वह हतप्रत थी ।घटनाक्रम को समझ नहीं पा रही थी ।शब्द किसी तारतम्य से जैसे बहे जा रहे जा रहे थे ।
वह ख़ुशी को रोक नहीं पा रही थी ,पर सवाल यह था की ख़ुशी बाँटे किसके साथ …? कौन है उसका अपना इतना …? जिस पर विश्वास किया जा सके …एक बार देख तो लिया था इसका अंजाम …मुश्किल से ही मिलता है विश्वसनीय मित्र ।आजकल तो हर इंसान मुखोटों के पीछे छिपा रहता है ।कौन मित्र कौन नहीं, जैसा कोई सम्बंध ही नहीं रहा ।
छोड़ो इसे …वह ख़ुश थी कि उसके मन में भावनाओं का तूफ़ान उमड रहा था …हैरान थी ,क्या सच मुच , वो सच था जो उसके कानों ने सुना था …अगर यह सच था ,तो दिमाग़ क्यूँ नहीं मानने को तैयार …?क्षण भर के लिये वह आनन्द मग्न हो हवा में उड़ने लगी।डर भी रही थी, की अगर किसी ने सुन लिया तो पल भर में उसका दाह-संस्कार हो जाएगा ।ख़ुशियों का तो क्या …उसके भी चिथड़े -चिथड़े कर दिए जाएँगे ।उसने इधर उधर झाँक कर देखा …कहीं भी कोई नहीं था …फिर अपनी ही इस हरकत पर लज्जाते बड़बड़ाने लगी …बेवक़ूफ़ कहीं की …लंदन में दीवारों के कान कहाँ होते हैं …? क्यों घबरा जाती हो …छोटी-छोटी ख़ुशी से …? क्यों नकारती रहती हो इन्हें …तुम्हारा भी तो अधिकार है ख़ुश होने का ।अपने जीवन में रंग भरने का । उठो, स्वागत करो ख़ुशियों का । अब जीवन रह ही कितना गया है …एक बार फिर उसका मन किया वही बातें सुनने को किया , जो उसने अभी – अभी सुनी थीं । उसने फ़ोन उठाया । डायल करने लगी ।फिर न जाने क्या सोच कर रख दिया ।रह-रह कर उसके कानों में वही शब्द गूँजने लगे जो अभी – अभी उसने सुने थे ।
“ समझ नहीं आता , किस रिश्ते से सम्बोधित करूँ …उस दिन इतनी सादगी में भी तुम , …आगे नहीं कहूँगा …अगर कह दिया तो ब्लश करने लगोगी …देखो न …अभी भी तुम्हारा चेहरा धीरे -धीरे गुलाबी होता जा रहता है ।” इतना सोचते ही वह लज्जायी , मुस्कुराई और मन ही मन आंन्दित हो उठी । हैरान थी , कि उन्हें कैसे पता चल गया कि वह शर्म से गुलाबी होती जा रही है ।लैंड लाइन फ़ोन में तो कैमरा नहीं होता ।…अच्छा ही है जो कैमरा नहीं होता ।हाँ अगर रिकॉर्डिंग का बटन होता तो अच्छा होता । बार-बार वही बात सुन तो लेती ।इससे तो बचपन ही अच्छा था । जीवन इतना जटिल तो न था । यह टेक्स्ट , ई-मेल , फ़ेस बुक तथा वॉट्स-अप का चक्कर तो था ही नहीं । बस प्यार का इकरार और इज़हार झट से पत्र में उकेर डाला । उस प्रेम पत्र को एक बार क्या हज़ार बार पढ़ने में भी जितनी मन में गुदगुदी होती थी ,आनंद आता था , उतनी मिलने में भी नहीं ।जब चाहो पढ़ लो ,पर चोरी-चोरी । घर में किसी के सामने पढ़ना मानो मौत को निमन्त्रण देना … या फिर कॉलेज से छुट्टी …कॉलेज से छुट्टी का मतलब …तुम्हारी आज़ादी पर ताला …आज़ादी पर ताला …समझो तुम्हारी प्रेम कहानी का दी …एंड … ।
