“सुनो, क्या पहनूँ?”

“कुछ भी।”

“सुनो न, मेरा पहला मौक़ा है। मुझे ज़रा भी अंदाज़ा नहीं है। तुम बताओ न प्लीज़।” कीनू ने लाड़ लड़ाते हुए कहा।

“कुछ भी साधारण-सा पहन लो जो आँखों को न चुभे।” महीप ने अख़बार में नज़रें गड़ाए हुए ही जवाब दिया।

“देखो, सभी साड़ियों में चमक है। माँ ने कहा था चमकीले कपड़े नहीं पहनने हैं। सूट न पहन लूँ कोई?” ठुनकती हुई कीनू बोली।

“अरे नहीं बाबा। घर की बहू और वह भी नयी-नवेली। साड़ी ही पहनो।और सुनो..” महीप अटकते हुए बोला, “माँ का दोबारा फ़ोन आया था…सर पर पल्लू ज़रूर ले लेना।”

“हुँह…सब हम ही करें।” कीनू कहना तो बहुत कुछ चाहती थी लेकिन मामले की गम्भीरता समझ उसने अपने विचारों पर लगाम लगायी।

 “अच्छा, न हो तो यह पहन लो।”  महीप ने कोने में रखी साड़ियों में से एक साड़ी छाँटते हुए कहा।

“अरे, अरे…यह तो बाई को देने के लिए अलग रखी थी। दीदी आई थीं तो कह रही थीं इतने फीके रंग न पहना करो। उन्होंने और माँ ने बाई को देने के लिए ये साड़ियाँ अलग रखवायी हैं।” कीनू ने शिकायती लहज़े में कहा।  हुँह,उन्हें कुछ समझ तो है नहीं। पेस्टल शेड्ज़ क ढूँढने में कितनी मशक़्क़त की थी उसने। कितने अरमान थे कि महीप के साथ ये साड़ियाँ पहन कर बाहर जाया करेगी लेकिन हो गया फ़रमान जारी कि नहीं पहनो। बात याद आते ही ग़ुस्सा तो उसे आया लेकिन प्रकट में उसने इतना भर कहा,

“ठीक है…यही पहन लेती हूँ।”

विवाह होते ही कीनू का जीवन कितना बदल गया है ज्यों एक तितली को पकड़कर वापस कोकून में डाल दिया गया हो। परंपराओं के नाम पर एक अदृश्य बोझ सदा उसकी पीठ पर सवार रहता है। कभी-कभी तो उसे लगता है पहनने-ओढ़ने से लेकर खाने-पीने तक, उसकी सारी क्रियाओं की पड़ताल सूक्ष्मदर्शी यंत्र के नीचे की जाती है। जहाँ कहीं कोई कमी दिखाई दी, वहीं टीका-टिप्पणी चालू। कीनू के मन में बहुत-से प्रश्न दौड़ लगाते रहते हैं। किस से पूछे? अपनी माँ से पूछती है तो वह कहती हैं यही रीत है, निभानी पड़ती है। वह सोचती है कब तक निभाना पड़ेगा? अभी तो शुरुआत भर है। क्या उम्र भर! उसकी पड़ोसन संगीता कहती है धीरे-धीरे सब ठीक हो जाता है। अभी वह नयी-नयी है तो सब लोगों का ध्यान उसी पर केंद्रित है। उसकी सहेलियाँ कहती हैं, बदलता कुछ नहीं बस हमें ही आदत पड़ जाती है। वह ख़ुद अभी इनमें से किसी बात के लिए आश्वस्त नहीं। अभी बहुत सी बातें उसे जाननी हैं। उसे मालूम है अंतिम सत्य जैसा कुछ नहीं होता।

“इतना क्या सोचना कीनू। कुछ भी पहन लो।” महीप की आवाज़ आयी। कमाल की बात यह कि महीप के स्वर में हड़बड़ाहट या बेसब्री नहीं थी। ऐसे समय में भी उसने स्वयं को साध रखा है। वह समझता है अभी कीनू के लिए सब नया है और इस कारण वह कई बार बौखला जाती है। उसे सामंजस्य बिठलाने में अभी समय लगेगा। महीप की इसी समझदारी के तो सभी क़ायल हैं। अपने ग़ुस्सैल ख़ानदान में वह अपने सब्र के लिए प्रसिद्ध है। महीप न होता तो यहाँ की आबो-हवा उसे क़तई रास न आती।

“मही..”

