मैं जानती हूँ मेरी पीठ पीछे लोगों ने मुझे तीन-तीन नाम दे रखे हैं; गपिया, गौसिप और झँकवैया ।
आप सोचते हैं मैं दूसरों की एकांतता पर अतिक्रमण करती हूँ? उनके भेद जानने और खोलने का मुझे चाव है? या फिर सोचते हैं निंदा सुख का लोभ है मुझे? गलत नतीजों पर पहुँचने की लत है? और दूसरों के सच को मैं तोड़-मरोड़ कर पेश किया करती हूँ?
गलत… गलत… एकदम गलत… बल्कि मैं तो हर हेर-फेर से ऊपर हूँ । किसी के भी सच को कभी उलटती-पलटती नहीं, केवल तथ्यों को संदिग्धता की ओट से बाहर निकालकर निश्चिति प्रदान करती हूँ ।
मेरा यह मानना है, स्त्रियों में बतकही बहुत जरूरी है । यह हमारे संबंधों को बनाने-सँवारने का एक बहुत बड़ा साधन है । हमारी अंतः शक्ति एवं एकत्रीकरण को संगठित करने का आधार है । निजी घटनाओं को सामाजिक यथार्थ के परिपेक्ष्य में देखने का माध्यम । 
अब देखिए….
अपनी पड़ोसिन कांता के घर, उस दिन मैं जितनी जिज्ञासा लेकर गई, उतनी ही सहानुभूति भी, भला क्यों?
हुआ यूँ पिछली ही रात हमारे कॉलेज के प्रिंसिपल की सालगिरह पार्टी में अनिल को नलिनी के साथ कुछ ज्यादा ही हँसते-गपियाते देखा तो फौरन उससे जाकर पूछा,’कांता नहीं आई क्या?’
जवाब मिला, ’नहीं वह यहाँ नहीं है । अपने मायके में है ।’
अब मैं उसकी बात कैसे मान लेती जबकि मैं जानती थी कांता यही है । मायके नहीं गई है और जायगी भी नहीं । पड़ोसन हूँ उसकी । कॉलेज के इस परिसर में बने स्टाफ क्वाटरों में हमारे क्वार्टर एक-दूसरे से सटे हैं ।
’कल की पार्टी में तुम आई क्यों नहीं?’ कांता के दरवाजा खोलते ही मैंने अपनी प्रश्न पिटारी खुल जाने दी ।
’मेरा जी अच्छा नहीं था,’ म्लान चेहरा लिए कांता चिंतित दिख रही थी ।
’तुम नहीं थी तो अनिल ने अपना ज्यादा समय नलिनी के साथ बिताया और मालूम है? पार्टी में नलिनी क्या पहन कर आई थी? अलग ही ढंग के कटे-तिरछे टॉप और स्कर्ट…’
’अब शादी-शुदा तो वह है नहीं,’ कान्ता कुड़-कुड़ायी ’आजाद तितली है । नखरा तो दिखाएगी ही ।’
अनिल और मेरे पति कॉलेज के जीव-विज्ञान विभाग में हैं जहां मेरे पति सीनियर लैक्चरर हैं और नलिनी अभी हाल ही में लखनऊ से कस्बापुर में उन्हीं के विभाग में लेक्चरर की नई नियुक्ति पाकर आई है ।
’मगर तुम्हारे मायके जाने की बात कहाँ से आई? अनिल कह रहा था तुम मायके गई हो ।’
’यह रट अनिल की है । जबरदस्ती मुझे मायके भेजना चाहते हैं । जबकि मैं वहाँ जाना नहीं चाहती ।’
’वही तो ! मैं हैरान थी तुम वहाँ क्यों जाओगी ? वह भी आजकल ? जब बच्चों के स्कूल चल रहे हैं ।’ कान्ता मुझे बता चुकी थी उसके पिता के देहांत के बाद से ही उसके तीनों भाइयों ने बिजनेस और मकान बाँट लिया है और वहाँ सभी को अपनी-अपनी पड़ी है । उसकी भाभियों और भतीजे-भतीजियों को भी। कांता की तनिक परवाह नहीं । उसकी माँ तो बहुत पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थीं ।
’मगर अनिल हैं, जो मुझे वहाँ भेजने पर तुले हैं ।’ कांता फफकी ।
तभी एक मोटर गाड़ी के रूकने की आवाज आई । ’अनिल आ गए हैं,’चौंक कर कांता उठ खड़ी हुई । ‘मेरा सूटकेस अभी तैयार नहीं हुआ…’ कांता अपने शयनकक्ष की ओर चली तो मैं बाहर वाले बरामदे में निकल आई ।
’आप?’ मुझे सामने पाकर अनिल सकपकाया ।’कांता को देखने आई थी । वह यहीं है । मैंने उसे समझाया है उसे इस समय मायके नहीं जाना चाहिए । आपको छोड़कर, बच्चे और घरबार छोड़कर ।‘
’उसकी बड़ी भतीजी की सगाई हो रही है । उसके मायके वाले सभी उसे बुला रहे हैं। कल उसकी टिकट पक्की नहीं हो पाई थी । मगर, आज मैं उसकी टिकट पक्की करवा कर आ रहा हूँ….’ अनिल ने अपनी खीझ तनिक नहीं छिपाई, और समापक मुद्रा में मुझे हाथ जोड़कर अंदर बैठक की ओर बढ़ लिया। ’अच्छा, फिर बाद में मिलते हैं’…
’टिकट वापस कर दो’, बैठक में मैं उसके पीछे-पीछे जा पहुँची, मैंने कांता को मना लिया है । वह अपने मायके जब बच्चों की छुट्टियों में जाएगी, आज नहीं’…..
