प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय

‘शिक्षक से संवाद’ साक्षात्कार शृंखला की सातवीं कड़ी में आज प्रख्यात लेखक एवं शिक्षाविद् प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय से हमारे प्रतिनिधि पीयूष कुमार दुबे ने बातचीत की है। करुणा जी मुंबई विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैंपीएच.डी. और एम.फिल. मिलाकर आपके मार्गदर्शन में अबतक नब्बे शोध उपाधियाँ प्रदान की जा चुकी हैंइसके अतिरिक्त हिंदी आलोचना के क्षेत्र में भी आप एक मजबूत हस्तक्षेप रखते हैं। आपके अबतक बीस मौलिक आलोचना ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं तथा अनेक पुस्तकों का आपने संपादन भी किया है। आपकी सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘जयशंकर प्रसाद : महानता के आयाम’ हिंदी के बौद्धिक जगत में निरंतर चर्चा में बनी हुई है। प्रस्तुत साक्षात्कार में करुणा जी ने अपने निजी जीवन, कृतित्त्व, जयशंकर प्रसाद के रचनाकर्म, नई शिक्षा नीति, मार्क्सवादी विचारधारा सहित शिक्षा और साहित्य से जुड़े अनेक विषयों पर खुलकर अपनी बात रखी है

प्रश्न – नमस्कार सर, पुरवाई से बातचीत में आपका स्वागत है। बातचीत आगे बढ़ाने से पूर्व मैं चाहूंगा कि आप अपने अबतक की जीवन-यात्रा के विषय में हमारे पाठकों को बताएं।
प्रो.करुणाशंकर उपाध्याय – मेरा जन्म 15 अप्रैल, 1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के घोरका तालुकदारी नामक गांव में हुआ। यह गांव सई नदी के तट पर स्थित है और इसे बहुत ही मनोरम या देहाती रूप का गांव आप कह सकते हैं। मेरी आरंभिक शिक्षा वहीं पर प्राइमरी विद्यालय में हुई। उसके बाद कालूराम इंटरमीडिएट कालेज से 12वीं हुई। 1986 में 12वीं के बाद मैं मुंबई आ गया और यहां एम.वी.एन्ड एल.यू. कालेज,अंधेरी( मुंबई विश्वविद्यालय)से बी.ए. किया। फिर हिंदी विभाग, मुबई विश्वविद्यालय से 1991 में मेरा एम.ए. पूरा  हुआ। तदुपरांत मैंने 1993 में जो पहली सेट की परीक्षा हुई थी, उसको उत्तीर्ण किया और चर्च गेट  स्थित के.सी. महाविद्यालय के डिग्री कालेज में पढ़ाने लगा। सन 1995 में पुस्तक आई – सर्जना की परख और  1997 में मेरी पीएच.डी. पूरी हुई। वह पुस्तक 1999 में छपकर आई – आधुनिक हिंदी कविता में काव्य-चिंतन शीर्षक से।
2001 में  पोस्ट डॉक्टोरल  रिसर्च,  विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की अध्येता वृत्ति पर संपन्न हुई और 2001 में ही मैं पुणे विश्वविद्यालय में रीडर हो कर गया। 2002 में ‘मध्यकालीन काव्य : चिंतन और संवेदना’ नामक पुस्तक आई और 2003 में ‘पाश्चात्य काव्य चिंतन’ पुस्तक राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुई। सन 2003 में ही मुंबई विश्वविद्यालय में रीडर पद पर मेरी नियुक्ति हुई और उसके बाद 2007-08 में चार किताबें आईं – विविधा, हिंदी कथा साहित्य का पुर्नपाठ, आधुनिक कविता का पुर्नपाठ और हिंदी का विश्व संदर्भ प्रकाशित हुईं। सन 2009 में  मैं प्रोफेसर बना। उसके बाद  ‘आवाँ विमर्श’, ‘हिन्दी साहित्य : मूल्यांकन और मूल्यांकन’, ‘ब्लैकहोल विमर्श’, ‘सृजन के अनछुए सन्दर्भ’, आधुनिक कविता का पुर्नपाठ का दूसरा संस्करण, ‘पाश्चात्य काव्य चिन्तन : आभिजात्यवाद से उत्तर आधुनिकतावाद तक’ जैसी पुस्तकें आईं। फिर ‘सृजन और सरोकार’, ‘मेरा अप्रतिम भारत’ जैसे ग्रंथ आए। चित्रा मुद्गल संचयन का हमने संपादन किया। और उसके बाद ‘मध्यकालीन कविता का पुर्नपाठ’, ‘कथा साहित्य का पुर्नपाठ’ नामक पुस्तकें आईं और अभी 2022 में ‘जय शंकर प्रसाद महानता के आयाम’ नामक ग्रंथ आया है जो अब तक की श्रेष्ठतम साधना की फलश्रुति है।
अब तक मेरी 20 मौलिक आलोचना पुस्तकें और 12 संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  इस बीच मुझे राष्ट्रीय और अतंरराष्ट्रीय स्तर पर लगभग 25 पुरस्कार और सम्मान मिले हैं।  मेरे मार्गदर्शन में अबतक 35 शोधार्थी पीएच.डी. और 55 शोधार्थी एम.फिल. की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं। मैंने अमेरिका,मारिशस, संयुक्त अरब अमीरात और नेपाल की साहित्यिक यात्राएँ भी की हैं।  यह मेरी अबतक की जीवन-यात्रा का एक संक्षिप्त परिचय है।

प्रश्न – हाल ही में आई ‘जयशंकर प्रसाद : महानता के आयाम’ नामक आपकी पुस्तक चर्चा में है। इस पुस्तक में आपने जयशंकर प्रसाद को न केवल भारत अपितु विश्व का महान साहित्यकार सिद्ध करने का प्रयास किया है। इसका कारण क्या है ?
प्रो. करुणा शंकर उपाध्याय – देखिए, प्रसाद बहुत बड़े रचनाकार हैं। आप कह सकते हैं कि बहुत बड़े फलक के रचनाकार हैं। दूसरी बात यह थी कि उनके साथ न्याय नहीं हुआ था। वे 20वीं सदी के सबसे बड़े कवि हैं। मैने उनको रविन्द्रनाथ टाकुर, टी. एस. इलियट और महर्ष अरविंद से बड़ा कवि  सिद्ध किया है। इसके साथ ही विश्व के 15 जो सबसे बड़े महाकवि हैं, उनके साथ भी मैंने प्रसाद जी की तुलना की है और यह दिखाने का प्रयास किया है कि प्रसाद जी हिंदी के सबसे गहरे और मौलिक रचनाकार हैं। इनकी मौलिकता जो है वह भारतीय ज्ञान पंरपरा से जुड़ी हुई है। इसलिए इनके रचनात्मक लेखन में भारतीय वांग्मय की प्रतिभा बोलती है। जो भारतीयों को बड़े स्वप्न देखने और उन्हें सत्य-साकार करने के लिए प्रेरित करती है। प्रसाद के बारे में मैंने देखा कि ये अपने जीवन-दर्शन और जीवन-स्वप्न का प्रमाणीकरण करने वाले रचनाकार हैं। और बहुत महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस प्रकार से वैदिक ऋषियों की कविता में प्रकृति, काव्य, दर्शन, संगीत, विज्ञान, छंद सबकुछ एकाकार हो गए हैं, वैसे ही प्रसाद की कविता में भी यह सारी चीजें समन्वित रूप में आती हैं।  इनकी कविता में विज्ञान का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है।
प्रश्न – प्रसाद के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के किन आयामों के आधार पर आपने उनकी महानता सिद्ध की है?  
