Wednesday, October 16, 2024
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दीपक शर्मा की कहानी – ज्वार

’’जबरदस्ती है कोई ?’’ बाथरूम से तृप्ति के बड़बड़ाने की आवाज आई।
सुनी मैंने अनसुनी रहने दी।
’’जबरदस्ती है कोई ?’’ उसकी आवाज तेज हो ली । ’’जबरदस्ती भी कैसी ? घोर, घनघोर जबरदस्ती।’’
’’चुप हो जा……’’ अपने बिस्तर से उठकर मैं बाथरूम में चला गया।
बाथरूम की दीवार के दूसरी तरफ बेटे और बहू का कमरा था।
’’जबरदस्ती इतनी ठीक नहीं है…..ठीक नहीं है…..।’’ उत्तेजना में तृप्ति अकसर अपने वाक्यों के अंतिम अंश दोहराने लगती- ’’बात आपकी मैं नहीं मानती…..नहीं मानती मैं….नहीं मानूँगी मैं….।’’
’’पापा !’’ बेटे ने दरवाजे पर दस्तक दी। उसका आदेश रहता कि रात में हम लोग अपने कमरे के दरवाजे की सिटकिनी चढ़ाकर सोया करें। ताक-झाँक करने का बहू को शौक था, इसलिए।
’’मिट्टी खराब करना तूने छोड़ा नहीं।’’
हमारे विवाह के सत्ताईस वर्षों में एक भी दिन के चौबीस घंटे ऐसे न रहे थे जिसमें तृप्ति को दो-एक बार मिचली न हुई हो या फिर एक-दो बा रवह रोई-चिल्लाई न हो। उसी सौतेली माँ के अनुसार, छठी जमात में उसकी पढ़ाई छुड़ा देने का कारण भी यही रहा था। बचपन ही से उसका रोगग्रस्त बने रहने का हठधर्म। 
’’जबरदस्ती इतना ठीक नहीं है।’’ तृप्ति चिल्लाई, ’’ठीक नहीं है…..’’
’’पापा !’’ बेटे ने दरवाजे पर दोबारा दस्तक दी।
मैं सिटकिनी खोल दी।
’’क्या बात है माँ ?’’ बेटा बिस्तर पर तृप्ति की बगल में जा बैठा।
’’मैं यहाँ नहीं रहना चाहती।’’ तृप्ति रोने लगी। ’’नहीं रहना चाहती। रेलवे में जगह नहीं मिलती, न सही। तू मेरा पार्सल बना दे। ऊपर मेरा पुराना पता लिख दे। डाक वाले मुझे अपने आप उधर पहुँचा देंगे……उधर पहुँचा देंगे…..’’
’’वह पुराना मकान हमने बेच डाला है माँ !’’ तृप्ति को शांत करने की चेष्टा बेटे ने जारी रखी।
’’जबरदस्ती ?’’ तृप्ति अपनी लहर में हिलकोरे लेती रही। ’’वहाँ मेरी माँ के हाथ के कढ़े शॉल हैं, मेजपोश हैं, पलंगपोश हैं….उन्हें धूप दिखलानी है…..धूप दिखलानी है….हवा खिलानी है….’’
’’वह सारा सामान हम यहाँ ले आए हैं माँ !’’ बेटे ने तृप्ति की पीठ घेर ली।
’’जबरदस्ती ?’’ रोना भूलकर तृप्ति चिल्लाने लगी। ’’उधर मेरे पास अकेली सोने-बैठने को एक पूरी मियानी है….अपनी मियानी है…..।’’
उधर हमारे कस्बापुर के मकानों में नीची छत वाली एक ऐसी कोठरी जरूर रखी जाती है जो मकान के मध्य भाग के किसी एक कमरे की छत के दरमियान रहती है, जिसमें गृहिणियाँ अपने निजी, कीमती असबाब के साथ-साथ तात्कालिक काम में न लाया जाने वाला सामान भी टिकाए रखती हैं-जैसे फालतू गद्दे या रजाइयाँ। जरूरत से ज्यादा बना अचार या मुरब्बा, केवल खास मेहमानों के लिए सुरक्षित रखा गया मेवा या मद्य-पेय।
’’तुम्हारा सारा सामान यहीं है, माँ !’’ बेटे ने अपनी आवाज धीमी कर ली, बहुत धीमी। जब भी गुस्सा उस पर हावी होता, वह अपनी आवाज इसी तरह धीमी कर लेता, ’’तुम बताओ, तुम्हें अपने सामान में से क्या चाहिए ?’’