’कान्ता से पूछता हूँ’ अनिल अंदर वाले कमरे में अपने कदम बढ़ा ले गया ।
बैठक में मैं बैठी नहीं । उसके दूसरे कोने में रखे फ्रि़ज के पास जा खड़ी हुई । कनसुई लेने । उनके शयनकक्ष से फ्रि़ज की दूरी बैठक में रखे सोफे से कम थी । 
’उस चुगलखोर, औरत को तूने इधर क्यों बुला लिया?’ अंदर से अनिल की आवाज आई, ’गुहार के लिए?’
’मैंने उसे नहीं बुलाया था’, कांता का जवाब था ।
’जा! झँकवैया को भेज कर आ । उसका पति मेरा सीनियर न होता तो, मैं खुद ही उसे बाहर धकिया आता ।’
’मैं उसे जाने को नहीं बोल सकती’ कांता रोने लगी ।
अपनी उपस्थिति दर्ज कराने हेतु मैंने कांता को जोर से पुकारा, ’कांता’.. कांता के स्थान पर अनिल उपस्थित हुआ । उसके हाथ में एक सूट केस का पट्टा था जो उसके पीछे-पीछे लुढ़का चला आ रहा था ।
’सॉरी, मैडम । हमें क्षमा करिए । इस समय कांता को निकलने की जल्दी है । उसके भैया-भाभी मान नहीं रहे हैं । बोलते हैं कांता को सगाई में आना ही पड़ेगा’…
’मैं,’ बैठक की अपनी पुरानी सीट पर जा बैठी,’ कांता से मिलकर जाऊँगी । उसे थोड़ा सामान उधर से लाने को बोलूँगी ।‘
’कैसा सामान?’ अनिल का चेहरा तमतमाया ।
’वहाँ के पापड़ और बड़ी, बहुत अच्छे होते हैं, वही मँगवाऊँगी’…
’देखता हूँ कांता इतनी देर क्यों लगा रही है’, हड़बड़ा कर अनिल अंदर लौट लिया । 
उसे गए दो पल भी न बीते थे कि अंदर से एक चीख सुनाई दी । चीख कांता की नहीं थी । अनिल की थी । ’क्या हुआ?’ मैं चीख की दिशा में दौड़ ली ।
’मेरे शेविंग ब्लेड से कांता ने अपनी कलाई काट ली है’, अनिल अपने शयनकक्ष के गुसलखाने में खड़ा काँप रहा था और नीचे फ़र्श पर कांता अपनी रक्तरंजित कलाई पकड़ कर लेटी थी । सफेद चेहरा लिए लगभग अचेत ।
बिना अगला पल गँवाए मैंने वहीं से एक तौलिया उठाया और कांता की ओर बढ़ गई। उसकी घायल बाँह मैंने तत्काल उसके दिल की सतह से ऊपर उठाकर अपने कंधे पर टिकायी और उसकी कलाई की दिशा में आ रही उसकी धमनी टटोली और उस पर वह तौलिया कसकर बाँध दिया । ताकि फूट रहे खून का बहाव मंद पड़ जाए । 
मैंने अनिल से कहा, ’हमें कांता को ट्रॉमा सेंटर ले चलना होगा । तुम अपनी मोटर की पिछली सीट पर कांता को लिटा लो । मैं उसे वहाँ सँभाले रहूँगी’…
’अपनी कलाई काटने से पहले कांता को दस बार सोचना चाहिए था ।’ ट्रामा सेंटर के रास्ते की चुप्पी अनिल ने तोड़ी, ‘बच्चे क्या करेंगे? लोग क्या कहेंगे? कॉलेज में मेरी कितनी खिल्ली उड़ेगी? अखबारों में हमारा नाम आएगा? बदनामी होगी? मगर नहीं । मन में जो आया कि उसे मरना ही है, तो उसे मर कर दिखाना भी है…’
’आपको क्यों लगता है कि वह बचेगी नहीं’ लगातार काँप रही कांता की कँपकँपी मैं बढ़ाना नहीं चाहती थी और मैंने अनिल को आगे बोलने से रोक दिया, ’वह बचेगी और जरूर बचेगी । हमें यह समय प्रार्थना और आशा के साथ बिताना चाहिए, गुस्से और डर से नहीं..’।
