हिंदी ग़ज़ल के इतिहास और परंपरा की जब भी बात की जाती है और यह कहा जाता है कि यह परम्परा अमीर खुसरो (1253-1325 ई.) से शुरू होकर कबीर(1398-1494 ई.)से होते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र(1850-1885 ई.) और बाद की पीढ़ियों से होकर दुष्यंत कुमार(1933-1975 ई.) तक आई है, तो कई बार यह सवाल उठाया जाता है कि कबीर के बाद यह परंपरा कई सौ सालों तक कहाँ लुप्त हो गई थी ? दरअसल इस सवाल का जवाब दो तरह से दिया जा सकता है। एक तो यह कि ग़ज़ल इस दौर में उस तरह से हिंदी कविता की विधा नहीं बन सकी थी,जैसी वह उर्दू में बन गई थी। दूसरी यह कि इस दिशा में अभी बहुत सारा शोध किया जाना बाक़ी है। जैसे-जैसे शोध होगा और नई चीज़ें सामने आएँगी तो बहुत सारी धुंध अपने आप छँटती चली जाएगी। फिर भी इतना तो अवश्य ही कहा जा सकता है कि चूँकि उस दौर में हिंदी में ग़ज़ल उर्दू की तरह स्वीकृत और प्रचलित विधा नहीं बन सकी थी तो हिंदी कवियों ने इसे प्रयोग के बतौर ही इस्तेमाल किया और थोड़ी-बहुत ग़ज़लें ही लिखीं। वह भी उर्दू ग़ज़ल के प्रभाव या उसकी छाया में। लेकिन यह वही समय था जब हिंदी भाषा में अन्य विधाओं का काव्य साहित्य परवान चढ़ रहा था। कबीर ही नहीं, उससे पहले एक ओर जहाँ चंदबरदाई(1148-1191 ई.) हिंदी के सबसे बड़े काव्य-ग्रंथ ‘ ‘पृथ्वीराज रासो’ लिखकर हिंदी साहित्य के आदिकाल की नींव रख चुके थे तो कबीर के ठीक बाद मलिक मोहम्मद जायसी (1477-1542ई.) ‘पद्मावत’ जैसे महाकाव्य की रचना कर चुके थे। ‘सूरसागर’ लिखकर कृष्ण लीलाओं को घर-घर पहुँचा देने वाले सूरदास(1478-1583 ई.) तथा ‘रामचरितमानस’ के माध्यम से भारत ही नहीं विश्व के अनेक भूभागों को राम मय बना देने वाले तुलसी दास(1532-1623 ई.) तथा आगे के अनेकानेक महान साहित्यकार और उनकी कालजयी और महत्वपूर्ण रचनाएँ ग़ज़ल के लिए वैसा अवकाश नहीं देने वाली थीं,जिसकी अनपेक्षित अपेक्षा जब-तब की जाती रही है। भारतेंदु हरिश्चंद्र के बाद भी ग़ज़ल की धारा बहुत प्रखर और मुखर होकर सामने नहीं आई ,अपितु प्रायः उर्दू की छाया में ही साँस लेती देखी गई। लेकिन कुछ ऐसे रचनाकार भी इसी दौर में हिंदी में हुए जिन्होंने कम से कम विषय के स्तर पर उस ग़ज़ल के इतिहास में कुछ नये अध्याय जोड़े जिसे आगे चलकर हिंदी ग़ज़ल के रूप में पहचाना गया। राधेश्याम कथावाचक (1890-1963 ई.) तथा बिन्दु जी (1893-1964 ई.) भी उन्हीं में से थे। लेकिन यहाँ हम बात कर रहे हैं राधेश्याम कथावाचक की ग़ज़लों के विषय में।
पं. राधेश्याम कथावाचक को लोग प्रायः उस ‘राधेश्याम रामायण ‘ की वजह से जानते हैं जिसकी कोई सवा करोड़ प्रतियाँ उनके जीवनकाल में ही बिक चुकी थीं। कम लोग इस तथ्य से परिचित होंगे कि कथावाचक जी आगा हश्र कश्मीरी तथा नारायण प्रसाद बेताब के साथ भारत में पारसी रंगमंच के तीन शिखर पुरुषों में शामिल रहे हैं। यह भी कम लोगों को ध्यान होगा कि वे कथावाचन के साथ-साथ उतनी ही गंभीरता से नाट्य लेखन,गायन और अन्य लेखन से भी जुड़े हुए थे। यह तथ्य तो और भी कम लोगों की स्मृति में होगा कि 11 नाटकों(+4अप्रकाशित भी) तथा 5 एकांकी नाटकों के लेखक राधेश्याम कथावाचक ने प्रचुर संख्या में ग़ज़लें भी लिखीं। राधेश्याम कथावाचक पर केंद्रित कदाचित सबसे महत्वपूर्ण कृति ‘ पं. राधेश्याम कथावाचक: रंगायन ‘ के संपादक हरिशंकर शर्मा जी से मुझे जो 62 ग़ज़लें प्राप्त हुई हैं,उनमें से 46 ग़ज़लें अकेले कथावाचक जी की पुस्तक ‘राधेश्यामविलास ‘ में संकलित हैं। यह पुस्तक प्रथम बार 1917 ई.में प्रकाशित हुई थी। आगे चलकर वर्ष 1925 ई. में इसका दूसरा संस्करण भी प्रकाशित किया गया। शेष 16 ग़ज़लें हरिशंकर शर्मा जी ने वर्ष 1925 में ही प्रकाशित ‘राधेश्याम कीर्तन ‘ पुस्तक से चुनी हैं। संयोग ही है कि वर्ष 1921-22 तथा आगे 1930-1931 के आसपास भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपने-अपने ढंग से कोई एक दर्जन से अधिक ऐसे रचनाकार ग़ज़लों के रूप में आहुतियाँ डाल रहे थे,जो लगभग नौ दशकों तक इतिहास की पर्तों में ही दबे रहे। क्योंकि वे ग़ज़लें गाँधी जी और उनके विभिन्न आंदोलनों को समर्पित थीं तथा उनके प्रकाशित होते ही उन्हें अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था। उनकी रचनाओं और स्वातंत्र्य संघर्ष में उनके योगदान से देश कदाचित अपरिचित ही रह जाता यदि राष्ट्रीय अभिलेखागार के सौजन्य से इन रचनाओं को राकेश पांडेय के संपादन में डायमंड पाकेट बुक्स ने वर्ष 2019 में प्रकाशित न कर दिया होता।
कथावाचक जी की ग़ज़लों की ओर चलने से पहले कुछ छिटपुट किंतु बेहद महत्वपूर्ण बातें उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के विषय में। राधेश्याम कथावाचक के क़द का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि स्वयं महात्मा गांधी तक उनसे ख़ासे प्रभावित थे और नेहरू जी तो उन्हें राजनीति में भी लाने के इच्छुक थे लेकिन उन्होंने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया था। विकी पीडिया कथावाचक जी का परिचय कुछ इस प्रकार देता है-‘….केवल 17-18 की आयु में ही उन्होंने सहज भाव से राधेश्याम रामायण की रचना कर ली थी। यह रामायण अपनी मधुर गायन शैली के कारण शहर कस्बे से लेकर गाँव-गाँव और घर-घर आम जनता में इतनी अधिक लोकप्रिय हुई कि उनके जीवनकाल में ही उसकी हिन्दी-उर्दू में कुल मिलाकर पौने दो करोड़ से ज्यादा प्रतियाँ छपकर बिक चुकी थीं। रामकथा वाचन की शैली पर मुग्ध होकर मोतीलाल नेहरू ने उन्हें इलाहाबाद अपने निवास पर बुलाकर चालीस दिनों तक कथा सुनी थी। 1922 के लाहौर विश्व धर्म सम्मेलन का शुभारम्भ उन्हीं के लिखे व गाये मंगलाचरण से हुआ था। राधेश्याम कथावाचक ने महारानी लक्ष्मीबाई और कृष्ण-सुदामा जैसी फिल्मों के लिये गीत भी लिखे। महामना मदनमोहन मालवीय उनके गुरु थे तो पृथ्वीराज कपूर अभिन्न मित्र, जबकि घनश्यामदास बिड़ला उनके परम भक्त थे। स्वतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद ने भी उन्हें नई दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में आमन्त्रित कर उनसे पंद्रह दिनों तक रामकथा का आनन्द लिया था। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना हेतु धन जुटाने महामना जब बरेली पधारे तो राधेश्याम ने उनको अपनी साल भर की कमाई उन्हें दान दे दी थी।’