’’जबरदस्ती ? कहाँ ? मुझे तो यहाँ कुछ भी नजर नहीं आता। अपना कुछ भी नजर नहीं आता। हर चीज यहाँ बेगानी ही बेगानी है….बेगानी ही बेगानी है।’’
’’इधर इस परछत्ती में रखा है।’’ बाथरूम की छत पर बनाई गई छाजन के पल्ले इधर कमरे की दीवार में खुलते थे।
’’जबरदस्ती ? इसे तू परछत्ती कहता है ?’’ तृप्ति भड़क उठी। ’’दो बित्ता जगह नहीं इसमें और मेरा सामान तो इतना ढेर था, ऐसी तीन जगहों में भी पूरा न पड़ता…..। ऐसी तीन जगहों में भी पूरा न पड़ता….पूरा न पड़ता….।’’
’’ऑल दिस वूलगैदरिंग इज गोइंग टू डेथ (इधर-उधर की इतनी बात मेरी बरदाश्त से बाहर है)।’’ बहू हमारे पास चली आई।
बेटा और बहू आपस में ऐसी खास अंग्रेजी ही इस्तेमाल में लाते। शुरू में मैं कुछ भी समझ न पाता था। फिर मैंने अमेरिकी स्लैंग की एक डिक्शनरी खरीद डाली थी और सब समझने लगा था।
’’जबरदस्ती ? कौन है यह ? इधर क्या कर रही है ? इधर इसे किसने बुलाया ? किसने बुलाया ? इधर इसे किसने भेजा ? किसने भेजा ?’’
बहू तृप्ति के सामने बहुत कम पड़ती थी। हीला उसके पास तैयार था ही। ’’मैं हिंदी नहीं जानती और मम्मी अंग्रेजी नहीं जानतीं।’’ हालाँकि बेटा मुझे कई बार चेता चुका था-’माँ से कहिए, इसके सामने सँभलकर बात किया करें। यह हिंदी पूरी समझती है।’
’’डिड शी गेट आउट आव बेड द रश्वद्दँग साइड ? (यह कैसी तुनुकमिजाजी है ?) शी डज नॉट हैव ऑल हर स्विचेज ऑन (इनका दिमाग इनके वश में नहीं),’’ बहू ने अपनी नाक सिकोड़ी।
’’यह बोली कौन-सी बोल रही है ? शब्द अंग्रेजी के और उनके जोड़ ऐसे अटपटे ? सुनते ही जिन्हें दिमाग घूम जाता है ? दिल डूबने लगता है ? हमसे छिपाने वाली इतनी बातें इसके पास जमा रहीं तो यह इधर आई ही क्यों ? क्यों आई इधर ? मुझे बावली बनाने के वास्ते….बावली बनाने के वास्ते ?’’ तृप्ति फिर चिल्लाई।
’’शी इज ऑल पिसस एंड विंड (ये बहुत फालतू बोल रही हैं)।’’ बहू ने बेटे को एक बनावटी मुस्कराहट दी-’’शी गिव्ज मी ग्रीफ (ये मुझे कष्ट पहुँचा रही है)।’’
’’जबरदस्ती ?’’ तृप्ति चिल्लाई। ’’तू इसे यहाँ से भगाता क्यों नहीं ? भगाता क्यों नहीं?
’’लेट्स गिव हर द ऐयर एंड गेट बैक (हम इन्हें छोड़ देते हैं और उधर लौट लेते हैं)।’’ बेटे ने बहू का हाथ थाम लिया और उसे हमारे कमरे से बाहर ले आया।
’’क्या बोले वे ?’’ तृप्ति मेरी दिशा में मुड़ ली-’’क्या बोले वे ?’’
