6 अप्रैल 1985
‘‘सोरुप कोथाय आछो बाबा?’’ माँ का स्वर हवा .में तैरते हुए स्वरुप के कानों में जा पहुंचा। स्वरुप मगन होकर उस समय माँ की लिपिस्टक से अपने होंठ रंग चुका था और माथे पर बिंदी लगा चुका था। आवाज सुनते ही उसने लिपिस्टिक ड्रेसिंग टेबल पर रखी और जल्दी-जल्दी पास पड़े कपड़े से होंठ का रंग छुड़ाने लगा। तब तक माँ सीढ़ियाँ चढ़ते अपने कमरे में आ पहुँची।
‘‘ओ बाबा इस लड़के का हाल देखो, हमेशा लड़कियों की तरह सजता रहता है।’’ माँ बड़े जोर से गुस्सा पड़ीं। लेकिन स्वरुप सुनने के लिये था ही कहां?
वह दो-दो सीढ़ियां फलांगता हुआ सड़क पर जा पहुँचा था। बड़बड़ाती मां कमरा ठीक करने लगी। अचानक पलंग पर पड़ी साड़ी नजर आई। दुग्ध-धवल साड़ी से होंठ का रंग पोंछ कर उसका रंग ही बदल दिया था स्वरुप ने। माँ के गर्जन-तर्जन को स्वरुप बाहर से ही सुनता रहा। उसे मालूम था पापा के आने तक माँ शांत पड़ जाएगी।
घड़ी में नौ बजते ही स्वरुप घर की ओर हो लिया। आंगन में घुसते ही देखा पिता जी हाथ-मुंह धो रहे हैं और मां उसी की गाथा सुना रही हैं। स्वरुप को देखकर पिता जी गुस्साये- ‘‘इतनी रात को घर आने का वक्त है तुम्हारा?’’
‘‘उसके पहले आता तो माँ मारती नहीं? आप जो नहीं थे बचाने को।’’ स्वरुप ने जवाब दिया।
भोलेपन से भरी बात पर पिता जी मुस्कुरा पड़े।
‘‘बस मुस्कुराते जाइये आप मालूम है जब देखो तब लड़कियों की तरह सजता रहता है।’’ मां बोली।
पिताजी गंभीर हो गये- ‘‘क्यों स्वरुप, क्या सुन रहा हूँ?’’
‘‘मुझे ऐसे रहना अच्छा लगता है पिताजी।’’ स्वरुप मचला।
‘‘नहीं बेटे, ये अच्छी बात नहीं है।’’ पिता जी के माथे पर त्यौंरियाँ देख स्वरुप कुछ नहीं बोला।
खाना खाकर बिस्तर पर सोते हुए स्वरुप को याद आया जब पहली बार उसने रीना का फ्राक पहना था। रीना उसकी चचेरी बहन थी। और अक्सर उसके यहां रुक जाया करती थी। फ्राक पहनकर अपनी छवि शीशे में देखकर उसे ऐसा लगा जैसे यही उसका अपना रुप है। उसे लगा उसके अंदर स्वरुप नहीं स्वरुपा है। उसका नन्हा मन समझ नहीं पाया कि उसके अंदर ये भावनाएं क्यों हैं?
27 मई 1996
‘‘स्वरुप खाना ठंडा हो रहा है।’’ माँ की आवाज से बाल झाड़ते स्वरुप के हाथ रुक गये। ‘‘मां भी न, अपने बालों की लटों को सुलझाते हुए उसने सोचा। उसके बाल इतना बढ़ा लेने पर कितना नाराज हो उठीं थीं। लेकिन स्वरुप को अपने रेशमी बालों को छूना बहुत अच्छा लगता था। परसों बाबा भी स्वरुप को देखकर पूछने लगे थे,
‘‘शेव करते हो या नहीं?’’
‘‘बाबा अभी शेव के लिए दाढ़ी कहां है?’’ उसने जवाब दिया।
‘‘क्यों तू तो अब वोट देने लायक हो गया है? डाक्टर को दिखाना पड़ेगा क्या?’’