आलोचक मधुरेश की उनके एक लेख ‘प्रेमचंद और राधेश्याम कथावाचक की जुगलबंदी ‘ में यह टिप्पणी राधेश्याम कथावाचक की रचनात्मकता को पूरी ज़िम्मेदारी के साथ रेखांकित करती है कि ‘ प्रेमचन्द उम्र में राधेश्याम कथावाचक से भले ही दस वर्ष बड़े हों, यह संयोग ही है कि हिन्दी में दोनों की रचनात्मक सक्रियता का काल लगभग एक है। सन् 1915 में जब पंडित राधेश्याम ‘वीर अभिमन्यु’ के लेखन में व्यस्त थे, प्रेमचन्द की पहली हिन्दी कहानी ‘पंच परमेश्वर’, ‘सरस्वती’ जून 1916 में प्रकाशित हुई।.. राधेश्याम कथावाचक के प्रायः सभी महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय नाटक सन् 1915 से 1939 के बीच प्रकाशित हुए। सन् 1939 में ‘सती-पार्वती’ के प्रकाशन के बाद उन्होंने सिर्फ ‘देवर्षि नारद’ लिखा जो प्रकाशित भले ही सन् 1961 में हुआ था लेकिन लिखित पाठ के आधार पर उसका मंचन काफी पहले से ही होता रहा था।'( पं. राधेश्याम कथावाचक: रंगायन, संपादक-हरिशंकर शर्मा, पृष्ठ-95)
मधुरेश जी अपने इसी लेख में आगे लिखते हैं- ‘प्रेमचन्द की सारी रचनात्मक सक्रियता का दौर भी यही है-सन् 1915 से 1936 के बीच। भारतीय राजनीति में महात्मा गाँधी के उदय और फिर अन्तत: शिखर पर पहुँचने का दौर भी लगभग यही है । राष्ट्रीय आंदोलन में साम्प्रदायिक सद्भाव की आवश्यकता, आंदोलन में स्त्रियों और सामान्य जनता की भूमिका, जनता को दीक्षित एवं संस्कारित करने में साहित्यकार का दायित्व-ये वस्तुतः कुछ ऐसे कार्यभार थे, जो प्रेमचंद को राधेश्याम कथावाचक की ओर आकृष्ट करते रहे होंगे।’ ( पं. राधेश्याम कथावाचक: रंगायन,पृष्ठ-95)
ऐसा नहीं था कि कथावाचक जी पर ब्रिटिश सरकार की नज़र नहीं थी,लेकिन वे अपनी विशिष्ट शैली के कारण उसका कोपभाजन होने से बचते गए। इस सन्दर्भ में वे ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित ग़ज़लकारों और दूसरे साहित्यकारों की तुलना में भाग्यशाली थे। क्योंकि उनकी रचनाओं के साथ वैसा कुछ नहीं हुआ और कम से कम वे प्रकाशित तो हो पाईं। लेकिन यह तो हुआ ही कि तमाम सारे वैविध्यपूर्ण लेखन के बावजूद राधेश्याम कथावाचक को आचार्य रामचंद्र शुक्ल के ‘हिंदी साहित्य का इतिहास ‘ में कोई जगह नहीं मिल सकी। जबकि उनसे पूर्व की पीढ़ी के तथा भारतेंदु के प्रायः समकालीन कथावाचक जी की ही भावभूमि पर रचनाएँ लिखने तथा कथावाचन करने वाले पं. श्रद्धा राम फिल्लौरी(1837-1881ई.) की ‘सच्चे हिंदी हितैषी और सिद्धहस्त लेखक’ के रूप में शुक्ल जी ने तीन प्रस्तरों में चर्चा की है। इसके अपने अलग कारण हो सकते हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास की बाद की पुरानी पुस्तकों में जिनमें डॉ. मोहन अवस्थी का ‘ हिन्दी-साहित्य का इतिहास'(प्रथम संस्करण वर्ष-1970 ई.) , व डॉ. नगेन्द्र का ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ (वर्ष-1985) सम्मिलित हैं, में भी कथावाचक जी का केवल नामोउल्लेख भर क्रमशः द्विवेदी युगीन और छायावाद युग के नाटककारों के सन्दर्भ में किया गया है। इसी प्रकार डॉ.धीरेन्द्र वर्मा का ‘ हिन्दी साहित्य कोश, भाग-2’ ( प्रथम संस्करण-1963 ई.) भी कथावाचक जी के ‘राधेश्याम रामायण ‘ तथा उनकी कुछ नाट्यकृतियों का ही उल्लेख करता है। उनकी ग़ज़लों का कहीं भी कोई उल्लेख अथवा उनकी चर्चा नहीं मिलती है। ऐसे में राधेश्याम कथावाचक की ग़ज़लों की ओर लौटते हुए हम देख पाते हैं कि उनकी अधिकांश ग़ज़लें ‘राधेश्यामविलास ‘ कृति के दूसरे खंड में संकलित हैं। हमें ध्यान रखना होगा कि कथावाचक जी की ग़ज़लें किसी स्वतंत्र कृति के रूप मे नहीं,अपितु गायन हेतु लिखे गए कई और रूपों के साथ हैं। इनमें गाना, भैरवी,आसावरी, कहरवा,दादरा,कव्वाली, हिंडोला आदि सम्मिलित हैं। लेकिन हम सबसे पहले बात करेंगे ‘राधेश्याम कीर्तन’ में संकलित ग़ज़लों की। क्योंकि मुझे ‘राधेश्याम कीर्तन’ के वर्ष 1912 ई. के प्रथम संस्करण की पीडीएफ प्रति प्राप्त हो गई है और कालक्रम के अनुसार भी इन ग़ज़लों का अध्ययन उपयोगी रहेगा।
‘राधेश्याम कीर्तन’ के 1912 ई. के इस मूल संस्करण में कुल 19 ग़ज़ल़ें हैं जिनमें से 4 ग़ज़लें कव्वाली शीर्षक से,1 ग़ज़ल राग भैरो शीर्षक से तथा 1 ग़ज़ल आसावरी शीर्षक से भी शामिल हैं। हम जानते हैं कव्वाली साहित्य की नहीं, अपितु संगीत या गायन की विधा है, जिसमें ग़ज़ल के अलावा क़सीदा,हम्द, नात,मरसिया आदि गाए जाते हैं। हरिशंकर शर्मा जी ने कथावाचक जी की जो 16 ग़ज़ल़ें 1925 ई. के संस्करण से उपलब्ध कराई हैं, प्रथम संस्करण की कव्वाली शीर्षक से संकलित 4 ग़ज़लों सहित कुल 9 ग़ज़ल़ें उसमें सम्मिलित नहीं हैं,जबकि 10 ग़ज़ल़ें दोनों ही संस्करणों में हैं। इस तरह इस पुस्तक में कथावाचक जी की कुल 25 ग़ज़ल़ें हो जाती हैं। द्वितीय संस्करण की कुछ ग़ज़लों में यत्र-तत्र संशोधन भी दिखाई देते हैं। कव्वाली शीर्षक से संकलित दो ग़ज़लों के उदाहरण द्रष्टव्य हैं-
हो यक नज़र इधर भी, दोनों जहानवाले,
अय सरज़मीन वाले, ओ आसमान वाले।
मैं हूं ग़रीब कमतर, तू है ग़रीबपरवर,
सुन ख़ाकसार की भी, अय आन शान वाले।
हरबार मुलतमिस हूं, के मुकईयदे क़फ़सहूं,
ज़ंजीर तोड़ता जा, कोनो मकान वाले।
दुनिया से है न रग़बत, जन्नतकी भी न चाहत,
गर है तो यह है अरमां,सच्ची ज़बान वाले।
तेरी हो मुझपै शफ़क़त, मेरीहो तुझसे उलफ़त,
परदा न मुझसे जे़बा, वो बेगुमान वाले।
है आशकार हरजा, फिर भी ग़ज़ब का परदा,
घूंघट में छिप रहा है, बांकी कमान वाले।
है ‘राधेश्याम’ दिलमें, चर्ख़ो ज़मीमें गिलमें,
पाया निशाँ न तेरा, अय बेनिशान वाले।
× × ×
न शबको ख़्वाब आता है, न दिन को चैन दमभर है,
तेरे इस जांबलब शैदा का सब दिन हाल अबतर है।
तरे दरियाये उल्फ़त में यही तो एक ख़ूबी है,
किसी के हाथ कंकड़ है किसी के हाथ गौहर है।
जुनूने इश्क अखगर है जुदाई तेरी सरसर है,
क़यामत होनेवाली है न दिलही है न दिलबर है।
