Thursday, May 16, 2024
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डॉ. गरिमा संजय दुबे की कहानी – और रबाब बजता रहा…!

“इल्म हुनर  की दुनिया के कुछ उसूल होते हैं, और फिर यह हुनर मौसिकी का हो तो वह उसूल और कड़े हो जाते हैं। एक भी बात मौसिकी के हुनरमंदों की ज़बान से बेवजह नहीं निकलनी चाहिए, निकले तो मौसिकी वरना कुछ नहीं, मौसिकी ख़ुदा की वो नियामत है इस जहाँन को जिसका कोई तोड़ नहीं,  ख़ुदा की इबादत है, अज़ान सी पाकीज़ा है मौसिकी”, वे अपनी खराश भरी आवाज़ में जब कहते तो सुनने वालों को लगता जैसे कोई दरवेश बोल रहा हो  
पिछले बीस दिन से वह दरवेश खामोश है, और साथ ही खामोश है उस घर का हर शख़्स, शरीर से ज्यादा मन थक गया हैदवा दारू कहाँ से लाएं, और लेने जाए कौन, बाहर के जो हालात हैं उसमें तो घर से निकलते ही कत्ल हो जाने के आसार हैं | घर में भी कब तक ज़िंदा रहेंगें कोई नहीं जानता, भूखे भेड़ियों की तरह ढूंढ रहे हैं दरिंदे |  जिस मौसिकी को वो ख़ुदा मानते रहे, सुना है उनकी नज़र में हराम है | ऐसे हुनर मंदोंफ़नकारों को ढूंढ ढूंढ कर कतल किया जा रहा है
उनकी उंगलियाँ अकड़ने लगी हैं, दिनभर रबाब पर थिरकती उंगलियों के लिए तो वही रक्त था, वही जीवन। गुनगुनाने को होंठ फड़कते, उंगलियों को चलाते रहते, जैसे अपना साज़ बजा रहे हों, एक लम्हा जिसके बिना नहीं रहते थे, वह उनसे दूर है |
एक लोक कलाकार जो रबाब बजा कर, गा कर  अपनी मिट्टी की सुगंध को ज़िंदा रखे था, उसके हुनर के दीवाने कम थे, अपने बेटे को भी तैयार कर रहे थे वे कि तभी जलजला गया, जैसे अचानक किसी ने काला रंग फेंक दिया हो सपनो के सुनहरे केन्वस पर। 
छुपा दिया है, रबाब को उन्होंने तहखाने में, अपने शागिर्द बेटे को भी सख्त हिदायत दे दी है कि उसे छेड़े, उधर एक तार बजा नहीं कि कयामत जायेगी | बीबी की कातर निगाहें वे सह नहीं पाते, बीबी  रेडियो अनाउंसर है,  है नहीं थीं | उनकी लोक कला के कई शो रेडियो से होते रहे हैं, लेकिन अब कैद में हैं, काम करने की मनाही हो गई है |
तीनों अपने घर में दुबके हुए हैं, बाहर कभी गुजरती गाड़ियों का शोर है तो, कभी गोलियों की आवाज़ , वतन छोड़ कर नहीं जाना है” यह तय कर लिया है | बीबी बहुत रोई, बच्चे की दुहाई दी लेकिन कहाँ जाएं, जब अपने वतन में पनाह नहीं तो कहीं और जाकर भी क्या हासिल”वे नहीं जा रहे हैं, जो हो यहीं हो | 
लेकिन अकड़ती उंगलियों का क्या करें, वे उठे और गरम पानी से भरे जग में हाथ डाला, बीबी ने गरम तेल उठाकर बेटे को दिया बेटे ने अपने वालिद और उस्ताद के हाथ को चूम कर उसपर हौले हौले मसाज करना शुरू की। 
वे बोल उठे, “इस मसाज से क्या होना है, मेरी उंगलियों की जान तो उस तहखाने में बंद है“,  बीबी और बेटे दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखाजैसे कह रहें हों 
उंगलियों की ही नहीं उनकी जान भी उस तहखाने में बंद है
बीबी ने बावर्चीखाने में जाकर देखा, बेटे के रबाब शो में शामिल होने की खुशी में नान, चिकन, अफगानी पुलाव, मंटू बनाये थे, शोरबा भी, खा सके
एक थाली में सब लेकर दस्तरखान पर रख, दोनों को इशारा किया, बेमन से चुपचाप वे आकर बैठ गए, बिस्मिल्लाह करके कुछ निवाले पानी के साथ उतारे और फिर कोने में दुबक गए
डर इंसान की भूख प्यास नींद सब छीन लेता है | 
बीबी ने हिसाब लगाया दस दिन का खाना पानी है, फिर…. 
