1) पुनर्नवा प्रेम
आओ एक बार हम अतीत में चलें
जब मिलन के लिए होते थे व्याकुल
किसी नदी किनारें बैठें बहुत देर तक
देखें शाम उतरती है कैसे जल और थल में।
किसी पहाड़ी झरने के पास बैठकर
देखें, जल को झर- झर गिरते नदी में
सुदूर गाँवों से आती नगाड़ों की थाप पर
करें गूटरगूँ कबूतरों की तरह लयबद्ध।
आओ चलें दूर किसी भव्यतम मन्दिर में
जहाँ बैठ सकें निर्द्वन्द्व बगिया के चबूतरे पर
भविष्य की योजनाएँ बनाएँ मिलजुलकर
परस्पर थामे हाथ नजरों से सहलाकर ।
आओ चलें शिक्षालय के विशाल परिसर में
पहचानें उन स्थलों को जो साक्षी थे मिलन के
अँखुवाते प्रेम व चमकती आँखों के सहचर
हरी नरम दूबों पर करें चहलकदमी देर तक।
आओ चलें भीड़ वाली किसी लंबी सड़क पर
किसी दूकान पर बैठ चाट खाएँ जीभर
किसी पार्लर से खरीदें चाकलेटी आइसक्रीम
खाएं- खिलाएँ मुस्कुराये, जीएं पल-पल को।
आओ देखने चलें फिल्म किसी माॅल में
जगाएं स्मृतियों में प्रेम के किरदारों को
जो मिला करते थे लुक-छिपकर अक्सर
करें पुनर्नवा प्रेम को जो हुआ पच्चीस का।
निष्ठा का निकष है साठ पार का प्रेम
बाहों की निर्भरता चढती जाती हैं सीढियाँ
प्रार्थनाओं में संग बने रहने की ख्वाहिशें
मचलती है बार-बार पुनीत प्रेम की ही डोर पर।
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2) मैं यहीं रहूँगी
मैं कहीं नहीं जाऊँगी
रहूँगी यहीं तुम्हारे आसपास।
टूथपेस्ट-ब्रश, साबुन, शैम्पू, कंघी में
श्रृंगारदान पर रखे विभिन्न प्रसाधनों में
बिस्तर की सलवटें, लिहाफ की खोल में रहूँगी
ऊनी कपड़ों के संदूक में कपूर की गोलियाँ बन।
मैं कहीं नहीं जाऊँगी
रहूँगी यहीं तुम्हारे आसपास।
रसोंई की दीवारों, कीलें, आलमारियों के
शीशे के खानों में, मशाला के डिब्बों में
और नीम की पत्तियाँ बन अनाज के कुण्डों में
सुरक्षित रखूँगी कोने-कतरों को अदृश्य होकर भी।
मैं कहीं नहीं जाऊँगी
रहूँगी यहीं तुम्हारे आसपास।
भोजन की थाली में देशी घी बनकर
खुशबू बन फैलूँगी बंद दरवाजों के पार भी
हर त्योहारों पर विविध व्यंजनों का स्वाद
सताएगी मेरी याद और तुम हो जाओगे बेचैन।
मैं कहीं नहीं जाऊँगी
रहूँगी यहीं तुम्हारे आसपास।
क्या पहनना है, कैसे रहना है, क्या खाना है
सब कुछ वही करोगे, जो नहीं किया जीते जी
मेरी स्मृतियाँ रहेंगी प्रतिक्षण तुम्हारे साथ
मेरे ही बोल गूँजेंग पूरे घर में मरने के बाद भी।
मैं कहीं नहीं जाऊँगी
रहूँगी यहीं तुम्हारे आसपास।
जब बैठोगे सुबह- सवेरे बगिया में
ओस की बूदें बन फूलों में मुस्कुराऊँगी
तितली सा मँडराऊँगी, चिड़ियों सा चहचहाऊँगी
साँसों में हवा बन समाऊँगी और तुम हो जाओगे ताजादम।
मैं, कहीं नहीं जाऊँगी
रहूँगी यहीं तुम्हारे आसपास।
तुम्हारे मानस-सागर में कविता बन तैरूँगी
कहानी में उत्सुकता जगाऊँगी कि ऐसा क्यों हुआ
रहूँगी सुमेरू पर्वत बन,मथी जाऊँगी मतों की मथानी से
अस्मिता संघर्ष में दुर्गा ही नहीं, बनूँगी सरस्वती-लक्ष्मी भी।
आपकी दोनों ही कविताएँ बहुत अच्छी लगीं शशिकला जी!60 के दशक के बाद जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और वह सब अपना जीवन स्वयं जीने लगते हैं तो एक बार पुन: अपना अतीत पिछली खुशियों को जीने की ख्वाहिश रखता है। बीता हुआ सब याद आता है।
दूसरी कविता भी अच्छी है हमारा मोह हमें अपनों से बांधे रखता है। हम चाह कर भी कभी अकेले न तो रह सकते हैं ना रहना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि हम साथीके आसपास ही रहें। अपने प्रिय के आसपास, चाहे किसी भी रूप में रहे।
अच्छी कविताओं के लिए बधाई अच्छी कविताओं के लिए बहुत-बहुत बधाइयाँ।