हकीक़त में न हुज्जत है न कहने की ज़रूरत है,
ज़बानो आँख क़ासिर है फ़क़त यक ज़ाते मज़हर है।
कहा सब कुछ मगर कुछ भी नहीं कहता है ‘राधेश्याम’,
हमारी राय में यारो ख़ुदा से इश्क बढ़कर है।
हम देख पाते हैं कि इन ग़ज़लों में अलौकिक प्रेम और शारीरिक प्रेम की आवाजाही की अनुभूतियाँ हैं। वस्तुतः इन ग़ज़लों और ऐसी ही कुछ और ग़ज़लों का मूल भाव ‘ ख़ुदा से इश्क’ के बड़ा होने से ही जुड़ा है।
बहर और कहन के स्तर पर भी कुछ प्रयोग देखने लायक हैं, जिसे निम्न ग़ज़ल में देखा जा सकता है-
नाम न राम का जपा, हाय सितम ग़ज़ब सितम,
वाम में काम में रहा, हाय सितम ग़ज़ब सितम।
युक्ति न मुक्ति की करी, सोते ही सोते उमर चली,
काल ने गाल भर लिया हाय सितम ग़ज़ब सितम।
कर्म न अच्छा कुछ किया, जन्म से मर्म में रहा,
धर्म में धन नहीं दिया, हाय सितम ग़ज़ब सितम।
हाथ से रत्न खो दिया, यतन भजन न कुछ किया,
कैसा यह पर्दा है पड़ा, हाय सितम ग़ज़ब सितम।
होने को आ गई है शाम, कर लो जो करना ‘राधेश्याम’
फिर न मिले समय गया, हाय सितम ग़ज़ब सितम।
लेकिन इस पुस्तक में कुछ ग़ज़लें ऐसी भी हैं जो भाव के स्तर पर बिल्कुल सूफ़ियाना रंग लिए हुए हैं। ये मानव के जीवन-दर्शन को बहुत संजीदगी और सलीके से अभिव्यक्ति देती हैं। जैसे-
ले देख ज़िंदगी के करश्मे कोई दिन और,
यह खेल अदा नाच तमाशे कोई दिन और।
पैदा हुआ है ख़ाक से मिलना है ख़ाक में,
अय ख़ाकबाज़ ख़ाक उड़ा ले कोई दिन और।
तू जायेगा तो लोग बहसरत यह कहेंगे,
क्या ख़ूब यह होता कि यह रहते कोई दिन और।
मैंने कहा सरकार से अब है कहां जोबन,
सुनते ही वे रोने लगे वो थे कोई दिन और।
ऐ बेवक़ूफ़ इस जगह चारा न चलैगा,
कहता है तू किस जोर पै बल पै कोई दिन और।
बिगड़ी को बना ‘राधेश्याम’ वक्त है अभी,
वर्ना चौरासी योन भुगत रे कोई दिन और।
दुनियादारी के अलग-अलग भावों की अभिव्यक्ति भी कुछ ग़ज़लों में सहज ही द्रष्टव्य है-
झूठ जो चीज़ है फिर उससे मुहब्बत कैसी,
ख़ाक हो जाय जो दमभर में वो सूरत केसी।
रँग बदल जाय जो कुछ दिन में वो हालत कैसी,
जिन गुलों पर हो ख़िजाँ उनकी वो रंगत कैसी।
जो डुबो दे तुम्हें मँझधार वो सुहबत कैसी,
नर्क ले जाय जो इन्साँ को वो दौलत कैसी।
चीज़ अपनी अगर छिन जाय तो क़ुव्वत-कैसी,
आख़िरी वक्त में दूरी हो वो क़ुर्बत कैसी।
जिसके परदे में मुसीबत हो वो राहत कैसी,
ख़ुद ही फूँका जिसे उससे कहो उल्फ़त कैसी।
दिल में परहेज की बू है तो इताअत कैसी,
कहीं तस्वीह कहीं दिल है तो इबादत कैसी।
मेरा तेरा यह बखेड़ा है कहे ‘राधेश्याम’,
मौत जब सरपे खड़ी है तो सकूनत कैसी।
हम देख पा रहे हैं कि सात शेरों की इस ग़ज़ल के अंतिम शेर को छोड़कर शेष सभी शेर मतले के शेर हैं। ऐसी ग़ज़लें लिख पाना थोड़ा मुश्किल होता है। लेकिन ऐसा लगता है कि कथावाचक जी उर्दू शायरी के जानकारों को यह जताना चाह रहे थे कि एक हिंदी साहित्यकार के रूप में उनका हाथ ग़ज़ल विधा में ज़रा भी तंग नहीं है। यहाँ तक कि कुछ ग़ज़ल़ें वे ठेठ उर्दू मिज़ाज की भी लिख जाते हैं-
ज़ब्त कहता है धुआँ तक न जिगर से निकले,
आग कहती है भड़क कर इसी घर से निकले।
नीमजाँ के लिये अच्छा ही है फ़ुर्क़त का बुखार,
गर ख़िज़ाँ है, तो कभी बर्गे शजर से निकले।
अाँख में बस गई सरकार की प्यारी सूरत,
एक आँसू भी न अब दीदयेतर से निकले।
दिल में घर कर लिया है रहते हो बाहर बाहर,
हम कहाँ ढूँढते हैं आप किधर से निकले।
दो घड़ी के लिये आये थे मुसाफिर बनकर,
रह गये इस तरह तुम फिर न नज़र से निकले।
यह ही तो लुत्फ़ है आराम यही ‘राधेश्याम’,
पास सन्दल रहे और दर्द न सर से निकले।
उक्त क्रम में ही उर्दू की पारंपरिक इश्किया शायरी की झलक वाली यह ग़ज़ल भी द्रष्टव्य है-
इन्तज़ारी में शबो रोज़ रहा करते हैं,
हम तो ऐ यार उसी बुत की सना करते हैं।
हम न सूरत के हैं आशिक न नज़ाकत के मुती,
हम तो सीरत पे फ़क़त जान फ़िदा करते हैं।
खाल और बाल पै मरते हैं ज़मानेवाले,
हम फ़िदा उनपे जो परदों में छुपा करते हैं।
हमको दोज़ख से न डर और न जन्नत की तलाश,
यार के द्वार को वैकुण्ठ कहा करते हैं।
उसको जो ध्यायेगा वो याद उसे आयेगा,
एक ज़माने से यही बात सुना करते हैं।
देखें किस रोज रसाई को वहाँ ‘राधेश्याम’,
रोज़ तसबीह पै घड़ियों को गिना करते हैं।
कथावाचक जी ने उर्दू के चर्चित शायरों की ज़मीन पर भी ग़ज़लें लिखी हैं। जैसे अमीर मीनाई(1829-1900 ई.) की एक बेहद चर्चित और लोकप्रिय ग़ज़ल का मतला है- ‘सरकती जाए है रुख से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता / निकलता आ रहा है आफ़ताब आहिस्ता आहिस्ता ‘। इस ज़मीन पर कथावाचक जी की ‘राधेश्याम कीर्तन’ में संकलित ग़ज़ल है-
उठाता यार रुख़ पर से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता,
रवाना होने वाला है हिजाब आहिस्ता आहिस्ता।
कहा जब मैंने-ऐ साहब,जुदाई अब नहीं अच्छी,
लगे वो मुझसे फरमाने,जनाब आहिस्ता आहिस्ता।
उदू का ख़ौफ़ था बाक़ी, इसी से यह सलाह ठहरी,
सवाल आहिस्ता आहिस्ता,जवाब आहिस्ता आहिस्ता।
निगाहें चार होते ही , मुहब्बत आगई दिल में,
खुलेगी हसरतो ग़म की किताब आहिस्ता आहिस्ता।
मिटी जाती है रंगत-दीन ओ दुनिया की ‘राधेश्याम ‘,
घुला जाता है आँखों में,शबाब आहिस्ता आहिस्ता।
इस पुस्तक में संकलित अधिकांश ग़ज़लों पर उर्दू का भरपूर प्रभाव देखने को मिलता है। भाषा के स्तर पर भी और भाव के स्तर पर भी। ऐसे में इन्हें उर्दू के करीब की ग़ज़लें भी समझा जा सकता है।
अब हम बात करते हैं ‘राधेश्यामविलास’ में संकलित ग़ज़लों की। दरअसल ‘राधेश्याम विलास’ कुल चार खंडों की रचना है। जिसका दूसरा खंड ग़ज़ल को समर्पित है। इस खंड में कुल 44 ग़ज़लें हैं। लेकिन आगे के चौथे खंड में भी 2 ग़ज़लें तो हैं ही,तीसरे खंड में भी भजन के नाम से 7 ग़जलें तथा ‘विवाहोत्सव की मुबारकबादी’ शीर्षक से एक अन्य ग़ज़ल भी संकलित है। इस तरह ‘राधेश्याम विलास’ में ग़जलों की कुल संख्या 54 हो जाती है। इनमें से अधिकांश ग़ज़लें मुख्य रूप से अपने इष्ट की वंदना के रूप में लिखी गई हैं। ये इष्ट और कोई नहीं बाँकेबिहारी श्रीकृष्ण हैं। यद्यपि पुस्तक के इस खंड की शुरुआत विघ्न विनाशक गणेश जी की वन्दना से होती है और यह उस पारंपरिक अनुष्ठान का हिस्सा ही है,जिसमें हम किसी बड़े कार्य या आयोजन के प्रारंभ में इस तरह की वंदना करके उस कार्य के विघ्नरहित सम्पन्न होने की प्रार्थना करते है। पाँच शेरों की यह पहली ग़ज़ल कुछ इस प्रकार है-