प्रो. करुणा शंकर उपाध्याय – मैंने गीता के 18 अध्याय की तरह प्रसाद की महानता के 18 प्रतिमान बनाए हैं। पहला प्रतिमान मैंने इनके विकासमान, सुसंगठित एंव गतिशील व्यक्तित्व को बनाया है औऱ यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि प्रसाद जी से यह सीख मिलती है कि अगर हम अपने  व्यक्तित्व को संगठित रखते हैं, तो अल्पायु में ही उपलब्धियों के बड़े शिखर पार कर सकते हैं।
दूसरा प्रतिमान जो मैंने बनाया है, उसमें मैंने इन्हें अंतर्दृष्टि एवं विश्व-संदृष्टि संपन्न गहन स्तरीय और वृहद फलकीय सर्जक बताया है। इनके पास अंतर्दृष्टि भी है और विश्व-संदृष्टि भी है। ये जितने सूक्ष्म हैं, उतने ही व्यापक भी हैं। ये विश्वस्तरीय समस्याएं उठाने वाले रचनाकार हैं। अपनी प्रगीतात्मक प्रतिभा को महाकाव्यात्मक प्रतिभा में रूपातंरित करने वाले रचनाकार हैं।
तीसरा प्रतिमान जो मैंने बताया है, वह है विराट, बहुआयामी, बहुस्तरीय एवं नव-नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा। इनकी प्रतिभा को मैंने बहुस्तरीय कहा है, नए नए उन्मेष  करने में समर्थ बताया है। अगला प्रतिमान जो है, बड़े नास्तिक, सूक्ष्म, प्रश्नाकुल एवं क्रांतिदर्शी रचनाकार।प्रसाद सबसे ज्यादा क्रांतियां करते हैं। सबसे ज्यादा बौद्धिक हैं। इसी तरह कुल 18 प्रतिमान निर्मित हुए हैं।

प्रश्न – आपने प्रसाद के लिए ‘नास्तिक’ शब्द का प्रयोग किया है। अगले आयाम की चर्चा से पूर्व इस विषय में कुछ बताइए।
प्रो. करुणा शंकर उपाध्याय – देखिये, जैनेंद्र ने प्रसाद के विषय में कहा था कि प्रखर बौद्धिकता जैसा कि अनिवार्य है, उन्हें उस जगह ले गई, जहां खुद बुद्धि पर टिके रहना व्यक्ति के लिए संभव नहीं हो पाता। जैनेंद्र ने ही पहले इनको हिंदी का नास्तिक लेखक भी कहा था। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद की प्रतिभा ईश्वर के आस-पास चुक जाती है, लेकिन प्रसाद हिंदी के पहले बड़े नास्तिक लेखक हैं। प्रेमचंद के मूल में नास्तिकता नहीं हैं, मगर प्रसाद ने किसी भी मत-मतांतर के आगे सिर नहीं झुकाया, सबको प्रश्नवत लिया। ये बहुत नई स्थापना है।
इसी क्रम में, अगला प्रतिमान जो मैंने बनाया है, वो है शैवागम से उन्मीलित विरुद्धों का सामंजस्य। क्योंकि इनके लेखन का मूल जो है, वो कश्मीर के शैव दर्शन से प्रेरित है। शैवागम में जो विरुद्धों का सामंजस्य है, वो किस प्रकार इनकी रचनात्मक सिद्धि का साधन बनता है उसकी चर्चा की है। इसके बाद अगले प्रतिमान के अंतर्गत सत्यम, शिवम एवं सुंदरम के विश्लेषण द्वारा उदात्त की सिद्धि ये किस प्रकार अपनी रचनाओं, विशेषकर कविताओं में करते हैं उसकी चर्चा है।
इसके बाद अगला प्रतिमान है – भारतीय अस्मिता के मौलिक अन्वेषी और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रशस्त चित्रकार यानी किस प्रकार ये भारतीय अस्मिता का मौलिक अन्वेषण करते हैं, भारतीयता के निर्माणक तत्त्वों का निर्धारण करते हैं और भारतीयता व भारतीय राष्ट्रीयता को एक व्याप्ति प्रदान करते हैं, उसकी चर्चा हुई है। अगला प्रतिमान है – विविध विधाओं में विश्वस्तरीय लेखन। इन्होंने साहित्य की लगभग हर महत्त्वपूर्ण विधा में लिखने का कार्य किया है। गुण और परिमाण दोनों ही दृष्टियों से इनका लेखन बहुत ही विपुल और उत्कृष्ट है। इसी प्रकार अगला प्रतिमान है – आत्मवेदना का विश्व-वेदना तथा प्रगीतात्मक प्रतिभा का महाकाव्यात्मक विन्यास में रूपांतरण। ये अपनी वेदना को विश्व-वेदना में किस प्रकार रूपांतरण करते हैं और प्रगीत लिखते हुए कैसे महाकाव्य रचते हैं उसका निर्वचन हुआ है।
प्रश्न – आत्मवेदना का विश्व-वेदना में रूपांतरण का क्या अर्थ है ?