स्वरुप ने कोई जवाब नहीं दिया। उसे नहीं चाहिए दाढ़ी-वाढ़ी। उसे तो अपने चिकने गाल ही पसंद हैं। जब कालेज की लड़कियां उसे कहती हैं – ‘‘हाय क्यूट’’ तो कितना अच्छा लगता है। स्वरुप अपनी किताबें संभालने लगा। इस समय तो सबसे जरुरी है उसकी शिक्षा और स्वरुप पूरा मन लगा रहा है पढ़ने में । इसलिए तो उसकी विचित्र आदतें सह रहे हैं उसके माँ-बाप। विचित्र, मां के शब्दों में। स्वरुप को तो कुछ भी विचित्र नहीं लगता है अपने में, लेकिन मां है कि उन्हें चिंता खाए जा रही है। बाबा को लगता है कुछ गड़बड़ है। कल रात मां को बाबा से बात करते उसने खुद सुना था।
‘‘सुनते हो जी, स्वरुप के रंग ढंग आमा के भालो लागछेना’’ मां यूं तो अच्छी हिन्दी बोलती थीं, क्योंकि छब्बीस साल से दिल्ली में रह रही थीं। पर अब भी परेशान होने पर जन्मस्थान की भाषा मुंह पर आ ही जाती थी।
‘‘क्या लगता है तुम्हें स्वरुप की माँ?’’ पिता ने पूछा।
‘‘देखो न बाल बढ़ाए हैं। जींस, टॉप भी लड़कियों की तरह पहन रहा है। गाल भी चिकने हैं। गौर से देखो तो लड़की ही लगता है।
‘‘तुमने ठीक से देखा था। लड़की ही तो नहीं था जन्म के समय?’’
पिताजी मुस्कुराए। ‘‘किसी डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा क्या?’’
‘‘हाँ और क्या?’’
आगे स्वरुप सुन न सका, क्योकि दरवाजा बंद हो गया था।
25 जुलाई 2003
‘‘स्वरुप जाते समय दही का टीका कराता जा।’’ माँ की आवाज सुन वह मुस्कुरा उठा। बहुत खुश है माँ। क्यों नहीं होगी आज उसका बेटा लेक्चरर जो बन गया है। डॉ. स्वरुप चटर्जी, पी.एच.डी. अंग्रेजी साहित्य। जैसा भी है, माँ बाप का नाम तो रोशन किया ही है। पिता भी नौकरी की खबर पाकर खुश हुए थे। शाम को घर आने पर खाने बैठा तो पिताजी भी थे। बाप मां ने शुरु की।
‘‘बेटा अब तेरी उम्र हो गई, नौकरी भी पा गया। शादी के बारे में?’’
‘‘शादी, क्या कहती हो मां? मेरी शादी की इच्छा नहीं है।’’
‘‘हे भगवान जरा भी मेरी परवाह नहीं करता ये लड़का। बूढ़ी हो रही हूँ, कब पोते का मुंह देखूंगी।’’ माँ आर्तनाद करने लगी। स्वरुप खाना छोड़कर उठनेलगा तो पिता के गंभीर रुख ने उसे टोका – ‘‘देखो स्वरुप मैं जानता हूँ तुम कुछ अलग सोचते हो। लेकिन हमारे बारे में भी तो सोचो।’’
‘‘पिता जी, मैं आपको बता चुका हूँ कि मैं खुद को क्या बताऊँ?’’ उसके स्वर में विवशता थी। पिता जी कुछ नहीं बोले। रात को फिर उसका मन विचारों में गोते खाने लगा। कैसे कहे पिता से कि वह अपने को नॉर्मल पुरुष नहीं समझता। कैसे कहे कि शीशे के सामने उसका मन एक स्त्री की तरह सजने की गुहार करता है। कैसे कहे कि वह रात में स्त्री के आंतरिक वस्त्रों में खुद को सजा कर निरखता है। कैसे कहे कि रात को नारी श्रंगार अपने चेहरे पर करके खुद को मुग्ध होकर देखता है। क्या कहे स्वरुप कुछ समझ नहीं पाता। वो ये भी नहीं बता पाया कि वो डॉक्टर के पास गया था। लेकिन डॉक्टर ने उसमें सब नार्मल पाया और उसे मनोवैज्ञानिक के पास जाने की सलाह दी जिसे वह अभी तक अमल में ला नहीं पाया है। उसने फैसला किया कि वो एक दो दिन में डॉक्टर के पास जायेगा।
29 अक्टूबर 2003
‘‘स्वरुप घर की चाबी संभालकर रखना। कॉलेज में छूट ना जाए कहीं। मां का दिशा निर्देश सुनते ही स्वरुप मुस्कुरा उठा। मां और पिता मौसी के यहां शादी में क्या जा रहे हैं, मां को लगता है कि उनकी बरसों से जमाई गृहस्थी को स्वरुप बिगाड़ डालेगा। जबसे टिकट कनफर्म हुई है, माँ उसे सैकड़ों हिदायतें दिये जा रही है। बाबा और मां को ट्रेन में बिठाकर स्वरुप सीधे कॉलेज ही गया। सुबह की ट्रेन थी जो कल सुबह अपने गंतव्य पर पहुंच जाएगी। शाम को घर लौटकर देखा तो माँ जो अपने लिए ट्रेन का खाना बनाकर ले गई थी उसमें से ही उसके लिए भी टेबल पर रख गई थी। स्वरुप खाने बैठा तो टी.वी. चला लिया। खाते हुए चैनल बदल रहा था। अचानक आज-तक पर ब्रेकिंग न्यूज में देखा ट्रेन दुर्घटना में सैकड़ों की मौत। ट्रेन का नाम देख कर उसे चक्कर सा आ गया। ये तो मां-बाबा वाली ही ट्रेन थी।
फिर शुरु हुई भाग-दौड़ और पूछताछ जो पोस्टमार्टम हाउस के गीले फर्श पर पड़े मां-बाबा के शव के पास खत्म हुई। अंतिम संस्कार करके लौट वह बिस्तर पर लेट गया। मस्तिष्क, हृदय जो इतने बड़े आघात से शून्य हो गया था, अचानक हाहाकार कर उठा। आंखों से पिघलते आंसुओं में बस एक ही प्रश्न था अब अकेले कैसे रहेगा वो? पूरे ब्रह्मांड में दो ही प्राणी तो उसके अपने थे, जिनकी इच्छाओं के अनुरुप जीना चाहता था वो। क्या करे वो? रात के अंधेरे में नींद की चादर ने उसके अनिश्चिय को ढक लिया।
6 मई 2004
बिस्तर पर लेटा स्वरुप करवटें बदल रहा है। कल मनोवैज्ञानिक के पास काउसिलिंग से आने के बाद से वो सोच ही रहा है। वह खुद के अंदर खुद की खोज कर रहा है और बराबर स्वरुप की जगह शतरुपा को ही पा रहा है। स्वरुप को शतरुपा में बदलने की चाहत बढ़ती ही जा रही है और इस आग को हवा दे रहा है-सुवीर के प्रति उसका प्रेम। उसे आज भी याद है वो दिन जब वो पहली बार सुवीर की दुकान पर गया था। उसे इलेक्ट्रानिक गुड्स की दुकान दिखाई पड़ी थी जहां उसने बल्ब मांगा था।