कई बार तो बात शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो जाती थी । विशेष रूप से अगर तुम्हारे आस -पड़ोस वालों की पैनी नज़र तुम पर पढ़ गई तो …? इसीलिए सभी चाहने वालों को फ़िल्म देखने के बहाने थीएटर में तीन घंटे बैठना अच्छा लगता था , बेशक मध्यांतर में ज़रूर तलवार की तेज़ धार गर्दन पर लटकी रहती थी ।एक थीयटर ही एसी जगह थी जहाँ प्यार से देखने के साथ -साथ एक दूसरे का हाथ पकड़ने का मौक़ा ज़रूर मिल जाता था । बहुत विकट स्थिति थी । जब तक घर नहीं पहुँच जाते थे । पर हाँ उसकी चचेरी बहन सुमन बहुत बहादुर थी । वह निधड़क अभी के सामने किताब पढ़ने की औठ में अपने प्रेम पत्र पढ़ कर उसे कायरता का एहसास दिलाती थी । वह इतना जोखिम नहीं ले सकती थी ।उसका तो कोई और ही ठिकाना था …वही …घर का तीन बटा पाँच फ़ुट का सबसे छोटा कमरा …समझ गये न …? जहाँ केवल सुबह -सुबह ही चहल – क़दमी होती थी ।उसके उपरांत अक्षुब्ध एकांत , मेरा मतलब शांति …जहाँ भय बिन बैठ कर बार – बार पत्र पढ़ा जा सकता था । मुश्किल यह थी कि अंग्रेज़ी सिस्टम तो था नहीं , ठंडे -ठंडे फ़र्श पर बैठ कर ही काम चलाना पड़ता था । अब यह मत पूछना पत्र रखती कहाँ थी …शर्म आती है । हाँ हज़ारों बार पत्र पढ़ कर रट तो जाता था ।
परंतु अब स्थित और है …तीन दशक के अंतराल के पश्चात किसी ने आज फिर से उसका हृदय द्वार खटखटाया …और प्रशंसाओं का घड़ा उड़ेलते गये …यकायक स्तब्ध और निश्ब्ध हुईं वह । कुछ पल लगे संभलने में ।फिर भी सोचने लगी, उसकी बातों का यक़ीन कौन करे ? फिर भी आत्मविभोर हो उठी थी वह …भागी तुरंत आइने की ओर ।
सोचा कि आईंना तो झूट नहीं बोलता । मन कुछ और कह रहा था , आईना कुछ ओर दिखा रहा था । आईना दिखा रहा था कि … ‘ राधिका अब तुम सोलह वर्ष की किशोरी नहीं इकसठ वर्ष की परिपक्व प्रोढ़ महिला हो …इकसठ का सोचते ही उसके प्रत्यक्ष स्कूल की इतिहास की अध्यापिका मिसेज़ डाबर का चेहरा घूमने लगा …पोपला-पोपला चेहरा , आँखों के नीचे काले – काले गोल चक्कर और उसके नीचे झूलती माँस की थैलियाँ, शरीर जैसे तरकोल का ड्रम । सब उन्हें ओल्ड -मेड कह कर पुकारते थे ।यह सोचते ही उसके शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गयी । उसने एक बार फिर चश्मा लगा कर देखा , तो साँस में साँस आयी । फिर सोचा ‘ फ़ैश्यल तो बनता है …पर आज तक तो कभी फ़ैशियल तो क्या , ब्यूटी पार्लर भी नहीं गयी तो अब क्यों …? ‘ अब न तो फेंकने को पैसा है और न ही समय । वैसे भी इन बातों में कभी उसका कोई झुकाव रहा ही नहीं … वह सोचती है , जो हूँ …सो हूँ …। फ़ैशियल तो नहीं एक , नया टॉप ही ले लेती हूँ ।’ उसने घड़ी देखी , अभी तो तीन घंटे बाक़ी हैं , बाज़ार बंद होने में …फिर ध्यान आया उस दिन तो लिए थे तीन टॉप मान्सून की सेल में …। फ़ोन की घंटी बजी …….
