1
हालात बदलें देश के ऐसा मैं भी सोचता हूँ
पर प्रक्रिया से मेरे बच्चे जुड़ें तो टोकता हूँ
मुझ से टकरा के हवाएँ भी थकी दिखने लगी हैं
हर जुल्म को हर सितम को रात दिन मैं झेलता हूँ
क्या इसे संग़ेय अपराध मानेंगे महोदय आप भी
क्या ग़लत है आदमी को आदमी से जोड़ता हूँ
तुम को लगता है अंधेरा इन दिनों मानस पटल पर
काव्य से पोषित उजाला आज तुम को सौंपता हूँ
क्यों भला खुदगर्ज बन बैठा वो चंद सिक्कों के लिए
कोर्निश करते हुए आज कल दरबार में मैं देखता हूँ
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मुझे पता नहीं किसने उसे बहकाया है
उसे गुमां है वो सूरज जमीं पे लाया है
किस किस को बताऊँ बर्बादी का सबब
इस नशेमन को उजालों ने मिटाया है
दौड़ में वो निकल गया बहुत आगे मुझसे
ज़मीर अपना जिसने बारहा गिराया है
बर्गे ख़िज़ाँ जान के हमें रौंद के जाने वालों
इस गुलिस्ताँ को हमने बहुत सजाया है
दिल ले गया था किस कदर चुपचाप वो
हम पे इल्ज़ाम है हमने बहुत सताया है
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रौंद के छाती पहाड़ों की जो हम इतराने लगे
देखिए क्या ख़ौफ़नाक मंजर नज़र आने लगे
काट डाला जंगलों को जिस रिहाइश के लिए
बाढ़ आ आती हैं वहाँ पे घर उजड़ जाने लगे
न समय पर गर्मियाँ अब न समय पर सर्दियाँ
बारिशों के माह भी सूखे गुज़र जाने लगे
बढ़ रहा सागर में पानी का स्तर अब जिस तरह
लोग सागर के निकट बसने से घबराने लगे
इस जमीं को स्वार्थों ने दोज़ख़ बना कर रख दिया
लोग अब दीगर सियारों के मंसूबे बनाने लगे