वह करूण हँसी हँस दी, “लेकिन क्या दस दिन की ज़िंदगी बाकी है”? 
उसे यूँ हँसते देख बाप बेटे दोनों ने चौँक कर देखा, तीनों की नज़रों में ऐसी बेचारगी थी कि कोई पीट भी दे और रोने भी दे, होंठो पर मुस्कुराहट लाने की बेबस कोशिश, लेकिन नाकाम… 
क्या होगा, किसी को पता नहीं था, सांय सांय करती घाटियाँ रात में और भयावह हो जाती, लेकिन पहले ऐसी ही रातों में तो उनके रबाब के तार समा बांध देते थे | अब  वीराना है, है तो बस गोलियों की आवाज़ें और चीखें, उनका मन करता कि इतनी जोर से रबाब् बजाऊँ,गाऊँ कि यह गोलियों और चीखों का शोर थम जाए, उनकी मौसिकी शायद पत्थर पड़ चुके दिलों के तार छेड़ दे | इस दोज़ख होती दुनिया को अगर जन्नत बनाना है तो मौसिकी से ही हासील होगा | फ़न  और फ़नकार, अदब  से ही बचेगी कायनात, लेकिन यह बस एक ख़्वाब ही था जो वो रोज़ देखते, खुली आँखों से | 
दिन में कई बार धीरे से जाकर रबाब को छू कर आते, शक्ल और आँखों की मायूसी सबसे छुपाते, बेटा भी  अब्बा की नजर बचा नीचे जा अपने प्रिय साज़ को छूकर, उसको चूमकर, मायूस हो वापस चला आता, बार बार पीछे मुड़ मुड़ कर देखता, मन करता कोई कह दे अभी बजाने को… लेकिन वहाँ कोई नहीं होता |
नींद कभी लगती तो तीनों को नींद में अपने साज़  की आवाज़ ही आती, नींद में ही वे मुस्कुरा उठते, अगर कोई जाग रहा होता तो सोने वाले के चेहरे पर पसरती मुस्कुराहट से समझ जाता कि वह सपने में क्या देख सुन रहा है |
सच ही तो था उनकी ज़िंदगी की मुस्कुराहटें अब सपना ही तो हो गईं हैं, सपने मे आती हैं और खो जाती हैं | 
दिन दिन कमज़ोरी बढ़ती जा रही थी सबकी, कमज़ोरी में ही नींद ने जकड़ लियातीनों एक दूसरे से लिपट कर पड़े रहते थे |
नींद कभी कभी वक्त और हालात से गाफ़िल कर देती है, यूँ भी इतने दिनों के डर ने मानसीक स्थिति को बिगाड़ के रखा था | गहरी नींद से चौंक कर जागा बच्चा भूल ही गया कि उसे रबाब छूने से मना किया है, वैसी ही गाफ़िल हालत में पूरे घर में रबाब ढूंढने लगा | आधी नींद आधे  जागे हाल में उसे अपने वालिद के साथ के दृश्य दिखने लगे, कभी रेडियो स्टेशन तो कभी कोई महफिल, जाने कैसी गड्ड  मड्ड  होती धुंधली तस्वीरों में उसने अब्बू को रबाब को नीचे तहखाने में छुपाते देखा, यंत्रवत वह आधी नींद में सीढियाँ उतर कर रबाब के पास पहुँच गया, जाते ही रबाब से लिपट गया, खुशी से रोने लगा, रबाब हाथ में ले उपर वाले का शुक्रिया अदा कर, साज़ को इज़्ज़त अता कर उसने तार छेड़ दिए, रबाब अपने सुर बिखेरने लगा | 
जैसे ही वालिद और वालिदा के कानों में स्वर पड़े, पहले तो वे उस धुन में मगन हो गए, फिर जैसे किसी ने थप्पड़ मार कर उठाया हो, हड़बड़ा कर उठे और तेज दौड़ लगाते हुए तहखाने तक पहुँचे, देखा तो बेटा रबाब बजा रहा है, उनकी आँखों से आँसूं बह निकले समझ नहीं रहा था कि खुश हो या मातम मनाएं, लेकिन तभी चीखे,बजाना बंद करो, मारे जायेंगें सब”, बच्चे ने निरीह दृष्टि से पिता को देखाजाने क्या था उस दृष्टि में कि वे खुद रबाब ले उसे बजाने लगे, मरना तो है ही तो क्यों अपने फ़न के साथ मरूँ”, दोनों को इर्द गिर्द बिठाया और अपनी अकड़ती उंगलियों से तार छेड़ दिए, तार छूते ही उंगलियों में जान आ गई, धुन छेड़ दी उन्होंने  | 