‘‘कितने पावर का चाहिए?’’ जिसने पूछा था वो चेहरा वह देखता ही रह गया। बल्ब लेकर निकलते समय भी उसकी धड़कने कम नहीं हुईं थीं। फिर तो अक्सर कभी बल्ब तो कभी वायर-स्विच लेने वहां जाने लगा। सुवीर भी उसे नियमित ग्राहक देखकर खूब बातें करने लगा था और धीरे-धीरे उनमें दोस्ती बढ़ने लगी। जब स्वरुप ने मन में झांका तो उसे लगा कि ये दोस्ती नहीं उसका अभीष्ठित प्रेम है। ये कोई समलैंगिक प्रेम नहीं था। ये तो चाहत थी उस शतरुपा की जो सुवीर को अपने प्रेमी के रुप में पाना चाहती थी। सुवीर का मांसल सुडौल शरीरउसे अपनी ओर खींचता था, लेकिन वो शतरुपा के रुप में ही उसे पाना चाहता था। उलझन में भरा स्वरुप खुद को शीशे में देखने लगा। साइकियाट्रिस्ट सिमरन की बातें उसे याद आने लगीं। मि. चटर्जी अगर आप इतने ही डिटरमिंड हैं कि आपको शतरुपा ही बनना है तो पहले दुनिया से लड़ने को तैयार रहिए। लोग आपको रिडिक्यूल करेंगे। लेकिन जितनी जल्दी आप अपने को मजबूत कर लेंगे उतना ही अच्छा होगा। इसके लिए पहले आपको अपना बाहरी व्यक्तित्व बदलना होगा। शतरुपा लगना है तो शतरुपा की ही तरह रहना शुरु कर दीजिए। अगर इनीशियल स्टेज के इस प्रेशर को आप पार कर लें तो आगे आपको कोई परेशानी नहीं होगी। हाँ, स्वरुप ने सोच लिया है। अब वो शतरुपा के रुप में ही रहेगा। हंसने दो दुनिया को वो अपने मन को दबाते-दबाते तंग आ गया है।
2 जुलाई 2004
‘‘हैलो स्वरुप, हाऊ और यू? आरै शुड आई से शतरुपा?’’ मिसेज यमसनवार अपनी खुशनुमा आवााज में चिंघाड़ीं।
‘‘कुछ भी कह सकती हैं। आई डोंट माइंड।’’ स्वरुप का ये जवाब उसके आत्मविश्वास का द्योतक है। वो आत्मविश्वास जो आज से दस दिन पहले शतरुपा बनकर नहीं आया था। क्लास के बच्चों ने उसे भौंचक होकर देखा। एक दो ने तो सीटी भी मारी। फिर जब वह पढ़ाने लगा तो सब तन्मय होकर सुनने लगे। यही तो खासियत है उसमें। अपने विषय का विराट ज्ञान है और कहने का तरीका इतना अच्छा कि उसकी उपेक्षा की ही नहीं जा सकती। फिर जब मैनेजमेंट की मीटिंग में उसे बुलाया तो उसने कह दिया-‘‘मैं अपने को नहीं बदल सकता। यही मेरा असली रुप है जहां तक कर्तव्य की बात है, मैं बच्चों को अच्छी तरह पढ़ाता हूँ। विषय का विस्तृत ज्ञान रखता हूँ। एक शिक्षक की सभी आवश्यकताएं पूरी करता हूँ। ये मेरी पर्सनल बात है। अगर आप चाहते हैं तो मैं कालेज छोड़ सकता हूँ, लेकिन मैं इसी तरह रहूँगा।’’ उसकी दृढ़ता का प्रभाव हो या अच्छा शिक्षक ना मिल पाने की विवशता, कालेज में फिर कभी परेशानी नहीं हुई। घर आकर सूने कमरे में बैग रखते ही सोचा अगर मां रहती तो वो ये सब नहीं कर पाता। एक पड़ाव तो पार कर लिया है अब दूसरा बाकी है।
15 सितम्बर 2004
