एक ख़ास ध्यान देने लायक बात यह है कि पति भी विवाह के बाहर किसी औरत से ही जुड़ा होता है – जो कि पहले से शादी-शुदा है। और अब पत्नी भी किसी ऐसे पुरुष से जुड़ती है जो पहले से शादी-शुदा है। वो पति-पत्नी भी अपने विवाहित जीवन से ऊब चुके होते हैं। यानी कि किसी और की पत्नी सुंदर भी लग सकती है और उससे प्यार की बातें भी की जा सकती हैं। दोनों एक बात भूल जाते हैं कि दूसरे की पत्नी या पति इसलिये मन को भा जाते हैं क्योंकि कुछ पलों के लिये मिलते हैं… वहां होता है एक फ़्लिंग या फ़्लर्टेशन। यदि अपने नये प्रेमी या प्रेमिका के साथ जीवन बिताना पड़े तो फिर ग्लीडन जैसे किसे एप की शरण में पहुंचना पड़ेगा।

भारतीय नारी की एक परम्परागत छवि हमारे मन में बसी रहती है। 1950 और 1960 के दशक में कामिनी कौशल, मीना कुमारी, नूतन, वहीदा रहमान, माला सिन्हा, निरुपा राय जैसी कलाकारों ने हिन्दी सिनेमा में भारतीय नारी की एक ख़ास किस्म की छवि बनाने में अपने अभिनय का योगदान दिया। फ़िल्मों के नाम से ही उस छवि का अंदाज़ हो जाता था – मैं चुप रहूंगी, बिराज बहू, मंझली बहू, छोटी बहन, मैं तुलसी तेरे आंगन की आदि। 
पिछले सप्ताह मेरे सामने से 2018 का सुप्रीम कोर्ट का जजमेंट गुज़रा जिसमें सुप्रीम कोर्ट के पांच सदस्यों की पीठ में वर्तमान चीफ़ जस्टिस वी. वाई. चंद्रचूड़ भी शामिल थे। उस पीठ ने 150 साल पुराने कानून को निरस्त करते हुए व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। पीठ के निर्णय में साफ़ कहा गया कि ‘पति अपनी पत्नी का मालिक नहीं है।’ 
जजमेंट में कहा गया कि व्यभिचार तलाक का आधार हो सकता है और दीवानी मामले में इसका समाधान है। मूलभूत अधिकारों में महिलाओं का अधिकार भी शामिल होना चाहिए. किसी पवित्र समाज में व्यक्तिगत मर्यादा महत्वपूर्ण है. सिस्टम महिलाओं के साथ असमानता से बर्ताव नहीं कर सकता. महिलाओं को समाज के इच्छानुसार सोचने के लिए नहीं कहा जा सकता। 
यानी कि सुप्रीम कोर्ट के अनुसार अब महिला और पुरुषों को बराबरी का दर्जा मिलेगा। इस जजमेंट से महिलाओं के सिर पर से एक बहुत ही भारी बोझ उतर गया। मगर थोड़ी हैरानी ज़रूर हुई। इस निर्णय के बाद न तो कहीं जुलूस निकले न नारेबाज़ी हुई और न ही टीवी चैनलों पर चिल्ला-चिल्ली। किसी को कुछ महसूस भी नहीं हुआ और जीवन में न तो कोई जुम्बिश हुई न ही कोई ख़लल…
यह तो सच है कि भारत में दो तरह की दुनिया है – एक जो मुंबई, दिल्ली, बेंगलूरू, कलकत्ता और मद्रास जैसे शहरों में दिखाई देती है और दूसरी भारत के गाँवों में। बड़े शहरों की महिलाएं क्योंकि तुलनात्मक रूप से अधिक शिक्षित एवं आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती हैं, इसलिये उन्हें विवाह के बाहर शारीरिक संबन्ध बनाने के अवसर अधिक मिलते हैं। एक सर्वे में पाया गया है कि बेंगलूरू शहर में विवाह के बाहर संबन्ध बनाने वाली महिलाओं की संख्या अन्य शहरों से कहीं अधिक है। 
फ़्रांस की एक संस्था है ग्लीडेन – जिसने विवाहेतर शारीरिक रिश्ते बनाने के लिये एक ‘एप’ बना रखा है। यह ‘एप’ भारत में भी असाधारण रूप से लोकप्रिय है। 
भारत में शादी के बाद डेटिंग की बात भले ही कोई खुले आम नहीं स्वीकारता हो, लेकिन ग्लीडन डेटिंग एप ने भारत के शादीशुदा जोड़ों की पोल खोल दी है। दुनिया के बड़े ‘एक्स्ट्रा मैरिटल डेटिंग एप ग्लीडेन’ ने अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि भारत में उसके 20 लाख से अधिक यूज़र्स मौजूद हैं। फ्रांस की इस डेटिंग ऐप ने बताया है कि उसके वैश्विक स्तर पर 10 मिलियन यानि एक करोड़ यूज़र्स हैं, जिनमें से 20 प्रतिशत यानि 2 मिलियन यूज़र्स सिर्फ भारत से हैं। कंपनी ने बताया है कि पिछले साल सितंबर में उसके यूज़र्स बेस में ख़ासी वृद्धि हुई है।
डेटिंग एप ग्लीडेन के अनुसार, उसके 66 प्रतिशत नए यूज़र्स भारत के टियर 1 शहरों से आते हैं, वहीं शेष (44 प्रतिशत) टियर 2 और टियर 3 शहरों से आते हैं। डेटिंग ऐप ने यह भी कहा कि ग्लीडेन पर अधिकांश भारतीय यूज़र्स उच्च आयवर्ग से हैं। एप के डेटा में यह भी सामने आया है कि उसके यूज़र्स में पुरुष और महिला दोनों हैं, जो कि इंजीनियर, उद्यमी, एडवाइजर, प्रबंधक, अधिकारी और चिकित्सक जैसे पेशों से ताल्लुक रखते हैं। खास बात यह है कि कंपनी के यूज़र्स में बड़ी संख्या में गृहिणियां भी शामिल हैं।
