मेरे अंदर एक गाँव है
मैं गाँव की आत्मा में हूँ
एक गंवई संवाद की नमीं को छूकर
मैं बैठा सुन रहा हूँ
बिरहा का सुरीला तान
डफली की धुन, मृदंग की नाद
गोधूलि बेला में हार से लौटते
मवेशियों के रम्भाने की आवाज
बैलगाड़ी के पहिए की चर्र-चर्र
मैं कौतूहलता से भर जाता हूँ
कौतुक का हुड़दंग मुझे भी
बुलाता है, धमा चौकड़ी में
पूस की ठिठुरती हुई रात में
थरथराता, कांपता कृषकाय शरीर
ठंढ़ी हवाओ में जमकर बरफ हो गया
अकड़ गया है जुड़ा हुआ हाथ
धान की पुवाल में
सिकुड़कर नाक बजा रहा है
भोर भिन्सारे टहलु काका
खाँसते-खाँसते लाठी पटकते
घुप अंधेरे में ही उठकर
लौट आते हैं खलिहान से
और थरथराते हुए जलाते हैं अलाव
ठंढा कुछ-कुछ पिघलता है
काका को ढांढस मिलता है
और वे गा उठते हैं आल्हा का गीत
2 – उठो कृषक
उठो, कृषक!
भोर से ही तुहिन कण
फसलों में मिठास भरती
उषा को टटोलती
उम्मीदों की रखवाली कर रही है
जागो, कि
अहले सुवह से ही
सम्भावना की फसलों को
चर रही है नीलगाय
प्रभात को ठेंगा दिखाती
जागो, कृषक
कि तुम्हारा कठोर श्रम
बहाए गए पसीने की ऊष्मा
गाढ़ी कमाई का उर्वरक
मिट्टी में बिखरे पड़े हैं
उत्सव की आस में
कर्षित कदम अड़े हैं
जागो, कृषक कि
सान्तवना की किरण आ रही है
तुम्हारे बेसुरे स्वर में
परिश्रम को उजाले से सींचने
अंधेरे में सिसक रहे
मर्मर विश्वास को खींचने
उठो, कृषक
उठाओ, कठोर संघर्ष
स्वीकार करो,
लड़खड़ाते पैरों की
दुर्गम यात्रा
बीत गया, रीत गया
कई वर्ष…!
3 – फसल मुस्कुराया
देखो, भूमिपुत्र…!
उषा की बेला में
उम्मीद की लौ से सिंचित
मिट्टी में दुबका बीज
धरती की नमी को सोखकर
आकाश में हँस रहा है
तुम्हारे थकान को
उर्वरक का ताप दिखाकर
ऊसर में बरस रहा है
ऐ खेत के देवता…
तुम्हारी वेदना, तुम्हारा सन्ताप
बहते श्वेद कण का प्रताप
शख्त मिट्टी में मिलकर
ओस की बूंदों में सनकर
जगा रहा है कंठ का प्यास
उपज में सोंधी मिठास
आस की भूख सता रही है
कई-कई दिनों से निर्मित
आत्मा की फीकी मुस्कुराहट
जीवन का रहस्य बता रही है
कि कसैला स्वाद चखने वाला
चीख-हार कर, गम खानेवाला
बासमती धान का भात कैसे खाए
जिसपर संसद का कैमरा
फोकस करता है…
जिसपर शाही हुक्मरान
प्रबल राजनीत करता है…
बहुत सुंदर कविताएं! ग्रामीण अंचल को स्पर्श करती हुई…