“ ऐ राधिका …जन्मदिन मुबारक हो …।” सहेली कांति थी ।
“ ओह मैं तो भूल ही गयी थी कि आज मेरा जन्मदिन है ।”
“ वो तो भूलना ही था …सठिया जो गयी हो …”।
“ यह बात याद दिलानी ज़रूरी थी क्या …? तेरा कौन सा दूर है …? देखना मैं कैसे मैं जतला-जतला कर जले पर नमक छिड़कूँगी ।”
“ अगर याद न दिलाती तो लंच का बहाना क्या ढूँढती …? इतना तो बनता है …कल मैं ख़ाली हूँ …स्टेन मोर में कैसा रहेगा … “ ।
“ पर कल मैं ख़ाली नहीं हूँ …” अगले हफ़्ते किसी दिन सही ,” राधिका नें टालते हुए कहना ।
“ ठीक है …बता देना … मेरा मोबाइल बज रहा है …बॉय…” ।
कांति की बात सुनकर राधिका आकाश से नीचे उतर आई । सठियाने शब्द ने उसे धरातल पर ला खड़ा किया ।
“ इस उम्र में क्या सूझी है वह भी एक पंजाबी के साथ , गुजराती समाज क्या कहेगा …? नानी-दादी बन गयी है …अब इश्क़ विश्क़ का नहीं भगवान का नाम लेने का समय है …क्या उधाहरण दे रही है दामाद और बहु को …? बदनाम हो जाएगी …”। यह सोच कर वह असमंजस में पड़ गयी । उसे गुजराती होने पर क्रोध आने लगा …बड़बड़ायी …ये गुज्जू भी न कितने खड़ूस और संगदिल होते है , न जीना जानते हैं …न जीने देते है । वह फुसफुसायी …सोच ले राधिका रानी, अभी तो कुछ नहीं बिगड़ा , मना किया जा सकता है । पर क्यूँ…? उसने ख़ुद से सवाल किया ।उम्र भर अकेली ही अहम से अहम फ़ैसले लेती आयी हो …इस छोटे से फ़ैसले में इतनी दुविधा क्यूँ…? तुमने ख़ुद ही तो खींचीं हैं ये रेखाएँ और सीमाएँ…अगर खींच सकती हो तो , मिटा भी सकती हो । यही वक़्त है । वैसे भी तुम दोनो एक दूसरे से अजनबी तो हो नहीं …पिछले दो दशक एक दूसरे के अकेलेपन को छूते आए हो , किंतु क़दम रखने से डर क्यों …? आज अगर दोनो में से एक ने पहल कर दी तो अच्छा ही किया । तुम्हें तो ख़ुश होना चाहिये ।यही वह सक्श है , जिस से अनेकों औरतें मेल – जोल बढ़ाने तरसतीं हैं …तरसें भी क्यों न …? एक्स आर्मी ऑफ़िसर ,साँवला – सलोना , उसकी तीखी – तीखी मूँछें , मोटी – मोटी आँखे जो हर समय बोलती रहती हैं । एक ज़िंदा दिल मस्त इंसान जो अपने शिष्ट व्यवहार से किसी को भी अपना बनाने को हुनर जनता है ।अगर वही दोस्ती का हाथ बढ़ा रहा है तो हिचकिचाहट कैसी …? उम्र भर तो गम्भीरता और व्यस्तता का कवच चढ़ायें रखा …अब तो टूटेगा ही टूटेगा ।