ग्लीडेन के ‘कंट्री मैनेजर इंडिया’ शिडेल के अनुसार “भारत एक ऐसा देश है, जो एक विवाह की प्रथा को मानता है, ऐसे में ऐप पर ग्राहकों की बढ़ती संख्या वाकई में चौंकाने वाली है। अकेले 2022 में हमें 18 प्रतिशत नए यूजर्स मिले, जो दिसंबर 2021 में 1.7 मिलियन से बढ़कर वर्तमान 2 मिलियन हो गए।”
प्लेटफ़ॉर्म पर यूज़र्स की उम्र की बात करें तो ज्यादातर 30 से अधिक उम्र के पु​रुष इसके सदस्य हैं। वहीं महिलाओं की औसत उम्र 26 वर्ष है। ग्लीडेन के अनुसार, एप को महिलाओं के लिए अतिरिक्त सुरक्षित बनाने के लिए डिज़ाइन किया गया है और इस प्रकार, 2023 में, 60 प्रतिशत पुरुष यूजर्स की तुलना में उपयोगकर्ताओं का अनुपात 40 प्रतिशत महिला यूजर्स का है।
इस प्लैटफ़ॉर्म की विशेषता यह है कि इसे एक महिलाओं का ग्रुप ही चलाता है। ये डेटिंग एप महिलाओं के लिये मुफ़्त है जबकि पुरुषों को इसके लिये क्रेडिट स्कोर ख़रीदना पड़ता है। इन क्रेडिट्स की कीमत तय होती है जैसे 25 क्रेडिट्स के लिये यूज़र्स को एक हज़ार रुपये अदा करने होते हैं; सौ क्रेडिट्स के लिये तीन हज़ार रुपये; और चार सौ क्रेडिट्स के लिये सात हज़ार रुपये का भुगतान करना होता है।
लड़के या लड़की के बीच छोटे अंतराल के लिए हुई दोस्ती या संबंध को आजकल की जेनेरेशन ‘फ़्लिंग’ कहती है।  हो सकता है कि आपके लिए ये शब्द नया और रोचक हो, लेकिन आजकल ये बहुत समान्य है. सिर्फ यही नहीं, आजकल बहुत कुछ ऐसा कॉमन हो चुका है, जो अभी तक समाज के रुढ़िवादी लोगों में पाप समझा जाता है. इसी में से एक एक्ट्रा मैरिटल रिलेशन यानी विवाहेत्तर संबंध है।
इस विषय पर बात करना, हमारे समाज के कई लोगों को पाप सरीखा लगता है, लेकिन हम आज इस विषय पर बात इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि ग्लीडन एक ऐसा ऐप है जो शादीशुदा लोगों के लिए है, इस ऐप का मकसद एक्ट्रा मैरिटल रिलेशनशिप है यानी कि विवाहेतर संबन्ध। जब इतनी बड़ी संख्या में विवाहित स्त्रियां इस ऐप से जुड़ रही हैं तो विवाह नाम की संस्था की चूलें अवश्य हिल रही होंगी। 
हमें सोचना तो होगा कि जिस देश की महिलाएं पति को परमेश्वर मानती थीं, अचानक ऐसा क्या हुआ कि वे अब प्रेम के पलों के लिये विवाह से बाहर देखने लगी हैं। सच तो यह है कि अब भारत में महिलाएं अपने पारंपरिक जीवन से उक्ताने लगी हैं। अमरीकी और पश्चिमी देशों के टीवी चैनल उनका परिचय एक नये किस्म की ज़िन्दगी से करवाते हैं। 
गृहणियों के साथ दरअसल होता यह है कि भारतीय विवाह में पहले दो-तीन साल तो पति अपनी पत्नी के नख़रे उठाता है। फिर धीरे-धीरे उसका मन बोर होने लगता है। अब वह पत्नी पर अपने मर्द होने का रौब दिखाने लगता है। आहिस्ता-आहिस्ता दोनों के जीवन में से नर्म भावनाएं तिरोहित होना शुरू कर देती हैं। पत्नी महसूस करने लगती है कि वह घर की नौकरानी है। यदि नौकरी करती है फिर तो और भी अधिक दुखी हो जाती है क्योंकि नौकरी के बाद घर का सारा काम भी उसके पल्ले पड़ जाता है। 
ऐसा समय आता है कि पति को पत्नी में रुचि लगभग समाप्त हो जाती है। उसे अपनी पत्नी के कपड़ों और शरीर से रसोई में पक रही करी की महक आने लगती है। वह अपने सुख के लिये अपने विवाहित जीवन से बाहर तांका-झांकी करने लगता है। और पत्नी केवल अपने बच्चों को बड़ा करने में जुटी रहती है। फिर अचानक सोशल मीडिया और ग्लीडन एप पर उसे कोई मर्द मिलता है जो उसकी सुन्दरता और व्यवहार की तारीफ़ करने लगता है। महिला को अच्छा लगता है कि कोई तो है जो उसकी तारीफ़ भी करता है। वह उन सुख के पलों के लिये उस पराए पुरुष से जुड़ जाती है। पति तो पहले से ही कहीं जुड़ चुका होता है।
एक ख़ास ध्यान देने लायक बात यह है कि पति भी विवाह के बाहर किसी औरत से ही जुड़ा होता है – जो कि पहले से शादी-शुदा है। और अब पत्नी भी किसी ऐसे पुरुष से जुड़ती है जो पहले से शादी-शुदा है। वो पति-पत्नी भी अपने विवाहित जीवन से ऊब चुके होते हैं। यानी कि किसी और की पत्नी सुंदर भी लग सकती है और उससे प्यार की बातें भी की जा सकती हैं। दोनों एक बात भूल जाते हैं कि दूसरे की पत्नी या पति इसलिये मन को भा जाते हैं क्योंकि कुछ पलों के लिये मिलते हैं… वहां होता है एक फ़्लिंग या फ़्लर्टेशन। यदि अपने नये प्रेमी या प्रेमिका के साथ जीवन बिताना पड़े तो फिर ग्लीडन जैसे किसे एप की शरण में पहुंचना पड़ेगा। 
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

