Wednesday, October 16, 2024
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दीपक शर्मा की कहानी – बंद घोड़ागाड़ी

1)
अपनी दसवीं जमात के बोर्ड का सोशल स्टडीज का पर्चा खत्म करते ही मैं अपने कदम परीक्षा केंद्र के साइकिल स्टैंड की ओर बढ़ाती हूँ ।
तभी देखती हूँ दूर खड़ी मेरी एक सहपाठिनी एक अजनबी को मेरी दिशा में संकेत दे रही है ।
’’रेणु अग्निहोत्री?’’ वह मेरी ओर बढ़ आता है, ’’प्रभा अग्निहोत्री की भतीजी? जो अपने फूड पाइप के इलाज के लिए कैंसर इंस्टीट्यूट में भरती हैं ?’’
’’जी,’’ मैं व्याकुल हो उठती हूँ ।
’’वे तुमसे मिलना चाहती हैं । अभी इसी वक्त ।’’
’’कोई इमरजेंसी?’’ दो दिन पहले फिर बुआ को खून की उलटी हुई है और इस बार उन्हें इंस्टीट्यूट पहुँचाने पर हमें पता चला है कि उनके पेशाब में भी खून के अंश आ मिले हैं। 
’’हैं भी और नहीं भी । अपनी वापसी के लिए मैंने अपनी अपनी ऑटो रोक रखी है। तुम मेरे साथ वहाँ चल सकती हो…’’
’’मेरे पास अपनी साइकिल है । मैं उसी से जाऊँगी…’’
’’तुम्हारी साइकिल ऑटो में टिकाई जा सकती है । यकीन मानो तुम्हें अपना सहयोग मैं केवल अपने संतोष के लिए देना चाहता हूँ । तुम्हारी बुआ मेरी बहन जैसी हैं…’’
’’आप उन्हें कैसे जानते हैं?’’ अजनबी को पहली बार मैं अपनी निगाह में उतारती हूँ।
काली सैंडिल के साथ उसने गहरी सलेटी रंग की पतलून और हलकी सलेटी रंग की बुशर्ट पहन रखी है । घने, काले बाल लिए लगभग चालीस वर्ष का उसका चेहरा साफ-सुथरा है और गठन हृष्ट-पुष्ट । तिस पर उसके धीमे, कोमल स्वर और सौम्य, संभ्रांत आचरण का सामूहिक प्रभाव उसके कथन को प्रमाणीकरण देता मालूम होता है ।
’’मैं उसी कैंसर इंस्टीट्यूट में सीनियर टैक्नीशियन हूँ, जहाँ वे सीनियर नर्स हैं …यकीन मानो मैं उन्हें अनेक सालों से जानता हूँ और मेरे साथ ऑटो में तुम सुरक्षित वहीं पहुँचोगी…’’
बुआ के पास पहुँचने की मुझे बेहद जल्दी है, किंतु मैं अपना सिर ’नही’ ही में हिलाकर अपनी साइकिल की ओर चल पड़ती हूँ ।
माँ ने मुझे चेता रखा है कोई कैसा भी क्यों न दिखाई दे, कोई कुछ भी क्यों न कहे, मुझे किसी अजनबी से कोई बात नहीं सुननी, कोई बात नहीं समझनी ।
2)       
इंस्टीट्यूट में बुआ अपने कमरे में हैं।      
ऑक्सीजन मास्क के नीचे।अपनी अठारह साल की नौकरी के बूते पर डायरेक्टर से आई0सी0यू0 वार्ड से सटे एक छोटे कमरे में उन्होंने अपने अकेले रहने की छूट ले रखी है ।
जभी से, जब पाँच माह पहले उन्हें खून की पहली उलटी हुई थी और अपनी रेडियोथैरेपी या ऑक्सीजन के लिए उन्हें यहाँ अकसर हर दसवें-चौदहवें दिन भरती होने की मजबूरी आन पड़ी थी ।
’’इस समय?’’ मुझे देखते ही बुआ की बगल में बैठी दादी मुझे डपटती हैं, ’’और वह भी अकेली?’’
