समय ने पलटकर देखा कि ऐसी क्या अनहोनी हो गई। शायद आज हवा चली नहीं, एक भी पत्ती हिली नहीं। शायद आज धूप नहीं निकली, धरा की गीली चुनरी नहीं सूखी। या…या शायद जीवन ठहर गया।
जब प्रशांत ने उसका नाम लिया, कमरे से निकलती शुभदा के पाँव ही नहीं ठिठक गए, उसकी साँस तक ठिठक गई।
शुभदा का चौंकना कहाँ अस्वाभाविक था। अचानक “शुभदा!”
डाॅक्टरनी साहिबा से शुभदा में बदल गई, तो मन की कोरी देहरी में भरावट आनी ही थी। लेकिन वह भरा-भरा महसूस करने की बजाय चौंक उठी।
वह पलटकर प्रशांत को देखने लगी। प्रशांत आराम से आँखें मुँदे गाना सुन रहे थे। लता मंगेशकर, मो. रफी का बेहद पापुलर साँग। शुभदा जब कमरे में आई थी, उन्हें अपने में डूबे गाना सुनते देख पलट पड़ी थी। अभी दरवाजे के पास पहुँची ही थी कि उनकी आवाज़ में घुल ‘शुभदा’ शब्द ने उसके पैरों को जकड़ लिया था।
इन पाँच वर्षों में वह पहली बार अपना नाम सुन रही थी। ब्याह की वेदी से उठकर आने, विदा होने तक यह नाम सबकी ज़ुबान पर था। परंतु गाड़ियों के काफिले के साथ लौटते समय से ही कहीं खो गया था।
रिश्तों के जंगल में वह बहू थी, भाभी थी, चाची थी, मामी थी, यहाँ तक कि दादी-नानी भी थी। नहीं थी तो बस शुभदा नहीं थी। एकांत कोने में वह प्रशांत के लिए डॉक्टरनी थी…पहले ही दिन से, प्रथम रात्रि से भी। सब के सामने
 ‘ये’। यह अस्सी का दशक था।
 “आओ, तुमसे कुछ बात करनी है।”
‘संबंधों पर पड़ी बर्फ को पिघला पाएँगे क्या? एकाएक यह कोशिश क्यों?’ – मन में संशय की धुंध। घिरनी ही थी।
पाँच साल की पूरी ज़िन्दगी इन्हीं संशयों, चोटिल एहसासों, दर्द के सुलगते सायों के साथ इन्हीं के बीच गुजर गई।
कहते रहते थे प्रशांत,
“डॉक्टरनी साहिबा, आप तो जानती ही हैं, अच्छी तरह समझती हैं, मैंने आपसे ब्याह क्यों किया था।”
शुभदा फिर कहीं खो गई। डाॅक्टरनी अपने पूरे कद के साथ फिर खड़ा हो गया। उसे कितना शौक था…शुभ…शुभी…या फिर शुभदी का ही। उसके सामने पिछले कई वर्ष घूम गए,
“आपसे ब्याह मैंने इसीलिए न किया था कि आपकी कमाई की मोटी रकम मेरी जेब की शोभा बढ़ाए। नहीं तो आपके इस साँवले रंग में रखा क्या था।”
“मेरी साँवली सलोनी मीठी-सी गुड़िया।”
दादा कहते न अघाते थे।
“एक से बढ़कर एक रिश्ते… आपसे बहुत ज्यादा गोरी, सुंदर वह लड़की थी, हाँ, नैना। बी. ए. पास नैना। घर संभालने में निपुण।”
शुभदा अपदस्थ!
“डॉक्टरनी साहिबा, आप सुंदर तो हैं पर आपकी कमाई कहीं ज्यादा खूबसूरत है। अभी कम है। आगे नर्सिंग होम खोलेंगी तो…।”
शुभदा समझ रही थी। सब समझ रही थी।
“इन्हीं पैसों से ऐश करने के लिए तो मैंने उतने कम दहेज में भी विवाह के लिए हामी भरी थी। एहसान मानो मेरा।”
फिर उसका दाहिना हाथ थाम लिया। उसमें पति के हाथों की कोमलता नहीं, कसाई के हाथों की कठोरता थी।
“लाइए, पर्स हमें दीजिए। सरकारी अस्पताल का पैसा हम भी तो चखें।”
अभी कल की ही बात हो जैसे,
“डॉक्टरनी साहिबा, आप जानना चाहती हैं न, मैं काम क्या करता हूँ?…तो आज सुन ही लीजिए, मैं…मैं…वो कारों की कतारें देखी है ना बाहर…सबकी नम्बर प्लेटें बदली हुईं हैं। रंग-रोगन भी एकदम नया। सीटों के कवर भी नए और…और…।”
किर्चें…केवल किर्चें! सपनों के आहत होते जाने से अलग- अलग बिखरी पड़ीं अनगिन किर्चें!