57 टिप्पणी

  1. सर नमस्कार
    हमेशा की तरह बहुत सुंदर ढंग से लिखा गया संपादकीय, भाषा एकदम सरल और शुद्ध, संपादकीय के माध्यम से बहुत से प्रश्न पाठकों के समक्ष आए हैं, संपादकीय पढ़कर लगता ही नहीं कि यह किसी पुरुष ने लिखा है स्त्री मां की प्रत्येक बातों को उद्घाटित किया गया है!

  2. संपादकीय एक से एक और वह भी विरल। वर्तमान विषय भी विरल तो है ही वरन चौंकाने वाला भी है और कड़वे सत्य से रू ब रू भी करता है। वर्षों पहले भी इस विषय पर एडल्टरी इन इंडिया के नाम से एक बड़ी पत्रिका में लेख छपा था और खूब चर्चा थी परंतु वह आंकड़ों और तथ्यों से उतना समृद्ध नहीं था।
    परंतु तेजेंद्र शर्मा जी ने बेहद विश्लेषित और तथ्यात्मक संपादकीय लिखा है जिसे भारतीय संस्कृति और समाज को समझना है
    परंतु

    • प्रिय भाई सूर्य कांत जी, प्रयास रहता है कि कुछ अनछुआ लिखा जाए – हर सप्ताह। हार्दिक आभार।

  3. एक दम चौंकाने वाला संपादकीय! और मै अधिक हैरान इसलिए हुई कि भारतीय संस्कृति और नारी गरिमा की बदलती सूरत पर चिंता वयक्त करने वाले संपादक प्रवासी भारतीय कहलाते हैं… भारत में इसके लिए वाकई कोई प्रतिक्रिया देखने/ सुनने को नहीं मिली। एक अलग विषय को सबके नोटिस में लाने का आभार माननीय।…परन्तु यह अविश्वसनीय सा फैसला लगता है यह…. किन्हीं भी महिला-पुरुष के बीच यदि विवाहेतर दैहिक संबंध कायम किए जाते हैं तो उन्हें न तो वैध माना जा सकता है और न ही नैतिक! मेरी राय में वे अवैध और अनैतिक दोनों हैं। विवाह या शादी तो जीवनभर की सहमति या रजामंदी है। वह स्थायी और शाश्वत है। उसके सामने क्षणिक, तात्कालिक या अल्पकालिक सहमति का कोई महत्व नहीं है। जब तक तलाक न हो जाए, किसी परपुरुष या परस्त्री से दैहिक संबंधों को उचित कैसे ठहराया जा सकता है? ऐसे यौन-संबंध अवैध और अनैतिक दोनों हैं।