“हाँ” कीनू के बदले स्वर को उसने भाँप लिया था।

“तुम ठीक हो न?” महीप की ताईजी लम्बे समय से कैन्सर से जूझ रही थीं। आज अलसुबह उनकी मृत्यु की ख़बर आयी तो घर की नयी बहू को निर्देश देने के लिए के लिए सास और ननद के फ़ोन बजने शुरू हो गए थे। ऐसी अफ़रा-तफ़री मची कि वह दो मिनट महीप के पास नहीं बैठ पायी।

“हाँ कीनू…इतने समय से बीमार थीं वह। यह मृत्यु तो निश्चित थी। जानती हो, सभी लोग चाहते थे कि उन्हें इस पीड़ा से मुक्ति मिले। उनकी स्थिति देखती तो तुम भी यही कहतीं। मृत्यु से अधिक उनका जीवन पीड़ादायक था। मुझे दुःख अवश्य है परन्तु उतना भर जितना होना चाहिए। जीवन में जो घटना तय है, उसके लिए अत्यधिक शोक नहीं किया जाना चाहिए। अभी तक तो मैं यही मानता आया हूँ, बाकी भविष्य बताएगा। कितनी बार हम अपने को मज़बूत समझते हैं, पर हमारी कमज़ोरियाँ ठीक उन्हीं क्षणों में प्रकट होती हैं।” महीप कीनू का हाथ थामे उसे समझा रहा था और कीनू मंत्रमुग्ध हो सुन रही थी।

“अब जल्दी करो। बाक़ी बातें लौट कर करेंगे।”  कीनू की पीठ थपकते हुए महीप बोला।

दो बार साड़ी पहनी पर पहली बार पल्लू छोटा रह गया और दूसरी बार चुन्नटें कम रह गयीं। अंत में महीप की मदद से जल्दी-जल्दी साड़ी लपेट कर कीनू बाहर निकली ही थी कि सास की आवाज़ दिमाग़ के किसी कोने में गूँजी। “दोनों हाथों में चूड़ी ज़रूर पहनना। बाल बाँधना मत भूलना। कहीं बाल खोलकर लटके-झटके दिखलाती वहाँ पहुँच जाओ।” कीनू को उनके बात करने का ढंग कई बार सख़्त नागवार गुज़रता है पर यह कुछ कहने का मौक़ा तो न था। वह झटपट दोबारा भीतर गयी और चूड़ियाँ पहन आयी। अब तो सचमुच देर हो चली थी और उसे डर था कि महीप अपना आपा न खो दे पर वह शांत था। कार में बैठकर वह अपने बाल बाँध रही थी और महीप उसे कनखियों से देख रहा था। शादी के बाद एक-एक कर सबने खाने पर बुलाया था उसके बाद सबसे अब जाकर मिलना होगा। कीनू को तो याद भी नहीं होगा कि किसके पैर छूने हैं, किससे क्या सम्बंध है। माँ होती तो चिंता नहीं थी। थोड़े कड़वे बोल ज़रूर बोलती हैं पर अपनी बहू की जग-हँसाई न होने देतीं। डैशबोर्ड पर समय देखते हुए उसने सोचा, माँ को गाँव से आते-आते दोपहर हो जाएगी। भाभी के पूरे दिन चल रहे हैं सो कुछ दिनों से वहीं हैं।

ताऊजी के यहाँ पहुँचे तो लोगों की भीड़।  जन्म पर भले पहुँचो न पहुँचो पर मृत्यु पर अवश्य पहुँचना चाहिए वाली रीत अब भी सब निभाते हैं। पहले दुःख बाँटने पहुँचते होंगे किंतु अब तो अधिकतर लोग औपचारिकतावश पहुँचते हैं। दुःख तो गिने-चुनों को होता है। उन्हीं को जिनकी डोर मरने वाले से बँधी होती है और डोर टूटने के साथ जीवन का एक दरवाज़ा सदा के लिए उनके आगे बंद हो जाता है। असल बात तो होती है नहीं गए तो लोग क्या कहेंगे! फिर उन्हें भी तो अपनी मृत्यु पर लोगों का जमावड़ा चाहिए। जीवन चाहे जैसा बीता हो, मृत्यु के समय शान में कमी नहीं आनी चाहिए। जितने ज़्यादा लोग होते हैं उतनी ही इज़्ज़त अफ़जाई होती है…मरने वाले की भी और उसके परिवार की भी। और यहाँ तो ताऊजी का रुतबा भी बोल रहा था। कीनू ने देखा ताऊजी के नीचे काम करने वाले उनकी जी हुज़ूरी में जुटे थे। वे तो हाथ बाँधे इसी प्रतीक्षा में थे कि कब उनके सेठ साहब कोई हुक्म करें और वे उसकी तामील करें। यह अवसर छोड़ कैसे दें सेठ साहब को प्रभावित करने का।आख़िर यही मौक़े होते हैं निगाह में चढ़ने के। कोई पीछे न था। सब के सब एक आँवे के!

