Friday, May 17, 2024
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सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा की दो लघुकथाएँ

1 – दूसरे जैसा
“बड़ी गुमसुम सी लग रही हो ।”
“नहीं तो !”
“झूठ मत बोलो ।”
“तुमने उस शक्स की बात सुनी ।”
“किस शख्स की ?”
“अरे वो जो अभी अभी यहां से गया है !”
“सुनी तो नहीं पर क्या कहा उसने ?”
उसने कहा , “तुम तो बहुत सुन्दर लड़की हो बिल्कुल मेरे जैसी ।”
मैंने उसे अजीब नजरों से देखा तो वो बोला, “मेरा मतलब है कि मैं इस धरती पर अगर लड़की के रूप में जन्म लेती तो बिल्कुल तुम्हारे जैसी ही सुन्दर होती।”
“उसका कहने का मतलब था कि वो लड़का है और सुन्दर है ।”
“करेक्ट।”
“तुमने उसे कुछ नहीं कहा ? “
“कहना तो चाहती थी पर कहा कुछ नहीं।”
“क्यों ?”
“मेरी बात सुनकर वो उदास हो जाता।”
“तुम एसा क्या कह देतीं कि वो उदास हो जाता।”
“क्योंकि सौंदर्य कभी अपनी सुन्दरता का बखान नहीं करता और न ही कभी वो अपनी सुन्दरता की तुलना किसी दूसरे की सुन्दरता से करता है।”
“मतलब ? “
“मतलब ये मेरी जान कि इस स्रष्टि में हर कोई अपने जैसा वो एक ही है और उसे किसी और के जैसा कोई नहीं बना सकता।”
“तेरी बात ठीक है। सच में वो तेरी बात सुनकर उदास हो जाता । “
2 – कसक
दिन ढले काफी देर हो चुकी थी ।
शाम, रात की बाहों में सिमटने को मजबूर थी और वो कमरे में अकेला था । सोफे का इस्तमाल बैड की तरह कर लिया था उसने । आदतन अपने मोबाईल पर पुरानी फिल्मों के गाने सुनकर गहराती शाम के अन्धेरे में उसे मासूमियत पसरी सी लगी । वो उन गानों के सुरीलेपन के बीच अपने तल्ख हुए सुरीले अतीत में खो गया । मस्तिष्क के कोटरो में वे कोमल और संगीतमय पल फिर से जीवन्त हो उठे जो उसने , उसके साथ पूरे समर्पण भाव से गुजारे थे । वो बड़ी शिद्दत से उसकी क्रिया पर अपनी ओर से सकारत्मक और ह्रदय में उतर जाने वाली प्रतिक्रिया देती थी । उन दिनो उसे कभी लगता ही नहीं था कि जीवन में वो उससे कभी अलग भी हो सकती है ।
कहते हैं न कि समय कभी स्थिर रह पाता तो फिर प्रकृति के काल चक्र को हर कोई अपनी मुट्ठियों में ही कैद करके बैठ जाता ।
हालात कुछ एसे बने कि उसकी लाख मिनतों के बाद भी वो उससे अलग हो गई और एसी अलग हुई कि फिर उसने कभी वापस मुड़कर उसकी तरफ नहीं देखा।
वो जल बिन मछली की तरह छटपटा कर रह गया ।
समय के साथ भले ही उसकी छपटाहट में कुछ कमी आ गयी पर अलगाव के इतने सारे साल बीत जाने के बाद भी उसे बहुत बार लगता कि बीते हुए ये साल उसके जहन पर परत दर परत किसी बोझ में ही बदलते रहे हैं । इसलिये जब कभी वो जिन्दगी की भागमभाग से हट कर अपने करीब आता तो खुद को फिर उसी के करीब पाता । उसके अन्दर का कण-कण उससे मिलने या कम से कम उससे बात करने के लिये बेताब हो जाता , जबकि वो जानता था कि इसमें से कुछ भी मुमकिन नहीं है । वो बड़ी कसक के साथ अपने आप से पूछता , ” कभी – कभी समय अगर बेहद सुरीला या और संगीतमय होता है तो वही समय खुद को बदल कर इतना बेसुरा और कटु कैसे हो जाता है ! “
उसके पास उसके खुद के सवाल , फिर से सवाल बन कर उससे ही टकरा जाते ।
आज की शाम , जो रात की तरफ पहले ही बढ़ चुकी थी और पुराने गानों की धुन से उसे नहला भी चुकी थी , ने उसके ह्रदय को कसक बनकर ,एक बार फिर से छू दिया । उसने मोबाईल में से मेसेज वाला आपशन निकाल कर उसका नम्बर निकाला और लिखा , ” ये आदमी तुम्हें जीवन की अन्तिम सांस तक वैसे ही याद करता रहेगा जैसे कभी तुम किया करती थीं । “
उसने लिख तो दिया पर जब उसकी अंगुलियां ओ.के. वाले बटन की तरफ बढ़ी तो ठिठक गयीं ।
उसने मोबाईल का मैसेज बाक्स हटाया और कमरे में घिर आये अन्धेरे को उजाले में बदलने के लिये बिजली के स्विच की तरफ अपने हाथ को बढ़ा दिया ।
कमरे में अब फिर से रोशनी फैल गई। उसने देखा कमरे में टंगे कलंडर की तस्वीर में समुंदर के किनारे खड़ा बच्चा दूर क्षितिज को देखते हुए मुस्कुरा रहा था ।
तस्वीर में खड़े बच्चे को देख कर उसकी इच्छा हुई कि उसे भी मुस्कुराना चाहिये ।
उसकी नजर अपनी हथेलियों पर गई । वहां कुछ लकीरें हमेशा की तरह अब भी स्थिर थीं ।
अब वो मुस्कुरा रहा था।

सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
संपर्क – surendrakarora1951@gmail.com
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