प्रो. करुणा शंकर उपाध्याय – दरअसल आंसू जो इनका काव्य है उसमें विश्व-वेदना शब्द कई बार आया है, तो मैंने इसे प्रथम विश्वयुद्ध की विभीषिका, जलियांवाला बाग काण्ड और पहली पत्नी की मृत्यु के बाद जो संचित और पूँजीभूत वेदना थी, वह किस प्रकार आंसू के के रूप में प्रकट होती है उसकी चर्चा की है।
अगला प्रतिमान है – प्रेम, सौंदर्य और प्रकृति के अनंत रमणीय चित्रकार।यहाँ ये किस प्रकार ये सौंदर्य और प्रेम के बड़े कवि बनते हैं और वहाँ किस प्रकार उदात्तता लाते हैं तथा अशरीरी सौंदर्य-चित्रण करते हैं, उसकी चर्चा है। इसके बाद अगला प्रतिमान है – विश्वस्तरीय समस्याओं और वैज्ञानिक अनुसंधानों का परिचय। ये पहले कवि हैं, जो विश्वस्तरीय समस्याएँ और प्रश्न उठाते हैं और उनका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं। नए विज्ञान की जो भी आविष्कृतियां थीं, जो भी उपलब्धियां थीं, उसकी चर्चा कामायनी में भी करते हैं तथा अन्य रचनाओं में भी आती है। इसके बाद अगला प्रतिमान है – ‘सभ्यता-विमर्श’ जो कामयानी सहित इनकी अन्य रचनाओं में भी है।
अगला प्रतिमान है – आत्मलीन भागवत समाधि के विश्व-मानवतावादी कवि। ‘योगश्च चित्तवृत्ति निरोध:’ जो कहा गया है, उसकी स्थिति में पहुँचकर लिखने वाले कोई रचनाकार हैं, तो वो प्रसाद जी ही हैं। इसलिए मैंने इन्हें आत्मलीन भागवत समाधि का कवि कहा है।
प्रश्न – प्रसाद जी के नाटकों को लेकर भी क्या आपने कोई प्रतिमान बनाया है ?
प्रो. करुणा शंकर उपाध्याय – जी, अगला प्रतिमान इनके नाटकों पर ही है। इनके नाटकों पर विचार करते हुए मैंने प्रतिमान बनाया कि महाकाव्यात्मक रंग-परिकल्पना के भीतर बहुआयामी अर्थस्वरों का अनुप्रयोग। यानी इनकी जो रंग-परिकल्पना है, वो महाकाव्यात्मक है। इसलिए मैंने कहा कि स्कंदगुप्त, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, अजातशत्रु आदि इनके नाटकों को महाकाव्य की तरह पढ़ें और जब मंचन करना हो तो उन्हें रंग-शिल्प और रंगकर्म की तरह देखें तभी हम उनको सही ढंग से मंचित कर सकते हैं। इसके बाद जो अगला प्रतिमान मैंने बनाया है वो है, आंतरिक एवं गहन यथार्थ चेतना के विलक्षण कथाकार। यह मूल रूप से उनके उपन्यासों पर आधारित है। ‘कंकाल’ जैसा हिंदी का पहला यथार्थवादी उपन्यास लिखने का श्रेय भी उनको है।इनके अधूरे उपन्यास ‘ इरावती ‘ पर भी एक अध्याय है।
प्रश्न – प्रसाद का एक पहलू निबंधकार, आलोचक और इतिहासकार का भी है। इसे लेकर आपने किस प्रकार के प्रतिमान बनाए हैं ?
प्रो. करुणा शंकर उपाध्याय – इनका जो निबंध-लेखन है उसे लेकर प्रतिमान बनाया है कि अप्रतिम निबंधकार, सर्जनात्मक आलोचक एवं विश्वस्तरीय इतिहासवेत्ता। कुछ निबंध तो इनके ऐसे हैं जो आचार्य शुक्ल के निबंधों से भी अधिक गंभीर हैं- विशेषकर – छायावाद, रहस्यवाद,यथार्थवाद, काव्य तथा कला जैसे निबंध विश्वस्तरीय निबंध हैं। ये बहुत ही सर्जनात्मक आलोचक हैं। इनके आलोचनात्मक निबंधों को जब आप पढ़ेंगे तो लगेगा कि इनका चिंतन कितना रचनात्मक है। इतिहास-दृष्टि जो इनकी है, वो भारतीय स्रोतों पर आधारित और काल को आर-पार भेदने वाली है। इसलिए जिन कालखंडों को ढूँढने या जोड़ने का काम इतिहासकार भी नहीं कर पाए थे, उन्हें जोड़ने का काम ये अपने लेखन द्वारा करते हैं। यह बहुत बड़ा कार्य है। इसके बाद जो अगला प्रतिमान मैंने बनाया वो है – शिल्प का ताजमहल के कृती-स्रष्टा। मैंने इनकी कहानियों को भी शिल्प का ताजमहल कहा है और पंत ने कामयानी को भी शिल्प का ताजमहल कहा था। इनकी कहानियाँ अनंत रमणीय शिल्प-सौष्ठव के कारण अप्रतिम  बन गई हैं, उसकी चर्चा मैंने विशेष रूप से की है। इसी क्रम में अंतिम प्रतिमान जो मैंने बनाया है, वो है शताब्दी के श्रेष्ठतम महाकवि। इसमें मैंने शताब्दी के सभी श्रेष्ठ महाकवियों के साथ इनकी तुलना की है और फिर यह सिद्ध किया है कि बीसवीं सदी के ये सर्वश्रेष्ठ महाकवि हैं और इनका स्थान सार्वकालिक महाकवियों की पंक्ति में सुरक्षित है। जिस तरह से कालिदास ने कुमारसंभव और रघुवंशम के द्वारा महाकाव्य की परम्परा को आगे बढ़ाया था, वैसे ही कामायनी के माध्यम से इन्होने महाकाव्य की परंपरा को न केवल आगे बढ़ाया बल्कि उसमें विश्वबोध तथा श्रेय और प्रेय के संश्लेषण द्वारा बहुत-सी नई चीजें भी भर दी हैं।
प्रश्न – जयशंकर प्रसाद के नाटकों की पाठ की दृष्टि से तो खूब प्रशंसा हुई है, लेकिन मंचन की दृष्टि से आलोचकों ने प्रायः उन्हें अनुकूल नहीं माना है। इस विषय में आपकी क्या राय है ?
प्रो. करुणा शंकर उपाध्याय – देखिये, आरंभ में जो आलोचक थे, वे नाटक और रंगमंच के बहुत अच्छे जानकार नहीं थे। वहीं प्रसाद रंग-चिंतक भी हैं और इनका रंग-चिंतन भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। नाटकों और रंगमंच को लेकर इन्होंने बहुत अच्छे निबंध लिखे हैं। रंगमंच के बारे में इनकी धारणा बहुत स्पष्ट है। प्रसाद ने अपने नाटकों में जिस तरह के संवाद रखे हैं, वे काव्यात्मक हैं। इनके सभी नाटकों में मिलाकर 206 गीतियाँ हैं, जो कि एक अद्भुत काव्य-सौंदर्य के साथ आई हैं। जब इनके नाटकों के मंचन की बात आती है, तो जो भी बड़े रंगकर्मी हुए हैं उन सारे लोगों ने इनके नाटकों का मंचन भी किया है और उन्हें रंगमंच के अनुरूप भी बनाया है। प्रसाद कहते थे कि नाटक को रंगमंच के लिए नहीं होना चाहिए बल्कि रंगमंच को नाटक के लिए होना चाहिए। प्रसाद की इस अपेक्षा को रंगकर्मियों ने बाद में पूरा किया और देश के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में इनके नाटकों का अच्छी तरह से मंचन हो चुका है और बीच-बीच में होता भी रहता है। बा. वा. कारंत ने इनके लगभग सभी नाटकों का अकेले ही मंचन करवाया हुआ है। अब हमारे पास एक बड़ा, यथार्थवादी और व्यापक रंगमंच है, तो अब प्रसाद के नाटकों को लेकर वह समस्या नहीं रह गई है जो 1930 से 1936 के दौरान थी।

प्रश्न – दशकों बाद देश को नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति मिली है। क्या ये नीति नए भारत की आशाओं और आकांक्षाओं के अनुरूप है ? और मुंबई विश्वविद्यालय इसके क्रियान्वयन की दिशा में क्या कुछ तैयारी कर रहा है ?
