समीक्षक
डॉ. मधु संधु, पूर्व प्रो. एवं अध्यक्ष,
हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब
‘चलो फिर से शुरू करें’ सुधा ओम ढींगरा का नवप्रकाशित कहानी संग्रह है- 2024 का। इससे पहले उनके सात कहानी संग्रह, दो उपन्यास, चार काव्य पुस्तकें, एक निबंध संग्रह हिन्दी जगत को मिल चुके हैं। उनकी यात्रा पंजाब प्रांत के जालंधर से (नॉर्थ कैरोलाइना) अमेरिका तक आती है। ‘कमरा न. 103’, ‘कौन सी ज़मीन अपनी’ ‘वसूली’, ‘सच कुछ और था’, ‘खिड़कियों से झाँकती आँखें’, ‘वसूली’, ‘ मेरी पसंदीदा कहानियाँ’ उनके कहानी संग्रह है। ‘नक्काशीदार केबिनेट’, ‘दृश्य से अदृश्य का सफर’ उपन्यास है। उनका कवयित्री रूप ‘सरकती परछाइयाँ’, ‘ धूप में रूठी चाँदनी’, ‘ तलाश पहचान की’, ‘ सफर यादों का’ में देख सकते हैं। 2014 में केंद्रीय हिन्दी संस्थान आगरा द्वारा उन्हें ‘पद्मश्री सत्यनारायण माटूरी हिन्दी सेवी सम्मान’ मिल चुका है। मंचन, संकलन, सम्पादन और अनुवाद के क्षेत्र में भी उनकी देन अप्रतिम है। उनकी लेखनी पर प्रवासी जीवन की ज्वलंत समस्याओं का प्रभुत्व रहा है। ‘ चलो फिर से शुरू करें’ में कुल दस कहानियाँ हैं- ‘कभी देर नहीं होती’, ‘वे अजनबी और गाड़ी का सफर’, ’उदास बेनूर आँखें’, ‘इस पार से उस पार’, ‘चलो फिर से शुरू करें’, ‘वह ज़िंदा है’, भूल भुलैया’, ‘कंटीली झाड़ी’, ‘अबूझ पहेली’, ‘कल हम कहाँ तुम कहाँ।
‘ चलो फिर से शुरू करें’ की कहानियाँ अतीत की स्मृतियाँ हैं। अतीत हमारे साथ- साथ चलता है। वह छूटता नहीं, हमें एक आभास होता है कि वह पीछे रह चुका है, लेकिन उसकी गलबाहियाँ सदैव हमें घेरे रहती हैं। भले ही उनके पात्रों ने विदेश में आकर ज़िंदगी फिर से शुरू कर ली हो, लेकिन अतीत की खट्टी- मीठी परतें तो मन में गहरे खुदी होती हैं। ‘कभी देर नहीं होती’ में अतीत की स्मृतियाँ परत- दर परत खुल रही हैं। पराई धरती पर यह पात्र अपने देश की स्मृतियों के साथ जीवन के दुख- सुख काट रहे हैं-
“अतीत की यही परेशानी होती है, उसकी परतें खुलती हैं तो खुलती चली जाती हैं। यादें मंडराने लगती हैं तो पीछा नहीं छोड़ती।”
‘कल हम कहाँ तुम कहाँ’ में पूजा की कॉलेज जीवन की स्मृतियाँ हैं। जब वह और दीपक वादविवाद और भाषण प्रतियोगिताओं में भाग लेते और जीतते थे। कहानी प्रेम के दो रंग लिए है। पूजा का दीपक के लिए प्रेम मैत्री भाव लिए है और दीपक का प्रणय भाव। कॉलेज जीवन की ही खट्टी-मीठी स्मृतियाँ ‘कंटीली झाड़ी’ में भी हैं। लोमड़ी जैसी चालाक, कुंठित और स्वार्थी अनुभा वहाँ भी पीठ पीछे वार करती थी और यहाँ भी उसका यही हाल है। वहाँ भी चरित्र दोष लगाती थी और यहाँ आकर भी अपना यही अमोध अस्त्र चला रही है। वहाँ भी कभी एक्सट्रा मयूरल से और कभी कॉलेज से निकलवाने में प्रयासरत रहती थी और यहाँ भी उसके जीवन को हिलाने के जुगाड़ में दिखाई देती है। हालांकि नायिका के पास अपने परिवार और सखियों की मधुर स्मृतिया भी हैं। यह वैयक्तिक तटस्थ स्मृतियों से संलिप्त अतीत है। नामवर सिंह के शब्दों में-
“स्मृति में भावुकता संभव है, किन्तु समय का अंतराल तात्कालिकता के आवेग को काफी कम कर देता है।”