“डॉक्टरनी साहिबा, व्यापार में बहुत घाटा सहना पड़ रहा है। अपने बाप से दस लाख माँगकर लाइए न। न…न…ना की कोई गुंजाइश नहीं है। रईस बाप की बेटी से शादी की ही इसीलिए…।”
पहलू बदला उसने।
“और एक बात, आपके बाप आपका नर्सिंग होम बनवाने के लिए कब तैयार होंगे? अब पाँच साल बाद भी वही रूखे -सूखे से कैसे काम चलाऊँ। वहाँ का सारा आर्थिक पक्ष सँभालने के लिए तैयार हूँ। अपने बाप…।”
किर्चें बुरी तरह चुभने लगीं।
“अब और बाप-बाप कहा तो…।”
“… तो?… तो क्या? आपकी जबान कब से इतनी लंबी हो गई! काटकर रख देंगे।”
“कितना सहूँ? पापा का अपमान बर्दाश्त नहीं कर…।”
“…क्या कहा?” तड़-तड़ाक! “औरतों को बस में करना मुझे आता है।”
“क्या कहा, किस्त-दर-किस्त तुम्हारे घरवाले खामियाजा भरते रहे हैं। खामियाजा?…किस बात को खामियाजा बोलती है डॉक्टरनी? एहसान बोल, एहसान।”
“बहस-मुबाहिसे अपने स्कूल “काॅलेज की प्रतियोगिताओं तक ही रखती तो अच्छा था। वहाँ मैडलों से घर भर रखा है तो यहाँ भी तुम्हारी बहस-मुबाहसें सुनें।… इक्कीसवीं हो या बाइसवीं सदी, घर की चौखट पर औरत हमेशा औरत ही रहेगी, समझी।”
“ये बस तुम या तुम जैसों की सोच है।”
“नहीं समझ में आती मेरी बात? टेंटुआ दबा दूँगा। बहस करना बर्दाश्त नहीं, कितनी बार कहा है।”
****
“डॉक्टरनी साहिबा…डॉक्टरनी साहिबा…डाॅक्टरनी साहिबा…!”
अचानक ‘शुभदा’। चौंकना स्वाभाविक था डा. शुभदा का। शहद टपक रहा था आज,
“आओ, बैठो पास।”
“पास?”
कब से बैठी न थी, यह भी याद नहीं था। खड़ी ही रही।
“बैठो।” पास में रिवाॅल्विंग कुर्सी पड़ी थी। उसे परे खींच बैठ गई । चेहरा धीरे से उठाकर प्रशांत का मन पढ़ने की कोशिश करने लगी।
“शुभदा, तुम्हारे माता-पिता गुजर गए।”
शुभदा अवाक् थी। पर अभी आघात सा लगा। इन्हीं के कारण तो…।
 और एक कारण – प्यार, स्नेह, इज्जत की भूख कब की मिट चुकी थी, प्रशांत उसे जीवित करना चाहते हैं क्या? कर पाएँगे? आघात पूर्ववत बना रहा।
“अब मेरा भी सहारा छिन गया। ऐसा करो, तुम्हारे भैया हैं न। उनसे कहो, जरा व्यापार में मदद कर दें। घाटे में चल रहा है। जैसे ही बिजनेस सँभले…।”
प्रशांत अपने को बिजनेसमैंन की तरह ही सबके सामने पेश करते। डंक लगते ही वह उठ खड़ी हुई।
“मुझे नहीं लगता, हमें पैसों की कमी है।”
“अब भैया को मत फँसाइए। पापा को इतना निचोड़ चुके हैं, अब और मायके के किसी व्यक्ति से आशा…।”
प्रशांत के अंदर एक बिच्छू करवट बदलने लगा। फिर भी भरसक संयत स्वर,
“मैं उनसे नहीं माँगता। जानता हूँ, वे देंगे भी नहीं। लेकिन तुम प्यार से कहो तो बात बन भी सकती है।”
उसने दाँत भींच लिये। इस आदमी की आँखों का पानी कब तक मरकर सड़ता रहेगा?
