीं दीखते बस मुझे चुभते हैं सच तो ये है कि नहीं आता मुझे एक खत भी लिखना बादलों को भी कहाँ आता है बरसना जब भी भर गया, बरस गया कभी दर्द में सिसकता, कभी फूट के रोता उसका दर्द जब मेरे मन में भर जाता है कविता बन बरस जाता है। कविता और बारिश एक दूसरे की जुड़वा बहनें हैं दोनों ही दर्द की टीस से जन्मीं, दर्द की संतान हैं। संबंधित लेखलेखक की और रचनाएं लता तेजेश्वर ‘रेणुका’ की कविता – समुद्री उफान अमित ‘अनहद’ की कविताएँ हरदीप सबरवाल की कविताएँ 1 टिप्पणी बहुत सुन्दर शब्दों में अनंत तक गहरी बातें, वाह, वाह, वाह, हार्दिक साधुवाद जवाब दें कोई जवाब दें जवाब कैंसिल करें कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें! कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें आपने एक गलत ईमेल पता दर्ज किया है! कृपया अपना ईमेल पता यहाँ दर्ज करें Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment. Δ This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.
बहुत सुन्दर शब्दों में अनंत तक गहरी बातें, वाह, वाह, वाह, हार्दिक साधुवाद