ताला खोलते स्वरुप का हाथ रुक गया। आज नौ महीने हो गये, डॉ मनोज अग्रवाल को दिखाते हुए। अपने अंदर तड़पती हुई शतरुपा को मुक्त कराने के प्रयास में ही तो उसे डॉ साहब का पता मिला था जो सेक्स चेंज  आपरेशन के विशेषज्ञ माने जाते हैं। उसके बाद से तो टेस्ट और काउसिलिंग का दौर चल रहा है। इलेक्ट्रोलिसिस से तो थोड़े बहुत चेहरे के बाल हट ही चुके हैं। अब बस दस दिन बचे हैं आपरेशन होने में। अभी तक सुवीर को मन की बात नहीं बताई है उसने। आपरेशन की बात वो जानता है। लेकिन क्यों वो इसकी तीव्र इच्छा रखता है। ये अभी तक उसे नहीं पता है।
ताला खोलकर अंदर आ गया वह। फ्रिज से ठंडा पानी पीते हुए उसने सोचा अब ज्यादा दिन अकेले नहीं रहना पड़ेगा। आपरेशन के बाद कुछ ही महीनों में ठीक हो जायेगा। फिर सुवीर के साथ अपना घर बसायेगा वो।
‘‘अपना घर’’ माँ किस गर्व से कहती थी। अब समझ में आता है कि क्यों औरत अपने घर के पीछे पागल हो उठती है। माँ की याद आते ही आंखों में पानी भर आया। माँ तुम क्यों नहीं समझ पाई मुझे? इसमें मेरा क्या दोष? इस तरह पैदा करने के लिए मैने तो ईश्वर से नहीं कहा था और अगर ऐसा हूँ तो क्यो अपने को सात तालों में बंद करके रखूँ अभिशाप की तरह। मैं ताले खोलकर सामने आना चाहता हूँ। समाज को समझाना चाहता हूँ कि हमारे जैसे लोग भी उसी का एक अंग हैं। हमें भी खुले दिल से स्वीकारो, मान्यता दो।
25 सितम्बर, 2004
आज स्वरुप का आपरेशन है। सफल होने पर पा जाएगा मनचाहे स्वरुप को। सुवीर भी साथ आया था अस्पताल, उसे छोड़ने। ऑपरेशन टेबल पर लिटाए जाने तक हाथ पकड़े हुए था वो। बेहोश होने तक सोचता रहा था- ‘‘वो आएगा तो शतरुपा के रुप में।’’ ऑपरेशन टेबल पर मुस्कुरा कर डाक्टर ने उसका साहस बढ़ाया। ‘‘बस कुछ घंटो की बात है आज तो मिस चटर्जी ही कहूँगा।’’ स्वरुप मुस्कुराया।
17 अक्टूबर, 2004
‘‘आज आपको रिलीज कर देंगे।’’ नर्स ने प्रेशर लेते हुए कहा। स्वरुप आनंद से मुस्कुरा दिया। ओ स्वरुप नहीं शतरुपा, अब तो शतरुपा है वो। ऑपरेशन शत-प्रतिशत सफल हुआ है। उसकी प्रगति से डॉक्टर भी फूले नहीं समा रहे थे। आखिर फिर एक सफलता हाथ लगी है उन्हें । ब्रह्मा की सृष्टि में उन्होंने भी एक निर्माण किया है। खुद ईश्वर की कृति को नर से नारी में बदला है, शायद खुद को विधाता से कुछ कमतर ही आंक रहे हैं वो। थोड़ी ही देर में सुवीर आकर ले जाएगा। शतरुपा को उसके घर। फिर वो सुवीर से मन की बात कहेगी। कहेगी कि वो उससे प्यार करती है और उसका घर बसाना चाहती है वो।
‘‘नमस्ते, मैं गौतम हूँ, सुवीर का दोस्त। उन्होंने आपको लेने के लिए मुझे भेजा है। वो व्यस्त है, आपसे घर पर मिलेंगे।’’ नई आवाज ने उसका ध्यान तोड़ा। सुवीर कल भी नहीं आया था, लेकिन गौतम से कुछ पूछने का मन नहीं हुआ। सामान लेकर गौतम ने उसे घर पहुँचाया और उसकी सारी व्यवस्था भी की। फिर विदा लेकर चलने लगा। ‘‘आपको कुछ जरुरत तो नहीं?’’