नारी उत्पीड़न पर तो बहुत लिखा गया है। धरेलू हिंसा को सीधा नारी उत्पीड़न से जोड़ा जाता है। लेकिन इस संग्रह की कुछ कहानियों में पुरुष उत्पीड़न की बेआवाज चीख सुनाई पड़ती है। पति शिकार और पत्नी शिकारी हो गई है। ‘कभी देर नहीं होती’ में पुरुष उत्पीड़न को अनेक कोनों से चित्रित किया गया है। आनंद के ददिहाल परिवार में नौकरों को भी परिवार का सदस्य मान पूरा मान- सम्मान दिया जाता है, जबकि ननिहाल परिवार की सोच सामंती और डराने- धमकाने वाली है और ऐसी ही उसकी माँ है। धरेलू मोर्चे पर इसे पुरुष उत्पीड़न की कहानी कह सकते हैं। पत्नी पति पर हावी रहती है। वह जब- तब ससुराल पर आरोप लगाती रहती है। ससुराल से मिलने वाली पुश्तैनी सम्पदा अपने मायके पर लुटा देती है और पति- पुरुष उसके सभी दवाब बच्चों के कारण चुपचाप झेलता रहता है। माँ का कर्कश व्यवहार बेटे को भी मानसिक धरातल पर उससे बहुत दूर कर देता। नायक वर्षों बाद विदेश की धरती पर बुआ और उसके बेटे से मिलता है, आनंद की बजाय अपने घरेलू नाम नंदू का सम्बोधन उसे अपनेपन से समृद्ध करता है।
‘चलो फिर से शुरू करें’ में भी सम्बन्धों का सारा समीकरण बिगड़ा हुआ है। बहू मार्था, सास ससुर को हमेशा कठघरे में ही खड़ा रखती है, चाहती है कि सास- ससुर एडजस्ट करें, उससे माफियां मांगते रहें। पति कुशल को अपमानित करना आम बात है। वह पति को तीन मिलियन का कर्जदार बना, डायमंड ज्यूलरी समेट, बच्चों को कुशल के लिए छोड़ तलाक ले लेती है। एक श्वेत अमेरिकन, भारतीय अमेरिकन पति से हुये बच्चों को कैसे स्वीकार करे? यह एक श्वेत अमेरिकन द्वारा भारतीय अमेरिकन के उत्पीड़न की, पुरुष उत्पीड़न की दास्तान है।
‘वे अजनबी और गाड़ी का सफर’ में ड्रग तस्करी का मानव तस्करी से भी भयावह रूप मिलता है। मधु काकरिया का ‘पत्ताखोर’ जैसे उपन्यास ड्रग- एडिक्ट की बात तो करते हैं, लेकिन यह कहानी तस्करी के एक नए रूप से परिचित करा रही है। यहाँ लड़कियां माल हैं, क्योंकि उनके पूरे शरीर में ही ड्रग भरे जाते हैं- ह्यूमन ड्रग बॉम्ब।
कहानियाँ कहती हैं कि वहाँ सामाजिक सुरक्षा की सरकारी चेन काफी सबल है। अगर क्राइम सक्रिय है तो फेडरल ब्यूरो ऑफ लॉं की गजब की कानून व्यवस्था भी है। ‘वे अजनबी और गाड़ी का सफर’ में माइकल कीट्स जैसे ऑफिसर और उनके क्राइम शोधक दस्ते गुनाहगारों से कहीं अधिक सजग हैं। तीसरी आँख रखने वाली शिल्पा और नयना जैसी सजग- सचेतन खोजी पत्रकार हैं। अति संवेदनशील और अत्याधुनिक यंत्र हैं। स्त्री शोषण पर होने वाले सेमीनारों में शोषक के हथकंडों पर चर्चा है। ‘भूल भुलैया’ की सुरभि पाण्डेय व्हाट्स एप पर आए नकारात्मक संदेशों से भयभीत होने के कारण जॉगिंग करते पार्क से ही पोलिस को काल कर देती हैं। पाँच मिंट में ही पोलिस पहुँच उसके भ्रम का निवारण करती है । वहाँ वालण्टीयर संस्थाएं भी आम आदमी की सुरक्षा से जुड़ी हैं।