“नहीं! मुझसे यह पाप मत कराइए। मैं आर्थिक रूप से टूटे
हुए भैया को जरा भी बोझ नहीं दे सकती।”
“बात को समझो शुभदा। तुम्हारे भैया…। तुम्हारा नर्सिंग होम भी तो अब तक नहीं बना है।”
“मेरे भैया पापा का कर्ज चुकता करते हुए अधमरे हो जा रहे हैं। मैं और तंग नहीं कर सकती।”
वृश्चिक राशि के अंतस का विष कुलबुलाने लगा था।
शुभदा की आवाज़ गूँज उठी फिर,
“वैसे भी पापा ने मनुज भैया के प्रति अन्याय किया है। मुझे पढ़ाने, बढ़ाने, शादी करने में ही औकात से ज्यादा खर्च कर डाला। उन्हें अपने बल पर आगे बढ़ने की बात कहते रहे।”
उसने हल्की साँस ली हल्का होने के लिए। फिर कहा,
 “भैया एक साधारण सी दुकान से अपना घर चलाएँ, पापा का कर्ज चुकता करें या आपके बिजनेस के सुरसा मुख को भरते रहें।  बिजनेस भी क्या…कार की चोरी…।”
चोरी शब्द को होंठों पर लाने से पहले ही वह कमरे से बाहर। यह खुलासा चंद रोज पहले ही हुआ था। सदा संदिग्ध लोगों से मिलनेवाले प्रशांत के मुँह से ही सुना था कि दो कारों के बेचने से कारों के रंग-रोगन, नेम प्लेट आदि…आदि का खर्च निकल आएगा। साथी से धीरे, दबे शब्दों में कह रहे थे प्रशांत । अनिकेत की नैप्पी बदलती शुभदा के कान खड़े हो गए थे।
वह उसी समय थाने में फोन करने के लिए उद्घत हुई। रिसीवर उठा भी लिया।
फिर औरत यानी पत्नी के औरतपन ने हाथ रोक लिया था। दो महीने के अनिकेत को कम से कम पिता का प्रेम -स्नेह तो मिल रहा है। यहाँ प्रशांत कंजूस नहीं, शाहखर्च थे।
दिन भर की भागदौड़ से थकी शुभदा घर आते ही उन्हअनिकेत पर प्यार का खजाना लुटाते देख आश्वस्त हो जाती। पिता के रिश्ते की गरिमा को पहचानता है यह आदमी। उसके मुन्ने को दोनों की आवश्यकता है। हाँ! अपने पिता की भी। उसने रिसीवर हौले से रख दिया था।
तब से उसने प्रशांत के बगल में सोना बंद कर दिया था। चाय भी साथ नहीं पीती। कभी बहसें, कभी अनिकेत का वास्ता। तब भी वे  राह पर ही नहीं आते।
वह यानी शुभदा अपने विद्यालय, महाविद्यालय की मेधावी , तर्कशील छात्रा। कई डिबेट की विजेता। एम.बी.एस. की पढ़ाई करते हुए दहेज, तलाक की मुखर वक्ता शुभदा कैसे  “जी हाँ!” “जी, जो कहें!”  “ठीक।”  “बात करुँगी पापा से।” आदि के संक्षिप्त चक्रों में घूमने लगी, उसे खुद भी नहीं पता।
 तब कहा था,
“पापा, लड़के से ज्यादा मैं पढ़ी-लिखी हूँ। ज्यादा कमाती हूँ। दहेज मुझे मिलना चाहिए न? वह अधिक दहेज का कैसे हकदार हो गया? खर्च मेरी पढाई पर ज्यादा हुआ है न?”