पहले जो श्रीगणेश को मस्तक झुकायेगा,
वह सिद्धि बुद्धि, विश्व में सर्वत्र पायेगा।
गणपति का ध्यान करके जो कविता बनायेगा,
वह काव्य अलंकार से परिपूर्ण आयेगा।
गणराज को मनाय के जो व्यक्ति गायेगा,
संसार सारा मुग्ध हो अच्छा बतायेगा।
विश्वास से गणपति को जो कोई मनायेगा,
वह पाय मनो-कामना गुणवर कहायेगा।
जो ‘राधेश्याम’ का यह वाक्य ध्यान लायेगा,
निश्चय ही सर्वदा वह पुरुष सुख उठाएगा।
इस वंदना में हम देख पाते हैं कि रचनाकार गणेश जी से स्वयं के लिए कोई याचना नहीं कर रहा है, बल्कि लोक को यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि यदि उनकी शरण में जाया जाय तो उससे क्या-क्या लाभ हो सकते हैं। यहाँ प्रसिद्ध लेखक सुधीर विद्यार्थी की एक टिप्पणी प्रासंगिक लगती है और वह यह कि ‘ पंडित जी ने अपने नाटकों के जरिए संपूर्ण हिंदी जनता के हाथों में उसकी सांस्कृतिक पताका भी थमाई और साथ ही वे दूर-दूर तक हिंदी के प्रचार-प्रसार के भी वाहक बने।…उनके पौराणिक और धार्मिक नाटकों के संदर्भ में कहा जा सकता है कि यहाँ धर्म का अर्थ संस्कृति है। वहाँ सामाजिक मूल्यों और आपसी सौहार्द से लबरेज दुनिया आकार लेती है जिसमें सत्य की जीत और झूठ की पराजय के दृश्य हैं। पंडित जी अपने नाट्य अभियान से एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए प्रतिपल हमारी आँखें खोलते हैं।’ ( पं. राधेश्याम कथावाचक: रंगायन, पृष्ठ-187 ) सुधीर विद्यार्थी जी की राधेश्याम कथावाचक के नाटकों के संबंध में कही गई इन बातों की अनुगूँज हमें यत्र-तत्र उनकी ग़ज़लों में भी सुनाई दे जाती है, जिसे हम आगे भी देख पाएँगे।
वंदना की उनकी ग़ज़लों में दो ग़ज़लें राम वंदना की भी हैं तो इकलौती ग़ज़ल गंगा की वंदना की भी है। सबसे पहले हम गंगा-वंदना वाली ग़ज़ल को लेते हैं-
गंगे! सुना है तुम हो बिगड़ी बनाने वाली,
आवागमन छुड़ाकर मुक्ती दिलाने वाली।
जो एतक़ाद करके न्हाते हैं शुद्ध मन से,
तुम राह स्वर्ग की हो उनको बताने वाली।
विश्वास प्रेम से जो सिर पर चढ़ायें रज को,
तुम उनकी सब समय हो बुद्धी बढ़ाने वाली।
मां पुत्र हम तुम्हारे कलयुग की मार मारे,
आकर पड़े हैं द्वारे तुम हो बचाने वाली।
सब मिलके आओ न्हायें गंगे की जय मनायें,
हम ‘राधेश्याम’ जन हैं वे हैं निभाने वाली।
हम देख पाते हैं कि पाँच शेरों की इस ग़ज़ल में गंगा को मुक्ति दिलाने वाली, स्वर्ग की राह बताने वाली,बुद्धि बढ़ाने वाली, कलयुग की मार से बचाने वाली तथा अपने जनों के साथ निभाने वाली के रूप में वर्णित किया गया है। कदाचित तब गंगा आज जैसी प्रदूषित नहीं हुई थी,नहीं तो इस ग़ज़ल का तेवर कुछ और ही होता। मुसलसल स्वभाव की इस ग़ज़ल में रचनाकार जहाँ ‘मुक्ती’ और ‘बुद्धी’ जैसे प्रायः तद्भव शब्दों का प्रयोग करता है, वहीं ‘एत्क़ाद'( श्रद्धा/आस्था) जैसे अरबी मूल के उर्दू शब्दका भी साधिकार प्रयोग कर लेता है तो ‘नहाते’ के लिए ‘न्हाते’ जैसे ठेंठ गँवई शब्द को भी। आगे हम यह भी देख पाएँगे कि इस पुस्तक में राधेश्याम कथावाचक की दो-चार ग़ज़लें ही उर्दू के प्रभाव की ग़ज़लें हैं, शेष सभी ग़ज़लों में हिंदी भाषा ही नहीं उसकी बोलियाँ की भी सामंजस्यपूर्ण उपस्थित है। जबकि उनके प्रायः समकालीन हिंदी के नामवर कवि शमशेर बहादुर सिंह के यहाँ उर्दू का इतना दबाव मिलता है कि उनकी ग़ज़लों को हिंदी ग़ज़ल की इतिहास-परंपरा में शामिल करने तक में भी विवाद की स्थिति बनती दिखाई देती है।
इसी प्रकार राम का महिमा-गान करते हुए कथावाचक जी की निम्न ग़ज़ल द्रष्टव्य है-
सियावर राम जी का नाम गाले जिसका जी चाहे,
जगत्पति को जुगति से वह रिझाले जिसका जी चाहे।
न दौलत की ज़ुरूरत है न कुछ बातों से मतलब है,
मोहब्बत से महाप्रभु को मनाले जिसका जी चाहे।
सहायक वे सदा जन के अलौकिक कर्म हैं उनके,
अगर शक हो ज़रा तो आज़माले जिसका जी चाहे।
कहां पर्दानशीं है वह, हर एक जापै मकीं है वह,
ज़रा पर्दा हटाकर ढूंढ डाले जिसका जी चाहे।
है ‘राधेश्याम’ दीवाना तो लेके प्रेम का बाना,
पिया के नाम पर धूनी रमाले जिसका जी चाहे।
राम को समर्पित एक और ग़ज़ल भी इस खंड में मिलती है-
दीन-हितकारी हे असुरारी तेरी लीला अपार,
वीर रघुवीर हरो पीर करो बेड़ा पार।
नाथ रघुनाथ गहो हाथ हरो कष्ट मेरे,
ईश, दशशीश भुजा बीस के मद मर्दन हार।
राम अभिराम करो काम रटूं नाम तेरा,
आज रघुराज रखो लाज मेरा काज सुधार।
दास अनुदास को है आस बड़ी ‘राधेश्याम’,
देव सब भेव मेरा जान रहे जगदाधार।
इस ग़ज़ल के शिल्प में यद्यपि काफी झोल है लेकिन शब्द संयोजन के द्वारा अनुप्रास की जो छटा सृजित की गई है वह ध्यान आकृष्ट करती है। स्पष्ट है कि कथावाचक जी भाषा के सौन्दर्यबोध ही नहीं अपितु उसके नाद-सौन्दर्य से भी गहरे तक जुड़े हुए थे।
कृष्ण की वंदना वाली कथावाचक जी की ग़ज़लों में भाव के स्तर पर बहुत विविधता देखने को मिलती है। इनमें वे अपने आराध्य को मनाने के लिए कई तरह की प्रविधियों का उपयोग करते दिखाई देते हैं। जैसे वे कहीं अनुरोध और अनुनय- विनय की मुद्रा में हैं तो कहीं पर कृष्ण का गुणानुवाद करते मिल जाते हैं। कुछ ग़ज़लों में वे कृष्ण को उलाहने देने और ताने मारने लगते हैं तो एकाध स्थल पर नसीहत भी दे डालते हैं। कम से कम तीन ग़ज़लें में ऐसी हैं जिनमें लीलापुरुष की विराटता और व्यापकता का वर्णन मिलता है। इसी प्रकार कुछ ग़ज़लों में एक भक्त की आर्त पुकार मुखरित है तो कुछ ग़ज़लों में वे भावविभोर होकर आनंद में डूबते-उतराते नज़र आते है।अपने निष्ठुर भाव से बाहर निकल कर भक्त की सहायता के लिए उन्होंने अपनी इन्हीं ग़ज़लों में कृष्ण को भरपूर परामर्श भी दिया है। कुछ ग़ज़लों में भजन के स्वर भी मिलते हैं। कुल मिलाकर ये ग़ज़लें भक्ति काल के संत कवियों का स्मरण कराने वाली हैं और एक विधा के रूप में ग़ज़ल का आनंद तो देती ही हैं। हाँ यह अवश्य है कि भक्ति भाव से सराबोर ये ग़ज़लें मुसलसल प्रकृति की हैं और एक ग़ज़ल में प्रायः एक ही भाव मुखरित हुआ है,जिनकी चर्चा पूर्व ही की जा चुकी है। अब कृष्ण वंदना की इन ग़ज़लों को कतिपय उदाहरणों के माध्यम से देखना कदाचित अप्रासांगिक न होगा। सबसे पहले ‘अहाहाहा,ओहोहोहो ‘ रदीफ़ की यह ग़जल लेते हैं-
