1 – तुम अनुपस्थित रहे
मेरे !
उस अघोषित समय में
जब! मैं टूट रही थी
खत्म हो रही थी
भीतर मेरे सब ध्वस्त हो रहा था और
धीरे-धीरे बदल रही थी
मेरे देह की भाषा
उस समय
जब, मैं संगसार हो रही थी अपनी मानसिक यंत्रणा से
और बटोरने में लगी हुई थी
अपने बिखरे वजूद को
जब मेरी तकलीफ !
अपनी अभिव्यक्ति के लिए खोज रही थी
प्रेम का आश्रय-स्थल
मेरे हर उस वक्त में
मेरे हर उस लम्हें में
तुम!
जीते-जागते ताज्जुब की तरह
बेसुध रहे अपनी
आत्मलीनता में
हाँ !
तुम अनुपस्थित रहे
मेरी जिंदगी में उस अघोषित समय के पन्ने पर से….!
2 – वापसी का रास्ता उसे नहीं मालूम था
वापसी का रास्ता
उसे नहीं मालूम था
जाने -अनजाने
वक्त- बेवक्त रेंगते हुए इस रिश्ते से
वापसी का रास्ता
उसे नहीं मालूम था
नहीं मालूम था
वक़्त की पीठ पर तेजी से
उभरते और विलुप्त होते
मदान्त उस रिश्ते के आलाप से
जिसके गवाह सिर्फ
चाँद और तारे थे…..
वापसी का रास्ता
उसे नहीं मालूम था
संदेह और अवसाद की दावाग्नि से उठते महाप्रलय के इस शोर से
खामोश ध्वनि में
वापसी का रास्ता
उसे नहीं मालूम था
आज खोज रही है
वापसी का दरवाजा
अपनी आवारगी में भटकते हुए……..!!
3 – अलविदा
सांझ का मटमैलापन और
अर्से बाद अंतर्नाद करता हुआ अंतर्मन …….
आज
जहां दूर कहीं मंदिर की
घंट-ध्वनियों और
आरती नगाड़ों के बीच
आत्मपीड़ा और आत्महीनता की
विद्रोहात्मक परिणति में
डूबता जा रहा है
वहीं तेजाब से खौलते
मन के समुद्र में
निरंतर जल रही भावुकता
चिथड़े-चिथड़े हो कर
उड़ती जा रही है…..और
सारी संवेदनाएं पिघल कर
मोम बनती जा रही है
आत्मविश्लेषण की इस
दोधारी तलवार से
जब-जब तुम्हारे नाम की
लकीरों को काटना चाहा
अनगिनत नई लकीरों
ने जन्म ले लिया…
जाने किस बाबत
घृणा और प्रेम पर सोचते हुए
बांध लिया है पत्थर
खुद की उड़ान पर
कस दिया है फंदा
अपनी ही आत्मा के गले पर
आज मीरा के हृदय की
बेधक पीड़ा
मन को बेचैन तो कर रही है
पर पूरी तरह सहभागी
बनने से इंकार करती है
हृदय समंदर
संदेह की झाग से
अटता चला जा रहा है
कितना कुछ
जलकुंभी की तरह
फैलता हुआ अतीत की
सारी घटनाओं को
निगलता जा रहा है
ऐसे में क्या खोजना और क्या पाना
आज प्रश्न !
दुःख से नहीं
आश्चर्य से है कि
क्या जीना चाहिए ऐसे भ्रम को
जिस पर स्वयं को ही विश्वास न हो…?
अब मातम में डूबी और
कृपा पर जीती हुई
अपहरित की गई चाहनाओं के पार
जाने का आसान रास्ता होगा….. अलविदा !
4 – आज भी………..
हर दिन खुद को पहचानने की
जद्दोजहद में…..
