1 – अकेली
तुम खुद ही
अपनी दुनिया से
मेरी दुनिया में आए थे
मैंने तुम्हें स्वीकारा था
अन्तरमन से चाहा था
तुम्हारे दिखाये सपनों के
इन्द्रधनुषी झूले से झूली थी
तुमने दिखाई थी बहारें
लिपट गयी थी गुलाबों से मैं
तुम्हारी उंगली पकड़
नन्ही बच्ची-सी चलने लगी थी
अपने मन के अंदर
तुम्हारी ही बनाई सड़क पर
चलने लगी थी मैं
तुम बन गए थे
मेरी पूरी दुनिया
आसमान के चाँद ने भी
ले ली थी शक्ल तुम्हारी
पर
तुम अपने छोर
अपनी दुनिया के खूँटों पर
अटका कर आए थे
उस दुनिया के लोग
एक-एक करके खींचने लगे थे
तुम्हारे छोर
तुम्हारी कमजोरी
मेरा प्यार टकराने लगे
आज मैं फिर से हो गयी हूँ अकेली
पहले से भी अधिक
अकेली
पर तुम्हरा जाना मेरे लिए
एक रास्ता छोड़ गया
जिसके कांटे मैंने बिन कर
रोंपे हैं गुलाब
मैं रोई बिल्कुल नहीं
बल्कि मैंने मन की दराज़ से
चिपके हुए लम्हों को खुरच दिया था
जो तुम्हारे साथ बीते थे पर अब बदबूदार से हो चले थे
आज मैं अबला नहीं रही
अपनी समस्त शक्तियों के साथ
सबल हो गई हूँ
और एक पूर्ण नारी हो गई हूँ
जिसे नहीं है दरकार किसी बैसाखी की।
2 – चाहत
क्या हुआ जो तुम मुझे नहीं चाहते
मेरा प्यार
हो या
समुद्र की अथाह गहराई
न तुम उसे भाँप सके
न इसे नाप सके
फिर भी तुम आया करो
क्योंकि
तुम्हारा आना जैसे
पतझड़ के मौसम में
बहार का एक झौंका
जानती हूँ
तुम मुझे प्यार नहीं करते
फिर भी तुम आया करो
तुम्हारा आना
और आ कर वापस चले जाना
उन्हीं कुछ क्षण की यादों को समेटे
उन्हीं के साये में
मैं जिंदगी गुज़ार लूंगी
मैं जानती हूँ
तुम मुझे नहीं चाहते
फिर भी तुम आया करो
अभिलाषा है
तेरे खुश्क होते शब्दों पे
बादल रख दूँ
तुम थोड़ा भीग जाओ
तुम्हारी वो मेज़
जिस पे मेरे नाम की मीनाकारी थी
डायरी जिसमें में न जाने कितनी बार
मैं डूबी उतरी थी
वो लम्हे फ़र्श पे बिखरा दूँ
तो शायद
ख़ामोशियाँ जो आहटों को
आगोश में भरे तेरे अंदर है
लफ़्ज़ बन के बह जाएँ
तुम अपने हिस्से में नहा लो
मैं अपने में डूब जाऊँ।
3 – ख़्वाब
कितनी ही चीज़ों को
तुमने जोड़ दिया है
मेरे दायरे में-फ़िलहाल
सोच के ढेरों ख़्वाब
हथेलियों में छपाक-छपाक
फिसलती जा रही है देह
नस-नस में
दरिया की तरह बदलती
जा रही है तुम्हारी मौजूदगी
बहुत सारे मायनें बदल गए हैं
अपने और अजनबी में
इंतज़ार की तराई में
आलता रंगें पाँव
बजा रहें हैं पाज़ेब की झनक पर
नदी का समुद्र-गीत
बोलती आँखों में
दहकते कुकुरमुत्तों के फूल
दिल रुबा से थिरकते
पहाड़, आकाश और झरने
भूगोल को महसूसने तक
ले आयें हैं
नथुनों में अनुभवी आदिम गंध
इरादों की चट्टान पर
सहलाती हूँ उसी दूब को
जहाँ तुम्हारे साथ
छिपा दिये थे सुनहरी शामों के रंगीन ख़्वाब
तुम से जुड़ कर –
फिलहाल।
वाह गजब , अनिता जी !
भावों की गहराई से निशब्द हूं।
बधाई।
आपको तो हम फेसबुक पर भी पढ़ते रहे हैं।
आपकी कविताएँ प्रेम और दर्द की कविताएँ हैं अनिता जी। वियोग की पीड़ा महसूस हुई।
पहली कविता ‘अकेली’ का पूर्वार्द्ध प्रेम भावनाओं से सराबोर है और उत्तरार्द्ध में वियोग से उत्पन्न हुआ हौसला है। जो स्त्री को वियोग व उपेक्षा की स्थिति में भी मजबूती से खड़े रहने की ताकत देता है।
दूसरी कविता में नायक के छोड़कर चले जाने के बाद भी कभी-कभी मिलते रहने की आकांक्षा है।
आपकी इस कविता में एक बात पर गौर करने की अपेक्षा है आपसे। सर्वनाम संबोधन में परिवर्तन नहीं करना चाहिये। अगर आप कविता में तुम सर्वनाम का प्रयोग कर रहे हैं तो पूरी कविता में तुम या तुम्हारा ही प्रयुक्त होना चाहिये। बीच में तू या तेरा सही नहीं लगता सही होता भी नहीं। पढ़ने में भी खटकता है।
तेरे खुश्क होते शब्दों पर
बादल रख दूँ-
के स्थान पर
तुम्हारे खुश्क होते शब्दों पर-ठीक रहेगा क्योंकि आपने पूरी कविता में तुम और तुम्हारे ही प्रयोग किया है।एक जगह और-
‘आगोश में भर तेरे अंदर हैं’
की जगह ‘
आगोश में भरे तुम्हारे अंदर हैं’ सही होगा.
बाकी कविता तो एक नंबर है।
तीसरी कविता में एक शब्द ‘दहकते’ हैं वह ऊपर वाली पंक्ति से जोड़ना चाहिए था, ऐसा हमें महसूस हुआ ।क्योंकि नीचे वाली पंक्ति से उसका सार्थक अर्थ नहीं जुड़ पा रहा ऐसा हमें लग रहा है।आप देखिये
“नदी का समुद्र-गीत
बोलती आँखों में
दहकते कुकुरमुत्तों के फूल।”
कुकुरमुत्ते के लिए दहकना प्रयोग हमने कभी सुना नहीं वह तो बहुत ही ज्यादा नाजुक होते हैं। पर आँखें दहक सकती हैं।बस एक शंका ही है।आप बेहतर समझती हैं।
आपकी तीनों कविताओं में से आपकी चाहत कविता ज्यादा अच्छी लगी। बधाइयाँ आपको हमारी तरफ से।