   लेकिन माँ की बीमारी से बँध सारे मेडल को ताले के हवाले कर दिया था। मुखर विरोध फिर धीरे-धीरे बर्फ की सिल्ली में तब्दील!  इतनी पढ़ी-लिखी होने के बाद भी किस्तों में भरी थी शादी होने की सजा। भैया को किसी तरह बी.ए. करवा पापा ने हाथ खड़े कर दिए थे। उन्हें प्रतियोगी परिक्षाओं के हवाले। वे विफल होकर एक दुकान चला रहे थे।
“नहीं! वह उन्हें पापा की तरह…नहीं, नहीं।”
युवा लड़कियों के जैसे शुभदा के भी अंदर आकाश को नाप लेने के सपने। उसने बहुत शौक से बोया था।
अपनी खिड़की से चाँदनी को निहारती शुभदा का सर तकिये पर। आँखों में नींद नहीं। हाथ से नन्हें गोलू-मोलू अनिकेत की पीठ को सहलाते हुए। छन-छन कर आती चाँदनी बादलों से आँख-मिचौली में व्यस्त, वह बेतरतीब विचारों में।
  खूँटी पर टँगा एप्रन मुँह चिढ़ा रहा था। एप्रन पर मेडल चिपके जा रहे थे। वाद-विवाद में प्रथम…संगीत में द्वितीय या प्रथम…दौड़ या लाँग जम्प में प्रथम-द्वितीय…प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान पर आर.एम.सी.एच. में नाम कमाती शुभदा का मेडल। दहेज की चिंता से निशा को बचाकर लाती शुभदा ने मेडल नहीं जीता था। जीता था, सबका विश्वास, कोमल स्त्री मन को हिम्मत बँधाने की आस।
    उसी शुभदा का एप्रन बड़े -बड़े पाॅकेटों में बदल कर रह गया था। उसने करवट बदली। सामने फिर वही एप्रन। पहली बार मार उसने तब खाई थी, जब पर्स देने से इंकार किया था। दूसरी बार, जब वह एक चौथाई पैसे निकाल छुपाने लगी थी और रंगे हाथों पकड़ी गई थी। फिर तो हक था पति का।
हर बार प्रशांत के छोटे भाई-बहन, माँ या पिता दौड़कर खिड़की-दरवाजे बंद करने लगते। रेडियो, टेप की आवाज तेज कर दी जाती। बड़े घरों में मारपीट की ‘आवाज़’ अच्छी लगती है क्या! बड़े घरों की बड़ी बातें… बड़ी कोठी…बड़ी गाड़ियों की चर्चा उनमें फबती है।
“क्यों सहती रही इतना ? भूखों मरने की मज़बूरी तो न थी।”
एप्रन बिस्तर पर आ, गलबहियाँ डाल चाँदनी को देखने लगा। बीच से झाँकता स्टेस्थस्कोप। उसने भी ताना दिया,
“क्यों सहा इतना?”
 “मम्मी-पापा के कारण। अब भी वे अर्थी के साथ ही देहरी लाँघने की विचारधारा वाले थे।”
 स्टेस्थस्कोप जिरह पर उतारू,
“वे लोग क्यों मरे? कैसे?”
“अपनी रूढ़ियों के कारण।”
लगा, वह जवाब देते थक रही है।
“पागलपन से। पढ़ी-लिखी,
 डॉक्टर बेटी की कीमत को बेटी की मुस्कराहट के बाद भी पहचान लेते थे पापा। माँ भी।”
भाई को भी मारना है? या खुद के साथ मुन्ने को खत्म करना है? – एप्रन कूद पड़ा फिर से। एप्रन मिट्टी तेल के कनस्तर में, स्टेस्थस्कोप माचिस में बदल गया।
फिजाओं में जले मांस की गंध। साँस लेने में भी तकलीफ़। चारों ओर धुआँ। मानव -मांस के जलने की गंध! एक मांस का लोथड़ा स्त्री आकृति की काली काया से चिपका…गंँधाता ।
   ऊपर से एप्रन, स्टेस्थस्कोप ठठ्ठाकर हँस रहे हैं। चाँदनी आग बन चुकी है।…फिर दोनों हथियार बन गए।
प्रशांत ने सोने से पहले कहा था – भैया से बात कर लेना नहीं तो…। उसे अनिकेत को प्रशांत भी नहीं बनाना है ।
 एकाएक शुभदा ने बेटे को उठा, चाँदनी को बाँहों में भरा और बाहर। दोनों हथियार साथ थे। पुलिस ने जल्द ही घर को घेर लिया। शुभदा का काॅल काम कर गया था।
*****
कितना संघर्ष! कितनी परेशानी!…पर डाॅ. शुभदा ने हार नहीं मानी। समय के माथे पर बल पड़ गए, शुभदा के माथे पर नहीं। आज इतने वर्ष पश्चात् सब कुछ व्यवस्थित!
  विगत में देर से उब-डूब करती हुई अपने चैम्बर में बैठी शुभदा ने बेटे अनिकेत को आवाज दी। डा. अनिकेत आज ही आगे की पढ़ाई करने अमेरिका जा रहा है।
शुरुआत में मुश्किलें आईं। खूब मेहनत करनी पड़ी। अनिकेत को अकेले पालना भी भारी काम था।
    लेकिन यह शुभदा थी। मुश्किलों से दो-दो हाथ करना उसे अच्छी तरह आता था। हर समस्या को ठेंगा दिखला सकती है। हर संघर्ष में तन कर खड़ी-अड़ी रह सकती है। अंततः मेहनत, लगन, चाहत रंग लाई और उसका अपना नर्सिंग होम खुला। इतने सालों में
‘अनिकेत नर्सिंग होम’ का बोर्ड खूब चमचमा उठा है। शुभदा के साथ उसके हथियार एप्रन, स्टेस्थकोप और चाँदनी अब भी हैं। किर्चें गुम! सदा के लिए गुम!

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