    इस तरह के मुक्त यौन-संबंधों के समाज में विवाह और परिवार नामक पवित्र संस्थाएं नष्ट हुए बिना नहीं रह सकतीं। मुक्त यौन-संबंध समाज में अनेक कानूनी और नैतिक उलझनें पैदा कर देंगे।
    भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पांचों न्यायाधीशों ने सर्वसम्मति से जो फैसला दिया है, वह स्त्री के सम्मान की रक्षा कैसे करता है, यह मेरी समझ में नहीं आया लेकिन यह बात जरूर समझ में आई कि वह महिला को भी पुरुष की तरह स्वैराचारी या स्वेच्छाचारी या निरंकुश बना देता है। यह प्रवृत्ति भारतीय परंपरा और संस्कृति के प्रतिकूल है। यह प्रवृत्ति वैध तो बन जाएगी लेकिन, इसे कोई भी नैतिक नहीं मानेगा।
    रही बात ग्लीडन और फ्लिंग की तो मेरा प्रशन है इन के यूजर्स से ” यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है❓”

    • किरण जी आपकी भावपूर्ण टिप्पणी आपके मन की स्थिति का सही चित्रण कर रही है। आपका सवाल वाजिब है – ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…

  4. 1960 में एक मूवी आई थी जिसका नाम “तू नहीं और सही” था। आपका लेख पढ़कर अचानक मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा और मुकेश के स्वर में गाया इस फ़िल्म का गाना “तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही, तू नहीं और सही, और नहीं और सही” एकदम याद आगया। अपने ज़माने में यह गाना बहुत मशहूर हुआ था और यह मूवी भी ख़ूब चली थी। लगता है कि 1960 में गाया हुआ यह गाना अब हकीकत में बदलता जारहा है। भारत के बड़े बड़े शहरों में तो अमीर जोड़ों में वाइफ़ स्वॉपिंग के बारे में बहुत कुछ सुना था। समय के साथ साथ भारत अब वो भारत नहीं रहा है जिसे हम पीछे छोड़ आये थे। वहाँ भी धीरे धीरे मैरिज इंस्टिट्युशन की महत्वता कम होती जा रही है। ज़रूरत को ईजाद की जन्नी कहते हैं और “एक्स्ट्रा मैरिटल रिलेशनशिप गलीडेन एप” उसी ज़रूरत को पूरा कर रहा है। इस लेख में जो 60/40 प्रतिशत के आंकड़े आप ने दिये हैं, उस से लगता है “दोनों तरफ़ है आग बराबर लगी हुई”। जितेन्द्र भाई, इस सम्पादकीय लेख के लिये बहुत बहुत साधुवाद।

    • विजय भाई, हर संपादकीय पर आपकी टिप्पणी हौसला बढ़ाती है और कुछ नया लिखने को प्रेरित करती है। हार्दिक आभार सर।

  5. बहुत बढ़िया विश्लेषण किया आपने। अगर ये आँकड़े सहीं हैं तो सचमुच भारतीय विवाह संस्था पर एक प्रश्न चिन्ह है।

    • अनीता जी, मैं संपादकीय लिखने से पहले आंकड़ों की जांच गंभीरता से करता हूं। हार्दिक आभार।

  6. अत्यंत महत्वपूर्ण एवं चिंतनीय विषय…. मेरे मन में कई प्रश्न हैं….
    आपने वर्तमान की सामाजिक स्थिति एवं स्त्री-पुरुष के नैतिक संबंध को गुरुत्वपूर्ण ढंग में उपस्थापित किया है… वास्तव में ऐसी स्थिति भारतीय संस्कृति को नष्ट तो करती है किंतु इसके लिए उत्तरदायी भी हम सब ही हैं…
    ऐसी सहमति..क्या वास्तव में सही है…???
    एक स्त्री के लिए… ये सब संभव कैसे हो गया? एक माँ के लिए क्या यह संभव है?

    आपका संपादकीय हमेशा की तरह पाठकों के मन को प्रश्नों से अच्छादित कर दिया

    • अनिमा जी, समय के साथ-साथ बहुत कुछ बदल जाता है। देखिये मोबाइल फ़ोन ने जीवन में कैसी क्रांति ला दी है। रिश्ते भी इस क्रांति से अछूते नहीं बचे।

  7. सर प्रणाम, हर बार की तरह इस संपादकीय मे भी एक नहीं विषयवस्तु को आपने आधार बनाया जो आज के यथार्थ को रेखांकित करती है

  8. विवाहेत्तर संबंध समाज में पहले भी सदा से रहे हैं लेकिन दबे-छुबे और कलंकित रहे हैं। अब ये एप और आ गए हैं। समझ नहीं आता हम कहां के लिए चले थे और कहां जा रहे हैं!
    आवश्यकता विवाह संस्था के पुनरावलोकन और पुनरुद्धार की है न कि उसे नकारने या ध्वस्त करने की है।
    स्वच्छंदता और स्वतंत्रता में हमेशा से अंतर है जिसे समझना चाहिए।
    संपादकीय के माध्यम से इस मुद्दे पर विस्तृत विचार विमर्श हो, बात हो ये बहुत अच्छा प्रयास है।

    • शिवानी यदि पुरवाई का संपादकीय पाठकों के मन में कुछ सवाल उठाते हैं तो अपने उद्देश्य में सफल हो जाते हैं। हार्दिक आभार।

