Sunday, May 19, 2024
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वल्लभ की कविताएँ

1. निर्विकार
हर चाल थी तुम्हारी
खेल के नियमों के विरुद्ध
तुम्हारे आजमाए गए
हर दाँव को जानता था मैं
पर मैं नहीं हो सकता था
होना ही नहीं चाहता था
तुम्हारा प्रतिद्वंदी; क्योंकि
तुम्हारी जीत के लिए
हर बार हार जाना
मुझे सुकून देता था
मैं तो अपने प्रेम-विटप को
सांझी सहजता और
एकांत की अंतरंगता में
बस पल्लवित, पुष्पित होते
चुपचाप निहारना चाहता था
शह-मात के संघर्षों से दूर
निष्कवच तुम्हारे व्यूह में
फंसे रहना कोई मजबूरी नहीं थी
बल्कि विस्तृत ममत्व था मेरा-
अमुखर, आच्छन्न।
हालाँकि इस कदर
मिट जाना भी
है तो प्रगल्भता ही
लेकिन बहुत थोड़ी चीजें हैं
जिनके स्थायित्व के कारण
हम उनसे बेहिसाब प्यार करते हैं
घृणा भी उनमें से एक है।
2. अपशकुन
आहिस्ता-आहिस्ता
ढँक रहे हैं रोशनी को
झुके-झुके धुआँरे बादल
और ऐसा भी नहीं कि
बिल्कुल झूठ ही है
दूर से आता हुआ अँधेरा
शाम की हवा लिप्त है
वृक्षों से अंतिम प्रेम-मिलन में
उसको पता है
रात बिल्कुल भी रहमदिल नहीं
पार्श्व से कुत्ते के रोने की आवाज़
वायलिन के किसी उदास धुन की तरह
हल्की हल्की यंत्रणा दे रही है और
अनियंत्रित होकर सहम उठी हैं
रह-रह कर सोई पड़ी स्मृतियाँ
अँधेरे कमरे में मेरे साथ हैं
सिलसिलेवार डरावने विचार
जबकि मैं अच्छी तरह से जानता हूँ
रात सिर्फ़ गुमशुदा की तलाश है
और उसका देर तक टिकना
भोर के लिए अपशकुन है
तिरस्कार और यातनाओं की
दुरूह उत्तानता के बीच
क्षण भर को घबरा कर सोचता हूँ
कि एक रोज़ मुँहजोर सुबह
जब क्षितिज से रात का नक़्श
पूरी तरह से मिटा देगी
तो क्या फिर कुत्ते का रोना
हमेशा के लिए बन्द हो जाएगा?
3. शीर्षक-विहीन
आधी उम्र गुज़र जाने के बाद
जब तय हो चुकी होती है
जीवन की अपनी गति
उस वक़्त ठहराव की गुंजाइश
याद न रहने वाले ख़्वाब की तरह होती है
हमारा ठहर जाना इत्तेफ़ाक़ था
कुछ वैसा ही जैसे किसी भयानक तूफ़ान में
जीवन के लिए संघर्ष करते हुए
लोग थाम लेते हैं एक दूसरे का हाथ
वक़्त के संयत होने पर
मुझे कई बार साफ़-साफ़ दिखा
कि उस पर जीवन का रंग
पूरी तरह नहीं उतर सका है
मैं हर दफे चाहता था
उसको उस जकड़न से बाहर लाना
जिसकी आदत ने फीके कर दिए थे
उसके जीवन के सारे रंग
गमलों में रोप दिए गए पौधों की जड़ें
हमेशा कुतर दी जाती हैं ताकि
बरक़रार रह सके उन पर हरियाली
और गिनती के कमज़ोर फूल
देते रहें उनके जीवित होने की गवाही
मैं चाहता था सजावटी गमले से
उसका विद्रोह तथा गहरे उतरना
उसकी जड़ों का अपनी ही मिट्टी में
मैं उस पर बारहमासी बहार चाहता था
मैंने बहुत जतन उठाये ताकि
सीख सके वो तितलियों की तरह
उन्मुक्त जीना बजाय पालतू मैना होने के
वक़्त की तमाम उलझनों से उलझते हुए
मैंने हमेशा चाहा कि
उसके पैर गलीच से निकलकर
सृष्टि की सुन्दरतम जगहों पर पड़ें
मैं वाक़िफ़ था कि शातिर आदतें
बेहद खूंखार और जंगली होती हैं
और सिर्फ़ इसीलिए मैंने
उसका आलिंगन नहीं बल्कि गोद चुना था
मैं समझता था कि उसका ममत्व
एक न एक दिन भिड़ जाएगा
किसी भी विषम परिस्थिति से बेहिचक
अब उम्र के अंतिम दशक में
जब ज़िंदगी ऐसी जगह आ गयी है
जिसके आगे केवल पूर्ण विराम है,
हर चाह धुंधलाती हुई महसूस होती है।
4. तुम्हारी मनरक्षा के लिए
रात्रि की सारी छायाएँ
अब विलीन हो रही हैं
सितारे संबोधित कर रहे हैं निरंतर
जैसे असीम करुणा करके
पीड़ा से गुज़र रहा हो कोई भिक्षु
जीवन की इस क्रीड़ा से आज
स्वयं को बाहर करते हुए
तुम्हारी मनरक्षा के लिए
मैं तुमसे विदा ले रहा हूँ प्रिय!
प्रेम का पुष्प, जो आपूर है
अलौकिक सुगंधों से
उसका कर्म-फल नहीं होता
उस अपदार्थ का विसर्जन
बिल्कुल संभव नहीं
पक्षी के गीतों की तरह
वन-पथ पर बिखरी कज्जल रात
दूध से पानी को
अलग कर देने वाले परमहंस जैसा
एक गुप्त नैसर्गिक उपहार है
आनंद से सर्वथा दूर
हमारी क्रीड़ा अब सिर्फ़ एक ढोना है
दिल दुखता है कि
ब्रह्मांड की इस छोटी-सी जगह में
जहाँ फूल खिलते हैं
नदियाँ बहती हैं
जहाँ सिवाय हरियाली के
कुछ सूझता नहीं
वहाँ हृदय में प्रतिशोध का
एक छोटा-सा भी धूमकेतु
कहीं जीवन बंजर ना कर जाए
वर्षों हमने एक दूसरे को
कभी नाम से नहीं पुकारा
और वर्षों एक दूसरे को अब
हम कभी नाम से नहीं पुकारेंगे
सिर्फ़ तुम्हारी मनरक्षा के लिए
आज मैं तुमसे विदा ले रहा हूँ प्रिय!

वल्लभ
आशा-भवन , महाजन टोली-1
आरा , बिहार ,८०२३०१
Ph-7903474548
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