कीनू की दृष्टि पीछा करते हुए ताऊजी की ओर गयी। वही चिरपरिचित मुस्कान। मुँह में चुरुट दबाए, कलफ़ लगे सफ़ेद धोती-कुर्ते में सबसे ऊँची कुर्सी पर बैठे सबको आवश्यक निर्देश दे रहे थे। आवाज़ में वही दम-ख़म। वह भूल गयी थी कि ऐसी परिस्थिति में भी राजाओं के सिंहासन नहीं डोला करते किंतु शायद ऐसे लोगों को भी याद नहीं रहता कि बादशाहत अढ़ाई दिनों की होती है। व्यक्ति को अंततः मिट्टी में मिलना ही होता है। दुःख की परछाईं खोजने की चाह में उसकी दृष्टि उनकी आँखों तक गयी। पुरुषों को रोते तो उसने यूँ भी कभी नहीं देखा था। वे नहीं जानते आँसुओं का स्पर्श पा आँखें पवित्र हो जाती हैं। किंतु यहाँ तो दुःख भी अनुपस्थित था। आह! किसी का जीवन क्या इतना भारी पड़ने लगता है कि जीवनसंगिनी गयी और वह शोक-संतप्त तक न हो सके। उसे मरने वाली के प्रति सहानुभूति हुई। घर ख़ाली होने पर तो उन्हें अवश्य ताईजी की कमी खटकेगी। कभी-कभी एकदम से हुए बदलाव आदमी चिह्नित नहीं कर पाता।

सोचते हुए वह हॉल तक आ पहुँची। औरतों के बैठने का इंतज़ाम वहीं था। पुरुष घर के बाहर टोलियों में खड़े गप्प हाँक रहे थे। बहुत लोग होने पर भी माहौल में वैसी उदासी न थी। बड़ी-बूढ़ियाँ सोफ़े पर पसरी हुई थीं। बाक़ी औरतें सर पर पल्ला डाले नीचे बैठी थीं। वह ऊहापोह में थी कि उसे क्या करना चाहिए। पहले सब के पाँव छूने चाहिए या चुपचाप बैठ जाना चाहिए। कुछ लोगों को वह पहचान गयी थी। उन्होंने भी उसे देखा। पहचान की गरमाहट के स्थान पर उनकी आँखों में नाप-तौल के भाव उतर आए। वह असहज हो गयी। एसी चालू होने के बावजूद उसे गरमी और घुटन महसूस हुई। केटरर्स सबको पानी सर्व करते घूम रहे थे। उसने पानी का ग्लास उठाया ही था कि एक तीखी आवाज़ सुनाई दी,

“अरी बहू, जाने वाली चली गयी। हम तो अभी ज़िंदा हैं। ज़रा देखकर चलो।”

उसने देखा छोटी चाचीजी आँखें घुमा कर उसी को कह रही हैं। उसका पैर उनके पैर को छू गया था। वह सकपका गयी और ग्लास वापस रखकर उनके चरण स्पर्श किए।

“हाँ, हाँ ख़ुश रहो। हम भी कब से यहाँ बैठे हैं। मजाल है अर्थी उठने से पहले पानी मुँह में डाल लें।”

“नहीं चाचीजी, वो…” कहते-कहते उनकी मुख-मुद्रा देख वह चुप हो गयी।

“चाचीजी, आजकल की लड़कियों में सबर नहीं है।” कलकत्ते वाली भाभी ने मौक़ा देखकर चौक्का जड़ा।

“तू कौन सी कम थी। कतर-ब्योंत कर अब सहने लायक़ हुई है।” चाचीजी ने छक्का जड़ दिया। धीमी फुसफुसाहट भरी हँसी फैली तो सबने आँखें दिखायीं।

कीनू का मन कैसा-कैसा हो आया। यहाँ एक व्यक्ति चला गया, एक स्थान सदा के लिए खाली हो गया और ये स्त्रियाँ मान-अपमान के, स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के फेर में पड़ी हैं।

“अरी बहू, ये क्या रंग पहन आयी। काले-सलेटी रंग न पहने हैं ऐसे में। अब कल से याद रखियो।” एक आवाज़ आयी। कीनू ने चुपचाप गर्दन हिला दी। यहाँ बोलने का कोई लाभ न था।

कीनू की आँखें ज्योति भाभी को तलाश रही थीं। सासू-माँ ने कहा था एक बार उन से ज़रूर मिल लियो। उनकी जेठानी के गुजरने के बाद अब से वही घर की करता-धरता हुईं। उनकी नज़रों में जाते ही एक बार ज़रूर आ जाना।

इतना बड़ा घर, किस से पूछे। महीप भी न जाने कहाँ हैं। तभी एक तेज़ आवाज़ ने उसका ध्यान आकर्षित किया। ज्योति भाभी बाल खोले, सूना ललाट लिए पछाड़े मार रो रही थीं। दो स्त्रियाँ उन्हें पकड़े हुई थीं। कीनू हैरानी से यह दृश्य देख रही थी। यह वही थीं जो उसके रिसेप्शन में सबको कहती फिर रही थीं कि जिस दिन सास जाएगी उस दिन विदेश की एक ट्रिप बुक करेंगी। विवाह के तमाम ताम-झाम के बीच भी वह हैरान हुई थी और आज उनका यह रूप देख वह फिर आश्चर्य से भर उठी। जहाँ ताऊजी और उनके सारे बच्चे संतुलित प्रतीत हो रहे थे वहीं भाभी का यह दिखावा विचित्र प्रतीत हुआ। क्या बहुत-से और उत्तरदायित्वों के बीच रोने का उत्तरदायित्व भी स्त्री को सौंप दिया गया है? भाभी दीवार पर लगभग सर फोड़ने को आतुर थीं। कठिनाई से उन्हें रोका गया था। उन्हें देख बाक़ी सारी आवाज़ें थम गयी थीं।