  9. सर प्रणाम, हर बार की तरह इस संपादकीय मे भी एक नयी विषयवस्तु को आपने आधार बनाया जो आज के यथार्थ को रेखांकित करती है

  10. अब तो विवाह एक करार जैसा हो गया है ज़्यादातर महानगरों में। पति पत्नी में एक आपसी समझौता कि कोई किसी की ज़िंदगी में दखलंदाजी नही करेगा। सबको अपना एक स्पेस चाहिए, जहां किसी तीसरे के अस्तित्व को आपसी सहमति से जगह मिल जाती है। पता नहीं क्या चाहते हैं, किस चीज़ की तलाश है शादीसुदा जोड़ों को।

    • रिंकु जी, विवाहित जीवन में बहुत से बदलाव आ गये हैं। मोबाइल क्रांति ने मामला बहुत पेचीदा बना दिया है।

  11. आदरणीय तेजेंद्र जी एक अत्यंत पारिवारिक विषय को संपादकीय का विषय बनाने के लिए बधाइयां और धन्यवादः
    अपने मन में आए विचारों के कारण मुझे ऐसा लगता है कि मैं अत्यंत आशावादी स्त्री हूं ।मेरा विचार है कि इस नए ऐप के आने से भारत में विवाह और पुष्ट होंगे क्योंकि जब विवाहित स्त्री- पुरुष दूसरे विवाहित स्त्री -पुरुषों से संबंध बनाएंगे ,तब उन्हें समझ में आ जाएगा की सभी विवाह एक जैसे होते हैं । विवाहेतर संबंध बनाने से केवल कुछ पल के शारीरिक सुख के सिवाय और कुछ प्राप्त नहीं होगा ,अतः अपने मूल विवाह में ही बने रहने में सुख शांति और सामाजिक प्रतिष्ठा है। ईश्वर करें इस ऐप से भारतीय परिवारों में विवाह की आयु लंबी हो । सुदृढ़ वैवाहिक संस्था वाले चिंता मुक्त समाज के लिए शुभकामनाएं ।
    धन्यवाद

  12. स्त्री विमर्श समाज के समक्ष आया था कि स्त्री अपने अधिकार की बात करें,किंतु स्त्री विमर्श पुरुष के विरोध में खड़ा हो गया कि तुम कर सकते हो तो मैं क्यों नहीं। इसकी शुरुआत हमारी बच्चियों से होती है जिन्हें विवाह से पूर्व लिव-इन-रिलेशनशिप से कोई आपत्ति नहीं जब साथ रहना मुश्किल हो जाता है तब ये किसी ओर से विवाह कर लेते हैं। वहां भी कुछ समय पश्चात जब जीवन नीरस लगने लगता है तो ऐसे एप का सहारा लिया जाता है क्योंकि उन्हें जो विवाह से पूर्व गलत नहीं लगा विवाह के बाद क्या लगेगा ।सवाल उठता है कि जब पति को पत्नी के इस ऐप के विषय में पता चलेगा तब संबंध कहां तक ठहरेंगे क्या वह अपनी पत्नी को स्वीकार कर पायेगा। मैं मंजुल भगत पर शोध कर रही हूं उनका एक उपन्यास है’ ‘इन्द्रधनुष टूटा हुआ’ जहां शोभना विवाह के पश्चात भी पूर्व प्रेमी मनीष सिर्फ संबंध ही बनकर नहीं रखती अपितु एक बच्ची को जन्म भी देती है जिसे पति सहज स्वीकार कर लेता है। आपका यह संपादकीय यथार्थ को उजागर कर हुआ।

    • अंजु आपकी टिप्पणी ने संपादकीय को बिल्कुल नई दृष्टि दी है। पुरवाई के पाठक भी इस उपन्यास को अवश्य पढ़ना चाहेंगे।

  13. ऐसे में बच्चों का जीवन भी कितना असुरक्षित हो जाता है जब मां अपनी खुशी के लिए अलग और पिता अलग । इन सबमें बच्चों का क्या दोष ? वे क्या करें ?

    • रेणुका जी, संपादकीय मां-बाप के अलग रहने के विषय पर नहीं है। विषय है विवाहित जोड़े का डेटिंग ऐप को इस्तेमाल करना।

  14. आदरणीय तेजेंद्र जी,
    सादर नमन।
    हर बार की तरह अत्यंत विचारोत्तेजक और सटीक संपादकीय। यह संपादकीय बदलते भारतीय समाज में विवाह संस्था के संकटग्रस्त भविष्य की झाँकी कहा जा सकता है। यह सत्य है कि महानगरों और नगरों में रहने वाले युवाओं के लिए शारीरिक संबंध अब सामान्य बात होती जा रही है। सहशिक्षा का यह स्वाभाविक परिणाम है, जिसकी ओर पाँच दशक पहले के विद्वानों ने ध्यान दिलाया था।
    सामयिक संपादकीय के लिए पुनः हार्दिक बधाई।

  15. आपकी सम्पादकिय सदैव समसामायिक मुद्दों पर निष्पक्ष अनुपम जानकारी देती है। मेरे लिए यह जानकारी नितांत नई है। मन में आश्चर्य के साथ खेद, दुःख और कई ऐसे ही भाव समेटे है. हो सकता है इस मामले में पुरातनपंथी हूँ। ऐसे विषयों कई जानकारी देने के लिए हार्दिक धन्यवाद.