ट्रामा सेंटर में उस समय तीन डॉक्टर थे । कांता को देखने उनमें से एक ही आगे आया, ’सबसे पहले तो हम चाहेंगे इनकी कलाई पूरी तरह साफ़ की जाए फिर पता लगाना होगा कि उसका घाव कितना गहरा है और क्या कटा है । क्या कुछ तो कलाई के अंदर सिमटा रहता है । कितनी मांसपेशियाँ व नसें ! 10 हड्डियाँ अँगुलियों की ओर जाती हुईं। और दो धमनियाँ जो दिल की ओर से इधर खून उपलब्ध कराती हैं.. रेडिययल व अलपर।’
’मेरी पत्नी बच तो जाएगी न?’अनिल अधीर हो चला । 
’देखते हैं…’
कांता को आई.सी.यू. में भेज दिया गया । 
वहाँ कांता को सामान्य स्थिति में लौटाने में डॉक्टरों ने समय तो बहुत लिया, मगर उनके प्रयास विफल नहीं गए । 
’आप भाग्यशाली हैं,’ अनिल और मैं जब तक जड़ बनकर वहीं आई.सी.यू. के बाहर जमे रहे थे और डॉक्टर ने आकर हमें बधाई दी, ’कलाई की रेडियल नर्व और रेडियल आर्टरी दोनों ही कटने से बच गईं । दूसरी नस जो कटी है, वह सी दी गई है । कट हौरिजैन्टल था । आड़ा चीरा । वार्टिकल नहीं । खड़ा नहीं । अच्छी बात यह हुई कि आप उसे समय से हमारे पास ले आए और वह भी फर्स्ट एड के बाद । वरना बहुत सारा खून बह जाता और हमें खून चढ़ाना पड़ता’..’फर्स्ट एड मैंने दी थी’ मैंने अनिल की ओर विजयी-भाव से देखा, ’जिसे आप झँकवैया कहते हैं…’
’नहीं, मुझे लज्जित मत कीजिए।’ 
अनिल ने मेरी तरफ हाथ जोड़े, ’आप उस समय हमारे घर पर न होतीं तो आज अनर्थ हो जाता’..
उसका खेद व मनस्ताप उसके चेहरे पर स्पष्ट झलक रहा था । 
’एक बात मुझे और कहनी है’ – डॉक्टर ने अनिल की ओर लक्ष्य करते हुए कटाक्ष किया, ’आपकी पत्नी को अपनी कलाई काटने की नौबत नहीं आनी चाहिए थी । न तो वह मानसिक रूग्णा हैं और न ही वह मरना चाहती हैं । मरीज अपने को फँसा हुआ पाकर सहायता माँगता है । अपनी कलाई काट तो लेता है, मगर चतुराई बरत जाता है । अपना औज़ार ज्यादा गहराई में नहीं जाने देता…’
’आप उन्हें छुट्टी कब दे रहे हैं?’ अनिल सकपकाया ।
’उन्हें आप अभी घर ले जा सकते हैं । बेशक अभी उन्हें कुछ दिन आराम तो चाहिए ही होगा ।’
’पार्किंग से अपनी मोटर मैं इधर गेट पर लाता हूँ।’ अनिल को अतिरिक्त लानत- मलामत से छूटने का अच्छा हल सूझा । 
कान्ता को व्हील चेयर पर आई.सी.यू. से बाहर लाया गया । मुझे देखते ही वह रो दी, ’जिंदगी भर आपका बखान करूँगी..’
’कैसा बखान?’मैंने उसका गाल थपथपाया, ’मेरी जगह तुम होतीं तो क्या तुम भी मेरी सहायता न करतीं?’
हिंसाभास, दुर्ग-भेद, रण-मार्ग, आपद-धर्म, रथ-क्षोभ, तल-घर, परख-काल, उत्तर-जीवी, घोड़ा एक पैर, बवंडर, दूसरे दौर में, लचीले फीते, आतिशी शीशा, चाबुक सवार, अनचीता, ऊँची बोली, बाँकी, स्पर्श रेखाएँ आदि कहानी-संग्रह प्रकाशित. संपर्क - dpksh691946@gmail.com

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.