बुआ के पास अकेली आने-जाने की मुझे सख्त मनाही है । दादी और माँ भी यहाँ बारी-बारी से ही आती हैं । और वह भी दिन ही में । बुआ ही के आग्रह पर, ’नाइट शिफ्ट का स्टाफ मुझे आपसे बेहतर देखेगा ।
’’टन,’’ बुआ अपने बेड की घंटी बजाती हैं ।
एक नर्स वहाँ तत्क्षण पहुँच लेती है ।
बुआ उसे अपना ऑक्सीजन मास्क उतारने का संकेत देती हैं ।
’’डॉक्टर बुलाऊँ?’’ मास्क होते ही नर्स घबराई आवाज में पूछती है ।
’’डायरेक्टर सर,’’ बुआ के स्वर की फेंक और प्रबलता उनके कैंसर ने क्षीण कर डाली है । 
’’अभी बुलवाती हूँ,’’ नर्स तेज कदमों से बाहर लपकती है ।
बुआ इशारे से मुझे अपने समीप बुलाती हैं । 
पूरे बाल झड़ जाने के कारण अब वे अपने सिर पर स्कार्फ बाँधने लगी हैं । 
बुआ मेरा हाथ सहलाती हैं और मैं अपने कान उनके मूँह के निकट ले जाती हूँ । 
’’अपने जीवन में मैंने केवल दो जन को प्यार किया है,’’ बुआ फुसफुसाती हैं, ’’तुम्हें और तुम्हारे पिता को…’’
’’हम क्या जानती नहीं?’’ दादी की जिज्ञासा ने उन्हें मेरी बगल में ला खड़ा किया है । बुआ के संग वे बहुत निष्ठुर हैं । माँ की तरह । बुआ मुझे कई बार बता चुकी हैं मेरे दादा अपने जीवन काल में दो बार चूके थे । पहली बार, जब अपने तिरपनवें वर्ष में विधुर होते ही उन्होंने अपने गाँव की छब्बीस वर्षीया इस दादी से अपना दूसरा ब्याह रचाया था और दूसरी बार, जब अपने बासठवें वर्ष में उन्होंने अपनी दूसरी ससुराल में मेरे तेईस वर्षीय पिता को जा ब्याहा । मेरी माँ इन दादी के चचेरे भाई की बेटी थीं ।
’’अपने पिता को अपनी माँ की दृष्टि से कभी मत देखना,’’ बुआ मेरा हाथ थपथपाती हैं, ’’मेरी दृष्टि से देखना….’’
’’तेरी बुआ शादी किए होती तो जानती, बेदर्द पति को कोई भी पत्नी हमदर्दी से नहीं देख सकती,’’ दादी ताना छोड़ती हैं ।
              वे मेरे पिता से बहुत नाराज हैं । जो मेरी माँ के बीसवें वर्ष में और मेरे छठे महीने, बिना बताए घर से निकल लिए थे । 
             बुआ के नाम एक पत्र छोड़कर : ’’नई नौकरी तलाशने की बजाय मैं संन्यास ले रहा हूँ । मुझे विश्वास है आप सब सँभाल लेंगी, जीजी ।’’
’’बुआ ने हमारी खातिर शादी नहीं की,’’ मैं तमकती हूँ, ’’और बेदर्दी की पहल आप लोग ने की थी, मेरे पिता ने नहीं….’’
बुआ के लिए मेरे मन में अथाह आस्था है । दृढ़प्रतिज्ञ उनका आत्मत्याग अद्वितीय है । अपने वेतन का अधिकांश भाग वे मुझ पर खर्च करती हैं । पूरी खुशी से । खुले दिल से । मेरे स्कूल में अधिकतर लड़कियाँ धनाढ्य परिवारों से हैं किंतु मेरे स्कूल बैग का, मेरी यूनिफार्म का, मेरे स्कूल टिफिन का, मेरे रेनकोट का स्तर उनकी बराबरी का है । खर्चे की कटौती बुआ सबसे पहले अपने पर लागू करती हैं, माँ और दादी पर बाद में ।
’’तू जानती नहीं,’’ दादी अपने हाथ नचाती हैं, ’’तू अपनी बुआ की बंद घोड़ागाड़ी में सवार है, जहाँ, वह झूठी-सच्ची कोई भी हाँक लगा दे, टेढे़-मेढ़े कितने भी चक्कर खिला    दे…’’
           ’’तेरे पिता निर्दोष हैं,’’ बुआ प्रतिवाद करती हैं । अपनी पुरानी बहस में प्रवेश करती हुईं।
हर बहस में बुआ मेरे पिता को परिस्थितियों के उत्पीड़न का शिकार सिद्ध करना चाहती हैं और माँ और दादी उन्हीं को उत्पीड़क  के रूप में प्रस्तुत करने में कोई कसर नहीं छोड़तीं ।
’’तू तो ऐसा कहेगी ही,’’ दादी भड़कती हैं, ’’मरते दम भी ऐसा ही बोलेगी । वह संन्यासी बनेगा । वह छद्भ तपास ! जिसने मेरी भतीजी को चबाकर थूक दिया…’’
’’टन,’’ बुआ अपने बेड की घंटी फिर बजा देती हैं ।
दादी और माँ अकसर बेलगाम बोला करती हैं । विनोदशीलता में बुआ मेरे कान में कई बार फुसफुसा देती हैं, इन दोनों की जुबान इतनी लंबी हैं कि उनकी गरदन के पीछे से उन्हें फेर दिलाकर दूसरी तरफ से भी उनके मुँह के अंदर भेजी जा सकती है । 
’’बुआ थक रही हैं,’’ मैं दादी को बुआ के बिस्तर से दूर ले आती हूँ, ’’उन्हें आराम चाहिए….’’