सुनो रे सांवरे मोहन, अहाहाहा, ओहोहोहो,
ग़ज़ब है तुममें बांकापन, अहाहाहा,ओहोहोहो।
मुकुट और पाग टेढ़ी है तो लब पै टेढ़ी मुरली है,
खड़े तिरछी किये चितवन,अहाहाहा, ओहोहोहो।
झनकते पाऊं में नूपुर चमकते कान में कुण्डल,
दमकते हाथ में कङ्गन, अहाहाहा, ओहोहोहो।
पलक तिर्छी भवें बांकी, नये अन्दाज़ की झांकी,
रसीली आंख में अंजन, अहाहाहा, ओहोहोहो।
सितम मुरली की चोटें हैं अधर दोनों सुधा से हैं,
भला फिर क्यों न हो उलझन,अहाहाहा,ओहोहोहो।
न ‘राधेश्याम’ ही वारी, हैं तीनों लोक बलिहारी,
तुम्हीं हो एक जीवनधन, अहाहाहा, ओहोहोहो।
इस ग़ज़ल में रदीफ़ के अनूठेपन ने एक अलग तरह का नादसौंदर्य सृजित किया है। कृष्ण के नखशिख वर्णन में रचनाकार ने अपने भक्ति-भाव को पिरोकर उसे विशिष्ट भंगिमा से ओतप्रोत कर दिया है। ग़ज़ल की कहन सीधे-सीधे हृदय में उतर जाने वाली है। यह तग़ज़्ज़ुल ही है जो एक शेर में ‘उलझन’ जैसे नकारात्मक भाव वाले शब्द को रससिक्त व अर्थपूर्ण कर डालता है।
गई ढूंढत ढूंढत हार मगर, गिरधर के नगर का डगर न मिला,
भई बार बड़ी हर बार फिरी, पर छैल छबीले का घर न मिला।
वृंदावन यमुना तीर गई, बंसीवट भी दिलगीर गई,
दिलदार के द्वार पै ख़्वार भई,दिल भी न मिला दिलवर न मिला।
बरसाने गई, नंदगाम गई, मथुरा और गोकुल धाम गई ,
सब घाटन बाटन ढूँढ थकी, उस शानका कोई बशर न मिला।
कहूं काहू से जाकर टोह करी, कहूं जाके छिपी कहूं साफ़ रही,
गई सबकी नज़र से गुज़र पर वह,इस घर न मिला उस घर न मिला।
है जाहिर सब पै मुदाम तुही, और गुप्त भी ‘राधेश्याम’ तुही,
तुही जाहिरबातिन खेल रहा,तेरे खेल का अन्त मगर न मिला।
उर्दू के छौंक तथा ब्रजभाषा के आस्वाद वाली इस ग़ज़ल की कहन भी विशिष्ट है। इसे पढ़ते हुए ग़ज़ल में हिंदी के सवैया छंद के फ़्यूज़न का आनंद भी प्राप्त होता है। नवगीतकार डॉ. जगदीश व्योम इसमें दुर्मिल सवैया छंद की भरपूर गंध अनुभव होने की बात करते हैं। कथावाचक जी की कुछ और ग़ज़लों में भी इस तरह के भाषाई और विधागत फ़्यूज़न की स्थितियाँ देखने को मिलती हैं। इसके आधार पर उन्होंने कुछ अलग तरह के सौन्दर्यबोध की सृष्टि करने में सफलता प्राप्त की है।इस प्रसंग में एक अन्य ग़ज़ल भी द्रष्टव्य है,जिसमें अनुप्रास की छटा फूटी पड़ रही है।साथ ही इसमें सभी शेर
चल देख अली,कुञ्जन की गली वो छली मुरलीको बजावत है,
रस-रंग-रंगीली नवीली नुकीली उमंग से तान लगावत है।
हंस हंसके करे रसके बसमें चसके ठसके दिखलावत है,
छलिया छलछंद छबीलो छली छैला छिपछाछ चुरावत है।
छतियां छुइ रार मचावत है दधि की मटुकी ढरकावत है,
निकली इकली जो गली में कभी तभी सैनचला इठलावत है।
गल बांह वो डाल कुचाल करे पौरी पर बौरी बनावत है,
शुचिरूप सरूप अनूप है तापर नैन के सैन चलावत है।
जाकी गति वेद न जानत है जो ब्रह्म अखण्ड कहावत है,
वश प्रेमके ‘राधेश्याम’ है वो लेउ छाछ पै नाच दिखावत है।
यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि कथावाचक जी की ऐसी ग़ज़लों से अलग तरह का छान्दसिक हिंदीपन सामने आता है जो बिल्कुल अलग और अनूठा है। यह उनके बाद की पीढ़ी में शायद ही कहीं मिले। क्योंकि कालांतर में ग़ज़ल की पारंपरिक बहरें ही ग़ज़ल-लेखन के लिए स्वीकार्य और लोकप्रिय होती चली गईं।
भाषा के मामले में राधेश्याम कथावाचक जी की ग़ज़लों में अच्छी-खासी उदारता देखने को मिलती है। वे उर्दू शब्दों का साधिकार प्रयोग करते हुए भी ग़ज़ल को उसके हिंदीपन से दूर नहीं होने देते हैं। इसे हम होली की उनकी इस ग़ज़ल से कदाचित अच्छी तरह समझ पाएँगे-
न बरजोरी करो हमसे लला घनश्याम होली में,
हटाओ इस बने रँग का रिवाजे ख़ाम होली में।
झरे झोली गुलालों की लिये टोली हो ग्वालों की,
बने हो आज फागुन के नए गुलफ़ाम होली में।
यह बरसाना है हे कान्हा? यहाँ पै रँग न बरसाना,
अदल है याँ किशोरी का करो आराम होली में।
मरदुओं को यहां पर गोपियां नारी बनाती हैं,
कहीं श्यामा न बन जाना बढ़ाकर नाम होली में।
चलो होनी थी सो होली नई होली मुबारक हो,
पियो अब प्रेम बूँटी का रँगीला जाम होली में।
सुनी यह बात ललिता की हँसी इतने में राधाजी,
मिले हैं बाद मुद्दत के यह ‘राधेश्याम’ होली में।
इस ग़ज़ल में केवल भाषा की ही बात नहीं है अपितु तीसरे और पाँचवें शेर में यमक अलंकार के प्रयोग के माध्यम से जो तग़ज़्ज़ुल पैदा किया है वह भी ख़ासा ध्यान आकृष्ट करने वाला है। इसी प्रकार कथावाचक जी की एक ग़ज़ल सावन रदीफ़ की भी है-
आज किस शान से आई है घटा सावन की,
बे तरह सिर पे चढ़ी है ये बला सावन की।
सर पै बदली है तो बदली है हवा भी कैसी,
बंध गई आज तो ब्रज में भी हवा सावन की।
साथ घनश्याम के श्यामा हैं सखी भी तो हैं,
सब तरफ़ तान है या है यह सदा सावन की।
श्याम घनश्याम हैं सावन है यही वृन्दावन,
दामिनी बन गई वृषभानु-सुता सावन की।
देखली हमने यह दुनिया की दुरंगी सारी,
लाल फागुन की थी और सब्ज़ अदा सावन की।
जब हों साजन तभी सावन तभी फागुन अपना,
अब न दिखलाइये तसवीर बना सावन की।
उस जगह हम भी खड़े होके कभी ‘राधेश्याम’,
गायेंगे रागिनी एक रोज़ भला सावन की।
इस ग़ज़ल से भी विधा में कथावाचक जी का हस्तलाघव फूट पड़ता दिखाई देता है। अनुप्रास और यमक अलंकारों के प्रति उनकी अनुरक्ति यहाँ भी द्रष्टव्य है। सभी कुछ ग़ज़ल के अपने खाँटी सौन्दर्यबोध के साथ उपस्थित है। इन ग़ज़लों से उनकी रचनात्मकता कुछ इस तरह फूटी है जैसे ग़ज़ल ही उनकी मुख्य विधा हो।
भजन के नाम पर प्रकाशित ग़ज़लों में से दो उदाहरण द्रष्टव्य हैं-
अफ़सरे-आलम ग़रीब-परवर जय गंगे जय जय गंगे,
जौहर तेरे बयां हों क्यूंकर जय गंगे जय जय गंगे।
देव प्रत्यक्ष तुही कलियुगमें वेद पुराण तमाम कहें हैं,
पावे सब सुख गावे जो नर जय गंगे जय जय गंगे।
नभ के तारे चाहें गिनलें तेरे तारे गिने न जावें,
ख़ाली तूने किया है यमपुर जय गंगे जय जय गंगे ।