ये सब बंदिशें औरतों के लिये हो क्यों …? अंग्रेज़ों की कितनी अच्छी सोच है …कि ‘यू ओन्ली लिव वन्स’ जियो और जीने दो । यही है प्रदशन मंच , था दूसरा अवसर नहीं मिलने वाला । ख़ुशियों को ठुकराओगी तो वो दोबारा पास नहीं फटकेंगी । उसके भीतर गहरे से आवाज़ उठी …जाऊँगी …ज़रूर जाऊँगी । उसने मेरे भीतर की औरत को दोबारा जीवित किया हैं , मेरे आत्मविश्वास को उभारने का निरंतर प्रयास किया है । पति की मृत्यु के पश्चात् समाज की लकीरों पर चलते – चलते मेरा अस्तित्व ही कहीं गुम हो गया था । फिर आजकल के बच्चों की सोच भी संकुचित नहीं है । अपनी व्यस्तता के कारण उनके पास समय भी नहीं है । वो अपने माता पिता को ख़ुश देखना चाहते है । वैसे मेरे बच्चे भी कई बार संकेत दे चुके हैं । अभी पिछले सप्ताह की बात है , बेटी कह रही थी ,
“ माँ मैं जानती हूँ लंदन में सर्दियों की शामें। कितनी लम्बी और डरावनी होती हैं । अच्छा हो अगर आप भी कोई मित्र या साथी ढूँढ लें । मैं और भैया अपनी -अपनी व्यस्तता के कारण न तो आपके साथ रह सकते हैं , और न ही
आपको अधिक समय दे पाते हैं “।
कितनी समझदारी की बात कह गयी थी बेटी ? क्यों इतना सोच रही हूँ …? पुरुष और नारी की दोस्ती का एक ही अर्थ क्यों निकाला जाता है , वो भी इस उम्र में …? रिश्ता दोस्ती का भी तो हो सकता है , जिसमें न कोई लालसा ,न ज़ोर ,न ज़बरदस्ती । एक दूसरे के लिए प्रतिबध होते हुए भी स्वतंत्र अस्तित्व रखा जा सकता है । ऐसे स्थिति में कुछ और सोचना दोस्ती को संकुचित करना होगा । मेरे विचार से पुरुषों के भी कुछ सिद्धांत होते होंगे …सीमायें होती होंगी । नहीं तो इतना प्रभावशाली व्यक्ति अकेला क्यों है …? उसे तो जवान से जवान औरतों ने सराहा होगा । दिल छिड़कने को तैयार होंगी … बेशक एक बार फ़्लर्ट करने को ही सही । अपने ही हक़ में दलीलें देते – देते न जाने कब उसकी आँख लग गयी ।
सुबह के सूरज की तिरछी फाँक ने कमरे में खेलते -खेलते उसे जगा डाला । कुरमुरी सुबह थी । एक ताजगी भरी सुबह , जिसकी सुगंध ने उसके रोम -रोम को पुलकित कर दिया । उसने गहरी साँस लेते अँगड़ायी ली , फिर रज़ाई में मुँह छिपा कर ख़यालों में गुम हो गयी । अचानक, अलार्म ने कहा “उठो राधिका उठो ।”
घर की दिनचर्या में एसी जुटी कि जब घड़ी देखी तो शाम के चार बज चुके थे । उसे चिंता होने लगी । तैयार भी होना था । अब उसके सामने एक शाश्वत सत्य मुँह बाए खड़ा था । हम औरतों की यह सबसे बड़ी समस्या है , कि अलमारी बेशक कपड़ों से भरी हो , किंतु जब कहीं जाने का प्रश्न उठता है तो हमारे पास पहनने को कोई कपड़ा नहीं मिलता । उसने अलमारी खोली ,टॉप निकाल ही रही थी कि मॉनसून का बैग नीचे गिर गया । वह उसे रख कर भूल चुकी थी ।उसने अलमारी में से सात टॉप निकाले और पलंग पर बिछा दिए । अब दुविधा थी की कौन सा पहना जाए । यही सोच कर कि इसे पहन कर उसे ज़मीन में थोड़े ही धँसना है ,उसने लाल और गुलाबी टॉप निकल दिए । समस्या वहीं की वहीं खड़ी थी । यकायक उसे याद आया की बचपन में ऐसी छोटी-छोटी दुविधाओं का समाधान कितनी, आसानी से निकल जाता था । बस हो गयी चालू …अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बो …अस्सी नब्बे पूरे सौ …वग़ैरा – वग़ैरा।
