Saturday, July 27, 2024
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विवेक आसरी की कविताएँ

मन ना उतरे
शाम तो उतरे
मन ना उतरे
हवा जो बदले
पत्ते छितरें
नीचे निकले हरी जमीन
घास कुतरते बातें बिखरें
बात जो बिखरे
भूले फिकरें
भूलें फिकरें
भूलें ना फिकरे
बोल तो बदलें
बस भाव ना फिरें
वक्त बदलते
ताव ना फिरें
पहर पहर पर
हों ना पहरे
धूप छांव सब
मन पर ठहरे
वक्त जो काटे
मन ना कुतरे
शाम तो उतरे
मन ना उतरे।
मारे जाते हैं मृग
मारीच कितने भी बदमाश हों
फुसला लिए जाते हैं रावणों द्वारा
बनने के लिए चारा
सीताओं के हरण के लिए।
रावण कितने भी हों विद्वान
स्त्रियों को हरने के लिए
करते हैं धोखे
रचते हैं कंचन मृग।
और राम कितने भी हों मर्यादा पुरुषोत्तम
कत्ल कर देते हैं मृगों को
बांध निशाना बेहिचक.
राम और रावणों की लड़ाई में
हमेशा मारे जाते हैं मृग।
माता
भारत कौन है?
माता है।
तो इतना माथा काहे खाता है?
मां का दिल तो बहुत बड़ा होता है
ये तो छोटी-छोटी बात पर
तिलमिला जाता है।
हल
इनके पास हर उलझन का हल है
कत्ल
इन्हें भाता है
नरमुंडों को गले में पहनकर नाचना
ये लोग बनाना चाहते हैं कंकालों का संसार
क्योंकि आसान होता है
मुर्दो पर शासन।
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