Saturday, October 5, 2024
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अनु चक्रवर्ती की पाँच कविताएँ

1 – रजोनिवृत्ति
ऐसे ही किसी ऊँघते हुए दिन में
आह्वान और विसर्जन
की तय सीमा को लाँघकर
झिँझोड़ने लगती है
हठीली यह गात
मध्यांग अवश से प्रतीत होने लगते हैं
उदर की पीड़ा
आहिस्ते से ज्वर में
तब्दील हो जाती है
जीभ क्षारीय हो उठती है
और आँखें जलने लगतीं हैं
मन खिन्नता की सात परतों में
डूबता उतरता हुआ
एकांतिक आमादा हुआ जाता है
कोई औषध काम नहीं आती
मेघ भी शीतलता नहीं बरसाते
अर्धरात्रि देह की ऐंठन में वृद्धि होती है
यकायक रुधिर का बहाव
द्रुत गति से बढ़ने लगता है
ऐसे में झुनझुनी और क़दमों की सूजन
स्त्री की स्वस्थ चाल में
अवरोध उत्पन्न करते हैं
नब्ज़ देख वैद्य बताते हैं कि –
स्त्री के जीवन में लौह और खनिजतत्व की
कमी पसरने लगी है
यानि स्त्री पुनः
शारीरिक झंझावातों की गिरफ़्त में
दुर्बल होने लगी है
न जाने कितने ही ऋतुओं की
पीड़ा को सहकर उसका यह शरीर
भीगता और सूखता रहा जीवनपर्यंत,
न जाने कितनी ही बार उसने
दम साधकर पूरे किये हैं
चौका-बर्तन, बच्चों के गृहकार्य
और दफ़्तरों की फ़ाइल्स
फिर आज विदा का कोई एक क्षण
यूं काहिल नहीं बना सकता अचानक उसे
आयु के इस नवीन पथ पर
अपनी ही धरा को रक्तिम होते देख
थम जाने को एक पल की मोहलत भी
उसे शायद नहीं देगा यह संसार
अपने अदम्य साहस की ऊर्जा को
संग लिए अखिल व्योम में
फिर से उकेरने ही होंगे उसे
आशाओं के नव्य इंद्रधनुष
अस्थि मज्जाओं में
खिलाने होंगे अपनी
जीवटता के स्वर्णिम पुष्प
रजस्वला हो तुम
या कि
गुज़र रही हो रजोनिवृत्ति के प्रचंड वेग से
हे स्त्री! स्मरण रहे-
तुम्हारा रुकना या थकना
संसार को कदापि स्वीकार्य नहीं
2 – मैंने अपनी दादी को नहीं देखा
मेरे पिता आजीवन वंचित रहे
अपनी माता के वात्सल्य से
और मैं,
जीवनपर्यंत विमुख रही
अपनी ही दादी की
स्मृतियों से
बचपन में गांव घर के कुटुंब से
कहते सुना था कई बार
कि जब दादी
अपने दुधमुंहे बच्चे को छोड़
परलोक सिधार गईं
तब छोटकी बुआ ने
पिता को मां जैसा स्नेह दिया
पाला-पोसा और बड़ा किया
विषण्ण हो उठता है मन
ये सोचते ही कि
नवजात शिशु को त्याग कर
स्वर्ग जाती किसी स्त्री के
हृदय की व्यथा,
भला कितनी त्रासद रही होगी
बिन माँ के बच्चों को इस संसार ने
गले से लगाये रखने की जगह
दुःखापन्न कहकर पुकारा
माँ की आसक्ति से विपन्न
हतभागी बच्चे
कभी नहीं जान सके
ज्वर में तपते माथे पर
स्नेहसिक्त शीतलता के
स्पर्श का रहस्य
या की
माँ के बनाए अमूल्य व्यंजनों का स्वाद
माता विहीन स्कूल जाते बच्चों ने
न कभी माँ की दी हुई हिदायतें सुनी
और न ही कभी देर तलक
खेलते हुए बच्चों ने सुना,
समय पर
घर लौट आने के मनोहारी शब्द
बड़े होकर स्त्रियों से संवेदनात्मक संबंध
स्थापित करने की पारी में
इन्हीं बच्चों ने
कभी अपने मन की नहीं सुनी
और न ही कभी विनयशीलता का