प्रो. करुणा शंकर उपाध्याय – नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020), इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों के अनुरूप बनाई ही गई है। इसके लिए लगभग ढाई हजार ग्राम पंचायतों एवं साढ़े चार सौ जनपदों से सुझाव मंगाए गए और ढाई लाख से अधिक सुझावों को इसमें शामिल किया गया है। किस प्रकार से भारतीय ज्ञान परंपरा और भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए, यह इसका एक बहुत बड़ा उद्देश्य है। इसके साथ ही विश्व की गति के साथ कैसे हम प्रगति भी करते रहें तथा नई तकनीकी शिक्षा से कैसे हम व्यापक समाज को और नई पीढ़ी को जोड़ सकें, इसका भी ध्यान रखा गया है। इस अर्थ में हम कह सकते हैं कि यह शिक्षा नीति, एक समग्रतावादी राष्ट्रीय शिक्षा नीति है। जहाँ तक मुबई विश्वविद्यालय का सवाल है, तो मुंबई विश्वविद्यालय ने इसका खाका तैयार कर लिया है और इस महीने (जून) से  जो नया सत्र आरंभ हो रहा है, उसमें इसे लागू किया जा रहा है। मेरा यही कहना है कि इस शिक्षा नीति में कुछ ऐसी बातें हैं, जिन्हें यदि सही ढंग से लागू किया जाए तो भारतीय भाषाओं का बहुत बड़ा कल्याण हो सकता है। जैसे कि इसमें एक प्रावधान रखा गया है कि किसी व्यक्ति को यदि भारतीय भाषाओं का अतिरिक्त ज्ञान है, तो इसे उसकी नौकरी की अर्हता में जोड़ा जाएगा। यदि आपको तेलुगू, मराठी, बांग्ला, संस्कृत आदि भाषाएँ आती हैं, तो यह साक्षात्कार में आपकी अतिरिक्त योग्यता मानी जाएगी। अगर इसी प्रावधान को हम ईमानदारी से लागू करें तो भारतीय भाषाएँ लहलहा उठेंगी। इसके साथ ही आप देख सकते हैं कि मेडिकल से लेकर इंजीनियरिंग तक माननीय प्रधानमंत्री के प्रयासों से हमारे विश्वविद्यालयों ने हिंदी तथा भारतीय भाषाओं में शिक्षा आरंभ कर दी गई है, जिसका लगातार अब विकास होना है। इस समय जो कुछ भी तकनीकी धरातल पर अंग्रेजी में उपलब्ध है, वह सब हिंदी में भी उपलब्ध है और नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में हम इसका भी ध्यान रखेंगे कि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम के रूप में अधिक से अधिक प्रोत्साहित किया जाए। इस दृष्टि से यह शिक्षा नीति बहुत सही समय पर और बहुत सही ढंग से हमारे सामने आई है।
प्रश्न – भारतीय विश्वविद्यालयों में शोध की गुणवत्ता पर अक्सर सवाल खड़े किए जाते हैं। इसका सबसे आसान निशाना कला संकाय के अंतर्गत होने वाले शोध बनते हैं। हम चाहेंगे कि अपने अनुभवों के आधार पर आप हिंदी में शोध की गुणवत्ता के विषय में बताएं ?
प्रो. करुणा शंकर उपाध्याय – देखिये, शोध की गुणवत्ता को मापने का हमने जो प्रतिमान बनाया है, वह सब पश्चिम से लिया है। अगर हम अपने स्रोतों पर और अपने प्रतिमानों का निर्धारण करेंगे तो अलग निष्कर्ष पर पहुंचेंगे। वास्तव में, हमारी पूरी शिक्षा पद्धति ही पश्चिम की नक़ल पर आधारित रही है। इसलिए शोध की जो प्रक्रिया और प्रतिमान हैं, वह भी कहीं न कहीं पश्चिम के ही हैं। पश्चिमी शोध के प्रतिमान पर चलने के कारण हम कहीं न कहीं हिंदी और कला संकाय के अन्य विषयों के शोध को विश्वस्तरीय नहीं मान पाते या पश्चिमी प्रतिमानों के कारण हम कुछ जगहों पर हेठे पड़ जाते हैं। लेकिन हमें भारतीय ज्ञान परंपरा और भारतीय स्रोतों के आधार पर नए प्रतिमान गढ़ने की जरूरत है। मौलिकता, नवीनता और गहनता ये किसी भी शोध व आलोचना कार्य के विलक्षण पहलू होते हैं। उसके स्थायित्व के मानक होते हैं। सो, अगर हम सही मानक और प्रतिमान बनाते हैं तथा भारतीय ज्ञान परंपरा, भारतीय स्रोतों और स्थितियों के अनुरूप बनाते हैं, तो हम और बेहतर शोध-कार्य करवा सकते हैं। दूसरे, एक चीज जो मैंने स्वयं अनुभव की है वह है कि हिंदी जगत में अपढ़ता बहुत ज्यादा व्याप्त है। बच्चे पुस्तकें खरीदना नहीं चाहते। पढ़ना नहीं चाहते। वे मोबाइल पर, कपड़े, पर या ऐसी दूसरी चीजों पर काफी खर्च कर देंगे लेकिन जब पुस्तकें खरीदने की बात आती है, तो उससे बचना चाहते हैं। जब कम पढ़ेंगे तो उच्चस्तरीय शोध-कार्य संभव ही नहीं है। इसलिए उच्चस्तरीय शोध-कार्य की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा पढ़ें और चिंतन करें। हमारा जो आधारभूत ढाँचा है, उसे भी कहीं न कहीं बेहतर बनाने की जरूरत है। जैसे कि कुछ विश्वविद्यालयों में तो बहुत बड़े पुस्तकालय हैं, सुविधाएं हैं; लेकिन बहुत-सी जगहों पर ऐसी व्यवस्था नहीं है। कुल मिलाकर ऐसे अनेक कारक हैं, जो भारत में शोध-कार्य की गुणवत्ता को प्रभावित कर रहे हैं। लेकिन मुझे लग रहा है कि जैसे-जैसे हमारे देश की आर्थिक स्थिति सुधर रही है, हम विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गए हैं और निकट भविष्य में दूसरी-तीसरी बनने वाले हैं, तो ऐसी स्थिति में भारत सरकार तथा राज्य सरकारों को चाहिए कि शिक्षा पर ज्यादा बजट खर्च करें और शिक्षा व शोध-कार्य के स्तर को ऊपर उठाने का कार्य करें जिससे हम विश्व के समक्ष अपने वैज्ञानिक ज्ञान, तकनीकी ज्ञान और साहित्यिक ज्ञान व उपलब्धियों का लोहा मनवा सकें।
प्रश्न – देश में आजादी के बाद से लंबे समय तक अकादमिक एवं साहित्यिक संस्थानों पर मार्क्सवादी विचारधारा का वर्चस्व रहा है। आपके विचार से इस वर्चस्व ने इन क्षेत्रों को किस प्रकार से प्रभावित किया?