    • उषा जी प्रयास रहता है कि जो जानकारी मुझे उपलब्ध है मित्रों के साथ बांट सकूं। हार्दिक आभार।

  16. सदा की तरह इस बार का संपादकीय भी आँखें खोलने के साथ विचारणीय भी है।
    सुप्रीम कोर्ट ने स्त्री को पुरुष के बराबर का दर्जा देने के लिए जब यह फैसला लिया था तो उस समय भी मुझे आश्चर्य हुआ था। मुझे समझ में नहीं आया क्या विवाहेत्तर सम्बन्ध रखने से ही स्त्री पुरुष के बराबर हो जायेगी?
    ग्लीडेन एप्प का दावा सही है तो वैवाहिक संस्था को टूटने से कोई नहीं बचा पायेगा किन्तु सच्चाई यही है कि स्त्री पुरुष के सम्बन्ध सिर्फ और सिर्फ विश्वास और समर्पण पर टिके हैं।
    कुछ दिन पूर्व एक समाचार मेरी निगाहों से गुजरा था जिसमें कहा गया था कि अमेरिकन फिर से परिवार को महत्व देने लगे हैं। आज पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित कुछ भारतीय नैतिक मूल्यों को त्याग कर स्वच्छंदता को महत्व देने लगे हैं किन्तु मुझे विश्वास है कि ऐसे लोग पुनः अपनी जड़ों की ओर अवश्य लौटेंगे।

  17. समाज में कैसे-कैसे बदलाव आ रहे हैं एप वगैरा है की बात सुनकर बड़ा आश्चर्य हो रहा है। लोग संबंध तो रखते थे छुपकर। बहुत बढ़िया जानकारी देने के लिए आपका बहुत धन्यवाद।

  18. आदरणीय तेजेंद्र जी! सबसे पहले तो आपको शीर्षक के लिए बहुत-बहुत बधाई!
    संपादकीय को पढ़कर आश्चर्य नहीं हुआ, फिर भी बहुत आश्चर्यचकित हैं !!
    आश्चर्य इसलिए नहीं हुआ कि यह सब तो हो ही रहा है। एक लंबे समय से यह स्थिति देखने में आ रही है। और इससे चिंतित भी हैं जबकि जानते हैं कि इस संबन्ध में कुछ किया जाना संभव भी नहीं।
    और अगर आश्चर्यचकित हुए तो इसलिए कि 18 का केस 2024 में आपकी नजर से गुज़रा और आपने इसे अब संपादकीय का विषय बनाया। हालांकि हमें भी इस बात की कोई जानकारी नहीं थी क्योंकि एक लंबे समय तक बीच में हमने टीवी के साथ ही न्यूज़पेपर से भी छुट्टी ले रखी थी आश्चर्यचकित ग्लीडन ऐप की जानकारी भी लगी। इस दृष्टि से यह हमारे लिए नई सूचना थी।
    बाई द वे आप संपादकीय का विषय आँखों देखा हाल की किस किताब से चुनकर लाते हैं?
    यह जानने की उत्सुकता हर बार रहती है ,सोचा इस बार पूछ ही लिया जाए?
    बस यूँ ही।
    वैसे तो इस विषय पर इतनी चर्चा पटल पर ही हो चुकी है कि अब लिखने के लिए कुछ शेष रहा ही नहीं लेकिन फिर भी हम तो हम ही हैं लिखे बिना मानेंगे नहीं। विवाह के बाद पति, पत्नी का मालिक वास्तव में नहीं है ;अगर वह उसके साथ सदाचार से पेश नहीं आता। उसका सम्मान नहीं करता। उसकी फिक्र और उसकी कद्र नहीं करता है। अन्याय करता है, उस पर अत्याचार करता है ,उसे अपमानित करता है और उसे इंसान नहीं समझता।
    वास्तव में वैवाहिक बंधन एक समझौता ही है। जिस तरह कोई गाड़ी एक पहिए से नहीं चलती इसी तरह पति और पत्नी एक दूसरे के पूरक होते हैं। एक घर का भार संभाल लेती है और एक बाहर का।
    आजकल यह बात सही है कि दोनों के ही कमाने से गृहस्थी का खर्च चल पाता है। इसलिए घर के काम के मामले में भी थोड़ा दोनों को कंप्रोमाइज कर लेना चाहिए।
    समस्या इस व्यवस्था के अनबैलेंस होने से होती है।
    पर आज की जो लड़ाई है वह मन, इच्छा, अहम् ,वर्चस्व और जरूरत की लड़ाई है। इसे क्लियर करना बड़ी बहस है
    अतः इसे हम छोड़ते हैं बाकी सब समझ भी सकते हैं।