मन-वांछित-फल-दाता माता जो जन तुम चरनन मन लाता,
परम धाम में बनाले वो घर जय गंगे जय जय गंगे।
जगदम्बा जग-जननी मैया भवके पार उतार की नैया,
तारन तरन धार अति सुन्दर जय गंगे जय जय गंगे।
सुजला सुफला सुखदा सुन्दर देवी इससे कोई न बेहतर,
एक बार बोलो सब मिलकर जय गंगे जय जय गंगे।
दयादृष्टिकर ‘राधेश्याम’ पर पिसर मैं तेराज़लीलोकतर,
शरण में तेरी पड़ा हूं मादर जय गंगे जय जय गंगे।
×××
काली देवी खप्पर वाली जय दुर्गे जय जय दुर्गे,
कठिन-कराली नर-कंकाली जय दुर्गे जय जय दुर्गे।
चंड मुण्ड के खंड किये हैं,शुम्भ निशुम्भ संहार दिये हैं,
खलन हलाली जनन कृपाली जय दुर्गे जय जय दुर्गे।
जगमगात है ज्योति जगमगी,झलझलात है रूपकी तेज़ी,
चमचमात नागिन ज़हरीली जय दुर्गे जय जय दुर्गे।
दास की है अरदास ख़ासकर,त्रासनाशकर भयविनाशकर,
अचल, प्रखण्ड, प्रचण्ड-विशाली जय दुर्गे जय जय दुर्गे।
करो कृपा कालिका करालिन, छीजें मेरे रोग रिपू-गण,
बेहाली से करो बहाली जय दुर्गे जय जय दुर्गे।
पूत कपूत सुने हैं जग में, मातु कुमातु कहूं न सुनी है,
यह विचार करिये प्रतिपाली जय दुर्गे जय जय दुर्गे।
‘राधेश्याम अस्तुती गावै सब जन बोलो काली की जय,
श्रोताओं को कर रखवाली जय दुर्गे जय जय दुर्गे।
यदि भाषा की ही बात की जाय तो कथावाचक जी अपनी ग़ज़लों में ज़ुरूरत, मकीं, एत्क़ाद, निगहे-शौक, मूनिसे- ग़मख्वार, मये-गुलनार,दमे-रुख़सत,दुआगो, फुरकत, आरज़ू, सब्ज़, ख़बरगीर, फुगाँ, ख़ुमकेख़ुम, बरमन फ़िगन् , शरबते-दीदार, तालिबे-दीदार, इफ़लास,ग़मगुसारी जैसे खाँटी उर्दू शब्दों का भी इस्तेमाल बड़ी सहजता से कर जाते हैं दूसरी तरफ़ उसी सहजता से काव्य अलंकार, परिपूर्ण, दामिनी, वृषभानु-सुता, सर्वदा, अलौकिक कर्म, गुरु-स्थल, गंधर्व-कुल, कृपासिंधु, पतित-पावन, कर्तार,क्लेश, किंचित, सर्वत्र,गुंजार,त्रिभुवन,सनातन धर्म जैसे तत्सम शब्दों का भी प्रयोग करते दिखाई देते हैं। ब्रजभाषा के सम्मिश्रण की बात पहले ही की जा चुकी है, कहीं-कहीं अवधी का भी प्रयोग दिखाई दे जाता है।’राधेश्याम विलास’ की कुछ ग़ज़लों में नज़ीर अकबराबादी(1735-1830) का भी प्रभाव नज़र आता है या कहिए कि वे उनकी परंपरा और तासीर की ग़ज़लें हैं। दूसरे कुछ और उर्दू शायरों की परछाईं भी कथावाचक जी की ग़ज़लों में ढूँढने पर मिल जाएगी। उर्दू भाषा के प्रति उनके आकर्षण के दो कारण थे,एक तो उस समय ग़ज़ल का मतलब केवल उर्दू ग़ज़ल ही समझा जाता था। दूसरे कारण की तरफ संकेत सुधीर विद्यार्थी की इस टिप्पणी से मिलता है- ‘…तब हिंदुओं की अपेक्षा मुसलमान भाई नाटक के ज्यादा शौकीन थे। कंपनियों के मालिक और कलाकार मुसलमान होते थे। खेल भी खालिस उर्दू में रहते थे। इश्क और हुस्न का बोलबाला था। बातचीत में जिस शब्दावली का प्रयोग होता था उसमें अम्माजान,मेहरबान, कद्रदान और जानी, लासानी, नूरानी जैसे शब्द आते थे।'( राधेश्याम कथावाचक: रंगायन,पृष्ठ- 191) चूँकि कथावाचक जी अपनी ग़ज़लों का उपयोग अपने नाटकों के प्रदर्शन के दौरान भी करते थे, ऐसे में बहुत स्वाभाविक था कि उर्दू भाषा का भी कुछ न कुछ पुट उनकी ग़ज़लों में आए । लेकिन वरीयता उन्हें हिंदी को ही देनी थी और उन्होंने दिया भी। ऐसे में उनकी ग़ज़लें हिंदी की परंपरा की ही ग़ज़लें मानी जाएँगी जो कि वह हैं भी- विषय की दृष्टि से भी और भाषा के बर्ताव की दृष्टि से भी। इसे हम यूँ भी कह सकते हैं कि ‘राधेश्याम कीर्तन’ में उर्दू ग़ज़लों का व्यापक प्रभाव था लेकिन ‘राधेश्याम विलास’ तक आते-आते कथावाचक जी ने स्वयं को उक्त उर्दू-प्रभाव से काफ़ी कुछ मुक्त कर लिया था।
‘राधेश्याम कीर्तन’ की ही तरह ‘राधेश्याम विलास’ की भी कुछ ग़ज़लों में भौतिक प्रेम से आध्यात्मिक प्रेम के बीच आवाजाही की स्थितियां बार-बार देखने को मिलती हैंः
मय मुहब्बत की मुझे यार पिला थोड़ी सी,
चाशनी शरबते-दीदार चखा थोड़ी सी।
दास का काम हो तो नाम हो बंदा परवर ,
आरज़ू आपसे रखता हूं सदा थोड़ी सी।
ख़ाकसारी हमें, सरदारी मुबारिक तुमको,
मस्त देवेंगे दुआ कीजे दया थोड़ी सी।
फिर बता दूँगा कि तड़पी है कहां पर बिजली,
देख लूं आपकी मुसकान ज़रा थोड़ी सी।
प्रेम है तो कभी आ जाओ यहां ‘राधेश्याम ‘,
हम ग़ुलामों की भी ले लीजे दुआ थोड़ी सी।
× × ×
आये थे होने को दो चार तेरे कूचे में,
क्या कहें हो गई तकरार तेरे कूचे में।
ज़ोर है ज़ुल्म है दिलदार तेरे कूचे में,
मौत का गर्म है बाज़ार तेरे कूचे में।
नागिनी जुल्फ़ तेरी श्याम,जिसे डसती है,
सर वह पटके सरे-दीवार तेरे कूचे में।
कोई तड़पा कोई सिसका कोई बेहोश पड़ा,
बेख़ता चलती है तलवार तेरे कूचे में।
आज या कल कभी पायेंगे दरस ‘राधेश्याम’,
अड़ गए तालिबे-दीदार तेरे कूचे में।
× × ×
बिहार भूमि अपनी देखने को, बिहारी फिर एक बार आजा,
बहुत समुन्दर की सैर कर ली,अब अपने मन्दिर में यार आजा।
बिगड़ रहा है वतन यह तेरा,उजड़ रहा है चमन यह तेरा,
हर एक दिल को, हरएक गुल को,है तेरा बस इन्तिज़ार आजा।
न अब वह दर्शन,न वह सुदर्शन,मसान सा हो रहा है मधुबन,
सुनादे फिर अपनी वह मधुर धुन,मो मुरलीवाले मुरार आजा।
है जंगे कुरुक्षेत्र आज घर घर,अनेक अर्जुन से अब हैं कायर,
यही समय है दे अपना लेक्चर,ओ गीता के लेक्चरार आजा।
यह धाम है लीलाधाम तेरा,यह देश है राधेश्याम’ तेरा,
सुधार इसको, संवार इसको, न देर कर बेक़रार आजा ॥
अंतिम ग़ज़ल में कृष्ण को गीता का ‘लेक्चरार’ कहकर संबोधित किया गया है। ऐसा प्रयोग शायद ही कहीं देखने को मिलेगा। यहाँ इस अंग्रेजी शब्द के प्रयोग ने भाषा के स्तर पर कुछ अलग तरह के ही सौन्दर्यबोध की सृष्टि कर दी है।
यदि सरोकारों की बात की जाय तो कहना न होगा कि उस समय यानी आज के सौ साल पहले का सबसे बड़ा सरोकार देश की आज़ादी से जुड़ा था। गुलामी में लगातार रहते-रहते लोगों की मानसिकता बेहद कमज़ोर और कुंद होती जा रही थी। उनके भीतर का आत्मविश्वास डगमगा चुका था। ऐसे में कथावाचक की ग़ज़लों में ऐसी मानसिकता से उबरने के कई सारे संकेत उभर कर सामने आते हैं। यूँ भी ग़ज़ल प्रतीकों के माध्यम से बात कहने की विधा रही है।अब एक ग़ज़ल के निम्न शेरों को देखते हैं-
रँग बदल जाय जो कुछ दिन में वो हालत कैसी,
