चौंकते क्यों हो मुझे सिगरेट पीता देख के? क्या हुआ पी ली सुरा ठेके पे मैंने बैठ के? क्या हुआ जो ले लिया सुट्टा चिलम को थाम के छान कर के पी गई कुल्हड़ अगर मैं भांँग के? जिस्म उघड़ा है अगर, हैरान क्यों हो देख के? मर्द यह सब कर रहा है खूब सीना तान के लोक लज्जा से नहीं रुकता खड़ा है शान से
वर्जनाएं क्यों बनी हैं सिर्फ़ औरत के लिये? त्यौरियां चढ़ती हैं सुन कर गालियाँ मुँह से मेरे पहन लूँ मैं अगर निक्कर घूरते हैं सब मुझे देख कर कपड़े खुले, बेशर्म कहते हैं मुझे फर्क़ कितना है नज़र में मर्द औरत के लिए.. क्यों बने हैं नियम सारे, सिर्फ़ औरत के लिए?
सिर ढको, निकलो न बाहर ग़लत समझेंगे तुम्हें! पुरुष से डर का निवारण पुरुष ही करते रहे हँसी आती है मुझे ये, प्रथा चलते देख के यदि पुरुष ख़ुद को नियंत्रित कर सके कुछ यत्न से ना रहेगी कुछ वज़ह औरत को पहरे के लिए खोट नज़रों में पुरुष की, ढंक दिए मुँह औरतों के यह कहाँ का न्याय है डरती रहें क्यों औरतें?
सभ्यता का दंभ भरते, न्याय करते पुरुष जन! तुम सुधारो ज़ात अपनी वर्जनाएं सीख कर सड़क पर फिकरे कसो, दारू पियो, सिगरेट पियो सिर्फ़ कच्छे में सड़क पर घूम लो, गाली बको क्षम्य क्यों है किस तरह क्यों सह्य इसको मानते? क्यों नहीं अश्लीलता को नए ढंग से बाँचते सिर्फ़ ढांचे के अलावा क्या अलग है औरतों में? दोष क्या है औरतों का, क्यों बंधी हैं बेड़ियों में? अनियंत्रित आचरण करता पुरुष है औरतों से दृष्टि बर्बर पुरुष की, तन ढंँक रही हैं औरतें जबरदस्ती पुरुष की, बदनाम होतीं औरतें मर्द अत्याचार करता, डर रही हैं औरतें, मर्द छुट्टा घूमता, घर में घुसीं हैं औरतें,
क्या ग़लत मैं कह रही हूँ आप बतलायें मुझे कौन जिम्मेदार है यह सत्य दिखलायें मुझे औरतें क्यों हीन हैं ये राज़ समझायें मुझे क्या ग़लत है क्या सही क्यों मर्द सिखलायें हमें क्यों नहीं सम दृष्टि से हैं मर्द ख़ुद को तोलते भाव कुत्सित पुरुष के, दण्डित रही हैं औरतें प्रागैतिहासिक काल बन्दी रही हैं औरतें… आज इस पाखण्ड को खण्डित करेंगी औरतें
बहुत हो सही और सराहनीय कदम है। जो आज और युगो से होते रहे विकृति को समाज के सामने लाने का प्रयास किया है।
धन्यवाद उषा जी ।आपकी टिप्पणी महत्वपूर्ण है
शैली जी की कविता
चौंकते क्यों हो
आधी दुनिया के हृदय की आवाज़ है.
सुन्दर रचना के लिए उन्हें बधाई.
हार्दिक धन्यावाद, आप की सकारात्मक टिप्पणी के लिए
बहुत ही बेहतरीन कविताएँ
धन्यवाद नंदा जी।