ठंड से बोझिल हवा खुले प्लेटफार्म पर
गरमाहट को खोंचती मफ़लर के किसी कोने से
फिसल कमर में कहीं एक सर्द छुअन मेरी नसों में जमाती दर्द की जड़ें,
कुछ देर में तकलीफ़ का जाम लग जाएगा वहाँ
कमर दबाए मैं खोजूँगा बैठने के लिए कोई जगह
छीन लेना चाहती है परती धरती मुझ से अपना हिस्सा
उसकी दरारों में गिरता मेरा सपना
चहलकद़मी में कुचला जाता वह रसीदी टुकड़ा
जिसमें किसी सहारे को टटोलता समय के अँधेरे में
एक ओर झुकती स्मृतियों में भंगुर मेरे प्रतिबिम्ब का दिनमान
मैं छोड़ देना चाहता हूँ वह अपनापन जिसे
कोई गुमनाम थमा दे गया मेरा नाम लिखकर अपनी लिखी
एक परची पर
कि तुम कौन हो
घटती संभावनाओं से घिरा मैं अपने उद्वेलन में
टाइम टेबल देखते ओट देता कांपते पोरों में क्षीण उष्मा को
सिमटते क्षितिज में किसी मंज़िल को पहचानते,
कि मुझे नहीं मिल पाते सही शब्द कभी तर्पण के लिए
पत्थरों पर जमी सूखती दूब में बिसरी हवा को सुनते,
फिर अतृप्त रह जाएँगे पुरखे इस साल भी पितृ-पक्ष में
यहाँ बहुत देर से मैं रुका रहा किसी अन्यत्र की टोह में
जो यहाँ नहीं है उपस्थित बचे दिन की धूप के कतरे की सेंक में खड़े,
किसी भी पल शाम बन सकती है दोपहर इधर-उधर
समय बीतता ही है कहीं पहुँचने के लिए हमेशा
पर नहीं कभी रह जाता मुझे लगता जैसे मेरे लिए
सब मेरी हथेली पर ही लिखा मिटता अपने आप ही
अब यहाँ दिखते नहीं रूडबेकीया के पीले फूल प्लेटफॉर्म पर
पिछले बरस पैदल पुल नया बना थोड़ा और ऊँचा
कि आसपास लोगों ने नये परदे ख़रीदे अपनी खिड़कियों के लिए
स्टेशन के म्यूरल की नयी रंगाई में खो गया है वर्तमान
नये अतीत में अपनी फिर से गढ़ने उसी परिकथा को
बाँचता था जिस पर बीत गई रंगतों का आस पड़ोस कभी,
अपनी बोली, अपनी अस्मिता के साथ
जिसकी पटरी पर अपनी भाषा में आज कर लेते हम तुम सफ़री
अपना अनुवाद
देखते राह अगली गाड़ी कि सही है फौरी एक ही रास्ता
भटकते, इस भरोसे कि मिल जाएगा पता
आसरा दे सकूँ कि अपने भय को इस पहर को टटोलते
कि सोच सकूँ मन के सन्नाटे में तुम्हें कुछ कहने
वहाँ मैंने तुम्हें देखा एक गुलाबी बीएमएक्स साइकिल के साथ
क्या तुम्हें ठंड नहीं लग रही मैंने सोचा,
अपने ऊनी कोट की जेबों में रसीदों और चाबी के गुच्छे के बीच
मैं कुछ टटोलता पर वह साहस वहाँ नहीं था पूछने के लिए,
मेरे पास मन के रिक्त स्थानों में
कि तुम ठीक तो हो
तुमसे पूछने तुम उदास क्यों हो
झुके सिर गीली क्यों तुम्हारी आँखें ?
प्यारे विन्सेंट क्या यह दिसम्बर कभी ग़लत दिनों की गिनती ही रह जाएगा
हमारे चुके हुए पेड़ों के दृश्य में
याद आया मुझे कोई दिन कई सालों के बीच एक
उस साल बहुत गरमी पड़ी
ग्रस गई बोगनवेलिया को दीवार घर के बाहर
फिर बारिश आई सूखी दीवार गिर गई अपनी नींव में ही,
एक बीज उड़ कर कहीं गिरा था आँधी में उसी बेल का कभी
जनमा वह गिरती बूंदों में डूब
उनींदे समुंदर के सपनों से भीगता तुम्हारे प्रेम का क्षितिज
जो टूटते हैं अपनी ही संरचना में गिराकर घरौंदा मेरा
अन्तर्देशीय पर लिखा वह कोई पता था
पुरानी दिल्ली में जो अब लापता
इस तरह
सुन्दर सृजन, शब्दों का अद्भुत चयन
धन्यवाद शैली जी