तभी बाहर से कोई हुक्म लाया कि जल्दी से ताईजी की देह को नहला-धुला कर तैयार कर दिया जाए। समय होने को है। ठहरी हुई साँस जैसे फिर चल पड़ी। चार-पाँच स्त्रियों ने उस कमरे की ओर रूख किया जिसे ताईजी का कमरा कहा जाता था। उन्हीं में से एक ने कीनू को भी ठेल दिया। “चलो, चलो। तुम भी तो घर की बहू ठहरी। चलो भीतर।”

ताईजी का कमरा! कमरा था क्या वह? किसी महल से कम न था। बड़ा सा जहाज़ी पलंग जो ताईजी की सत्ता का आधार रहा होगा अब ख़ाली पड़ा था। पीछे दीवार पर उनकी और ताऊजी की पेंटिंग थी। पेंटर ने उम्र के निशान मिटा दिए थे। निशान मिटते ही अनुभव की लकीरों ने भी साथ छोड़ दिया था। परंतु फिर भी जो बात स्पष्ट थी वह यह कि उनमें से कोई भी ख़ुश नहीं दिख रहा था। वह पेंटिंग उन्हीं की किसी तस्वीर को देखकर बनायी गयी होगी। यह कई बरस पहले की तस्वीर रही होगी किंतु उम्र के उस दौर में भी उनके भाव मुरझाए हुए थे। कुछ सम्बन्धों की उम्र शुरू होते ही छीजने लगती है। वे आरम्भ से ही बूढ़े होते हैं। किंतु अभी बाहर देखे ताऊजी चित्र वाले ताऊजी से भिन्न हैं। क्या ताईजी के जाने पर वह भारमुक्त महसूस कर रहे हैं?

“इनके कपड़े उतारने में मदद करो। दो लोगों से नहीं होगा भई।” बब्बल बुआ किसी को सम्बोधित कर रही थी। चाचीजी की स्थूल देह को हिलाना वाक़ई सरल नहीं था। महीप ने बताया था बहुत वर्षों से उन्हें नहलाने, मालिश करने, उबटन वग़ैरह मलने के लिए तीन अलग-अलग स्त्रियाँ आती थीं। पहले-पहल रुपए-पैसे की ख़ुमारी में शुरू किया गया यह काम बाद में आवश्यकता बन चला था। जो भी हो उनका आधा जीवन किसी महारानी की तरह बीता था। वह तो बाद में बीमारियों में जकड़ गयी थीं। बाथरूम के बाहर बने बड़े से ड्रेसिंग रूम में तौलिया ढूँढती दो स्त्रियाँ हैरानी से उनका साम्राज्य तक रही थीं। सामने पार्टिशन ग्लास पर पर्दा न होने के कारण उनके हाव-भाव दिखाई दे रहे थे,  वे इस से अनभिज्ञ थीं। अथवा मालूम भी हो तो उन्हें लज्जा नहीं आती होगी अपने नंगे कौतूहल का प्रदर्शन करते।  कीनू ने किंचित झुक कर देखा तो उसे भी वह दिखाई दिया जिसे देखकर वे विस्मित रह गयी थीं। साड़ियों और चप्पलों से अटी बड़ी-बड़ी अलमारियाँ। गहनों की जगर-मगर ऐसी कि रात को भी बिजली की ज़रूरत नहीं। स्त्रियाँ जीवन भर इनका संग्रह करती हैं, बाक़ी स्त्रियों में ईर्ष्या का संचार कर प्रसन्न होने का प्रयत्न करती हैं फिर भी प्रसन्न नहीं रहतीं।

उनकी देह धरती पर थी। जीते जी जो जो देह सुख की आदी होती है, मृत्यु होते ही उसके लिए सुख-दुःख का भेद मिट जाता है। उनकी देह के निकट एक चौकी पर उनकी तस्वीर रखी थी जिसमें वह मुस्कुरा रही थीं, ज़बरन घसीटी गयी मुस्कुराहट।  उसने सुना था, उनका चेहरा अधिकतर भावहीन ही रहता था। वह बहुत कम मुस्कराती थीं। तस्वीर के आगे रखे दीपक की लौ तीव्र गति से हिल रही थी।

“आत्मा यहीं विचर रही है। मुक्ति हुई नहीं है अभी।” बड़ी उम्र की एक महिला भेद भरे स्वर में बोलीं।

सबके चेहरे पर एक भय पसर गया।

“इतना सब छोड़ कर आसान नहीं होता भई।”

“सो तो है। उमर लग जाती है संजोते-संजोते। मोह जाते से ही जाएगा।”

“फिर भी बिमला भागों वाली थी। सुहागन गयी है।”

