फागुन के महीने की यह चुलबुली धूप,
दैया  रे दैया ! कितनी तो नटखट है !
अगहन-पूस की लम्बी चुप्पी के बाद
माघ के महीने में गंगा नहा कर,
धुल-पुछ कर  यह, चमक कर निकली है

सर्दी से जमे
मेरे हड्डियों के जोड़ों को
पिघला  देने की खातिर,
मुझको सवेरे ही अंगने में बुलाती है,
कुछ देर प्यार से ,मेरे जमे जोड़ों को
सहलाती,दबाती और गर्माती है,
पर तभी धीरे- से
इसकी सहेली- सी,
फागुनी बयार
इसके पास चली आती है  ,

मुझको गरमाना-तपाना,सहलाना भूल,
दोनों सहेलियां आपस में छुआ-छुऔवल खेलने लग जाती हैं,
देखकर इनकी चुहल भरी छुवल-पकड़
आकाश में तैरती
बावरी एकाधी
फागुनी  हल्की बदरी,
चुहल का मौका भला कहां छोड़ पाती है ?
पकड़ कर खींच देती है धूप का दुपट्टा,
सहसा धूप की चमक धीमी पड़ जाती है,
देखकर उलझन अपनी सहेली की
बेचारी बयार भी तब मानो ठिठक जाती है,
धूप -बदरी- बयार के इस बासंतिक खेल में
धूप स्नान करने की मेरी सुखद चाह
कुछ न कुछ ,आधी -अधूरी  रह जाती है,
धूप से गर्माते, लेकिन बयार से ठंडाते गात से
मैं अपने कमरे में  वापस चली आती हूँ,
शॉल को अपने इर्द-गिर्द धीरे से लपेटकर
खिड़की से बाहर इठलाती
इस तिकड़ी का खेल देख ,
थोड़ा मगन होकर मैं मन में मुस्कुराती हूंँ,
बसंत के मदमादते थोड़े से  दिनों का,
इन किशोरियों का यह खेल
मनभावना है…
दो-चार दिनों में ये सयानी हो जायेंगी
फिर तो सबको अपने-अपने  काम पर लग जाना है,
धूप को पकानी हैं खेतों की फसलें
सागर का पानी  भी उसे ही  तपाना है ,
बदरी को जाना है सागर तक दौड़ कर
सागर से जल गागर भर भर कर लाना है
फागुनी बयार को भी पुरवाई बनकर,
बरखा की ऋतु में सावन  बरसाना है।।।

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