प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय – हिंदी साहित्य का जो सबसे बड़ा अहित हुआ है, वो मार्क्सवाद के कारण हुआ है। इस विचारधारा के लोगों का तमाम संस्थानों पर कब्जा रहा है। चूंकि, कार्ल मार्क्स जिस जर्मनी में पैदा हुए थे, वहाँ से ही उन्हें निकाल दिया गया था। उनकी छवि अंग्रेजों के एजेंट की थी। अब जो कार्ल मार्क्स स्वयं अपने देश से प्रेम नहीं कर सका, उसके सिद्धांत पर चलने वाले लोग भला अपने देश से कैसे प्रेम कर सकते हैं ? इसलिए आपने देखा होगा कि भारतवर्ष को, भारतीय ज्ञान परंपरा,भारतीय साहित्य, हिंदी साहित्य, हमारी उपलब्धियों और हमारे गौरव शिखरों को कैसे ध्वस्त किया जाए, इसका एक सुनियोजित प्रयास होता रहा है, जिसके कारण हम भारतीयों में आत्मविश्वास का जो एक दर्शन विकसित होना चाहिए था, वह विकसित नहीं हो पाया। जो भारतवर्ष लगभग बारह हजार साल पुरानी ज्ञान-परंपरा को ऋग्वैदिक काल से लेकर चल रहा है और जिससे पुरानी कोई भी सभ्यता-संस्कृति इस धरती पर मौजूद नहीं है, उस भारतवर्ष के लोग यदि दो सौ-तीन सौ साल पुरानी संस्कृतियों वाली सभ्यताओं से, राष्ट्रों से सीखें और उनकी नकल करें तो इससे बड़ी उपहासास्पद स्थिति क्या हो सकती है ? लेकिन यह माहौल आजाद भारत में बनाया गया जो कि बहुत ही चिंताजनक और दुर्भाग्यपूर्ण रहा है। लेकिन अब स्थितियां बदल रही हैं और भारतबोध का एक नया स्वरूप विकसित हो रहा है। अब लोगों की समझ में आ रहा है कि भारत का इतिहास बहुत प्राचीन है और भारतीय ज्ञान-परंपरा ने संपूर्ण विश्व को बहुत कुछ दिया है। हम चराचर जगत की चिंता करने और विश्व के कल्याण की कामना करने वाले लोग हैं। जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा कि हमने युद्ध नहीं, बुद्ध दिया है; तो हम विश्व-शांति में ही नहीं, ब्रह्माण्ड-व्यापी शांति में बात करते हैं। हमारे यहाँ जो शांति-मंत्र है उसमें ‘अंतरिक्ष शांतिः’ तक की बात कही गई है। आज जब अंतरिक्ष-युद्ध की स्थितियां बन रही हैं, तो हमारा देश ही अंतरिक्ष शांति की वकालत कर सकता है। इस ढंग की विचारधारा वाले देश को नए सिरे से आत्मनिरीक्षण और आत्मपरिष्कार करने की जरूरत थी जो धीरे-धीरे अब आरंभ हो गया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि अब हम अपने उस स्वाभाविक गौरव को निकट भविष्य में प्राप्त करेंगे जिसके हम अधिकारी हैं।
प्रश्न – भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन का विषय अक्सर उठाया जाता है। इतिहास के पाठ्यक्रमों में भी परिवर्तन की बात होती है। अभी एनसीईआरटी ने पाठ्यक्रम हल्का करने के लिए कुछ परिवर्तन किए तो उसपर विवाद हो गया। मेरा सवाल है कि इतिहास लेखन में मूलतः ऐसी क्या दिक्कतें रही हैं, जिस कारण उसमें परिवर्तन की बात होती है ?
प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय – देखिये, हमारा इतिहास जो लिखा गया है, वो भारत-विरोधियों के द्वारा भारत-विरोध में लिखा गया है। जिन अंग्रेजों ने हम पर शासन किया वे अंग्रेज तो यह नहीं बता सकते थे कि आप महान हैं, विश्वगुरु हैं और सबसे ज्यादा शक्तिशाली हैं। अगर ऐसा बोलते तो वे शासन कर ही नहीं पाते। इसलिए भारतीयों में हीनता-बोध पैदा करने के लिए उन्होंने हमारे इतिहास को एक तरह से विकृत रूप में प्रस्तुत करने का काम किया। मैं एक उदाहरण देना चाहूँगा। सिंधु घाटी सभ्यता को उन्होंने 4500 वर्ष ईस्वी पूर्व बताया और उसकी लिपि आज तक पढ़ी नहीं गई। जो वैदिक सभ्यता या सरस्वती सभ्यता है, उसके ग्रंथ ऋग्वेद की रचना बारह हजार ईस्वी पूर्व से आठ हजार ईस्वी पूर्व हुई है, इसको पूरा विश्व मानता है; और इस संपूर्ण धरती पर सबसे पुराना अगर कोई ग्रंथ है, तो वो ऋग्वेद है। अब जिस सभ्यता और संस्कृति का ग्रंथ आज उपलब्ध है, जो 12000 ईस्वी पूर्व से 8000 ईस्वी पूर्व के बीच रचा गया है और जिसको न केवल पढ़ा गया है बल्कि लगातार पढ़ाया भी गया है, उस सभ्यता की चर्चा अंग्रेजों ने नहीं की बल्कि उस सभ्यता की चर्चा की जो 4500 ईस्वी पूर्व में सिंधु घाटी सभ्यता के नाम से जानी गई। इसके पीछे उनका जो मनोविज्ञान कार्य कर रहा था वह ये था कि उनके यहाँ यूरोप में जो सबसे पुरानी सभ्यता है, वो यूनान की सभ्यता है जो 1200 ईस्वी पूर्व तक जाती है। उनके यहाँ पहला बड़ा व्यक्ति होमर है, जो 850 ईस्वी पूर्व में आता है। इससे पूर्व की सभ्यता का उनके यहाँ कोई प्रमाणिक इतिहास नहीं मिलता है।