जिन गुलों पर हो ख़िजाँ उनकी वो रंगत कैसी।
चीज़ अपनी अगर छिन जाय तो क़ुव्वत-कैसी,
आख़िरी वक्त में दूरी हो वो क़ुर्बत कैसी।
जिसके परदे में मुसीबत हो वो राहत कैसी,
ख़ुद ही फूँका जिसे उससे कहो उल्फ़त कैसी।
मेरा तेरा यह बखेड़ा है कहे ‘राधेश्याम’,
मौत जब सरपे खड़ी है तो सकूनत कैसी।
ग़ुलाम भारत के आमजन की कितनी ही मनःस्थितियों के दर्शन इस ग़ज़ल में होते हैं,बल्कि इन स्थितियों से उबरने की टीस भरी छटपटाहट और बेचैनी भी ग़ज़ल के शेरों में नज़र आती है। कुछ ऐसी ही अनुभूतियों के निम्न शेरों का भी इस संदर्भ में संज्ञान लिया जा सकता है-
बिगड़ रहा है वतन यह तेरा,उजड़ रहा है चमन यह तेरा,
हर एक दिल को, हरएक गुल को,है तेरा बस इन्तिज़ार आजा।
×××
ज़ोर है ज़ुल्म है दिलदार तेरे कूचे में,
मौत का गर्म है बाज़ार तेरे कूचे में।
×××
न शबको ख़्वाब आता है, न दिन को चैन दमभर है,
तेरे इस जांबलब शैदा का सब दिन हाल अबतर है।
उक्त स्थितियों से लोगों को उबारने के लिए रचनाकार दुर्गा की भी गुहार लगाता है जिसे निम्न शेरों से समझा जा सकता है-
दास की है अरदास ख़ासकर,त्रासनाशकर भयविनाशकर,
अचल, प्रखण्ड, प्रचण्ड-विशाली जय दुर्गे जय जय दुर्गे।
करो कृपा कालिका करालिन, छीजें मेरे रोग रिपू-गण,
बेहाली से करो बहाली जय दुर्गे जय जय दुर्गे।
उक्त पंक्तियों में वर्णित बेहाली कथावाचक जी की अपनी बेहाली नहीं है बल्कि देश के तमाम लोगों की बेहाली है जो ब्रिटिश शासकों के शोषण और अत्याचारों से उपजी है। साथ ही जिस रोग और रिपु-गण के छीजने की बात की जा रही है, उसमें रोग और कुछ नहीं अपितु परतंत्रता है और रिपु-गण से आशय ब्रिटिश शासकों से है। क्योंकि कथावाचक जी जिस भक्ति-भाव और जिस आध्यात्मिकता के मुरीद थे, उसमें और कोई उनका दुश्मन हो ही नहीं सकता था। अपने निम्न शेरों में तो उन्होंने जैसे ब्रिटिश सरकार को उसकी उल्टी गिनती की नसीहत ही दे डाली हो-
ले देख ज़िंदगी के करश्मे कोई दिन और,
यह खेल अदा नाच तमाशे कोई दिन और।
पैदा हुआ है ख़ाक से मिलना है ख़ाक में,
अय ख़ाकबाज़ ख़ाक उड़ा ले कोई दिन और।
निम्न शेरों का जब उनके किसी नाटक के प्रदर्शन के दौरान पूरे मन और राग से गायन किया जाता रहा होगा तो दर्शक स्वयं ही समझ जाते रहे होंगे कि ये सिर्फ़ नाटक के किसी पात्र के लिए ही नहीं हैं, अपितु इस देश के लोगों की भी कातर पुकार उनमें शामिल है-
अब तो कर दीजिए रहमत की नज़र थोड़ीसी,
गर ख़बरगीर हो तो ले लो ख़बर थोड़ीसी।
× ×
सर्वेश,सर्व सुधार को , अवतार लो, अवतार लो,
आओ जगत्-उद्धार को,अवतार लो,अवतार लो।
डगमग है नाव उबार लो,कर्तार तुम पतवार लो,
अब तार लो संसार को,अवतार लो,अवतार लो।
ऐसा नहीं था कि तग़ज़्ज़ुल की ओर कथावाचक जी का ध्यान नहीं था। वे इस ओर भी ख़ासे सतर्क थे और अपनी तरह से अनूठे तग़ज़्ज़ुल की सृष्टि अपनी ग़ज़लों में कर रहे थे-
देखो तो कैसी लीला, नटवर दिखा रहा है,
यमुना के तट पै बैठा, बंसी बजा रहा है।
अन्नदाता सबका है जो, देता है रोज़ सबको,
वह आज प्रेम के वश, माखन चुरा रहा है।
जो है जगतका जीवन, निर्लेप और निरञ्जन,
वह काली कमली ओढ़े, गउएँ चरा रहा है।
जो विश्वका विधाता, संसार को नचाता,
कालीके फनपै चढ़ वह, ख़ुदको नचा रहा है।
वह ‘राधेश्याम’जन है, जिसपर कि भक्ति धन है,
भगवान भक्ति वश हैं, यह वेद गा रहा है।
××
दिल चुराके मेरा अब शक्ल छिपाते क्यों हो,
बेकली देके गली घर की बताते क्यों हो ?
वह तो मानाकि तुम्हीं तुम हो जहाँके अंदर,
आईना हाथ में फिर अपने उठाते क्यों हो।
श्याम हो, दिलके भी कुछ श्याम हो ऐ नागरनट,
वार पर वार लगातार लगाते क्यों हो।
ख़ैर यूँ ही सही अब तो हटो सोने दो हमें,
रस भरी तान बजा कर के जगाते क्यों हो।
दिलमें दिलदार बसो चैनहो तब ‘राधेश्याम’,
दूर ही दूर खड़े भैरवी गाते क्यों हो।
यद्यपि राधेश्याम कथावाचक का उर्दू साहित्य का भी पर्याप्त अध्ययन था, जैसा कि उनके मित्र तथा विद्वान प्रो. भोलानाथ शर्मा(1906-1960) बताते हैं। बावजूद इसके जगह-जगह उनकी ग़ज़लों में शिल्पगत त्रुटियाँ दिखाई देती हैं। ऐसा कदाचित इसलिए है कि वे ग़ज़लों को गायन के माध्यम से लिखते-कहते थे,शेरों की तक्ती करके नहीं। आज भी कुछ रचनाकार गा-गा कर ही ग़ज़लें लिखते हैं और उनके यहाँ भी बहर और मीटर की ग़लतियाँ बनी रहती हैं। प्रो. भोलानाथ शर्मा ने भी कथावाचक जी की रचनाओं में उर्दू की उपस्थिति को लेकर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। वे लिखते हैं कि- ‘उनकी रामायण, नाटकों और फ़िल्म-क्षेत्र में किए गए काम का एक ही उद्देश्य था – उर्दू के गढ़ में हिन्दी का प्रचार और प्रसार । यह काम उन्होंने उर्दू से द्वेष और प्रतिद्वंद्विता के रूप में नहीं, उससे भरपूर सहयोग लेकर किया। इसे वह उसी शैली के माध्यम से पूरा कर सकते थे, जो बाद में उनकी विशिष्ट शैली के रूप में जानी गई। उनकी भाषा अपने मूलरूप में उस ‘हिन्दुस्तानी’ के निकट पड़ती है जिसे हिन्दी-उर्दू के बीच सेतु बनाकर महात्मा गाँधी जैसे लोगों ने उसकी अवधारण प्रस्तुत की थी। उसके स्वरूप को लेकर आज अनेक मतभेद हो सकते हैं लेकिन अपने व्यावहारिक रूप में यह प्रयास भाषिक विवाद और कटुता को दूर करने में दूर तक सफल हुआ था। इस क्षेत्र में उनका यह काम लगभग वैसा ही था जैसा अपने जमाने में कथा-भाषा के विकास में देवकी नंदन खत्री का था। उनकी रचनाओं का काल क्रमानुसार किया गया कोई भी अध्ययन उनकी भाषिक दृष्टि और हिन्दी के अनुपात को स्पष्ट कर देता है।’
( पं. राधेश्याम कथावाचक: रंगायन,पृष्ठ-154)