कोई परिचय ही दिया
अपनी माँ से बिछड़े मेरे पिता ने
पूर्वजों की मातृभूमि
“मालदहा” की स्मृतियों को आमरण
संजोये रखा कुछ ऐसे कि जैसे
कोई नन्हा बालक अपने खिलौने के
बक्से की करता हो पहरेदारी
इधर सुनती हूँ अपनी दादी से
बच्चे करते हैं
ख़ूब सारा लाड़
मनवाते हैं अपनी सारी छोटी बड़ी ज़िदें
चूमते हैं घड़ी-घड़ी
उनके गाल और भाल
इन दिनों रात्रि के दूसरे पहर
अनगिनत तारा-मंडलों के विशाल कक्ष में
ढूंढती हैं मेरी दो सजल आँखें
अपनी ही दादी का सुरम्य चेहरा
वही लाल पाड़ वाली
सफेद साड़ी का गोटेदार पल्लू
और भौंहों के मध्य
बड़ी-सी गोल बिंदी
कि जैसे,
पहाड़ियों की ओट से
उदित होता हो
भोर का सूर्य
माई री !
आज कौन जतन करूँ कि
क्षण भर को दिख जाए
मेरी कल्पनाओं के धरातल पर
अंकुराती दादी की आकृति
ये भी तो मेरे हिस्से का दुर्भाग्य,
मैंने अपनी दादी को कभी देखा नहीं
3 – असमंजस की पीड़ा
सारा यथार्थ उलीचने के पश्चात
बाकी रहा नहीं कुछ भी
जताने को प्रीतिकर
मन दुःखी हो तो ख़ूब बातें होती हैं
तबियत उदास हो तो
झीना – सा पर्दा आवश्यक है
शहर में मुख्य सड़क के
अलावा भी कई संकरी गलियां हैं
जिस पर चलकर पहुंचा जा सकता है
कॉफ़ीशॉप वाले पुस्तकालय तक
देर रात तक कमरे में बैठकर
सोचा जा सकता है
किसी चित्रकार की कूची में
बिखरे रंगों के विषय में
कैमरे में झाँककर
तस्दीक़ की जा सकती है
नेपथ्य में बज रहे
सुरमई संगीत के रहस्य के विषय में
इस संसार में सबसे कठिन है
प्रेम को पाकर भी
उसे अभिव्यक्त न कर पाने की कसक
कितने ही छलावे में भटकता है ये मन
सामने से बीते हुए को निकट आता देख
कुलाँचे भरने लगता है, जतन करता है
ये जानते हुए भी की वायुमंडल में
मेघ के साथ तैरते हैं रजकण अनेक
प्रत्येक प्रिय का विछोह एक दिन तय है
छूटना स्मृतियों में दर्ज़ होता रहता है
फिर हम क्यों समेटने के हुनर से
वंचित रह जाते हैं
अंधेरे की सुंदरता मोह लेती है
उजाले में उपजी मौन की भाषा से
अनभिज्ञ होते हैं लोग
पावस किसी के लिए
दुदान्त यातना से भरा होता है
अभिमान के चरम पर
अबोलेपन के चाबुक की मार
जितना ही कष्टकर
उन औषधियों को तलाशती हैं आंखें
जिनके रस को निचोड़ कर
हृदय में उपजी असमंजस की पीड़ा को
दूर किया जा सके
4 – स्कूल से छूटती लड़कियां
सदल
वृंद
या जत्थे में स्कूल से छूटती
लड़कियां चहचहाती हुई
लगती हैं
बिल्कुल रामचिरैया जैसी
लाल नीले हरे सफ़ेद
रीबन से सजी
उनकी चोटी में गुंथे होते हैं यूँ तो
दिन भर के क़िस्से और हैरतअंगेज़ अनगिनत कहानियां भी
अपनी ही पीठ पर लदे बस्ते में
किताब कॉपी और अचार से सने टिफिन डब्बे के मध्य
न जाने वो कब चुपके से
समेट लेती हैं
भविष्य में पूरे किये जाने वाले
बड़े कामों की एक लम्बी सूची
स्कूल से छूटती लड़कियों को
अक्सर भाता है
गली के मोड़ पर रुक- रुक
वार्तालाप करना
और बनाते चलना
ख़ूब सारी कच्ची -पक्की योजनाएं
आने वाले कल की….