अंत में दो टॉप ही रह गए , एक गहरा नीला दूसरा हल्का हरा । अभी भी उसका मन ख़ुश नहीं था ।अक्कड़ -बक्कड़ से पूरी समस्या हल नहीं हुई थी । उसे तो देखना था कि उस पर कौन सा फबेगा …किस को पहन के उसका चेहरा गुलाबी तो नहीं हो जाएगा । क्योंकि वह अच्छी तरह जानती थी , कि एक बार शर्माने लग गयी तो चेहरा तो लाल होगा ही होगा , ज़ुबान भी तालु से चिपक जाएगी । उसने एक-एक करके सभी टॉप पहनने शुरू के दिये । बाहर धूप को देखते हुए उसे हल्का हरा टॉप ही ठीक लगा ।कपड़े तैयार करते -करते छः बज गए थे । सात बजे का समय था । अफ़रा तफ़री मच गयी । एक समस्या सुलझी न थी , की अब बालों ने समस्या खड़ी कर दी…ऊपर बांधु, या खुले छोड़ूँ ? फिर ध्यान आया , बहुत दिन पहले क्लब में पंजाबी बाबू ने कहा था “ खुले बालों में तुम अपनी बेटी की बड़ी बहन लगती हो ।” खुले बाल ही ठीक रहेंगे । पंजाबी से दो तीन वर्ष बड़ें होने का अंतर भी छिप जाएगा ।वैसे इस का बोध तो उसी को है , पंजाबी को कहाँ परवाह , सोचा जाए तो यह कोई समस्या भी नहीं है ।
तैयार होते -होते पौने सात बज चुके थे ।निकलते वक़्त एक बार फिर उसने आदमकद आइने में अपनी पूरी छवि देखी ।एक गहरी साँस लेकर दरवाज़े की और बढ़ने लगी थी कि एक बार फिर उसका मन डावाँडोल होने लगा ।हाथ पाँव ठंडे पड़ने लगे। उसने सामने पड़े गुलदस्ते में से एक गुलाब का फूल निकाला , एक -एक पंखुड़ी तोड़ते हाँ …या …ना … हाँ …या …ना…में उत्तर ढूँढने लगी । फिर दिमाग़ में आया , इतनी अनिश्चय की स्थिति में वह पहले कभी नहीं फँसी ।क्यों उलझती रहती रहती है बेकार की बातों में , उलझे धागों की सी ।फिर सुलझाने में समय बिता देती है । पल भर को उसे लगा कहीं अपने मृतक पति के साथ विश्वासघात तो नहीं कर रही …? इसके उत्तर में उसे अपनी माँ की बात याद आई , जो मरते वक़्त उसने कही थी , “ राधिका बेटा …बीते पलों से इतना मोह मत रखना कि वर्तमान को गले न लगा सको, वर्तमान में जीना सीखो । एक दिन ख़ुशी का जी लो , वही बहुत है ।”
सात बजने को पाँच मिनट थे । बाहर अभी उजाला था । अब वह तैयार थी इस जोखिम के लिये …उसने आईना देखा , आँखों का रंग भी बदला -बदला था ।वह लज्जा गयी ।इस वक़्त वह अपने आप को इकसठ की नहीं सोलहं वर्ष की किशोरी महसूस कर रही थी । वही फुर्ती …वही उत्साह …वही उमंग न जाने उसमें कहाँ से आ गयी ।वह आज़ाद पंछी की तरह उड़ने को बेताब थी ।उस क्षण उसके सब मूल बोध बिखर गए …आस्थाएँ छिटक गयीं । आन्तरिक बंधन तार -तार हो गए । उसने घर की खिड़कियाँ , ताले और गैस चैक किये …गहरी साँस ली …अपना बैग उठाया …दरवाज़ा खोला , पहला क़दम बाहर रखा …ठिठकी …फिर मुस्कुराई …दरवाज़ा बंद कर निकल पड़ी …आज उसके लब गुनगुना रहे थे …….।