’’तू क्या-क्या बोली ? तुझे अपना पता है ? सबके सोने का समय है। रात का ग्यारह बज रहा है और तू अपना राग अलाप रही है। सबकी नींद खराब कर रही है…..’’ तृप्ति की अल्लम-गल्लम पर मैं विराम लगाना चाहता था।
इकलौती संतान को साधनसंपन्न बनाने में सफल रहे थुरहथे पिता बुढ़ापे में शायद ज्यादा कष्ट पाते हैं। बेशक कस्बापुर का अपना मकान बेचने के पक्ष में जो तर्क बेटे ने मुझे दिए थे, सभी उस समय मुझे युक्तियुक्त लगे थे, निष्कपट लगे थे, समरूप लगे थे। उनकी प्रचंड़ता, पहुँच और दीर्घसूत्रता तो पिछले महीने यहाँ मुंबई में आने के बाद मिल रहे अकल्पित कष्टों ही ने उजागर की थी, विशेषकर रात के समय। दिन में मैं बाजार करने के बहाने निकल भी लेता, लेकिन रात में क्या करता, कहाँ जाता ?
’’आप थोड़ा पानी पी लो, माँ !’’ बेटा कमरे में लौट आया।
उसके हाथ में एक गिलास था। आधा भरा।
’’जबरदस्ती ?’’ तृप्ति फिर चिल्लाने लगी। ’’यह पानी कहाँ है ? यह तो कोई 
दवा है…..।’’ पानी पारदर्शी न था। सफेद था।
लेकिन अपनी जिज्ञासा मैंने दबा ली। ’’पानी है माँ, यह पानी ही है !’’
’’जबरदस्ती ? यह पानी है ?’’ तृप्ति ने मेरी ओर देखा।
संकट की स्थिति में अपनी आशंका वह मेरे सुपुर्द कर देती। रोष के समय भी।
’’यह पानी है ?’’ मैंने बेटे से पूछा।
’’पानी ही तो है।’’ बेटे ने मेरी दिशा में अपनी आँख मिचकाई, ’’पानी ही तो….’’
’’फिर पिलाते क्यों नहीं ?’’ बेटे के षड्यंत्र में मैं सम्मिलित हो लिया।
बेटे ने अपनी बाईं भुजा से तृप्ति का सिर अपनी कमान में ले लिया और दाएँ हाथ से पानी का वह घोल उसके गले में उतार दिया।
’’आप अब सो जाओ माँ !’’ बेटा बिस्तर से उठ बैठा।
’’जबरदस्ती ?’’ तृप्ति की आवाज थोड़ी लड़खड़ाई। ’’मेरा सामान मुझे दिखलाओगे नहीं?’’
’’सुबह दिखलाऊँगा ।’’ बेटे ने अपने कदम कमरे के दरवाजे की ओर बढ़ा लिए।
’’पानी में क्या मिला था ?’’ मैंने उसका पीछा किया।
’’नींद की गोली ।’’ वह मेरे कान में फुसफुसाया और पार निकल गया। 
दरवाजे की सिटकिनी मैंने चढ़ा दी और बिस्तर पर लौट आया।
तृप्ति से चुकी थी। एक हलकी कँपकँपी से जब-तब काँपती हुई।
रात के किसी एक पहर एक सरसराहट मेरे कानों से आ टकराई और मेरी नींद टूट गई।
मेरी निगाह तृप्ति पर पड़ी और वहीं ठहर गई।
सरसराहट उस पर सवार थी….वही उसके अंदर उतर रही थी…..उसकी आँख की पुतलियों से खेलती हुई….
उसकी नाक के दोनों नथुनों से उसकी साँस एक साथ खींचती हुई…..
बाहर, बाहर, बाहर….