“हाँ भई, ये तो सच्ची कही।” बड़ी चाची की अपनी पीड़ा झाँक रही थी। “मरने से पहले भी राज, मरने के बाद भी।”

ताईजी की देह निर्वस्त्र हो चुकी थी। देह के जिस वैभव पर हम मुग्ध रहते हैं, उसके अवशेष भी वहाँ न थे। जीर्ण-शीर्ण शरीर, अपनी लज्जा के आवरण से बाहर, मिट्टी होने के लिए प्रतीक्षित था। कोई पानी से भारी बालटी रख गया था। बब्बल बुआ ने पानी में हाथ डाला तो चिल्ला पड़ीं। ठंडा पानी! ठंडे पानी से नहायेंगी भाभी। तुम लोगों को ज़रा भी ख़याल नहीं। पाप चढ़ाओगी तुम लोग तो। पाप का नाम सुनकर सब आशंकित हो उठे। पानी लाने वाली को फिर दौड़ाया गया।

व्यक्ति के जीवित रहते मन में पाले हुए मलाल उसके जाते ही धुल जाते हैं अथवा यह भी पाप-पुण्य और आत्मा का भय  है।  सासू माँ ने ज़िक्र किया था कि बब्बल बुआ का बैर है ताईजी से। बरसों हुए, आना-जाना बंद है। बात भी क्या हुई, छोटी-सी। ताईजी का स्वभाव ठहरा गरम। किसी भी परिस्थिति में, किसी के लिए भी बदलना उनको आता ही न था। उन दिनों बुआजी के बेटे के विवाह में ताईजी गयी तो वहाँ पानी को लेकर रोज़ उनकी किसी न किसी से झड़प हो जाती। अब ब्याह का घर ठहरा, आगा-पीछा हो जाता है। हज़ार कामों में अक्सर एक अकेली ताईजी के लिए पानी गरम करना किसको याद रहता, वह भी भरी गरमी में। एक दिन ग़ुस्से में बुआजी पानी में बर्फ़ मिला कर रख गयीं। घर में कोहराम तो मचा ही था तब से बातचीत भी बंद हो गयी थी।

किसी तरह चार औरतों ने मिलकर ताईजी को नहलाया तो चिया दीदी ने एक लहँगा लाकर रख दिया। देखकर सब ठगे रह गए। दुल्हन के लहंगे से कम न था। रेशम के धागों में गुँथा हुआ गोटा-पत्ती का महीन काम…हल्के गुलाबी पर खिलता हुआ। दुपट्टा भी भारी-भरकम। ऐसे मौक़े पर भी सबकी आँखें जुड़ा गयीं।

“होगा तीस-बत्तीस का।”

“अरी नहीं। साठ-सत्तर से कम न होगा।”

“सुहागन मरी है। इतना तो पहनेगी।” काकी ने टहोका दिया। “आगे काहे लग रही है। तुम्हारा भी बखत आएगा।” इस बात पर खी-खी कर बाक़ी स्त्रियाँ हँस पड़ीं।

तभी ज्योति भाभी भीतर आयीं और चिया दीदी को परे हटाकर गहने का बक्सा ले लिया। भाभी अब एकदम संयत थीं। अब वह फिर से घर की ज़िम्मेदार बहू के रोल में आ चुकी थीं। उन्होंने अलमारी की चाबियाँ दीदी के हाथ से ले कमर में खोंसी और बोलीं,

“दीदी ये चाँदी के गहने नहीं जाएँगे। मम्मी जो भी पहनेंगी सोने का पहनेंगी। मैं ऊपर से लेकर आती हूँ।” बात इस तरह कही गयी थी कि बाहर बैठे सभी लोगों को सुनाई दे जाए। चिया दीदी चुपचाप हट गयीं। उनका चेहरा मलिन हो आया। उनका चेहरा इन सब चेहरों से अलग था। सुख-दुःख की जकड़न से दूर अपनी चोट को आप ही चाटता-सहलाता।  चिया दीदी को देख कीनू का मन बुझ गया। इतने बड़े ख़ानदान की बेटी होने पर भी उनके दुःख का पार नहीं है। औरतों में होने वाली गपशप में ही उसने सुना था कि विवाह के दो महीने बाद वह घर आयी थीं। मुरझायी हुईं। दिनों-दिनों कमरे में बंद रही थीं। किसी से बोलती-चालती नहीं। कोई पूछता तो कुछ न बतलातीं। एक दिन जीजाजी लेने आए तो जाने से मना कर दिया। सब कारण पूछ-पूछ कर थक गए पर किसी से कुछ न कहा। फिर बहुत पूछने पर ज्योति भाभी से ही रोते-रोते कहा था कि पति हर रात ज़बरदस्ती करता है। अब ऐसी बात! घर के जवाईं से पूछें तो भी कैसे पूछें। घुमा-फिरा कर उनसे पूछा गया तो उनका दो टूक उत्तर था जब औरत ठंडी हो तो मरद क्या करेगा। यही ज्योति भाभी थीं जिन्होंने कहा था यह तो हर औरत को झेलना पड़ता है। इसमें मुँह बिसूरने वाली क्या बात है। पति को ख़ुश रखोगी, खुल कर साथ दोगी तो यह नौबत ही नहीं आएगी।  चिया दीदी तभी अलग होना चाहती थीं लेकिन परिवार की इज़्ज़त का भय दिखाकर उन्हें उसी नरक में झोंक दिया गया। रुपया-पैसा होने से ही तो समझ नहीं बढ़ती।

