1- नहीं भूली हूँ
नहीं भूली हूँ मैं आज तक
अपने बचपन का वो पहला मकान
पिताजी का बनाया वो छोटा मकान
कुछ ऋण ऑफिस से
बाकी गहने माँ के काम आए
मेरे लिए वो ताजमहल था
सफेद न सही लाल ही सही
छत पर सोने का मज़ा तो वैसे भी
ताजमहल में कहाँ आ सकता था
नहीं भूली हूँ आज तक वो मिट्टी का सोंधी महक
जब हम शाम को छत पर पानी उड़ेलते
तपिश कम हो तो रात को छत पर सोएँगे
छत की सफाई ने हमें जैसे टाइम मैनिज्मन्ट सिखा दिया था
स्कूल जाना, फिर होमवर्क करना, खेलना, खाना
और फिर रात को ऊपर सोने के लिए
छत पर छिड़काव, वो माटी की भीनी-भीनी खुशबू
बिछौना व छत वाले पेड़ के नीचे मस्ती
आसमां में चमकीले तारे
चाँद को देखना, और फिर सोना
नहीं भूली हूँ आज तक, वो मेरे शहर की सुबह
चिड़ियों का चहचहाना
मुर्गे की बांग, माँ का नीचे से आवाज़ें लगाना
मेरा उस सोंधी खुशबू में लिपटे-लिपटे बड़े हो जाना
खुशबू मे तैर कर सात समुंदर पार आना
यहाँ खुशबू के तो पंख निकल आए थे
मैं जब चाहे उड़ कर उस पुराने मकान
को छू आती थी
वो छुअन वाले मोह के धागे ही तो थे
जिन्होंने मुझे मेरे मकान से बांधे रखा
इसीलिए नहीं भूली हूँ मैं आज तक
अपने बचपन का वो पहला मकान
जिसकी यादें दिल में सीमेंट बन गई है
और दिल वही मकान बन गया है
2- धूप की मछलियाँ
बनारस के घाटों पर
नयी करवटें बदलती ज़िंदगी
अंतिम यात्रा
एक बुलबूला फटता है
जिसमे जीवन कैद था।
बस यह तो बाहरी छिलका था जो गिर गया
बाहरी सतह टूट गयी
अंदर की तो फिर नयी यात्रा, नया चक्र और योनि
मिलन और विलय शुरू होता है
यही श्रीष्ठि का सत्य है
जैसे जल किसी को रुका हुआ सा लगता है
दूसरा कहता है नहीं चल रहा है
तीसरा कोई बोल पड़ता है कि
देखो इस पानी में तो धूप की मछलियाँ तैर रही हैं
फिर कोई बोल उठता है
तैरती हुई तो एक ऊर्जा है
कर्मों के हिसाब से रूप बदलना ही उसका काम है
छलावा है या सत्य
ब्रह्मांड पर छोड़ दो….
शिव से पूछो की क्या सत्य है?
उसके पहले अपने अन्तर्मन में एक अपना
शिवलिंग बनाना होगा।
जर्जर मन के लिए पुरातत्वेता बनना होगा
कर्मों के रसायन में घाट की मिट्टी मिला कर
शिव पर छोड़ना होगा
फिर जब तुम अपनी अंतिम यात्रा के लिए
बनारस का द्वारा लांघोगे
तभी मोक्ष को पाओगे
धूप की मछलियाँ भी साफ-साफ देख पाओगे।
धूप की मछलियाँ कविता सराहनीय है। साधुवाद