हमारे यहाँ 12000 ईस्वी पूर्व तक इतिहास जा रहा था। ऐसे में, उनको लगा कि यदि हम 12000 ईस्वी पूर्व तक का इतिहास भारत का लिख देंगे तो भारत अपने आप विश्वगुरु सिद्ध हो जाएगा। इसलिए उन्होंने भारत का इतिहास लिखते समय एक शून्य हटाकर 12000 ईस्वी पूर्व को 1200 ईस्वी पूर्व कर दिया। इस तरह 10800 साल हमारे इतिहास से निकल गए। वैदिक काल, उपनिषद काल,ब्राह्मणकाल,आरण्यककाल, रामायण काल, महाभारत काल – ये सब मिथक बना दिए गए। हमारा इतिहास उन्होंने उदयन से, अजातशत्रु से, शिशुनाग वंश से आरंभ बताया। इस ढंग से हमारे इतिहास के एक बहुत बड़े भाग को उन्होंने उच्छिन्न करने का काम किया है। इसी प्रकार हमारे जो नायक रहे हैं, उन्हें भी अनदेखा किया गया। जब चंद्रगुप्त मौर्य सेल्यूकस को हराते हैं और बदले में ईरान-इराक तक के चार प्रांत सेल्यूकस देता है, वहां तक भारतवर्ष उस समय था, लेकिन उसकी चर्चा हम नहीं करते हैं। हम केवल दिल्ली और उसके आसपास के इलाके के इतिहास की चर्चा करते हैं।
कहीं न कहीं इतिहास के पुनर्लेखन की इसलिए भी आवश्यकता है क्योंकि, लद्दाख, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पूर्वोत्तर का क्षेत्र, अंडमान निकोबार आदि वो क्षेत्र हैं जो कभी गुलाम नहीं रहे हैं। दक्षिण में चोल वंश ने 2100 वर्ष तक शासन किया उसकी चर्चा नहीं होती लेकिन कुछ वर्षों तक किसीने दिल्ली पर शासन किया तो उसे विस्तारपूर्वक पढ़ाया जाता है। मध्यकाल में भी देखें तो महाराणा प्रताप भी आजाद थे, बुंदेलखंड में छत्रसाल भी आजाद थे और छत्रपति शिवाजी तथा उनके बाद के शासक महाराष्ट्र में आजाद थे। कहने का आशय यह है कि पूरा भारत कभी गुलाम नहीं रहा। इसलिए इतिहास के पुनर्लेखन की जरूरत तो है।
अभी तक जो इतिहास लिखा गया वो अंग्रेजों और वामपंथियों द्वारा विदेशी चश्मे से लिखा गया, लेकिन अब पहली बार यह अवसर मिला है कि भारतीय दृष्टि से, भारतीय ज्ञान-परंपरा और भारतीय स्रोतों के आधार पर भारत के इतिहास को लिखें। पूरे विश्व के सामने यह तथ्य आना चाहिए कि भारतवर्ष ऐसा था और इस रूप में विकसित हुआ है और उसे इस रूप में समझा जाए।इसलिए इतिहास का पुनर्लेखन बहुत जरूरी है। आप जब नया कार्य करेंगे और जो गलत हुआ उसको ठीक करने का प्रयास करेंगे तो निश्चित रूप से विवाद होगा, लेकिन विवादों की परवाह किए बिना जो तथ्य है और सत्य है, उसे सबके सामने लाना आवश्यक है। यह समय की माँग है।

प्रश्न – आपने अनेक महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक ग्रंथ लिखे हैं। लेकिन आज हिंदी आलोचना की स्थिति बहुत अच्छी नहीं रह गई है। आलोचना ने कहीं न कहीं अपनी पूर्व प्रतिष्ठा गंवा दी है। आपके विचार से इस स्थिति का कारण क्या है ? और हिंदी आलोचना किस प्रकार से अपनी पूर्व प्रतिष्ठा को प्राप्त सकती है ?
प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय – जब आचार्य रामचंद्र शुक्ल आलोचक थे, उस समय आलोचक की भूमिका न्यायाधीश की थी। उन्होंने जिस रचनाकार के बारे में जो कह दिया, वह एक प्रकार से स्थापित निर्णय हो जाता था। जैसे कि उन्होंने कबीर के बारे में कह दिया कि उनकी भाषा पंचमेल खिचड़ी, सधुक्कड़ी है, तो वही सबके गले उतर गया। उसके बाद द्विवेदी जी चिल्लाते रहे कि कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं, लेकिन यह बात किसीके गले उतरी नहीं। इस युग के बाद जब समय बदला तो डॉ. नामवर सिंह का दौर आया उस समय आलोचक की छवि ‘वकील’ की बन गई है। उन्होंने तय कर लिया कि किसको गिराना है और किसको उठाना है। उन्होंने जिसको स्थापित करना चाहा, एक वकील की तरह उसकी वकालत करके उसे स्थापित किया और जिसे गिराना चाहा, उसे गिराया। इसका फल यह हुआ कि जैसे आज वकीलों की भरमार है, वैसे ही आलोचकों की भरमार तो हो गई लेकिन आलोचक की जो स्वाभाविक गरिमा आचार्य शुक्ल के समय थी, वह पूरी तरह से ध्वस्त होती चली गई। इस क्रम में इतना बुरा दौर आया कि जिस समय राष्ट्रीय सांस्कृतिक धारा की कविता लिखी जा रही थी, नवगीत लिखे जा रहे थे और बड़े से बड़े कवि उपस्थित थे, उस समय अकविता, कुकविता, बीट कविता जैसे आंदोलन चलाए गए। मतलब जो साहित्य मनुष्य के मन और आत्मा का उन्नयन करता है, उसका परिष्कार करता है; वह साहित्य विकृतियों, विसंगतियों और विडंबनाओं का एक कोश बन गया। मनुष्य के जीवन को नर्क बनाने वाला बन गया। इस कारण से लोग साहित्य से भी दूर होते गए और उसके मूल्यांकन के लिए जो कविता के नए प्रतिमान और मानदंड बनाए गए, उसने साहित्य से पाठकों को और दूर किया। इसके अतिरिक्त आलोचना की क्षति का एक कारण यह भी है कि आलोचकों में पढ़ने की प्रवृत्ति लगातार कम होती जा रही है। जिसमें एक अंतर्दृष्टि हो, विश्व-संदृष्टि हो, काल को