उधर ऐसी बहू पर सब लोग निहाल हो गए। चाँदी के गहने पहनाती तो उसी का फ़ायदा था लेकिन भली औरत ने फ़ायदा-नुक़सान न सोचा। सास से ऐसा प्रेम कहाँ देखने मिलता है आजकल!

सब लोग ज्योति भाभी की तारीफ़ में व्यस्त हो गए कि धीरे से एक आवाज़ आयी,

“अभी तो भाई साहब बैठे हैं। उनका डर बाक़ी है ज्योति के मन में। जो हीरे-मोती में खेली हो, उसे चाँदी के गहनों  में विदा नहीं होने देंगे।”

तभी चाचीजी ने धीरे से राज फ़ाश किया।

“न,न यह बात नहीं है। रुपए-पैसे की तो कमी है न। सब जाने हैं। बहू ने भाभी के जीते जी इतना दुखी किया है अब उसी का भुगतान भर रही है। सीधी न समझियो ज्योति को। उसे पता है, मुक्ति न भई तो जो सबक़ इसे भाभी तब नहीं दे पायी, अब दे देंगी।” ताईजी की सबसे छोटी देवरानी बोली। “थोड़ी देर पहले पंडित से खुसुर-फुसुर करते हमने सुनी थी।”

“वही तो मैं सोचूँ ज्योति इतनी नेक कब से हो गयी। अरे हमने भी देखी है इसकी कारस्तनियाँ। भाभी बेहोश होती तो यही ज्योति इन्हें जूता सुँघाती थी। अपने मन की साध पूरी कर लेती थी।” बड़ी बुआजी की आवाज़ पहली बार निकली।

“हाँ,तो ताईजी भी कम नहीं थीं मामीजी। शादी के बाद ज्योति भाभी को ख़ूब तंग किया है।” इस बार आवाज़ बहुओं की टोली से आयी।

“वो तो हर सास का हक़ ठहरा। उस पर क्या तुम जूते मारोगी हम लोगन को।”

“पुरानी बातों पर मिट्टी डालो री तुम लोग। ये भी कोई मौक़ा है ऐसी बातों का।” माहौल गरम होता देख फिर एक आवाज़ आयी।

“हटो,हटो। हाँ, यहाँ से आइए।” मुक्ता दो लड़कियों को रास्ता दिखाते ला रही थी।

“ये कौन को ले आयी मुक्ता? सभी घर की औरतें हैं यहाँ। और तू भी बाहर जा। बच्चों का कोई काम न है भीतर।”

“दादी ये पार्लर वाली हैं। बड़ी दादी को तैयार करने आयी हैं।”

“कौन बड़ी दादी?” क्षण भर बाद ही बात समझ आयी तो सबकी आँखें फैल गयीं। ऐसी बात तो देखी न सुनी।

ज्योति भाभी की पुकार हुई। ज्योति नया-नकोर मेकअप बॉक्स और सोने के गहने लेती आयी थी।

“बहू, भाभी को क्या बाहर की औरतें तैयार करेंगीं।? ऐसा अपने ख़ानदान में नहीं होता।”

“छोटी चाची आप तो जानो हो मम्मी जी को तैयार होने का कैसा शौक़ था। हम लोग उन्हें उस तरह तैयार थोड़े ही कर पाएँगे। बाहर के देशों में तो कब से ऐसा होता आया है, अब अपने देश में भी होने लगा है। ये लोग इस तरह तैयार करेंगीं कि गरमी में देर तक इनका मेकअप टिकेगा। और, और बदबू भी न आएगी।” भाभी कुछ हिचकते हुए बोली।

“तेरी मर्ज़ी है बहू। हम क्या बोल सकते हैं।” छोटी चाची ने हार मानते हुए कहा।

“आप चिंता मत करो। रस्म तो आप लोग ही पूरी करोगे। ऊपर से लाली और काजल फेर देना। हो गया काम।” कहकर वह चलती बनीं।  भाभी के इस क़दम पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ आ रही थीं। कोई ताईजी के भाग्य से ईर्ष्या कर रही थी जिन्हें मृत्यु के बाद भी इतनी सुविधाएँ उनकी बहू दे रही थी तो कोई ज्योति भाभी की नीयत पर शक।

बहरहाल, ताईजी को तैयार करने की प्रक्रिया शुरू हो गयी थी। किसी तरह उन्हें उठाकर ब्लाउज़ पहनाया गया तो मालूम हुआ ब्लाउज़ छोटा पड़ गया है।