अरुणा जी आपको पहले भी पढ़ा है यहाँ, नाम से ऐसा लगा।हमने आपकी कहानी पढ़ी। शीर्षक का अर्थ समझ में नहीं आया जिसे कहानी से जोड़ा जा सके।
उडारी हमारे लिए बिल्कुल नया शब्द है।
अंदरुनी हलचल से उत्पन्न मानसिक उतार -चढ़ाव या कहें आरोह- अवरोह को आपने बहुत खूबसूरती से उतारा। हालांकि अब यह विषय नया नहीं रहा और तेजेंद्र जी के संपादकीय के बाद तो बिल्कुल भी नहीं।
अब वह समय आ गया है कि ऐसी स्थिति में लोग अपने जीवन का निर्णय ले सकें और बच्चे अगर दूर हैं तो उनके लिए भी यह निर्णय अमान्य या आश्चर्यजनक नहीं होगा। पर फिर भी अपने कहानी के साथ न्याय किया
शुक्रिया आपका व बधाई।
अच्छी कहानी, महिलाओं को भी जीने का हक़ है, इस भावना को समाज को मानना चाहिए। आपकी कहानी को लोग पचा लेंगे क्योंकि लंदन की पृष्टभूमि में लिखी गई है।
मैंने ऐसा ही एक लेख लिखा था। पुरवाई में प्रकाशित हुआ था। कुछ लोगों ने इतनी तीक्ष्ण प्रतिक्रिया दी कि मुझे लगा कि बहुत बड़ी गलती कर दी।
अच्छा लगा पढ़ कर। साधुवाद ऐसे विकसित विचारों के लिए
अरुणा जी आपको पहले भी पढ़ा है यहाँ, नाम से ऐसा लगा।हमने आपकी कहानी पढ़ी। शीर्षक का अर्थ समझ में नहीं आया जिसे कहानी से जोड़ा जा सके।
उडारी हमारे लिए बिल्कुल नया शब्द है।
अंदरुनी हलचल से उत्पन्न मानसिक उतार -चढ़ाव या कहें आरोह- अवरोह को आपने बहुत खूबसूरती से उतारा। हालांकि अब यह विषय नया नहीं रहा और तेजेंद्र जी के संपादकीय के बाद तो बिल्कुल भी नहीं।
अब वह समय आ गया है कि ऐसी स्थिति में लोग अपने जीवन का निर्णय ले सकें और बच्चे अगर दूर हैं तो उनके लिए भी यह निर्णय अमान्य या आश्चर्यजनक नहीं होगा। पर फिर भी अपने कहानी के साथ न्याय किया
शुक्रिया आपका व बधाई।
अच्छी कहानी, महिलाओं को भी जीने का हक़ है, इस भावना को समाज को मानना चाहिए। आपकी कहानी को लोग पचा लेंगे क्योंकि लंदन की पृष्टभूमि में लिखी गई है।
मैंने ऐसा ही एक लेख लिखा था। पुरवाई में प्रकाशित हुआ था। कुछ लोगों ने इतनी तीक्ष्ण प्रतिक्रिया दी कि मुझे लगा कि बहुत बड़ी गलती कर दी।
अच्छा लगा पढ़ कर। साधुवाद ऐसे विकसित विचारों के लिए
स्त्री को भी जीने का हक़ है। अच्छी कहानी के लिए बधाई अरुणा जी।
अच्छी कहानी और स्त्री मन की बात ईमानदारी से कहती कहानी के लिए बधाई..