‘‘नहीं, कोई जरुरत हुई तो फोन है ही।’’ शतरुपा बोली। ‘‘धन्यवाद।’’
‘‘धन्यवाद की कोई जरुरत नहीं।’’ इतना तो लोग एक दूसरे के लिए करते ही हैं।’’ गौतम चला गया।
आहत हृदय की अभिलाषायें आसुओं के रुप में उसकी आंखों से निकल पड़ीं। क्यांे नहीं आया सुवीर? लेकिन थका शरीर जल्दी ही नींद के थपेड़ों में झूलने लगा।
18 अक्टूबर 2004
शतरुपा के कान सुवीर की आवाज सुनने को बेचैन हैं। न कोई फोन और उसने किया तो मोबाइल स्विच ऑफ आ रहा था। फिर भी उठकर अपने को तैयार किया। अपने रुप पर जैसे खुद ही मुग्ध हो रही थी। उसने आज गुलाबी साड़ी पहनी थी, हल्का मेकअप किया था तभी कॉलबेल बज उठी। उसने दरवाजा खोल दिया। सामने सुवीर था। साड़ी में लिपटी एक सुन्दर स्त्री के साथ।
‘‘आओ कामिनी। स्वरुप क्षमा चाहता हूँ दो दिनों से तुम्हें कान्टेक्ट नहीं कर पाया।’’
शतरुपा की आहत आंखें, उसकी ओर उठीं, ‘‘अभी भी स्वरुप?’’ लेकिन उसने कुछ नहीं कहा।
‘‘कामिनी इनसे मिलो। मेरे प्यारे दोस्त, बताया था ना और मेरी पत्नी कामिनी।’’ सुवीर के शब्द जैसे पिघले लोहे की तरह शतरुपा के कानों में उतरने लगे। उसने सोफे का हैंडल पकड़ लिया।
क्या हुआ कमजोरी लग रही है क्या?’’ सुवीर ने उसे मजबूत बाहों में संभाला। शतरुपा ने कुछ कहना चाहा मगर शब्द आंसुओं और हिचकियों में डूब गये।
19 अक्टूबर 2004
आज शतरुपा को लग रहा है कि सबकुछ बालू भरी मुट्ठी की तरह फिसलता जा रहा है। इसी डिप्रेशन में उसकी नौकरी भी जाती रही।
2 जनवरी, 2005
शतरुपा ने एक महीने हॉस्पिटल में रहने के बाद अपने को समेटते हुए फिर जीवन चक्र में वापस आने का फैसला किया। ….. स्वरुप से शतरुपा बनने में जो दृढ़ता दिखाई थी उसने, उसी दृढ़ता को अपने खंडित प्रेम को समाज सेवा में बदलने में दिखाई और समाज के ऊँचे पायदान पर खड़ी शतरुपा, कभी स्वरुप और कभी शतरुपा के अंतर्द्वन्द में झूल रही थी, कौन विश्वास कर सकता है?ये परिवर्तन नर से नारी का था। ये प्रत्यावर्तन था साहस की ओर बढ़ते पगतलों का। शतरुपा ने दरवाजे का ताला बंद करते हुए घड़ी की सुई पर दृष्टि डाली। ओह, ग्यारह बज गए। और शतरुपा के कदम धारावी की झोपड़ पट्टी की ओर बढ़ गए जहां अनगिनत बच्चे उसकी एक झलक पाने को बेचैन थे। शिक्षा के सोपान पर इन बच्चों को खड़ा करने का गुरुतर दायित्व अब शतरूपा के मजबूत कन्धों पर था .


1 टिप्पणी

  1. एक बहुत अलग सी कहानी है, और बहुत सुंदर तरीके से पिरोई हुई।
    तिथियों से इतिहास का आभास होता है और सच्चाई का धरातल भी मिलता है। कही एक शंका होती है कि स्वरूप ने सुवीर के विचार जाने बिना ही अपनी आशाओं को क्यों पनपने दिया।वो साहित्य का डॉक्टर हैI और साहित्य ऐसा विवेक अवश्य देता है।
    पर अंत बहुत ही सुंदर और सार्थकता की ओर ले जाता है। आपकी कहानी अंत तक बांधे रखती है।बधाई व शुभेच्छाएँ!!

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