“एक बात है, अंत समय तक भाभी की ताज़गी में कमी न आयी।ऐसी बीमारी भी कुछ न बिगाड़ पायी।” दबे स्वर में हँसते हुए छोटी चाची बोली।

अब क्या किया जाए। चिया दीदी को आवाज़ लगायी गयी कि दूसरा ब्लाउज़ ले आएँ पर उन्होंने अबकी बार ज्योति भाभी से पूछे बिना कुछ भी करने को साफ़ मना कर दिया। तभी बुआजी की निगाह कीनू पर पड़ी,

“इतनी देर से यहाँ खड़ी है। जा, दूसरा ब्लाउज़ ले आ।” उन्होंने ज्योति भाभी के क़हर से बचने के लिए काम कीनू पर डाल दिया।

“पर मैं…”

“हाँ, क्यों तेरे हाथ-पाँव में मेहंदी लगी है क्या बन्नो। जा, दौड़ कर जा।

“छोड़ो न बुआ। ये आजकल की छोरियाँ बस अपने मरद के काम करती हैं। परिवार से इनका क्या वास्ता।”

कीनू के कान अपमान और शर्म से जल उठे। वह वहाँ से निकलने को ही थी कि कोई उसके हाथ में सुई-धागा पकड़ा गया।

“ज्योति भाभी ने कही है मैचिंग ब्लाउज़ ही पहनाना है।”

किसी तरह ब्लाउज़ वापस उतारा गया और कीनू को उसके सिलाई खोलने के लिए पकड़ा दिया। कीनू ज़ोर आज़माइश कर सिलाई उधेड़ने लगी। बीच-बीच में होने वाली चिल्ल-पौं उसका ध्यान भटका रही थी। बहस कभी लिप्स्टिक के रंग पर छिड़ती तो कभी माथे पर के जड़ाऊ बोरले पर। बाक़ी सबका कहना था माथापट्टी पहनाई जाए लेकिन बुआजी की सुई बोरले पर अटकी थी। मशवरों के बाद अंत में बात माँग टीके पर जाकर तय हुई।

ख़ैर जैसे-तैसे चेहरे की साज-सज्जा हुई तो बारी आयी बालों की।

“बाल तो चूँदड़ी ढक लेगी। बालों को छेड़ने की ज़रूरत नहीं।”

लेकिन मेकअप करने वाली अड़ गयीं कि ज्योति भाभी के स्पष्ट निर्देश हैं जूड़ा बनेगा। कोई कमी नहीं रहनी चाहिए नहीं तो पूरा भुगतान नहीं किया जाएगा।  ख़ैर, किसी तरह बालों का जूड़ा बनाया गया। उसमें मोगरे की वेणी लपेटी गयी। ऊपर से गुलाब का फूल खोंसा गया। तब तक किसी ने कीनू के हाथ से ब्लाउज़ छीन लिया था। वह पहनाया गया और ऊपर से चूनर डाल दी गयी। सबके चेहरे पर ताईजी का यह रूप देखकर संतुष्टि थी। ताईजी अंतिम यात्रा के लिए तैयार थीं कि ज्योति भाभी फ़ोन पर बात करती हुईं भीतर आयीं। उनके चेहरे पर गम्भीरता थी। हाँ-हूँ में जवाब देते हुए उनके चेहरे पर दुविधा दिखाई दे रही थी। फ़ोन रखकर उन्होंने सरसरी तौर पर ताईजी का मुआयना किया। वह भी संतुष्ट दिखाई दीं। फिर साज-सज्जा वाली लड़कियों में से एक के कान में धीरे से कुछ कहा। सुनते ही वह बिदक गयी।

“सॉरी मैम, यह हमारा काम नहीं है।”

“क्या हुआ बहू? कोई कमी रह गयी तो हमें बता।” काकी की आवाज़ आयी।

“काकी पंडित जी की औरत का फ़ोन आया रहा। कह रही थी आटे की लोई लगाना मत भूलना।”

“हाय राम, देखो हो गई न चूक। बहू तुम्हारा सारा ध्यान तो ऊपरी टीम-टाम में था। ज़रूरी बातें तुम्हें याद नहीं रहतीं। तुम्हारी इस चूक की क़ीमत बेचारी को भुगतनी पड़ती।” ज्योति भाभी इस बार चुप रह गयीं। उनसे पलट कर जवाब देते नहीं बना। इस बार ग़लती उनकी जो थी। कीनू कुछ समझ नहीं पा रही थी कि अचानक क्या हो गया। सबकी पेशानी पर बल क्यों हैं? उसने ताईजी पर एक दृष्टि डाली। जीवित लोग भी इतना ताम-झाम नहीं करते जितना ज्योति भाभी यहाँ करवा रही हैं। तो फिर अब क्या रह गया जो इतनी हाय-तौबा मच रही है।