तालबद्ध, निर्विध्न, एक समान ।
उसकी कँपकँपी उसके अंदर से उठ रही थी, जैसे कोई हिचकी या छींक : बाध्यकर मगर लयहीन। यह सरसराहट अलग थी। बाहर से, ऊपर से तृप्ति को पराभूत किए जा रही थी।
मैं डर गया और तत्काल बेटे को बुला लाया।
अनजानी उस सरसराहट की थाप अपनी ठोंक निपटा चुकी थी।
कमरे में अब सन्नाटा था : पूर्ण, समापक सन्नाटा।
तृप्ति का सिर तिरछा झुका था और चेहरा ऊपर की ओर उठा था : उपद्रवी और अशांत।
यह उसका स्थायी भाव था। हालाँकि सन् छियत्तर में मेरी माँ ने जब उसे मेरे लिए चुना था तो बस एक ही बात पर ध्यान दिया था कि-’लड़की के मुँह में जबान नहीं है।’ उस समय मैं चौंतीस वर्ष का था और वह अठारह की। सन् साठ में हुए मेरे पिता के आकस्मिक निधन ने वर्षों तक तेरा विवाह स्थगित रखे रखा था। एक तरफ पाँच छोटी बहनों की जिम्मेदारी लादकर और दूसरी तरफ उनके स्कूल की फीस-क्लर्की। यह अलग बात है, दोनों को निभाने के साथ-साथ ही मैंने सन् उनसठ में इंटरमीडिएट पार की थी। सन् तिहत्तर में बी0ए0 और सन् पचहत्तर में अंग्रेजी में एम0ए0 । और जब तक पाँचवीं बहन ब्याही गई थी, मैंने अपने पिता वाली फीस-क्लर्की छोड़कर उसी स्कूल में अध्यापकी शुरू कर दी थी, जहाँ से अभी पिछले ही साल मैंने सेवानिवृत्ति पाई थी।
’’माँ !’’ बेटे ने तृप्ति का माथा छुआ और अपना हाथ खींच लिया-’’आप देखिए, पापा.’’
तृप्ति…..!’’ मैंने उसका कंधा हिलाया।
’’शैल आइ ओल्सो गिव हर द वन्स ओवर (क्या मैं भी इन्हें जाँच-परख लूँ ?) ?’’ बहू बेटे के पीछे-पीछे चली आई थी।
हम दोनों वहाँ से हट गए थे और ड्राइंगरूम में चले आए।
’’नींद की कितनी गोली दीं ?’’ मैंने पूछा। ’’उस समय मैं उन्हें चुप कराना चाहता था। मुझे डर था, अपने ज्वार में वे कुछ ऐसा-वैसा न उगल दें….’’
’’ऐसा-वैसा क्या ?’’ मैंने बेटे को ललकारा-’’क्या उलग देगी ?’’
’’आप उन्हें अपने पास सोने नहीं देते। सोने के लिए बाथरूम में भेज देते हैं….’’
’’वहाँ सोने की जिद उसकी अपनी जिद थी। कहती-’इधर एयरकंडीशनर में सोऊँगी तो मुझे जुकाम हो जाएगा। बुखार हो जाएगा। जोड़ों में दर्द शुरू हो जाएगा। उधर बाथरूम में एक खुली खिड़की है, वहाँ मुझे ताजी हवा मिलेगी….’ हमारे शयनकक्ष में जो एकल खिड़की रही, वह उसके एयरकंडीशनर ने घेरी रही।’’
’’आप जो भी कहें, आप उन्हें उधर सोने से रोक सकते थे।’’ बेटे ने मुझे उलाहना दिया-’’आपकी बात वे कैसे टाल देतीं ?’’
’’क्यों ? तू नहीं जानता, कैसी बगावती और अक्खड़ रही वह ?’’
’’आपने ज्यादा कहा भी तो नहीं ?’’