’टन’ के उत्तर में आने वाली नर्स के साथ इस बार एक डॉक्टर भी हैं जिनके एप्रन पर ’डाएरेक्टर’ की बल्ली के नीचे उनका नाम लिखा है-डॉ0 परस राम । 
’’गुड मॉर्निंग, प्रभा !’’ डॉ0 परस राम स्नेहिल स्वर में बुआ के अभिवादन का उत्तर देते हैं और उनके बिस्तर की बगल में जा पहुँचते हैं, ’’ए वेरी गुड मार्निंग ! लेकिन तुमने यह मास्क क्यों हटवा दिया ?’’
’’आपसे एक शिकायत करनी थी,’’ बुआ विनीत स्वर में फुसफुसाती हैं । 
’’किसकी?’’
’’आपकी । आप मुझे बताते नहीं मैं कब मरूँगी ।’’
’’अपना सौवाँ जन्मदिन मनाने के बाद….’’
’’मेरी माँ के समय भी आप यही करते थे,’’ बुआ की आँखों में आँसू तैर रहे हैं ।
’’तुम्हारी माँ के समय हमारे इंस्टीट्यूट में हाइपरथरमिया नहीं थी । मार्किट में रेडियो थैरेपी को और असरदार बनाने के लिए डौक्सोरयुबिसिन और साइक्लोफौसफमाइड जैसी ड्रग्ज नहीं थीं । फैरिंक्स का कैंसर तब जानलेवा था, अब नहीं है….’’
’’आप बहुत कृपालु हैं, सर!’’ बुआ रो रही हैं, ’’मेरी एक विनती और मान लीजिए…’’
’’तुम मुझे आदेश दो, प्रभा,’’ डॉ0 परस राम बुआ का कंधा थपथपाते हैं । 
’’मेरी एक भतीजी है,’’ बुआ मेरी ओर देखती है, ’’रेणु ।’’
’’गुड मॉर्निंग, सर!’’ बुआ के संकेत पर मैं उनके सामने जा खड़ी होती हूँ ।
वे मुझे अपनी निगाह में उतारते हैं ।
’’इसे पहचान लीजिए, सर! यह मेरी नौमिनी है…’’
’’जानती हो, रेणु?’’ डॉ0 परस राम मेरी पीठ पर मुझे एक थपकी देते हैं, ’’प्रभा जब पहली बार हमारे इस इंस्टीट्यूट में आई थी तो लगभग तुम्हारी ही उम्र की थी । लंबी चल रही इसकी माँ की बीमारी से इसके पिता उखड़ चुके थे, और इसके साथ तब एक छोटा भाई भी रहा, लगभग तेरह-चौदह साल का, एकदम नासमझ और लापरवाह । लेकिन प्रभा में दम था । और बेहिसाब हिम्मत । वह तीनों ही को बखूबी सँभाल लिया करती । जी जान से माँ की सेवा करती, पिता को उम्मीद दिलाती और भाई का नाज-नखरा उठाती….’’
