मिटाएं दिल से सदियों की अदावत
चलो हम एक हो जाएं।
बुरी है चीज़ यह नफ़रत निहायत
चलो हम एक हो जाएं।
वो क्या दिन थे जब हम दो जिस्म
और इक जान होते थे
किसी ने खेल दी हम में सियासत
चलो हम एक हो जाएं।
न तुम समझे न हम समझे,
उलझ बैठे न जाने क्यों
हमें तो है, तुम्हें भी हो निदामत
चलो हम एक हो जाएं।
तुम्हारा हक़ ब-ज़ाहिर है,
हमारा हक़ भी है बे शक
अरे छोड़ो भी यह लानत मलामत
चलो हम एक हो जाएं।
मोहब्बत की ज़मीं पर
बीज बोया किसने नफ़रत का
न हो फिर से अमानत में ख़यानत
चलो हम एक हो जाएं।
वो बाबर था कि औरंगजेब
था जो भी था जैसा था
वह बन कर रह गए सारे हिकायत
चलो हम एक हो जाएं।
खता जुम्मन की थी गर तो,
सज़ा कल्लन को किस बाबत
थी बे-इंसाफ वो किसकी अदालत
चलो हम एक हो जाएं।
नहीं सुननी है उनकी बात
जो नफ़रत सिखाते हैं
करें मिल-जुल के बग़ावत
चलो हम एक हो जाएं।
बहुत अच्छी कविता है आपकी फारुकी जी! काश इसे सब पढ़ पाएँ और समझ पाएँ। अमल की बात तो फिर क्या ही कहें! काश कि अमल हो जाए इस पर।