अपनी यादों की धूसर सोच को
लिटाना मन की चादर पर
उतारना बेतरतीब से अतीत के मुखौटे को
अपने वर्तमान में…..और
मौन में बह जाना ….फिर
गुजरना अनजाने मार्ग से
उसकी आंखें भी अब सुबह के आकाश
को निहारते हुए
जाने कैसा प्रतिशोध लेती है
और चाँद के कमजोर प्रकाश से
शापित रातें गवाही देती है
उसके बीते हुए कल की…
नहीं चाहती थी खोना
अपनी असीम सरलता को
चाहती थी बंधी रहना
अतीत के दरारों से
एक अर्थ बन कर
चाहती थी छुपाना अतीत के चेहरे को
अपने वर्तमान से क्योंकि
चेहरा ही तो है इश्तेहार !
उसके दर्द का
हर दिन अंतर्मन के तपोवन में
हजारों अधूरे सपनों की आहुति देती है
पर विलाप करने का साहस नहीं करती
गुमशुदा आंसू की तरह
उसके मन के भीतर का
एक भावनात्मक कोना
प्रतीक्षारत है….
कुछ अनछुए अहसास और
स्पर्श की चाह में
आज भी………..!!!!!!!!!
5 – सड़क के किनारे
बेहया के फूलों की तरह थी वो !
स्निग्ध, सुंदर, ताजी और खिली हुई….
जिसे सड़क के किनारे देख
हर किसी की निगाहें बरबस उसकी ओर उठ ही जाती
उसकी बेहयाई, लोगों को सहज रूप से आकर्षित कर लेती थी
व्योम के विस्तार में उसे किसी पर भरोसा नहीं था
इसलिए छोड़कर पक्की सड़क
किनारे की गीली-मिट्टी में जा कर बस गई थी
कुछ ऐसे लोग जो उसके गुणों से अनभिज्ञ थे उसे हाथ लगाने से डरते रहे
वहीं कुछ लोग उसे लपक कर तोड़ते और मन बहल जाने पर मसल कर फेंक देते
बेहया के फूलों की तरह
वहीं सड़क के किनारे…
उसे देव मंदिर में नहीं चढ़ाया जाता
किसी सुंदरी के गजरे में भी नहीं गुंथा जाता
और न ही किसी के घर की शोभा में उसे शामिल किया जाता
फिर भी उसे कोई गम नहीं था
उसे पता था कि
उसके गुणों से ज्यादा उसकी बेशर्मी लोगों को पसंद (आती है) आएगी
इसलिए
अपनी पतली भुजाओं में अपने ही भरोसे आप खिलखिलाती हुई मदमस्त होकर अपनी बेहयाई में झूमती रहती
बिलकुल
बेहया के फूलों की तरह
वहीं सड़क के किनारे…
वसंत का उल्लास हो
ग्रीष्म का ताप हो या
हो पावस की तरलता
उसके स्वभाव में कभी कोई फर्क नहीं पड़ता
एक दिन!
उड़ने की अदम्य लालसा लिये
खोंस-कर जुड़े में साहस का फूल,
लिपट गई थी उस परदेशी बवंडर से
कि,
पलक झपकते ही वो परदेशी उखाड़ ले गया
उसका आज, कल और परसों ……
मगर कुदरत का करिश्मा ऐसा कि
तमाम जोखिमों से मुठभेड़ करती
वह खुद को ही देखती है
खुद से निर्मित होते हुए और भयमुक्त होकर फिर पनप जाती है
बेहया के फूलों की तरह
वहीं सड़क के किनारे ।
एकल कविता संग्रह "बस कह देना कि आऊंगा", 35 साझा संग्रह में कविताओं का प्रकाशन, साहित्यिक पत्रिका- कादम्बिनी, कथादेश, पाखी, आजकल, माटी, विभोम-स्वर,आधुनिक-साहित्य, विश्वगाथा, ककसाड़, किस्सा-कोताह, प्रणाम-पर्यटन, सृजन-सरोकार, उड़ान(झारखंड विधान सभा की पत्रिका), गर्भनाल, रचना-उत्सव, हिंदी चेतना आदि में कविताओं का प्रकाशन। संपर्क - nandapandey002@gmail.com

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