’’वह मेरा अकेला भाई है सर,’’ बुआ फुसफुसाती हैं, ’’और रेणु मेरी अकेली बपौती…’’            
3)
बुआ उसी रात देह त्याग देती हैं । उनका हौसला बनाए रखने के लिए डॉ0 परस राम ने उन्हें तिरछी तस्वीर ही दिखलाई थी । 
अगले दिन श्मशान घाट पर बुआ के दाह-संस्कार पर पूरा इंस्टीट्यूट उमड़ आया है । 
डॉ0 परस राम समेत ।
’’रेणु दूसरी बार अनाथ हो गई है,’’ दादी उनकी सहानुभूति जीतने के लिए मुझे उनके पास जा खड़ी करती हैं, ’’इसे अपनी दूसरी प्रभा बना लीजिए…।’’
’’धीरज रखिए,’’ डॉ0 परस राम उन्हें ढाढ़स बँधाते हैं, ’’हमारा इंस्टीट्यूट आपके साथ है । और हमेशा साथ रहेगा । प्रभा का परिवार, हमारे इंस्टीट्यूट का परिवार….. “’
जभी मुझे वह अजनबी दिखाई दे जाता है जिसे अभी पिछले ही दिन मैं अपने परीक्षा केंद्र में मिली थी ।
उससे अपनी पहचान बढ़ाने की मेरे अंदर उत्कट लालसा है और मैं उसकी ओर दौड़ लेती हूँ ।
मुझे देखते ही वह फफक-फफककर बुबुकने लगा है, ’’जीजी….’’
’’मैं जानती थी, तुम यहाँ जरूर आओगे,’’ तभी माँ की आवाज आ गूँजती है-माँ को मेरा ध्यान एक पल के लिए भी भूलता नहीं और प्रत्येक सार्वजनिक स्थान पर वे एक साए की तरह मेरा पीछा किया करती हैं- ’’उधर नर्सों ने मुझे बताया था कि हम लोग के अलावा जीजी का एक विजिटर ऐसा भी है जो हमारी गैरहाजिरी में वहाँ मौजूद रहा करता है….’’
माँ की आवाज सुनते ही अजनबी की रूलाई थम गई है ।
चेहरे पर दुःख के स्थान पर ढुलमुल-सी एक बेआरामी आ बैठी है । 
सिकुड़े हुए उसके होंठ अपना सामान्य आकार ग्रहण कर रहे हैं ।
गालें बेरक्त हो गई हैं और आँखें हैरानी से चौड़ी ।
फिर अचानक जिस गति और आकस्म्किता के साथ माँ अपने शब्दों की झड़ी के साथ प्रकट हुई थीं, उससे दुगनी गति के साथ वह श्मशान घाट के गेट की ओर लपक लिया है ।
’’रूकिए, अंकल,’’ मेरी आवाज मेरे साथ उसका पीछा करती है ।
वह एक बार ठिठककर पीछे देखता है और अपनी गति त्वरित कर लेता है ।
’’झूठ के पैर नहीं होते,’’ माँ मेरे बराबर आ पहुँची हैं, ’’वह डरता है, मैं उसका विग उतार फेंकूँगी, उसका भंडा फोड़ूँगी, उसकी पोल खोलूँगी, उसे कचहरी ले जाऊँगी, उससे अपनी दुर्गति का हिसाब माँगूँगी…’’
’’मगर क्यों ?’’
’’क्योंकि वह तेरा बाप है…!’’
वह अजनबी मेरा पिता था ?
इतना कठोर?
इतना असंवेदनशील?
अकल्पित ! असंभव !
’’और बुआ के इंस्टीट्यूट ही में नौकरी करता….?’’ मैं अपनी जुबान काट रही हूँ। अपने पिता के साथ एकवचन मैंने पहले कभी भी नहीं लगाया है । उनका उल्लेख सदैव आदरसूचक बहुवचन की शैली ही में किया है ।
’’कतई नहीं । अपना नाम बदलकर किसी दूसरे शहर में रहता है । अपने दूसरे परिवार के साथ….’’
’’मगर बुआ कुछ और बताया करती थीं….’’
’’ताकि उसका झूठ ढका रहे, पाप छिपा रहे…’’
दीपक शर्मा
दीपक शर्मा
हिंसाभास, दुर्ग-भेद, रण-मार्ग, आपद-धर्म, रथ-क्षोभ, तल-घर, परख-काल, उत्तर-जीवी, घोड़ा एक पैर, बवंडर, दूसरे दौर में, लचीले फीते, आतिशी शीशा, चाबुक सवार, अनचीता, ऊँची बोली, बाँकी, स्पर्श रेखाएँ आदि कहानी-संग्रह प्रकाशित. संपर्क - [email protected]
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