उसने पास बैठी चिया दीदी को देखा। उनसे पूछना निरापद रहेगा। वह कम से कम बाक़ी लोगों की तरह उलाहने तो नहीं देंगी। उसने धीरे से उनसे पूछा। चिया दीदी ने उसे ध्यान से देखा। उनकी दृष्टि में उपहास नहीं था, बेचारगी थी।

“हिंदू धर्म में मृत देह के सारे छिद्रों को बंद किया जाना आवश्यक है। इसमें स्त्री की योनि भी शामिल है। हमारे यहाँ एक और बात कही जाती है कि स्त्री की योनि को अगर बंद नहीं किया गया तो उसकी आत्मा का पुरुष प्रेतात्माओं द्वारा बलात्कार किया जा सकता है। इसीलिए उसे बचाने के लिए…”कहते हुए उन्होंने अपनी बात अधूरी छोड़ दी थी।

“जीवित स्त्री को बचाने के लिए हमारे शास्त्रों में कोई विधान नहीं है क्या?” अचरज से भरी कीनू के मुँह से निकल पड़ा। स्त्री मरने से पहले भी देह होती है और मृत्यु के पश्चात भी अपनी देह से नहीं छूट पाती है।

चिया दीदी ने सहम कर कीनू को देखा। उन्हें लगता था कि कीनू घर में नयी है। शायद उसे मालूम न होगा किंतु बड़े परिवारों में खिड़कियाँ सदा खुली रहती हैं जहाँ से एक-दूसरे के घरों में आसानी से झाँका जा सकता है। इस एक वाक्य ने उनके मन में हलचल कर दी। वह एकटक उस ओर देखती रहीं जहाँ मृत्यु के कर्मकांड हो रहे थे। मुक्ता आटा लाकर रख गयी थी और बड़ी बुआ उसमें थोड़ा-थोड़ा पानी डालकर उसन रही थीं। सब औरतें दबे स्वर में ज्योति भाभी की लापरवाही की चर्चा कर रही थीं। आख़िर किसी बात पर तो उन पर सीधे अंगुली उठाने का मौक़ा मिला। सब को बतरस का असल आनंद अब जाकर मिला था। आख़िर यह भूल छोटी-मोटी थोड़ी न थी। “कहीं ताईजी यूँ ही चिता पर चली गयी होतीं तो!” सुनीता भाभी की महीन आवाज़ आयी। स्त्री की देह का अधिकारी मात्र उसका पुरुष है। मृत्यु के बाद भी उसका स्पर्श कोई और करे लोग इसकी कल्पना नहीं कर पाते हैं।

“तो क्या? तो वह मुक़ाबला करतीं। आप कब तक बचाएँगे किसी को? और सच कहना क्या आप बचा पाते हैं किसी को भी? बचाने के नाम पर स्त्रियों की हर पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी को सिमट कर रहना सिखाती है। सारा जीवन ऐसे ही निकल जाता है और आप लोगों ने तो मृत्यु के बाद भी सारी तैयारी कर रखी है।  परम्पराओं के नाम पर जो स्त्री आप गढ़ते हो, क्या मरने के बाद भी वह उन्हीं में जकड़ी रहेगी? औरत की कमज़ोर छवि आपको दिखाई पड़ती है। लेकिन कमज़ोर समझते हुए भी आप सब जाने-अनजाने पहाड़ जैसे दुःख उस पर लाद देते हो। यह कैसा विरोधाभास है?” सदा चुप रहने वाली चिया दीदी अचानक उठी और आटे की थाली उठाकर फेंक दी। सब भौंचक्के थे कि चिया के मुँह में ज़ुबान कैसे उग आयी…वह भी ऐसे वक़्त पर। ज्योति भाभी सोने की करधनी लेकर आयीं थीं। चिया की आवाज़ सुनकर स्तंभित रह गयीं। लो, इतना किया-धरा सब मिट्टी में। सब जगह अब इसी बात की चर्चा होगी। उनकी बात अब कोई नहीं करेगा। चोट इतनी गहरी थी कि इस बार वह सचमुच रोने को हो आयीं।

“न इनको सुरक्षा की ज़रूरत है, न मुझे। समझ लीजिए आप सब। और हाँ,  मैं वापस नहीं जाऊँगी। यह घर मेरा भी है।” ज्योति भाभी की आँखों में आँखें डाल चिया दीदी ने दृढ़ता से कहा। “माँ अपनी अंतिम यात्रा के लिए तैयार हैं। ले चलिए इन्हें।” कीनू ने आगे बढ़कर चिया दीदी का हाथ थाम लिया। इतनी सारी मिथ्या बातों में अंततः उसने एक सत्य उद्घाटित किया था और यह सत्य सुंदर था।

दिव्या विजय हिंदी की चर्चित युवा कहानीकार हैं. हंस, नया ज्ञानोदय, कथादेश आदि हिंदी की सभी प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में इनकी कहानियाँ प्रकाशित होती रही हैं. दो कहानी संग्रह 'अलगोज़े की धुन पर' और 'सगबग मन' प्रकाशित हो चुके हैं. संपर्क - divya_vijay2011@yahoo.com

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