‘उदास बेनूर आँखें’ में अद्वितीय सौंदर्य की स्वामिनी ड्यू स्मिथ की त्रासदी है कि गाँव का धर्मगुरु, धर्मपिता उसका बलात्कार करता है, उसे एच. आई. वी. पॉज़िटिव बनाता है और माँ उसे जुबान पर ताला लगाने के लिए कहती है। युवती सहर का सौतेला पिता उसका बलात्कार करता है और माँ बताने पर उसके मुंह पर चाँटे जड़ती है। परिणामत: दोनों सहेलियाँ एक दूसरे की सखी, माँ, बहन, परिवार बन जाती हैं । यह ड्यू स्मिथ और गौरव मुखी की प्रेम कहानी भी है। एच. आई. वी. पीड़ित नायिका के लाख इंकार करने के बावजूद नायक उसे सानुरोध डायमंड की अंगूठी देता है।
‘अबूझ पहेली’ दिव्य अनुभूतियों के आभास यानी परामनोविज्ञान को लिए है। परामनोविज्ञान जीवन में होने वाली विलक्षण, अलौकिक घटनाओं के अध्ययन का विज्ञान है। विकिपीडिया के अनुसार-
“परामनोविज्ञान न जादू- टोना है, न गुह्य विद्या, प्रेत विद्या या तंत्र- मंत्र जैसा कोई विषय। –प्राकृततेर, पराभौतिक एवं परामानसकीय, विलक्षण प्रतीत होने वाली अधिभौतिक घटनाओं और प्रक्रियाओं का विधिवत अध्ययन तथा क्रमबद्ध अध्ययन ही परामनोविज्ञान का प्रमुख उद्देश्य है।”
अमेरिका के फ्लोरेडा का कासाडागा टाउन परामनोविज्ञान के कारण विश्व की साइकिक कैपिटल के रूप में जाना जाता है, जबकि परामनोविज्ञान पर वैज्ञानिक शोध उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की देन है।
‘अबूझ पहेली’ की नायिका मुक्ता धीर पेशे से साइकोलोजिस्ट है। कहानी में उसके द्वारा वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की त्रासदी को दिनों से महसूस किया जा रहा था। इंटयूशन्स, दृश्य भ्रम, छठी इंद्री की जागृति, अवचेतन, तीसरी आँख, अंतर्दृष्टि, सुषुप्त चेतना आदि अनुभूतियों को महसूस तो किया जा सकता है, लेकिन बताया नहीं जा सकता। ऐसी ही एक स्थिति ‘वे अजनबी और गाड़ी का सफर’ में भी मिलती है। पत्रकार और फोटोग्राफर नयना ग्रोवर और शिल्पा पटेल हमेशा कार में ही सफर करती हैं। गाड़ी में सफर करना और वहाँ ड्रग पीड़ित युवती को पाना- मानो किसी दैवी शक्ति ने ही उन्हें गाड़ी में बिठाया हो। नयना कहती है-
“सैंकड़ों बार कार से शार्लेट गए हैं। किस शक्ति ने मजबूर किया, गाड़ी में सफर करने के लिए। यूं ही यह नहीं हुआ, कोई कारण तो होगा, जिसका मुझे थोड़ा- थोड़ा एहसास हो रहा है।”
‘इस पार से उस पार’ में अनघा सांची के बचपन की कहानी सुना रही है। कोई नहीं समझ पाता कि कैसे उसकी छठी इंद्रिय उसे चौराहे पर होने वाली दुर्घटना के पूर्व संकेत देती है। वह ऐसे ही संकेतों को पा पापा को मित्र के कागजों पर हस्ताक्षर न करने के लिए कहती है और कोर्ट- कचहरी की मुसीबतों से बेदम हुये पापा को ‘आज केस जीत जाएगे’ भी किसी परा मनोवैज्ञानिक दृश्य से रू-ब-रू होने के बाद कहती है-
“सांची के जन्म से ही उसकी अंतर्दृष्टि, जिसे इनर आई कहते हैं, और लोगों से ज्यादा डेवेलप हो चुकी थी, सांची को इनट्यूशन्स होती हैं। काश ! उसका परिवार इस प्रतिभा से परिचित हो पाता।”
कहानी मैत्री सम्बन्धों में समाये धोखे और स्वार्थ को भी रेखांकित करती है।
वृद्ध विमर्श का रूप बदल रहा है। ‘चलो फिर से शुरू करें’ में वृद्ध बेचारे या असहाय न होकर संरक्षक और सशक्त हैं। ढलती उम्र में बेटे की संतान पालने की, जीवन के इस उत्तरदायित्व को निभाने शुरुआत करते हैं।