    लिव इन रिलेशनशिप का विरोध नहीं हुआ तो अब इस फैसले का विरोध न होना भी संभावित था ।यह संतुष्टि है कि यह जजमेंट तलाक का अधिकार देता है।
    सच पूछा जाए तो यह इंसान का नैतिक पतन है। चाहे वह पति हो या पत्नी, स्त्री हो या पुरुष! और यह निश्चित करता है कि आजकल साथ के केन्द्र में संबंध नहीं अपितु दैहिक कामपूर्ति या यौन इच्छा है।
    जिसके पास पैसा है आज के समय में वह भगवान है। पैसे के बल पर पूंजीपति जो चाहे वह कर सकता है इसलिए यह पूंजीपति व्यवस्था की देन ज्यादा है ।आधुनिक शिक्षा भी इसमें कहीं ना कहीं सहायक है। इसीलिए शहरों में इसका प्रभाव ज्यादा है जैसा कि आपने बताया भी।
    डेटिंग की बात खुलेआम करना सहज नहीं है झगड़े की संभावना रहती है और बदनामी का भय। फिर भी लड़के लोग दोस्ती यारी में इसकी चर्चा कर लेते हैं लड़कियाँ संकोच करती हैं।
    फ्रांस के ग्लीडन एप की जानकारी ने आश्चर्यचकित किया था लेकिन फिर भी संभावित तो था ।बिना एप के भी सब हो ही रहा था। अब एप ने इसे एक स्थान दे दिया जैसे बिखरी हुई चीजों को किसी एक स्थान पर एकत्रित कर व्यवस्थित कर दिया गया हो ,तो इसका स्तर थोड़ा उच्च हो गया। यह व्यवस्था संपन्न लोगों के लिए ज्यादा कारगर है ।यहाँ उनकी संभ्रांत छवि छुपी रह सकती है।
    भारत की संख्या ने हमें बिल्कुल भी नहीं चौंकाया ।आजकल भारतीय लोग विदेश की ओर की दृष्टि डाले हुए हैं।
    टियर 1 टियर 2 टियर 3 वाली बात हमें समझ में नहीं आई।
    स्त्रियाँ इसे चलाती हैंऔर इसके लिए स्त्रियों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता। असमानता यहाँ भी नजर आई। लेकिन इस पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए।पहले जो यहाँ कोठे कहलाते थे उसे चलाने वाली भी स्त्रियाँ ही हुआ करती थीं। यहाँ भी पैसे पुरुष ही देते थे ।बस अंतर इतना था कि स्त्रियाँ प्रमुख स्त्री की कैद में रहती थीं। स्वैच्छिक वाली बात नहीं थी।
    भारत में पति परमेश्वर वाली बात तो कब से ही खत्म हो गई।
    बेमेल स्थिति रहने पर भी संबंधों को बनाए रखने के लिए साथ रहते हैं वह एक अलग बात है।
    उम्र ने जरूर आश्चर्यचकित किया।30-26 आजकल के लड़के और लड़कियाँ दोनों के लिए यह उम्र शादी के लिये लगभग कम है, या फिर इस उम्र में शादी हो रही हैं।
    संस्था विवाहितों से संबद्ध है तो यह उम्र चिंता की बात है।
    जेनरेशन फ्लिंग नयी जानकारी है हमारे लिये।
    कुल मिलाकर एक बड़ा सत्य यह भी है कि स्त्रियों के साथ उनकी खुद की कुछ परेशानियाँ है जो जुड़ी ही रहती हैं पीरियड की, प्रेगनेंसी की, बच्चों के जन्म की और इस बीच पुरुष को दैहिक संबंध के मामले में संयमित रहना होता है ।वह इसमें अपने को सक्षम नहीं पाता। इसलिए उसे बाहर जाने की जरूरत महसूस होती है।
    स्त्रियों की भी अपनी भावनाएंँ हैं। जिनकी होती हैं वह बेहतर समझ पाती हैं और पुरुषों की तरह रास्ते तलाश भी लेती हैं।

    वैसे अच्छा है …..शायद इसके कारण बलात्कारों पर कुछ कमतरी नजर आ पाए।
    हम नहीं जानते कि यह अच्छा हुआ है या बुरा हुआ है,पर हाँ! इस तरह की बातों से हमें दुख जरूर हुआ है! वैवाहिक संबंधों की अपनी एक मर्यादा होती है। थोड़े से आवेश में हमें इसकी मर्यादाओं को भंग नहीं करना चाहिए। हम तो ऐसा ही सोचते हैं
    जहाँ वैवाहिक संबन्धों में विवाद है वहाँ संबन्ध तोड़कर ही नया संबन्ध स्थापित किया जाए यही बेहतर है
    हम जानते हैं हमारे दुख से दुनिया की खुशी में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला इसलिए हमारा निर्विकार व निर्विरोध रहना ही बेहतर है।
    इस संपादकीय पर अधिक व सार्थक विमर्श हुआ। इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं।

    • आदरणीय नीलिमा जी, संपादकीय पर इतनी विस्तृत टिप्पणी केवल आप ही लिख सकती हैं। टियर 1,2,3 का अर्थ महानगरों के साइज़ से है। टियर एक में मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु, कलकत्ता और चेन्नई जैसे शहर आते हैं।

