1 – रात एक राह थी
मैं बिन पंखों वाली पक्षी थी
रोज रात भागती थी इस दुनिया से
आजाद होती थी अपनी कोठरी से, अपनी बंदिशों से
नहीं लगा था कोई ताला
लेकिन पैर अपनी हदें कब जान बैठे नामालूम?
मैं परी थी अपने पिता की
लेकिन पिता नहीं जान पाएँ परियों का मतलब
इक्कीसवीं सदी में भी
इससे ज्यादा अफसोस की बात
इस समय में और क्या हो सकती है
निस्संदेह मैं भाग जाया करती थी
हैरां, परेशां रात के अंधेरों में
एक अजनबी दुनिया में
जहाँ दुःख की परछाई तक न पास थी
सुख का मतलब नहीं पता
लेकिन तारों से प्रेम करना भाता था
दिन के उजाले में स्याह दाग़
रात रोशनी में मधुर गीत गुनगुनाती थी
मैं रोज लिखती थी एक कविता स्वप्नों में
कर देती अंजान प्रेमी के नाम
बदले में एक रात मयस्सर थी मुझे
और खुश हो जाती मैं
रात एक राह थी
जहाँ मैं चलती थी अपने पैरों पर
दिन प्रतीक्षाओं से भरा था।
2 – किसान और कवि
मेरे कमरे में
अक्सर रहती है तकिये के नीचे एक किताब
जिसके पन्ने लेते हैं सांस
रात के बारह बजे के बाद
पिता चाहते थे
मैं बनूँ डाॅक्टर या इंजीनियर
जिससे बढ़ती रहे वर्षों की परंपरा
मैं हमेशा उनके इस परंपरा के ख़िलाफ़ रही
एक दिन उनके विरुद्ध ही बोल बैठी
मैं बनूँगी किसान
वे गुस्से से चीख़ पड़े मुझ पर
लड़कियाँ खेती नहीं करतीं
चूल्हा फूँकती हैं
वे जानते थे आँसुओं की बूंदों से चूल्हे नहीं जला करते
वे अपने दुःख को छिपाते हुए बोले
मैं हूँ किसान
ग़ौर से देखा मैंने
कहते हुए अपने ही गुनाहगार लग रहे थे वे
उन्हें बहुत उम्मीद थी मुझसे
मैंने कवि बनकर कविता की खेती शुरू कर दीं
कागज़ जमीन बन गई, कलम हल
अबकी उन्हें फूटी नजर नहीं सुहा रही थी मैं।
दिव्या श्री, कला संकाय में स्नातक कर रही हैं। कविताएं लिखती हैं। बेगूसराय बिहार में रहती हैं। प्रकाशन: हंस, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, समावर्तन, ककसाड़, कविकुम्भ, उदिता, इंद्रधनुष, अमर उजाला, शब्दांकन, जानकीपुल, अनुनाद, पोषम पा, कारवां, साहित्यिक, हिंदी है दिल हमारा, तीखर, हिन्दीनामा, अविसद, सुबह सवेरे ई-पेपर। संपर्क - divyasri.sri12@gmail.com

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