‘वह ज़िंदा है’ अस्पताली सच लिए है। एक असंवेदनशील नर्स से प्रसव पीड़ा की अति नाज़ुक स्थिति में यह सुनकर कि उसका बच्चा मर चुका है- कविता पाषाण हो जाती है। किसी तरह प्रसव प्रक्रिया को पूरा किया जाता और यह अमानवीय आघात उसे मनोरोगी बना देता है।
भले ही नसलवाद वैज्ञानिक दृष्टि से अवैज्ञानिक, नैतिक रूप से निंदनीय, सामाजिक दृष्टि से खतरनाक है, लेकिन यह कल भी ज़िंदा था और आज भी ज़िंदा है। ‘उदास बेनूर आँखें’ की ड्यू स्मिथ का पिता उसे पैसे देने से इस लिए इंकार कर देता है कि उसकी रूम मेट अश्वेत लड़की है और ‘चलो फिर से शुरू करें’ की माँ तलाक के बाद बच्चों को इसलिए छोड़ देती है कि वे भारतीय अमेरिकन के बच्चे हैं।
उनके पात्र बौद्धिक हैं और पठन- मनन में अत्यधिक रूचि रखते हैं। ‘‘वे अजनबी और गाड़ी का सफर’ की शिल्पा ट्रेन में संजय गुप्ता की पुस्तक- ‘कीप शार्प, बिल्ड अ बैटर ब्रेन’ पढ़ती है। ‘इस पार से उस पार’ के डॉ. पॉल हवाई जहाज में ज्यां पॉल सात्र की पुस्तक ‘ द एज ऑफ रीज़न’ पढ़ते हैं और सहयात्री जज जॉन ओ हारा की पुस्तक ‘फ़्रोम द टेरेस’ पढ़ रहा हैं। ‘वे अजनबी और गाड़ी का सफर’ की पूजा में पढ़ने का जनून है। ‘भूल भुलैया’ की सुरभि पाण्डेय ने ‘क्राउन साइकोलोगी’ पुस्तक पढ़ रखी है।
स्थानों का उल्लेख करना सुधा जी कदाचित नहीं भूलती। ‘वे अजनबी और गाड़ी का सफर’ में नॉर्थ कैरोलाइना, कैरी रेलवे स्टेशन, शार्लेट शहर, डरहम स्टेशन, ग्रीन्सबोरो, ‘चलो फिर से शुरू करें’ में मर्टल बीच, एटलांटा, जार्जिया, ‘इस पार से उस पार’ में जालंधर, बटाला, ‘कल हम कहाँ तुम कहाँ’ में जालंधर, फगवाड़ा आदि स्थानों का उल्लेख है।
हाव- भाव चित्रण सर्जक की लेखन प्रौढ़ता का द्योतक है। जैसे- हाव-
“उसने अपनी टांगें अपनी छाती से लगाई हुई हैं और घुटनों को अपनी बाजुओं में कसा हुआ है। कभी अपना मुँह अपने घुटनों में छिपा लेती है, कभी अपना चेहरा ऊपर उठाकर ठुड्डी घुटनों पर रख लेती है।” भाव–‘ उदास चेहरा और आँखों में उतरी पीड़ा’।
हीरक कणों की तरह सूत्र बिखरे हुये हैं। जैसे –
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बुद्धिमत्ता कइयों में होती है, पर बुद्धिमान कम ही होते हैं ।
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जब घर का मालिक, घर बनाने वाला ही घर को जला रहा हो, तो कोई आग बुझाने के लिए पानी कैसे डाल सकता है।
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अपने पाँव पर खड़ा होकर अपने निर्णय और चुनाव करोगे तो कोई तुम्हें कुछ नहीं कह पाएगा।
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जिस वृक्ष की जड़ें मजबूत होती हैं, उसका तना कभी नहीं सूखता।
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यह संक्रमण का समय है। इसमें सबसे पहले जीवन मूल्य टूटते हैं और इंसानियत का हनन होता है।
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लोगों की यादाश्त लंबे समय तक नहीं रहती। बातों को जल्दी ही भूल जाते हैं।
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सच बोलने और सच सुनने की कभी- कभी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।