स्कूल से छूटती लड़कियों की नज़रें
निरंतर ढूंढा करती हैं
परिसर के आसपास लगे
ठेलों और गुमटियों में
अपनी मनपसंद
बोरकूट,फल्ली,मीठीइमली,जलेबी
चनाचपटी और पापड़ी
अपनी ही कही
और
अपनी ही धुन में रमी
स्कूल से छूटती ये अल्हड़ लड़कियां
बाज़दफ़े बिल्कुल बेसुध
और बेख़बर रहतीं हैं
स्कर्ट या कुर्ते में लगे
दाग़ -धब्बों के छीटों से
घर के आँगन में प्रवेश करते ही
माँ चाची या दादी की पड़ती है
उन धब्बों पर पैनी नज़र
और तब हाथ खींच कर
ले जाती है माँ!
अँधेरे कोने वाले बरामदे या कोठरी में
समझाती बताती हैं
धीरे से अपनी आपबीती
कहती हैं
आगे के पांच से सात दिन बीतेंगे कठिन
न जाना दादी के कमरे,
पूजा घर या की रसोई में
रहना परिवार वालों से थोड़ा दूर दूर..
स्कूल जाती लड़कियां
अवाक होकर सुनती हैं
सारी हिदायतें
कोसती हैं बार -बार उसी मुए दाग को
जिसके कारण उनकी स्वतंत्रता
आज प्रतिबंधित हुई
यकायक सखी सहेलियों से
किंचित विलग और बड़े होने का
मन में अहसास छुपाये
कक्षा में कदम रखते ही
लड़कियां ख़ुद को बरबस ही
समेटने का करती हैं
बारम्बार प्रयास
स्कूल से छूटती लड़कियां
अब समय पर पहुंचतीं हैं घर
गली मुहल्ले या छज्जे में दिखती हैं कम
कतराती हैं अतिरिक्त
किसी शिक्षक के
समीप आने से
रहती हैं इन दिनों तनिक
उदास …..उनींदी…..
5 – माइक्रोफ़ोन के अंदर भी होती है आँख
माइक्रोफ़ोन के अंदर भी होती है
एक जोड़ी आँख
जो भाँप लेती है सहज ही
मन और कंठ के भीतर
आंदोलित हो रहे भावों को
बित्ते भर की दूरी से
अक़्सर नाप ली जाती है
सुनने वालों की धड़कने
उनके हृदय में उमग रही क्लान्ति
और श्रव्यता की कलाएं
अनुभवजन्य निपूर्णता के बावजूद
अधीरता में छोड़ी एक सांस भर से किरकिरा जाता है इसके समक्ष
सम्पूर्ण वैभव किसी संवाद का
माइक्रोफ़ोन को पसंद है
इसके थोड़ा नज़दीक जाकर आहिस्ते से
पूरी तरह ईमानदार होकर बोलना
और स्वर के
आरोह व अवरोह के मध्य
गहराता संतुलन
बरस बीते एक अदृश्य दुनिया के साथ
संवाद क़ायम रखते हुए मैंने
अनुभूत किया है कई – कई बार
हर्ष, विषाद ,वात्सल्य
उत्सुकता,उल्लास,ज्वर
हिम,वृष्टि ,शीत ,वायु
और जीवन – मरण को
उस पार के संसार में व्याप्त राग- रंग
अभिप्राय,चिंता और बेसब्री को
जानने बूझने के लिए यहां काफ़ी था
कल्पना और तरंगों के ज़रिए
मेरा एकल संवाद
माइक्रोफ़ोन के सम्पर्क में आते ही
सजग हो उठती है जिव्या
चैतन्य हो उठते हैं श्रवणेन्द्रिय
निखरने लगती है शिरोधरा
बहरहाल इसकी दृष्टि से बच पाने के नहीं करने चाहिए कभी कोई कृत्रिम उपाय..
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