आरपार देखने की शक्ति हो, जो बहुपठित और बहुश्रुत हो तथा जो पूरी परंपरा के साथ-साथ भविष्य के प्रति भी एक विवेकपूर्ण संकेत कर जाए, वह आलोचक होता है। ऐसे आलोचक लगातार कम होते गए या यह भी कह सकते हैं कि लगभग नहीं रहे। आज तो स्थिति यह आ गई है कि अपवादस्वरूप एक-दो आलोचकों को छोड़ दिया जाए तो कोई आलोचक असल में है ही नहीं। अब सब समीक्षक हो गए हैं। सब केवल समीक्षाएं लिख रहे हैं। किसीके पास कोई प्रतिमान नहीं है, आलोचना का मानदंड नहीं है और कोई आलोचनात्मक दृष्टि नहीं है। आलोचनात्मक दृष्टि के बगैर सृष्टि संभव ही नहीं है। लेकिन बिना किसी दृष्टि और प्रतिमान के लोग पुस्तकों की समीक्षा कर रहे हैं और उसी समीक्षा को आलोचना कहने लगे हैं, इसीलिए आलोचना दुर्दशाग्रस्त है। आलोचना, समीक्षा नहीं है। आलोचक और समीक्षक में फर्क है। समीक्षक वह है जो पुस्तक की केवल समीक्षा करता है, जबकि आलोचक एक दृष्टिसंपन्न व्यक्ति होता है, जो अपने प्रतिमान या मानदंड के आधार पर किसी साहित्यकार या रचना का मूल्यांकन करता है। अब मुझे लगता है कि जैसे ‘जयशंकर प्रसाद : महानता के आयाम’, ‘मध्यकालीन कविता का पुनर्पाठ’, ‘कथा-साहित्य का पुनर्पाठ’ आदि मेरे ग्रंथ आए हैं, इस तरह के ही और भी ग्रंथ हिंदी आलोचना को पुनः उत्कर्ष प्रदान करेंगे। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जिस जगह हिंदी आलोचना को छोड़ा था, उस जगह से उसे आगे ले जाने का काम हम करेंगे। अतः हिंदी आलोचना का वर्तमान जैसा भी हो, इसका भविष्य निस्संदेह अच्छा है।
प्रश्न – वरिष्ठ साहित्यकार चित्रा मुद्गल ने एक परिचर्चा के दौरान आपको वर्तमान समय का सबसे बड़ा आलोचक कहा था। यदि मैं आपसे उनके इस कथन का तटस्थ मूल्यांकन करने को कहूं तो आप क्या कहेंगे ?
प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय – देखिये, अभी तो मैं लिख रहा हूँ और कई पीढ़ी के आलोचक लिख रहे हैं, इसलिए मैं इसके बारे में स्वयं तो कुछ नहीं कहना चाहूँगा कि मैं क्या हूँ। मेरी जो आलोचनात्मक पुस्तकें हैं, वही सिद्ध करेंगी कि मैं किस स्तर पर हूँ। दूसरी बात यह है कि चित्रा जी ने जब उक्त बात कही थी तब यह भी कहा था कि ‘करुणाशंकर उपाध्याय वर्तमान आलोचकों के लिए प्रतिमान हैं, क्योंकि ये अपने मानदंडों के साथ हिंदी आलोचना में आए हैं। इन्होने विश्वस्तरीय प्रतिमानों का सृजन किया है। बिना प्रतिमानों के आलोचना संभव ही नहीं है.’ मेरा मानना है कि अभी मेरे मूल्यांकन का समय नहीं आया है। अभी तो मैं ‘विश्व हिंदी साहित्य का इतिहास’ लिख रहा हूँ तथा और भी कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ आने वाले हैं। जो भी मूल्यांकन होगा, वो भविष्य में होगा। मेरा विनम्र प्रयास है कि हम हिंदी आलोचना को विश्वस्तरीय विमर्श का हिस्सा बना सकें। वह भारतीय साहित्य के साथ न्याय करने वाली हो और भारतीय साहित्य का विश्व स्तर पर प्रतिनिधित्व करे, इस दृष्टि से मैं हिंदी आलोचना को गुण और परिमाण दोनों ही प्रकार से संपन्न करने का कार्य कर रहा हूँ। चित्रा मुद्गल जी का कथन एक प्रकार से मेरे लिए आशीर्वाद है और उसे सार्थक करने के लिए ईश्वर मुझे शक्ति प्रदान करे, इसीके प्रति मैं विश्वास व्यक्त करता हूँ।
प्रश्न – आप अकादमिक क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति हैं। लेकिन रक्षा क्षेत्र से संबंधित विषयों पर भी गहरी दृष्टि और समझ रखते हैं। क्या इसके पीछे रक्षा क्षेत्र में सामान्य रुचि होना कारण है या कोई और बात है ?
प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय – अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और रक्षा मामलों में मेरी गह्ररी रुचि है। मैं काफी लंबे समय से इससे जुड़े लेख भी लिखता रहा हूँ और जब समय मिलता है, तब चैनलों पर विशेषज्ञ के रूप में अपनी राय जाहिर करता रहा हूँ। वे बुलाते हैं या मेरा साक्षात्कार लेने के लिए आते हैं। यह एक शौकिया क्षेत्र है और मुझे इसमें बहुत ज्यादा दिलचस्पी है। कई बार क्या होता है कि साहित्यिक कृतियों के मूल्यांकन के लिए जो एक रणनीति बनाने की जरूरत होती है, उस दृष्टि से भी रक्षा-क्षेत्र की ये विशेषज्ञता हमारे काम आती है (हँसते हुए)। इसलिए भी हम इस क्षेत्र में जुड़े हुए हैं। लगभग पच्चीस आलेख इस विषय पर तैयार हैं और मैं प्रयास करूँगा कि एक-दो साल में रक्षा मामलों पर भी मेरी एक पुस्तक आए जिससे इस विशेषज्ञता को एक प्रामाणिक आधार मिल जाए।
प्रश्न – हिंदी में रोजगार न होने की बात अक्सर कही जाती है। आपके विचार से इस कथन में कितनी सत्यता है ?