  19. भारत में एक तरफ जय सियाराम का नारा गूंज रहा है तो दूसरी तरफ मुट्ठी भर लोग डेटिंग एप ग्लीडेन का सहारा लेकर मृग तृष्णा में फंस रहे हैं…भारत में जहां भी विदेशी कल्चर ज्यादा है वहीं इसका उपयोग थोड़ा बहुत है…
    आप विदेशी भूमि में रहकर भी भारतीय संस्कृति को महत्व देते हैं यह आपका बड़प्पन है बढ़िया लेख

  20. चौकाने वाला संपादकीय, हालांकि ये सच है कि बड़े शहरों में विदेशी कल्चर आ गया है, और अंधी दौड़ शुरू हो गई है l पुरानी पीढ़ियों ने भी वर्जनाएँ पार की हैं, पर वो प्रतिशत बहुत कम था , और खास बात ये कि शांति वहाँ भी नही थी l लेकिन कूल-कूल दिखने की हसरत में फूल बनती नई पीढ़ी इतनी भी समझदार नहीं हुई है कि बढ़े हुए अविश्वास को झेल ले l अकेलापन बढ़ने की एक खास वजह ये है कि जीवन साथी पर ही भरोसा नहीं है, और घर सराय हो गए l कुछ समय बाद जब समझ भी आता है तो लौटने का रास्ता नहीं रह जाता है l रिश्तों के वृक्ष को बड़ा करने के लिए क्षणिक सुख की नहीं पर्याप्त खाद -पानी की जरूरत होती है l फिर उसी की छाया में जीवन को शांति भी मिलती है l पर आज़ में जीने वाली पीढ़ी में इतना धैर्य नहीं है , तो कल को परिणाम भी घातक मिलेंगे l आगे समय बताएगा l

  21. विवाहेतर संबंध पहले भी थे लेकिन तब अधिकतर घर के अंदर, पड़ोस या रिश्तेदारी में हुआ करते थे, लेकिन अच्छी दृष्टि से कभी नहीं देखे गये।
    आज जब कि विवाह, परिवार संस्थायें संक्रमण काल में चल रहीं है, बल्कि अपने विद्रूप स्वरूप को धारण करती जा रही है। भारतीय संस्कृति और संस्कारों की पोषक संस्थायें दम तोड़ रही है। पश्चिमी सभ्यता आज भी हमारे सामाजिक सरोकारों और संस्थाओं को सम्मान की दृष्टि से देखती है और हम तो न अपने को अपना पा रहे है और न उनको।
    पुरुष आरम्भ से ही स्वेच्छाचारी रहा है, लेकिन मर्यादाओं से बँधा रहा। आज एप नाम के रोग ने इतने पतन के रास्ते खोल दिए हैं कि रिश्तों का सम्मान खत्म हो रहा है। आज के बुद्धिजीवी वर्ग में ही नहीं बल्कि कल के विद्वानों ने भी बिना ऐप अपने रिश्तों को अपमानित करके जीवन जिया है।
    इन रिश्तों से आपस में ही नहीं बच्चों में भी सम्मान और रिश्तों के प्रति एक अविश्वास पैदा हो चुका है। इसके परिणाम समाज के लिए हानिकारक ही है।

  22. पति, पत्नी और वो….. ये विषय तो जाना पहचाना है लेकिन इसके भीतर के विषय हमारे लिए सर्वथा नये हैं, जैसे ग्लीडन ऐप, फ़्लिंग, टियर 1,2,3….. आज दुनियाँ कहाँ से कहाँ जा रही है, ये आपका सम्पादकीय हम जैसे तथाकथित कूपमण्डूकों को बहुत अच्छी तरह समझा रहा है। ग्लीडन जैसे एप भारतीय संस्कारों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं, लेकिन आज की नई सभ्यता की यही माँग है, तो क्या किया जाए, तमाशा देखते रहिए। ये नया ऐप भारतीय विवाह संस्कार पर प्रहार कर रहा है, यह तो जगज़ाहिर है क्योंकि भारत में भी 20 लाख लोग इस ऐप को यूज़ कर रहे हैं।
    फिर भी मुझे विश्वास है कि भारतीय संस्कृति की जड़ें इतनी कमज़ोर नहीं हैं कि ये नये ऐप उन जड़ों को उखाड़ फेंकें। उम्मीद पे दुनियां क़ायम है। फ़िलहाल तो जो विवाहेतर सम्बन्धों की सही तस्वीर आपने खींची है, वह क़ाबिले-तारीफ़ है। पहले के समय में जो चोरी-छिपे होता होगा, वह आज के सभ्य समाज का फ़ैशन बन गया है। आज की भाषा-स्टाइल में कहें, तो सब कुछ “इन” हो गया है।
    इस विषय की ओर से कबूतर की तरह आँखें मींच लेने से समस्या का हल नहीं मिलेगा, इस पर तो प्रबुद्ध चर्चा अपेक्षित है, जिसकी शालीन शुरूआत आपने कर दी है। साधुवाद स्वीकारें।

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