स्त्री प्रेम में
छली जाती है।
ऐसे पुरुष के
हाथों जिसे
वे अपना
सब कुछ
समर्पित कर
देती है।
बार-बार
छली जाती है।
कभी परिवार
के हाथों
कभी ससुराल
के हाथों।
आखिर क्यों
छली जाती है?
क्या वह
कमजोर है।
ना ना… वह
कमजोर नहीं
वे तलाशती
है उन
मजबूत
कंधों को
जो सहारा दे।
क्या मिल
पाते हैं मजबूत
कंधे ?
जिनकी चाहत
में वह
भटकती है।
जिसके कारण
करती है
अपने मान- सम्मान
का खून
चंद खुशियों
के लिए लगती
है अपनी आत्मा को
दाव पर
स्त्री प्रेम में
छली जाती है।
स्वयं छली
जाती है।
या कोई
छलता है।
कोई नहीं
छलता…
सब स्त्री पर
निर्भर करता है।
क्यों टेकती है
मजबूरी के
आगे घुटने
क्यों नहीं
करती विद्रोह
क्या वह
उस पुरुष
से अंतर्मन से
प्रेम करती है।
या क्या डर
सताता है।
कोई जला देगा।
या कोई
मार देगा।
स्त्री प्रेम में
छली जाती है।
कहने को तो
आज हम
आधुनिक युग
में है।
तब भी
तो छली
जा रही है।
प्रेमवश
स्त्री प्रेम में
छली जाती है।
हो कौरवों
की सभा
या हो राम
राज्य
स्त्री मोहवश
छली जाती है।
स्त्री प्रेम में
छली जाती है।

8 टिप्पणी

  1. सुंदर आत्मभियक्ति पूर्ण कविता। स्त्री शक्ति है उसे पहचानते हुए आगे बढ़ने की जरूरत हर युग में रही है।

  2. बहुत अच्छी व सच्ची कविता है मुक्ति जी !सही में स्त्री प्रेम से सबको जीतने का प्रयास करती है और फिर इसी प्रेम से छली भी जाती है।

  3. जी स्त्री के बोलेपन का सभी फायदा उठाते हैं इसीलिए छली जाती है, स्त्री को इसका विरोध करना चाहिए।

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