यहाँ भाषा के संबंध में स्वयं कथावाचक जी का मत जान लेना भी कदाचित अप्रासंगिक न होगा। आलोचक मधुरेश प्रेमचंद की भाषा के संबंध में उनके दृष्टिकोण का उल्लेख करते हुए उद्धृत करते हैं-‘विद्वानों के समाज में जो भाषा बोली जाती है, वह बाजार की भाषा में अलग होती है। शिष्ट भाषा की कुछ न कुछ मर्यादा तो होनी ही चाहिए, लेकिन इतनी नहीं की भाषा के प्रचार में बाधा पड़े। फारसी शब्दों में शीन-काफ की बड़ी कैद है, लेकिन कौमी भाषा में यह कैद ढीली करनी पड़ेगी। पंजाब के बड़े-बड़े विद्वान भी ‘क़’ की जगह ‘क’ ही का व्यवहार करते हैं। मेरे खयाल में तो भाषा के लिए सबसे महत्व की चीज है कि उसे ज्यादा से ज्यादा चाहे वे किसी प्रान्त के रहने वाले हों, समझें, बोले और लिखें। ऐसी भाषा न पंडिताऊ होगी और न मौलवियों की। उसका स्थान इन दोनों के बीच में है। यह जाहिर है कि अभी इस तरह की भाषा में इबारत की चुस्ती और शब्दों के विन्यास की बहुत थोड़ी गुंजाइश है और जिसे हिन्दी या उर्दू पर अधिकार है, उसके लिए चुस्त और सजीली भाषा लिखने का लालच बड़ा जोरदार होता है।( पं. राधेश्याम कथावाचक: रंगायन,पृष्ठ-97)
इस प्रकार पं. राधेश्याम शर्मा कथावाचक की उक्तवत उपलब्ध कुल 79 ग़ज़लों का अध्ययन हमें बताता है कि वे अपनी अन्य विधाओं की तरह ही एक समर्पित ग़ज़लकार भी थे। हरिशंकर शर्मा जी के अनुसार उनकी कतिपय ग़ज़लें ‘राधेश्याम रामायण’ के भी कुछ संस्करणों में संकलित हैं लेकिन उनके उपलब्ध न हो पाने के कारण उन्हें चर्चा में शामिल नहीं किया गया है। कहना न होगा कि जब सर्वत्र उर्दू ग़ज़ल का बोलबाला चल रहा था,कथावाचक जी अपनी ग़ज़लों में धार्मिक और आध्यात्मिक भाव समाविष्ट करते हुए ग़ज़ल विधा को अलग रंग से सराबोर कर रहे थे। उनकी ग़ज़लों में उर्दू बहरों तथा हिन्दी छन्दों का अद्भुत सम्मिश्रण देखने को मिलता है। भाषा के स्तर पर वे उर्दू और अंग्रेज़ी शब्दों तथा ब्रजभाषा के सम्मिश्रण से अलग तरह का सौन्दर्यबोध रच रहे थे,जिसमें अनुप्रास और यमक अलंकारों की छटा देखते ही बनती है। बावजूद इसके अभी तक हिंदी ग़ज़ल के इतिहास से उनकी अनुपस्थिति वैसे ही हैरान करती है जैसे आचार्य शुक्ल के इतिहास में उनका उल्लेख न होना आश्चर्य में डालता है। हम जितनी जल्दी ऐसी चूकों को दुरुस्त कर सकें,हमारे लिए उतना ही उपयोगी होगा। ऐसा करके हम राधेश्याम कथावाचक जैसे बहुआयामी रचनाकार के साथ ,विलंब से सही, न्याय ही नहीं पूर्व की उपेक्षाओं के लिए प्रायश्चित भी कर सकेंगे।
शोधपरक और ज्ञानवर्धक आलेख हेतु साधुवाद कमलेश जी को एवं पुरवाई को
धन्यवाद आशुतोष जी !
मेरे ह्वाट्सएप पर प्राप्त उर्दू के प्राध्यापक डॉ.अलिफ़ नाज़िम, रामपुर, उत्तर प्रदेश की महत्वपूर्ण टिप्पणी
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मैंने पंडित राधे श्याम कथा वाचक पर आपका शोध पत्र पढ़ा।आपने एक ऐसे लेखक को फिर से पेश किया है जो न केवल अपने समय में प्रसिद्ध था बल्कि वो अवाम और खास दोनों के दिलों पर राज कर रहा था, लेकिन समय गर्द ने इस महान लेखक की कृतियों को कुछ समय के लिये ढांपलिया था जिसे आपने झाड़ कर और छान फटक कर साहित्यिक शोकेश में सजाने कासफल प्रयास किया है जो प्रशंसनीय हैं। वाक़ई आपने एक महान क़लमकार को सामने लाने का जोखिम उठाकर एक महान साहित्यिक कर्तव्य पूरा किया है। अपने निबंध की शुरुआत में, आपने कुछ रोचक तथ्य प्रस्तुत किए हैं उदाहरण के लिए, कबीर के बाद के दृश्य से हिंदी ग़ज़ल का गायब होना इत्यादि और आप शायद सही हैं कि हिंदी ग़ज़ल को इस पूरे युग में उर्दू ग़ज़ल की तरह एक शैली का दर्जा नहीं मिल सका। उस समय क उर्दू ग़ज़ल का जादू सर चढ़ कर बोल रहा था, लोग उर्दू ग़ज़लों के शौकीन थे। आपके लेख से यह भी पता चला कि पंडित राधे श्याम निपुण कथा वाचक होने के साथ-साथ नाटककार ,ग़ज़ल के शायरऔर अच्छे अभिनेता भी थे। आपने आगा हशर कश्मीरी का उल्लेख किया है और कहा है कि राधा श्याम जी भी उनके साथ इस क्षेत्र में लोकप्रिय थे। इससे साबित होता है कि पंडित राधे श्याम कोई साधारण कलाकार नहीं थे बल्कि वे एक ऐसे लेखक थे जो अपने समय की नब्ज जानते थे और उसका इलाज भी। लोगों के बीच लोकप्रियता हासिल करना कोई आसान काम नहीं है। आगा हशर खुद एक आदर्श कलाकार थे। राम कथा ही पण्डित जी की पहचान का असली स्रोत है और शायद उनके समय में उनसे बेहतर कथावाचक दूसरा कोई नहीं था। आपने पंडित जी की ग़ज़ल के बारे में अपना सर्वश्रेष्ठ विश्लेषण दिया है। आप सही कह रहे हैं कि पंडित जी ने ग़ज़ल में मीटर या बहर आदि पर अधिक ध्यान नहीं दिया जो कि उनके समय में आवश्यक था आपका ये कहना उचित है कि ये शायरी गाने के लिए लिखी गयी थी। और यह एक तथ्य है कि जब कोई कलाकार लेखन प्रस्तुत करता है, जिसे पाठक या श्रोतागण सर आंखों पर रखने को तैयार होते है, तो वह आलोचकों और शैली की शोध और साहित्यिक आवश्यकताओं की परवाह नहीं करता है। इसके वास्तविक आलोचक हैं अवाम ही होते हैं।एक ग़ज़ल की रदीफ़ ओहोहो अहाहा इत्यादि से यह भी प्रतीत होता है कि पंडित जी निरे लकीर के फकीर न थे बल्कि उस विधा में प्रयोग कर नया रास्ता बनाया बनाने की छमता रखते थे। आपके निबंध को पढ़कर, मुझे उर्दू और हिंदी में राम कथा के हजारों एडीशन के प्रकाशन का मार्ग प्रशस्त करने वाले निपुण कलाकार के साहित्यिक जीवन के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं से परिचित होने का अवसर मिला। मैं आपको धन्यवाद देता हूं और इस अति महत्वपूर्ण शोध के लिए आप को बधाई देता हूं और आशा करता हूँ कि पाठक पंडित जी की कृतियों से भली-भांति परिचित होंगे और साहित्य जगत में आपका यह लेख उनकी साहित्यिक प्रतिष्ठा में वृद्धि करेगा। अलिफ नाज़िम
डॉ.अलिफ़ नाज़िम ने बहुत गहराई से आपके लेख को पढ़ा और समझा है। आपका यह लेख ग़ज़ल लेखकों के लिये महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है कमलेश भाई।
तेजेन्द्र जी पुरवाई ने इसे पूरी हिंदी दुनिया में फैलाकर मेरे मिशन को आसान बना दिया है। यह अब बहुत सारे ग़ज़लकारों, विद्वानों और शोधकर्ताओं को सहज ही उपलब्ध है। आभार आपका!
इतना विस्तृत और शोधपरक लेख पढ़कर अपरिमित ज्ञान तो मिला और ये एहसास भी हुआ कि अभी तक मुझसे राधेश्याम कथावाचक का यह साहित्य अछूता कैसे रहा। नाटककार और एक अभिनेता के रूप में तो उन्हें जानता था किंतु उनके शायर रूप से परिचित नहीं था। कमलेश जी इस लेख के लिए आभार।
धन्यवाद हरीश जी! यह आप जैसे विद्वानों के लिए भी था। दरअसल कई पीढ़ियां कथावाचक जी को राधेश्याम रामायण के कारण जानती हैं। लेकिन उनके बहुआयामी व्यक्तित्व से मैं भी इस लेख को लिखने के दौरान ही परिचित हो पाया।