’’क्या मतलब है तेरा ?’’ मैं उबल पड़ा- ’’तू सोचता है कि इधर उसे लाकर तूने बड़ा भला किया उसका ? घर-बेघर कर दिया उसे ? ठौर-कुठौर बिठला दिया। 
विदेशी, बेरहम बहू उसकी छाती पर चढ़ा दी और….।’’
’’बेरहमी दिखलाने के लिए विदेशी होना जरूरी नहीं।’’ बेटा मुकाबले पर खुले-खुले उतर आया-’’उसे पुराने घर की मियानी ही की बात क्यों की उन्होंने ? बाकी कमरों का नाम क्यों नहीं लिया ? क्योंकि मियानी ही पूरे घर में उनकी अपनी थी, बाकी सभी जगह आपने घेर रखी थी…..।’’
चकित मैं बेटे का मुँह ताकने लगा। उसके चेहरे की ठवन मुझसे देखे न बनी।
हमारे संबंध के अनुशासन के प्रति इतनी अश्रद्धा !
मानो वह घोषणा थी-’पापा, आपका शासन खत्म हुआ और आपकी ताकत तितर-बितर।’
मानने के लिए मेरे पास क्या मन्नत बची रही अब ?
माँगने के लिए क्या आश्वासन ?
इस फ्लैट का आजीवन आश्रम ?
और फिर अपने देहांत पर उसके हाथों अपना दाह-संस्कार ?
’’ईवन इफ यू कॉल द डॉक्टर यू विल गेट द वुडन स्पून (आप डॉक्टर को बुलाओगे भी तो आपकी मात होगी)’’ बहू ड्राइंगरूम में आ गई।
’’रैप अप !’’ बेटा टेलीफोन की ओर बढ़ लिया- ’’मैं डॉक्टर बुला रहा हूँ।’’
डॉक्टर ने हमारे संदेह की पुष्टि की तो बहू मेरी बगल में आ बैठी-’’गुड, ही डाइड हियर विद अस अराउंड टु हेल्प यू (अच्छा हुआ, वे यहाँ मरीं, जहाँ हमारी सहायता आपको उपलब्ध है)।’’
मेरे साथ वह सामान्य अंग्रेजी ही बोलती।
’’येस !’’ इतना ही कहा मैंने।
बेटे ने चेहरा अपने हाथों से ढँक लिया और रोने लगा।
’’चिल्लआउट हनी !’’ बहू मेरी बगल से उठकर बेटे की बगल में जा बैठी-’’शी वाज अ बैड क्लेम, एनी वे (वे रूग्णा तो थीं ही)।’’
दीपक शर्मा
दीपक शर्मा
हिंसाभास, दुर्ग-भेद, रण-मार्ग, आपद-धर्म, रथ-क्षोभ, तल-घर, परख-काल, उत्तर-जीवी, घोड़ा एक पैर, बवंडर, दूसरे दौर में, लचीले फीते, आतिशी शीशा, चाबुक सवार, अनचीता, ऊँची बोली, बाँकी, स्पर्श रेखाएँ आदि कहानी-संग्रह प्रकाशित. संपर्क - [email protected]
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1 टिप्पणी

  1. दीपक जी की कहानी स्तबध कर गयी, बदलते सामाजिक परिवेश में सबसे अधिक नुक्सान पारिवारिक संबंधों और नैतिक जीवन मूल्यों का हुआ है,, मां जो परिवार की धुरी है,पूरा घर, उसकी जिम्मेदारियां, उसके आस पास घूमती रहती है, फिर भी वह सबके बीच रहकर भी अकेली रहती है,घर का कोई एक कोना जहां उसे सुख, सुकून मिलता है वह मियानी जैसी ही कोई निकृष्ट सी जगह होती है,,नयी पीढ़ी उसके सपनों को, उसके घर परिवार से जुड़े लगाव,को समझ नहीं पाती,यह कहानी मन को गहराई से स्पर्श करती है, शायद यह हर उस महिला की नियति है,जो केवल स्वीकार करना जानती है, अपने संघर्षों के दायरे में ही वह जीती है,मरती है,, किसी का हस्तक्षेप नहीं चाहती अपनी निजी एकांत की दुनिया में,, अंत प्रभावशाली है जहां वहीं बहू का उपेक्षित व्यवहार मन को व्यथित करता है,, मैं इस कहानी की पीड़ा को महसूस कर रही हूं, बहुत सुंदर, मार्मिक कहानी,, बधाई हो दीपक शर्मा जी

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