अदृश्य से दृश्य हुआ
पर कोई समझा नहीं।
दृश्य से स्पृश्य हुआ
पर कोई समझा नहीं।
स्पृश्य से मुखरित हुआ
मुखरित से प्रखर हुआ
प्रखर से प्रचारित और
प्रसारित भी हुआ
हद्द है ,
पर कोई समझा नहीं।
बहुत बौराया चिल्लाया
नाचा और तो और
कूदा भी,
पंच तत्व पुतले के
सारे के सारे
जतन यूं ही गए
क्यूंकि कोई समझा ही नहीं।
रिश्ते नाते दोस्त दुश्मन
सब के सब निभाए
पर कोई समझा नहीं।
मंदिर मस्जिद गिरजे
गुरुद्वारे सारे के सारे
पूज आया
पर कोई समझा नहीं।
दृश्य से अदृश्य
मुखर से मूक
मूक से बधिर
बधिर से अधीर
होने को आया।
तभी उसे अपने इंसा
होने का अहसास हो आया
पर कोई समझा नहीं।
अच्छी कविता है सूर्यकांत जी। आजकल की सबसे बड़ी समस्या समझना ही है कोई भी किसी को समझना ही नहीं चाहता और इंसान तो बिल्कुल भी नहीं। स्वयं को ही नहीं समझ पा रहे तो दूसरे को क्या समझेंगे।
जी नीलम जी।
सादर आभार।
हमारे समाज में पहले अहम आटे में नमक की मानिंद था।सब कुछ साझा सो कोई बोझा न था।
अब पश्चिम की तरह हालात हो गए हैं।बस इंसान बेचैन हो गया और रचना की भांति बस कूद रहा है।
पुनः आभार
वाकई आपकी कविता सहज शब्दों में मार्मिक कथन कहती है’कोई समझा नहीं ‘ जब तक हम स्वयं को न समझ पायेंगे तब तक भला कौन हमें समझेगा|
जी सादर आभार आपकी अमूल्य टिप्पणी हेतु।
अच्छी कविता है सूर्यकांत जी। आजकल की सबसे बड़ी समस्या समझना ही है कोई भी किसी को समझना ही नहीं चाहता और इंसान तो बिल्कुल भी नहीं। स्वयं को ही नहीं समझ पा रहे तो दूसरे को क्या समझेंगे।
जी नीलम जी।
सादर आभार।
हमारे समाज में पहले अहम आटे में नमक की मानिंद था।सब कुछ साझा सो कोई बोझा न था।
अब पश्चिम की तरह हालात हो गए हैं।बस इंसान बेचैन हो गया और रचना की भांति बस कूद रहा है।
पुनः आभार