प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय – देखिये, सबसे ज्यादा रोजगार अगर कहीं है, तो हिंदी में है। पूरी मीडिया हिंदी के हवाले है। टेलीविजन उद्योग हिंदी पर आधारित है। फ़िल्मी दुनिया हिंदी पर चल ही रही है। भारत सरकार के जो तमाम कार्यालय हैं जहां राजभाषा विभाग हैं, उन सब जगहों पर तो हिंदी में रोजगार है ही। शिक्षा के क्षेत्र में भी हिंदी में रोजगार हैं। इसके अलावा पर्यटन, कृषि आदि क्षेत्रों में भी हिंदी का ही बोलबाला है। राजनीति के क्षेत्र की बात करूँ तो आप देखिये कि 355 लोकसभा सीटों पर हिंदी भाषा का वर्चस्व है। धर्म, दर्शन, राजनीति आदि सभी जगहों पर हिंदी का बोलबाला है और हर जगह हिंदी से लोगों को रोजगार मिला हुआ है। आप यदि पता करें तो पाएंगे कि पूरे देश में कई लाख लोग केवल रामचरितमानस के भरोसे रोजगार पाए हुए हैं। तुलसीदास ऐसे महाकवि हैं, जो आज भी रोजगार प्रदान कर रहे हैं। कहने का अर्थ यह है कि हिंदी में शक्ति है, वह क्षमता है, जो किसी भी भाषा में हो सकती है। रोजगार के मामले को लेकर आप स्वयं विचार करें कि भारत में कितने लोग हैं जो अंग्रेजी के बलबूते पर रोजी-रोटी चला रहे हैं और कितने लोग हैं जो हिंदी व और अन्य भारतीय भाषाओं के बल पर रोजी-रोटी चला रहे हैं। अंग्रेजी के बलबूते पर एक करोड़ लोग भी मुश्किल से मिलेंगे, जबकि हम 145 करोड़ की जनसंख्या वाले देश हैं और सबकी रोजी-रोटी चल रही है, तो हिंदी व भारतीय भाषाओं में चल रही है। हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रयोग का क्षेत्र भी लगातार बढ़ रहा है। सोशल मीडिया में हिंदी ने एक तरह से भारत में एकछत्र आधिपत्य स्थापित कर लिया है। अतः हिंदी में रोजगार की बात को बहुत तटस्थता से, आंकड़ों सहित विश्लेषित और रेखांकित करने की जरूरत है। सुनी-सुनाई बातों के आधार पर लोग कुछ भी कह देते हैं, उसपर जाने की जरूरत नहीं है।
प्रश्न – आपकी एक पुस्तक है – हिंदी का विश्व संदर्भ। इसमें आपने हिंदी को विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा बताया है। यदि ऐसा है तो फिर क्या कारण है कि हिंदी अबतक संयुक्त राष्ट्र की भाषा नहीं बन पाई ? और भविष्य में इस दिशा में क्या संभावनाएं नजर आती हैं ?
प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय – देखिये, पूरे विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश भारत है। जब हम अंग्रेजी और मंदारिन बोलने वालों के आंकड़ों की बात करें तो मुझे याद आता है कि ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर कोचीन में आए थे, तब उन्होंने कहा कि भारत में 42 करोड़ लोग अंग्रेजी बोलते हैं। मैंने पूछा कि इसका आधार क्या है ? उन्होंने कहा कि जितने लोग भी इस देश में पढ़े-लिखे हैं, मैं मानता हूँ कि वो सब अंग्रेजी बोलते हैं। उनके आंकड़ा जमा करने का आधार यह है। मतलब जितने लोग दसवीं पास हैं, सब उनकी दृष्टि में अंग्रेजी बोलते हैं। इसी तरह चीन में छप्पन बड़ी भाषाएँ हैं, जिनमें तिब्बती, मंगोलियन, कैंटनी, कोरियन,यू,उइगिर, पुर्तगाली आदि भाषाएँ शामिल हैं, तो वहाँ भी हर व्यक्ति मंदारिन नहीं बोलता। केवल 62 प्रतिशत चीनी ही मंदारिन बोलते हैं, 38 प्रतिशत चीनी मंदारिन नहीं बोल पाते। जबकि भारत में 82 प्रतिशत भारतीय हिंदी बोल और समझ लेते हैं। पूरे विश्व में 65 करोड़ लोग पहली भाषा के रूप में हिंदी का प्रयोग करते हैं, पचास करोड़ लोग दूसरी या तीसरी भाषा के रूप में हिंदी का प्रयोग करते हैं। अनेक देशों में हिंदी दूसरी या तीसरी भाषा के रूप में प्रयुक्त होती है। लगभग 25 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्होंने चौथी-पांचवी या विदेशी भाषा के रूप में हिंदी का प्रयोग आरंभ किया है। इस आधार पर हिंदी पूरे विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है।
जहाँ तक संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनने का सवाल है, तो संयुक्त राष्ट्र संघ जब बना तो उसके स्थायी सदस्यों की व्यवस्था की गई। जिन देशों को स्थायी सदस्य बनाया गया उनकी भाषाओं को पहले शामिल किया गया। बाद में स्पेनिश और अरबी भाषा को भी संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल कर लिया गया। भारत सरकार के प्रयासों से संयुक्त राष्ट्र संघ ने पिछले साल से यह सुविधा दे दी है कि भारत की तीन भाषाएँ हिंदी, बांग्ला और उर्दू का प्रयोग संयुक्त राष्ट्र संघ में किया जा सकता है। अभी तक आधिकारिक मान्यता नहीं मिली है, लेकिन जो सात आधिकारिक भाषाएँ हैं, उनके साथ हिंदी का भी प्रयोग किया जा सकता है। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र संघ ने हिंदी में अपना ट्विटर हैंडल आरंभ किया है। हिंदी में अपनी वेबसाइट आरंभ की है। यानी कि अब हिंदी का प्रयोग वहाँ पर हो सकता है। आधिकारिक भाषा का दर्जा संयुक्त राष्ट्र को देना है, भारत सरकार को उसके लिए पैसे खर्च करने हैं और 128 देशों का समर्थन हासिल करना है। इस दिशा में सरकार प्रयास कर रही है और मुझे विश्वास है कि आने वाले पांच सालों में भारत सरकार हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनवा देगी। जैसे ही भारत जापान को पछाड़कर विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनेगा तो मुझे विश्वास है कि उसके बाद भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का स्थायी सदस्य भी बनेगा क्योंकि अब विश्व की जो बहुध्रुवीय व्यवस्था विकसित हो रही है, उसमें भारत एक बड़े और शक्तिशाली ध्रुव के रूप में स्वयं को स्थापित कर रहा है। जब हम आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर विश्व-व्यवस्था के परिचालन में बड़ी भूमिका अदा करेंगे तो हिंदी का भी मान बढ़ेगा और भारत की भी उपलब्धियां बढ़ेंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि निकट भविष्य में हिंदी न केवल संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनेगी अपितु आने वाले पंद्रह सालों में विश्व के दस-बारह देशों में हिंदी आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त कर लेगी। हिंदी का भविष्य बहुत उज्जवल है, इसलिए मैं अंत में कहना चाहूँगा कि आने वाला समय हिंद और हिंदी का है। जय हिंद, जय हिंदी।
पीयूष – हमसे बातचीत के लिए समय देने हेतु बहुत बहुत धन्यवाद, सर।
प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय – धन्यवाद।
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - sardarpiyush24@gmail.com एवं 8750960603

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.