1 – अल्पसंख्यक
सर्वव्यापक शब्द को परिभाषित करते हुए,
वो मिल जाते है, हर सभ्यता में
हर देश, हर शहर, हर गांव में,
बिखरे हुए भूमध्य से लेकर बर्फीले ध्रुवों तक,
उनकी मान्यताएं अलग अलग हो सकती हैं,
उनकी आस्थाएं भी भिन्न भिन्न हो सकती हैं,
नाक नक्श, रंग रूप और देह की बनावट में
कितनी भी असमानताएं नजर आएं
लेकिन उनकी समस्याएं एक जैसी ही होती,
वो प्रवासी नहीं होते कि याद करें किसी अपनी मिट्टी को,
लेकिन प्रवास के दंश को उनसे बेहतर कौन समझ सकता,
गेंहू के खेत में किसी मेड़ पर उगी मकई जैसे,
विशाल जल समुन्द्र के अंदर ही बहती किसी अलग जलधारा जैसे
अपने में मगन
अपनी मान्यताएं, अपनी आस्थाएं और अपनी समस्याएं भी
एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक स्थांतरित रखने का
और अपने वजूद को कायम रखने का माद्दा रखते हैं……
2 – तीसरे दर्जे की कविता
तीसरे दर्जे की कविता
तीसरे दर्जे के आदमी सी ही
हद दर्जे की अशिष्ट, सड़क के ठीक किनारे खड़ी होकर
पेशाब करती
उसी दीवार के पास जिस पर लिखा है
बड़े बड़े अक्षरों में
पेशाब करना मना है
और दुर्गंध से भर देती वातावरण को,
टीवी पर न्यूज एंकर चीख चीख कर कहता है
सच, सच, सच
तीसरे दर्जे की कविता खिल्ली उड़ाती
झूठ, झूठ, झूठ
बड़े पर्दे पर अधिनायक बिखेरता
भव्यता, विशालता, श्रेष्ठता
तीसरे दर्जे की कविता तालियां पीटती, सीटियां बजाती
लेकिन सीटी से, हर ताली से धुन निकलती
बौनापन, क्षीणता, हीनता
राष्ट्रपति अपने अभिभाषण में उपलब्धियों का बखान करते,
तीसरे दर्जे की कविता अपने अधनंगे , क्षय होते शरीर को जर्जर कपडे से ढक आंखों में चमक भरती,
उपलब्धियों के जूठन से भूख मिटाती,
बड़े कोचिंग संस्थान , बड़ी तस्वीरें लगाते आई आई टी, मेडिकल पास ऑउट की
तीसरे दर्जे की कविता बोरी उठा कूड़ा बीनने निकल पड़ती,
तीसरे दर्जे की कविता
किताबो में दर्ज नहीं होती
मंचो पर नहीं पहुंच पाती
रद्दी कागज़ पर रद्दी के भाव पड़ी रहने वाली
जाहिल और जंगली
सच
सभ्यता का तकाजा यही है
रौंद देना तमाम निशान असभ्यता के
आइए, सब मिल कर मिटा देते हैं नामोनिशान
इस तीसरे दर्जे की कविता का

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