 रबाब के स्वर हवाओं में घुल कर दरिंदों के कानों तक पहुँच गए थे, धड़ धड़ करते दरवाजे तोड़ते वे घर में दाखिल हो चुके थे, माँ बेटा थर थर कांपते हुए एक दूसरे से लिपट गएलेकिन वे हिले डरे, उनके चेहरे पर बुद्ध सी शांति थी, फ़न और मौसिकी की ताकत वो जानते थे, मानते थे कि पत्थर भी पिघला देते हैं यह सुर, सुना था उन्होंने सुदूर हिंदुस्तान में हुआ था कोई फ़नकार, जिसके गाने से दीप जल उठते थे, तो कभी बादल बरस पड़ते थे | जब कुदरत पर यह असर है मौसिकी का तो इंसानों पर नहीं होगा क्या, वे बजाते रहे |
बंदूके लहराते घुसे दरिंदों ने उनके चेहरे की शांति और बहते हुए आँसू देखे तो एकदम ठिठक गए, चेहरे का असर था या  असर- ए- मौसिकी कि उनके हाथ से बंदूकें गिर गईं, वे वहीं बैठ कर उस धुन को सुनते रहे, सुनते रहे | 
ये सच था या ख़्वाब, नहीं पता |
लेकिन आँसूं से भरी उनकी आँखे इसी नज़ारे को देख रही थीं | 
हाँ, ख़्वाब ही था, जो अपनी आखिरी फ़नकारी के वक्त उनकी आँखों में दमक रहा था | फ़न, हुनर मौसिकी के असर से बंदूकें गिरने लगेंगी किसी दिन, कितने दिन खून बहाएगा इंसान एक दिन थककर मौसिकी की पनाह में आएगाजरूर आएगा। वे तीनों वहीं सो चुके थे |
कैसे सोए थे, या सुला दिए गए थे ?
आसपास वालों ने दरवाजे की दरारों से देखा,
 दरिंदे,अट्टहास करते  वहाँ से निकल ही रहे थे कि रबाब फिर बज उठावे ठिठके, एक दूसरे का मुँह देख फिर लौट पड़े | देखते क्या हैं 
रबाब के उपर  पड़े उस दरवेश जैसे दिखने वाले शख़्स की उंगलियाँ उस पर थिरक रही थीं, मरते मरते भी रबाब के तारों को सहला रही थीं |
एक गोली और उन पर,  रबाब पर दागी गई और सब खत्म |
लेकिन जाने कैसे रबाब से आती आवाज़ें बंद नहीं हो रही थी, वे दरिंदे गोली पर गोली चला रहे थे, हवा में, चारो तरफ लेकिन रबाब के स्वर बंद नहीं हो रहे थे, जैसे कोई उनके कानों में सुर बनके उतर गया  था, वे थक गए और कानों पर हाथ रखकर चिल्लाते हुए भागे |
लेकिन रबाब बजता रहा, कहते हैं तबसे हर रोज जब भी कोई दरिंदा उस तरफ से गोली चलाता गुजरता है तो उस रबाब के स्वर पूरी घाटी में गूंजने लगते हैं, और तब तक गूँजते रहते हैं जब तक बंदूकें खामोश नहीं हो जाती | 
उस दरवेश की रूह जैसे रबाब बन गई थी,
रूह का रबाब बजता  रहता  है, जैसे यह पैगाम दे रहा हो कि 
“जिस्म फ़ानी हो भले मगर, रूह- ए- मौसिकी नहीं, 
फ़ना होकर भी मौजूद हूँ, दिलों में असर के लिए” |
(रबाब : अफगानी वाद्य यंत्र)
डॉ. गरिमा संजय दुबे
डॉ. गरिमा संजय दुबे
सहायक प्राध्यापक , अंग्रेजी साहित्य , बचपन से पठन पाठन , लेखन में रूचि , गत 8 वर्षों से लेखन में सक्रीय , कई कहानियाँ , व्यंग्य , कवितायें व लघुकथा , समसामयिक लेख , समीक्षा नईदुनिया, जागरण , पत्रिका , हरिभूमि , दैनिक भास्कर , फेमिना , अहा ज़िन्दगी, आदि पात्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। संपर्क - garima.dubey108@gmail.com
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